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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. इस पाठ्यपुस्तक में आचार्यश्री के धरा पर अवतरण, दिव्य चेतना की प्रासि से लेकर आचार्य पद की प्राप्ति तक की यात्रा है। एक आचार्य के रूप में इतने बड़े संघ के संचालन की नीति, सरल हृदयी परंतु दृढ़ अनुशासक की उनकी भूमिका और आगम के अनुरूप श्रेष्ठतम आचरण पर प्रकाश डाला गया है। उनका बाह्य व्यक्तित्व जितना आकर्षक एवं सौम्य है उतना ही आभ्यन्तरीय व्यक्तित्व भी निर्मल एवं पवित्र है। मर्यादा पुरूषोत्तम कुशल साधक के रूप में उनके जीवन का यह हिस्सा सामान्य श्रावक ही नहीं वरन समस्त साधु समाज के लिए भी प्रेरणा और चिंतन का विषय है। संस्मरणों के माध्यम से आचार्यश्रीजी के अन्तरंग की साधना को जिस तरह से प्रस्तुत किया गया है वह भावुक पाठकों के हृदय में सीधे उतर कर सच्चरित्री बनने की प्रेरणा देती है। कैसी लगी आपको यह पुस्तक - आप अपने अनुभव मीचे कमेंट में जरूर लिखे |
  2. आजकल कुछ स्वाध्याय प्रेमी लोग प्रथमानुयोग के ग्रंथों को महत्त्व नहीं देते। वे यह कहकर टाल देते हैं कि किस्सा-कहानी मे क्या रखा है, अध्यात्म ग्रंथ ही पढ़ना चाहिए जिसमें आत्मा की चर्चा हो। लेकिन पूर्वाचार्यों के अनुसार सबसे पहले चारों अनुयोगों में प्रथमानुयोग को ही रखा है। इसी बात को लेकर किसी साधक ने आचार्य श्री जी से शंका व्यक्त करते हुए कहा कि- प्रथमानुयोग किसे कहते हैं एवं इसे सबसे पहले क्यों रखा? तब आचार्य श्री जी ने समाधान देते हुए कहा कि- जिसमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का वर्णन, आख्यान हो उसे प्रथमानुयोग कहते हैं। अनुयोग का अर्थ द्वार होता है, द्वार का अर्थ होता है खोजने का/जानने का माध्यम प्रथम का अर्थ प्रधान होता है, जो व्यापक हुआ करता है, उसे प्रधान कहते है। आत्मकल्याण का उद्देश्य रखकर प्रथमानुयोग पढ़ना-पढ़ाना सुनना -सुनाना चाहिए। संवेगनी और निर्वेदनी कथा प्रयोजन भूत है उसे हमेशा याद रखना।
  3. इसमें आचार्य श्री विद्यासागरजी द्वारा इन पचास वर्षों में अपने गुरु आचार्य श्री ज्ञानसागरजी को जिन-जिन रूपों में स्मरण किया गया है, उन विषयों को १o अध्याय के रूप में बाँटा गया है। एक दिव्य पुरुष आचार्य श्री विद्यासागरजी का निर्माण जिनके द्वारा हुआ है ऐसे अलौकिक पुरुष आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज को वह जिस समर्पित भाव से एवं याचकभाव से स्मरण करते हैं, वे भाव आत्मा को स्पन्दित कर देते हैं। जिनको पूरी दुनिया भगवानतुल्य मानती है, वो स्वयं अपने गुरु का गुणगान करते नजर आते हैं तो युगों-युगों से चली आ रही भारत की गुरु-शिष्य परंपरा जीवंत हो जाती है। कैसी लगी आपको यह पुस्तक, अपने अनुभव नीचे जरूर लिखे |
  4. सन् 2005 में बीना बारहा अतिशय क्षेत्र पर चातुर्मास चल रहा था। रविवारीय प्रवचन के दिन गुरुवर के साथ सारा मुनि संघ विराजमान था। जब शास्त्र दान का समय आया तब मंच संचालक ने एक श्रावक श्रेष्ठी को आमंत्रित करते हुए कहा कि- आप आयें और आचार्य श्री जी के कर कमलों में शास्त्र भेंट करें। तब आचार्य श्री जी ने हम सभी मुनिराजों की ओर हाथ का इशारा करते हुए कहा- आप लोग इन श्रावकों को बता दिया करो कि शास्त्र भेंट नहीं किया जाता, बल्कि दान किया जाता है। मुनिराजों को श्रीफल भी भेंट नहीं किया जाता बल्कि चढ़ाया जाता है, अर्घ की भांति अर्पित-समर्पित किया जाता है। तब मैंने गुरुवर से शंका व्यक्त करते हुए कहा- हे गुरुवर! भेंट और दान में क्या अंतर होता है? स्पष्ट करने की कृपा करें। तब गुरुवर ने शंका का समाधान करते हुए कहा कि- जो लेते हैं उनके लिए देना भेंट कहलाता है जैसे- राजा, मेहमान, मित्र आदि को वस्तु देना। ज़ो कुछ लेते नहीं हैं, उन्हें देना दान कहलाता हैं। जैसे मुनिराज आदि को आहारादि दान देना। मुनिराजों को श्रीफल आदि भेंट नहीं किया जाता बल्कि उनके श्री चरणों में चढ़ाया/समर्पित किया जाता है। शास्त्र भी उन्हें भेंट नहीं करते बल्कि शास्त्र का दान या शास्त्र प्रदान किया जाता है।
  5. आचार्य श्री जी से किसी व्यक्ति ने शंका व्यक्त करते हुए कहा कि- स्वाध्याय प्रेमियों से सुनने को मिलता है कि- अभिषेक, पूजन, दान आदि से पुण्य कर्म का बंध होता है, इसलिए इन्हे हेय बुद्धि से करना चाहिए। तो हे गुरुवर! आप यह बताने की कृपा करें कि पूजन कौन-सा तत्त्व है? क्या पूजन करने से मात्र बंध ही होता है? तब आचार्य श्री जी ने कहा कि- पूजन संवर तत्त्व का कारण है, शुभ कर्म का बंध भी होता है लेकिन जो पूजन को हेय (त्याज्य) मानता है, वह आस्रव का समर्थन करने वाला तथा मिथ्यात्व का पोषण करने वाला है। एक जगह आचार्य समंतभद्र स्वामी जी कहते है कि- हे भगवन्! मुझे गुप्ति नहीं समिति चाहिए, मैं आपकी भक्ति, पूजन के माध्यम से पार हो जाऊँगा। पूजा को केवल बंध का कारण कहना यह कौन से शास्त्र में और कहाँ लिखा है? बताओ। साक्षात् मुक्ति के लिए तो आत्मध्यान करना है लेकिन उसके पहले भक्ति-पूजन कही गयी है। आत्मध्यान तक पहुँचने के लिए तो भगवान् की भक्ति आदि संवर–निर्जरा का कारण रूप है उसे अपनाना होगा। आगम में लिखा है कि - " एकस्याकारणे अनेक कार्या भवति–'वन्हिवत्' ।” अर्थात् पूजा आदि के द्वारा प्रशस्त प्रकृतियों का अनुभाग बंध अधिक होता है, तथा अप्रशस्त प्रकृति का अनुभाग बंध मंद होता है। शुद्धोपयोग प्राप्त करने का एक मात्र उपाय है तो वह है शुभोपयोग।
  6. सल्लेखना का प्रकरण चल ही रहा था कि किसी ने आचार्य श्री जी से शंका व्यक्त करते हुए कहा कि- कषाय सल्लेखना देखने में तो आती है लेकिन कषाय सल्लेखना को कैसे समझे? तब आचार्य श्री ने कहा कि- कषाय सल्लेखना तो अंतरंग के परिणामों से होती है इसे तो करने वाला ही समझ सकता है। पुनः शंका व्यक्त करते हुए कहा कि यदि कोई कषाय न करते हुए मात्र काय सल्लेखना कर ले तो क्या परिणाम होगा? इस शंका का समाधान करते हुए आचार्य श्री जी ने कहा कि- जैसे एक सर्प ने कांचुरी का तो त्याग कर दिया लेकिन जहर का त्याग नहीं किया तो परिणाम यह निकलेगा कि वह निर्विघ्न नहीं हो पाएगा।
  7. निरन्तर राग-द्वेष में लिप्त रहने वाला संसारी प्राणी भयभीत बना रहता है। कहीं मरण का भय, कहीं धन एवं स्वास्थ्य की हानि का भय, कहीं असफलता का भय तो कहीं पद-प्रतिष्ठा छिन न जाए इसका भय निरन्तर प्राणियों को लगा रहता है। जहाँ देखो वहा भय ही भय है। आचार्य श्री जी ने एक दिन समयसार की कक्षा में बताया कि सम्यग्दृष्टि सात भयों से मुक्त होता है। उसे इहलोक, परलोक, मरण, अरक्षा, अत्राण, आकस्मिक, अगुप्ति रूप किसी भी प्रकार का भय नहीं होता है। किसी ने शंका व्यक्त करते हुए कहा कि- बहुत सारे लोग अपने आपको धर्मात्मा एवं सम्यग्दृष्टि मानते है। लेकिन फिर भी उन्हें भय सताता रहता है। तब आचार्य श्री ने कहा कि यहाँ पर उस सम्यग्दृष्टि की बात कहीं जा रही है जो वैरागी हो। क्योंकि "वैराग्यमेवाभयं” वैराग्य ही अभय है। तब मैंने आचार्य श्री से पूछा कि- हे आचार्य श्री! आपसे बात करने में जो भय लगता है वह सात भयों में से कौन से भय में आता है। तब आचार्य श्री जी ने मुस्कुराते हुए कहा कि- यहाँ पर एक महाराज बैठे हैं, वे कह रहे हैं कि महाराज आपसे बात करने में भय लगता है और खुली मंच पर बात कर रहें हैं। फिर भी बता देता हूँ। वो डर न जावे गुरु से बात करते समय डरना ही चाहिए यह गुरु का बहुमान एवं आदर' कहलाता है। यह विनय है, मर्यादा है, कहीं अनर्थ शब्द न निकल जावें यह पाप भीरूता है। कहा भी है "भोग में रोग का भय है, सुख में क्षय का भय है, धन में अग्नि का और राजा का भय है, दास में स्वामी का, विजय में शत्रु का, कुल में कुलटा स्त्री का, मान में मलीनता आने का, गुण में दुर्जन का भय है, शरीर में मृत्यु का इसी प्रकार सभी में भय है परन्तु आश्चर्य है, वैराग्य में अभय है।" आचार्य श्री जी स्वयं भय रहित होते हुए हम सभी को भय रहित होने की शिक्षा दे रहे हैं। भय रहित होने का उपाय भी बता रहे हैं। जहाँ पर भय होता है वही पर आपत्तियाँ आती हैं और जहाँ वैराग्य आ जाता है वहाँ पर विपत्तियाँ भी सम्पत्तियाँ बन जाती हैं। इसलिए वैराग्य को धारण कर जीवन को भय से मुक्त कीजिए।
  8. किसी सज्जन ने आचार्य श्री जी से शंका व्यक्त करते हुए कहा कि- कुछ लोग व्रत लेकर छोड़ देते हैं या उनके व्रतों में शिथिलता आ जाती है। ऐसा किस कारण से होता है ? तब आचार्य श्री जी ने कहा कि- मुख्य कारण तो इसमें चारित्र मोहनीय का उदय रहता है। दूसरा स्वयं की पुरुषार्थ हीनता भी काम करती है। उन्होंने एक उदाहरण देते हुए समझाया कि जैसे कोई व्यक्ति मोटरसाईकल शोरूम पर जाकर उत्साह के साथ बढ़िया कम्पनी की एक मोटरसाईकल बड़े उत्साह के साथ खरीदकर लाता है। उसमें थोड़ा-सा पेट्रोल डला रहता है। जब गाड़ी चलाते-चलाते रिजर्व लग जाता है तो उसमें पुनः पेट्रोल भरना पड़ता है लेकिन इस बात का ज्ञान उस व्यक्ति को नहीं था वह मोटरसाईकल को शोरूम पर वापिस करने पहुँच जाता है। वह दुकानदार देखता है और कहता है इस गाड़ी में कोई खराबी नहीं है। बस पेट्रोल भरवा लो। ठीक इसी प्रकार व्रत नियम लेने के उपरांत जो व्यक्ति साधु संगति, स्वाध्याय, बारह भावना आदि का चिंतन नहीं करता उसके व्रत छूट जाते हैं या उनमें शिथिलता आ जाती है। एक बात हमेशा याद रखो- व्रत, नियम गाड़ी की तरह होते हैं और साधु संगति, भावना आदि पेट्रोल का काम करते हैं। इस संस्मरण से हमें शिक्षा मिलती है कि व्रत, नियम लेने के बाद गुरु के पास आते-जाते रहना चाहिए और प्रत्येक व्रत की पाँच-पाँच भावनाओं को हमेशा याद करते रहना चाहिए एवं निरन्तर स्वाध्याय करते रहना चाहिए।
  9. धन एवं ज्ञान दोनों का सदुपयोग करने वाला बहुत सशक्त होता है। निर्जरा का स्रोत खोलना ज्ञान के सद्भाव में बहुत ही गजब खोपड़ी का काम होता है। उस समय अपना उपयोग बहुत सम्हाल के काम करना होता है इसको प्रत्येक व्यक्ति प्राप्त करने के लिए समर्थ नहीं हो सकता है। धार्मिक अनुष्ठान मात्र कर्म निर्जरा के लिए होता है। जितना अधिक तप किया जाएगा उतनी ही विशेष कर्म निर्जरा बढ़ती जाती है। तब कभी भी लौकिकदृष्टि फल प्राप्ति के लिए नहीं किया जाता तो फिर स्वाध्याय को लौकिक दृष्टि से करने से क्या लाभ? आजीविका के लिए स्वाध्याय कभी भी नहीं करना चाहिए। अर्थ प्राप्ति के लिए तो बहुत से लौकिक कार्य हैं। धार्मिक अनुष्ठान कभी भी अर्थ प्राप्ति हेतु नहीं करना चाहिए किन्तु धर्म की प्राप्ति के लिए तप स्वाध्याय आदि करना चाहिए। किसी ने आचार्य श्री जी के समक्ष शंका रखते हुए कहा कि कुछ प्रवचनकार ऐसे हैं जो किसी नगर या गाँव में पर्युषण पर्व आदि में प्रवचन करने जाते हैं तो विदाई के समय टीका (पैसा) की कामना करते हैं तो क्या यह उचित है? आचार्य श्री जी ने कहा कि- कोईभी धार्मिक क्रिया लौकिक फल की इच्छा को लेकर नहीं की जाती बल्कि कर्मों के संवर या निर्जरा के लिए की जाती है। मुक्ति की इच्छा करना मिथ्या इच्छा नहीं कहलाती। निर्जरा के लिए की गई इच्छा-इच्छा नहीं मानी जाती किन्तु भोग के लिए जो इच्छा होती है। वही इच्छा वांछा मानी जाती है। जिनवाणी को माध्यम बनाकर व्यवसाय करना यह मिथ्या मार्ग है क्योंकि जिन्होंने सारे संसार संबंधी व्यवसाय से अपने आपको बचाने के लिए जिनवाणी की शरण ली और यदि उसी से व्यवसाय करने लगे तो फिर व्यवसाय की परंपरा कभी नहीं छूट सकती और संसार की परम्परा टूट नहीं सकती, कल्याण मार्ग को हम कभी पकड़ नहीं पायेगें। श्री कुन्दकुन्द भगवान् ने समयसार व्यवसाय के लिए नहीं लिखा है, किन्तु उन व्यवसाय संबंधी अध्यवसानों को मिटाने के लिए लिखा। जिस वक्ता की आजीविका श्रोताओं पर आधारित है, वह कभी भी सत्य का उद्घाटन नहीं कर सकता। सत्य का उद्घाटन करने के लिए बहुमत की कभी भी ओट नहीं लेना चाहिए। सत्य के लिए चुनाव नहीं करना चाहिए अन्यथा सत्य का बहुमान समाप्त जायेगा। सत्य के लिए बहुमत की नहीं, किन्तु बुधमत (बुद्धिमानों) की आवश्यकता होती है। मोक्षमार्ग में जो भी प्रवचन करते हैं, वे परमार्थ के लिए करें, अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए नहीं। सांसारिक लोभ, लिप्सा से रहित होकर उपदेश देना चाहिए।
  10. तपस्या के माध्यम से शरीर को कष्ट पहुँचता है इसलिए कई लोगों की धारणा है कि आत्मा की चर्चा की जाये शरीर तो जड़ है। इसे कष्ट देने से कोई धर्म नहीं होता और बाहरी तप करने से, शरीर को सुखाने से कहीं आत्मा का लाभ नहीं हो जाता। इसी बात को किसी सज्जन ने आचार्य श्री के सामने शंका व्यक्त करते हुए रखी कि- तप करने की क्या आवश्यकता है? तब आचार्य श्री ने कहा कि-भीतरी तप निर्जरात्मक है- बाह्य तप उस आभ्यन्तर तप में निमित्त कारण है। जैन दर्शन में बाह्य तप को जो महत्त्व दिया गया है वह भीतरी तप के माध्यम से दिया गया है। भीतरी तप के द्वारा ही कार्य होता है- बाह्य तप उसमें सहायक होता है। जिसको निर्जरा तत्त्व का ज्ञान हो गया वह तप करते हुए अपना काम करता जाता है। आचार्य कहते हैं कि तप के माध्यम से इतनी गहराई तक जाया जा सकता है कि मात्र एक भव ही शेष रह सकता है। उसके बाद मुक्ति की प्राप्ति हो सकती है। मन कषायों का केन्द्र है, मन कषायों का स्टोर रूम जैसा है- इस मन का निग्रह करने के लिए | आभ्यन्तर तप किये जाते हैं। मन में जो कुण्ठापन है, मन में जो कमी है, मनगत जो विकार है उनको दूर करने के लिए मन को ही धक्का देना (वश में करना) आवश्यक है। वह कमजोर मुमुक्षु माना जाता है। जो अपने मन के विकार को, मन की कमजोरी को जल्दी-जल्दी दूर करना नहीं चाहता है। जबकि प्रत्येक मुमुक्षु मन के विकार को जल्दी-जल्दी निकालना चाहता है। मन की कमजोरी निकले बिना मुमुक्षु की निर्जरा तत्त्व में वृद्धि नहीं हो सकती है। मनोभू का निरोध करने वाले के लिए मन को रोकना भी आवश्यक है। मन को रोकने पर मनोभू रुक जाता है और आप स्वयंभू बन जाते हैं।
  11. किसी सज्जन ने आचार्य श्री से शंका व्यक्त करते हुए कहा कि - ध्यान करने से क्या फायदा होता है ? तब आचार्य श्री ने कहा कि- ध्यान करने से स्वार्थ मिट जाता है एवं जीव परमार्थ की ओर बढ़ जाता है। आचार्य श्री जी ने एक संस्मरण सुनाते हुए कहा कि एक व्यक्ति ध्यान के बारे में शोध कर रहे थे। जैन-जैनेत्तर सभी ग्रथों का अध्ययन किया एवं सभी साधकों से मिलने का पुरुषार्थ किया। कन्याकुमारी से हिमालय तक गये। वह अपने पास भी आये थे। सब लोगों ने अपनी-अपनी बात रखी। मैं भी ध्यान करता हूँ। स्थान-स्थान पर गया पर ध्यान के विषय में जो उत्तर मिलना चाहिए था वह नहीं मिला। ध्यान के बारे में आपका क्या मन्तव्य है? सुख मिलेगा क्या? स्वर्गादि की प्राप्ति होगी क्या? या कोई और ध्यान का फल है? हमने कहा- ध्यान का परोक्ष और प्रत्यक्ष दो तरह का फल मिलता है। साक्षात् फल- निराकुलता की प्राप्ति होना व असंख्यात गुणी कर्म की निर्जरा होना। जिसका दृढ़ श्रद्धान हो। उसकी ही असंख्यात गुणी निर्जरा होती है। और दूसरा फल है मोक्ष की प्राप्ति होना।
  12. प्रत्येक धर्मात्मा अपना कल्याण चाहता है। ऐसे बहुत कम धर्मात्मा होते हैं, जो अपने कल्याण के साथ-साथ दूसरे के कल्याण की बात भी सोचते हैं एवं दूसरों को उपदेश देकर कल्याण पथ पर लगाते हैं। स्वोपकार के साथ परोपकार में लगा हुआ व्यवहार में श्रेष्ठ धर्मात्मा माना जाता है। दूसरों को कल्याण का रास्ता बताने के लिए समय का भी त्याग करना पड़ता है। किसी सज्जन ने आचार्य श्री से शंका व्यक्त करते हुए कहा कि धर्मात्मा वह होता है जो सभी के कल्याण की भावना भाता है फिर सभी धर्मात्मा तीर्थंकर क्यों नहीं बनते? सभी एक-दूसरे को समय भी देते हैं। इस बात को सुनकर आचार्य श्री ने समाधान करते हुए कहा- धन का त्याग करना-वचन का त्याग करना यह तो त्याग है ही किन्तु सबसे बड़ा त्याग तो है समय का त्याग करना। जड़ समय की अपेक्षा चेतन समय का आदान-प्रदान करना चाहिए। जिस प्रकार पैसे के माध्यम से पैसे की वृद्धि होती चली जाती है- ब्याज आदि के माध्यम से उसी प्रकार एक धर्मात्मा के होने से अनेक जीवों का कल्याण हो जाता है जैसे कि एक तीर्थंकर के समय में अनेक जीवों का कल्याण हो जाता है। सभी सम्यग्दृष्टियों के मन में समस्त जीवों के कल्याण की भावना नहीं होती, किन्तु कुछ विरले सम्यग्दृष्टि ही होते हैं। स्व का कल्याण करते हुए पर जीवों का कल्याण चाहना- इसके लिए अलग प्रकार की ही क्षमता की आवश्यकता होती है- इसके लिए दिशा-बोध अनुभव, अध्ययन-चिन्तन, मनन और विशुद्धि की आवश्यकता होती है, क्योंकि स्वयं के अनुभव के माध्यम से दूसरों को भी इस ओर प्रेरित करना पड़ता है।
  13. द्रव्य कर्म, भाव कर्म एवं नौकर्म ये तीन प्रकार के कर्म होते है। जीव के राग-द्वेष आदि परिणाम भाव कर्म कहलाते हैं। ज्ञानावरण आदि पुद्गल कर्म, द्रव्य कर्म कहलाते है एवं शरीरादि नौकर्म कहलाते है। नौकर्म के बिना कर्म कभी फल नहीं दे सकते। जीव के परिणाम और कर्म इन दोंनो के बीच की स्थिति है नौकर्म की। इसलिए नौकर्म पर हर्ष-विषाद नहीं करना चाहिए। नौकर्म पर हर्ष-विषाद वही करते है जो कर्म सिद्धांत को नहीं जानते। इसी बात को समझाते हुए आचार्य श्री जी ने कहा कि- नौ कर्म तो पोस्टमेन के समान है, जैसे किसी ने खत में बहुत बुरा एवं झूठा समाचार लिखकर भेजा पोस्टमेन ने वह खत हमारे घर आकर दिया, समाचार विदित होते ही क्या आप पोस्टमेन पर गुस्सा करते हैं या उस पर चिल्लाते हैं कि तूने इस प्रकार का झूठा समाचार लाकर क्यों दिया। तो आप कहेंगे नहीं मुझे पोस्टमेन पर गुस्सा नहीं आता क्योंकि पोस्टमेन तो मात्र निमित्त है बल्कि उस पर गुस्सा आता है। जिसने खत लिखा है उसी प्रकार से हमें अपने किए कर्मों पर क्रोध आना चाहिए नौकर्म तो पोस्टमेन के समान बीच की स्थिति वाला है। उस पर हर्ष-विषाद करना व्यर्थ है।
  14. जो हमेशा आत्मा में कांटे की तरह चुभे उसे शल्य कहते हैं। यह माया, मिथ्या और निदान रूप तीन प्रकार की होती है। व्रती शल्य रहित होता है। जिसके अंदर शल्य विद्यमान रहती है, उसके व्रत निर्दोष नहीं पल सकते। निःशल्य होने के लिए मन-वचन-काय में स्थिरता होना अनिवार्य है। आचार्य श्री उमास्वामी महाराज ने तत्त्वार्थसूत्र ग्रंथ में व्रती की परिभाषा देते हुए लिखा है कि शल्य रहित व्रती कहलाता है। जब तक एक भी शल्य है तब तक जीव व्रती नहीं कहा जा सकता। एक दिन सम्यग्दर्शन एवं व्रत का व्याख्यान करते हुए आचार्य श्री ने कहा कि- निःशल्य होना यह सम्यग्दर्शन का प्रतीक है और व्रती होना चारित्र का प्रतीक है। सम्यग्दर्शन के बिना लिए गए व्रत सम्यग्चारित्र में नहीं आते इसलिए निर्दोष सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के लिए निःशल्य होना आवश्यक है। उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि- जिस वृक्ष के मूल में कीड़ा लगा हो वह वृक्ष को शुष्क करता रहता है, काटता रहता है और माली ऊपर से बहुत सिंचन करता है तो वह व्यर्थ है। भौंरा आकर के कहता है-हे बागवान! तू भगवान कैसे बनेगा अर्थात् तेरा ऊपर-ऊपर पानी सिंचन करना व्यर्थ है, क्योंकि अन्दर मूल में कीड़ा वृक्ष को काट रहा है। उसी प्रकार आचार्य उन व्रतियों को सम्बोधन करते हुए कहते हैं कि अन्दर में यदि शल्य विद्यमान है और ऊपर से व्रतों को पाल रहे हो तो वह व्यर्थ है। अतः सर्वप्रथम शल्य रूपी कीड़े को निकालकर व्रत रूपी पानी से सिंचन करोगे तभी जीवन रूपी वृक्ष हरा-भरा हो सकेगा। आचार्य श्री ने उदाहरण देते हुए कहा कि- जैसे भोजन सुगन्धित एवं स्वादिष्ट हो लेकिन उसमें एक कंकड़ आ जाने से सारा कुरकुरा भोजन भी किरकिरा हो जाता है इसी प्रकार आगामी काल में भोगों की आकांक्षा के साथ व्रत ग्रहण करने से व्रतों की भी यही स्थिति हो जाती है।
  15. इसी प्रकार का एक संस्मरण और है कुछ तथाकथित विद्वान यह कहते हुए पाये जाते है कि पंचम काल में यहाँ से किसी को मुक्ति नहीं मिलती इसीलिए हम अभी मुनि नहीं बनते बल्कि विदेह क्षेत्र में जाकर मुनि बनेगें इस प्रश्न का उत्तर देते हुए आचार्य श्री जी ने कहा कि- जो व्यक्ति यहाँ मुनि न बनकर विदेह क्षेत्र में जाकर मुनि बनने की बात करते हैं, वे ऐसे खिलाड़ी की तरह हैं जो अपने गाँव की पिच पर मैच नहीं खेल पाते एवं कहते है मैं तो विदेश में मैच खेलूंगा या सीधा विश्व कप में भाग लूंगा।
  16. आगम में लिखा है कि साधुओं को अनुभय वचन बोलने चाहिए। इसका अर्थ होता है हाँ भी न हो और न भी न हो। यदि साधु से किसी ने निवेदन किया कि आप हमारे नगर पधारिए तब साधु को न तो हाँ कहना चाहिए और न ही न कहना चाहिए। यदि आपने हाँ कह दिया तो और यदि किसी कारण वश नहीं जा पाए तो झूठ हो जाएगा और यदि न कह दिया और पहुँच गए तो भी ठीक नहीं इन दोनों के बीच में सामंजस्य बनाए रखने के लिए अनुभय वचन का उपयोग किया जाता है। जब कभी भी आचार्य श्री से कोई नगर आगमन या चातुर्मास का निवेदन करने जाते हैं तब आचार्य श्री उन्हें न भी नहीं कहते और हाँ भी नहीं कहते, बल्कि 'देखो' इस शब्द का उपयोग करते हैं। और हम सभी से कहते भी हैं कि किसी बात में हाँ या न में जवाब देना उसके प्रति लगाव रखना है। जवाब न देना भी तो एक लाजवाब जवाब है एवं उन्होंने लिखा भी है- शब्द पंगु हैं, जवाब न देना भी लाजवाब है।हम सभी साधकों को आचार्य श्री कहा करते है क साधुओं को कभी श्रावकों के लिए वचन नहीं देना चाहिए बल्कि प्रवचन देना चाहिए।
  17. रत्नकरण्डक श्रावकाचार ग्रंथ की वाचना के अन्तर्गत आचार्य श्री जी देव-मूढ़ता का स्वरूप समझा रहे थे। उन्होंने कहा कि- वरदान प्राप्त करने की इच्छा से, आशा से युक्त होकर राग-द्वेष से मलिन देवताओं को पूजना देव-मूढ़ता कही जाती है। तभी किसी साधक ने आचार्य श्री जी से शंका व्यक्त करते हुए कहा कि यदि कोई व्यक्ति वीतरागी देव के सामने कुछ मांगता है तो क्या वह भी देव-मूढ़ता में आता है? तब आचार्य श्री जी ने शंका का समाधान करते हुए कहा कि- नहीं, वह मूढ़ता नहीं कहलाएगी, वह एक प्रकार से अज्ञानता कहलाएगी। क्योंकि वीतरागी प्रभु राग-द्वेष रहित होते हैं। अतः न वे किसी से कुछ लेते हैं और न किसी को कुछ देते हैं। लेकिन मांगने वाला वीतराग प्रभु के सही स्वरूप को नहीं समझ पा रहा है लेकिन समझने के निकटतम है। एक न एक दिन वह अवश्य समझ जाएगा। सच्चे देव की सच्ची पहचान न कर पाना अज्ञानता ही है|
  18. दिगम्बर एवं श्वेताम्बर आम्नाय की चर्चा चल रही थी। इसके बारे में आचार्य श्री जी विस्तार से समझा रहे थे कि भगवान् महावीर के निर्दोष मार्ग में भी दो धाराओं का जन्म हो गया। इस बात को सुनकर किसी सज्जन ने शंका व्यक्त करते हुए कहा कि- आचार्य श्री जी दिगम्बर एवं श्वेताम्बर आम्नाय में से मूलधारा कौन-सी है। इस बात को सुनकर आचार्य श्री कुछ क्षण मौन रहे, ऐसा लगा जैसे चिंतन में खो गये हों। फिर नदी का उदाहरण देते हुए बोले कि- जब नदी की धारा अबाध रूप से बह रही हो और बीच में यदि बड़ा पत्थर (पहाड़) आ जाए तो दो धारायें बन जाती हैं। ठीक उसी प्रकार महावीर भगवान की मूल दिगम्बर धारा अबाध रूप से चल रही थी बीच में 12 साल का अकाल पड़ने रूप (पत्थर) बीच में आ गया तो एक धारा श्वेताम्बर और बन गयी अब आप स्वयं तय कर लो मूल धारा कौन है ? संख्या की अपेक्षा नहीं चर्या की अपेक्षा भी पहचान कर सकते हैं। सूक्ष्मता से व्रतों का पालन जिस धारा में हो वही मूलधारा है।
  19. प्रत्येक जैनी के कुलाचार में रात्रिभोजन त्याग, पानी छानकर पीना, एवं देव-दर्शन करना अर्थात् प्रतिदिन मंदिर जाना ये तीन नियम बताये हैं। जो इन तीन नियम का पालन करता है वही सच्चा जैनी माना जाता है। जैन कुल में जन्म लेना पुण्य का उदय है। लेकिन जैन बनना पुण्य की क्रिया है। एक बात हमेशा याद रखना पुण्य के उदय में पुण्य की क्रिया को कभी नहीं छोड़ना वरना पाप बंध से नहीं बच सकोगे। कई लोगों की धारणा होती है कि हमारी आत्मा तो पवित्र है हमें मंदिर जाने की क्या आवश्यकता? इसी प्रकार की धारणा वाले एक व्यक्ति ने आचार्य श्री जी से शंका व्यक्त करते हुए कहा कि- हे गुरुवर ! मंदिर जाने से क्या प्राप्त होता है? तब आचार्य श्री जी ने कहा कि- मंदिर जाने से अपने स्वरूप का ज्ञान हो जाता है। मंदिर जी में कोई जाता है और वह कहता है भगवान के सामने कि आप कौन हैं? तब प्रतिध्वनि आती है, आप कौन है? वह कहता है आप तो भगवान हैं। तब प्रतिध्वनि आती है आप तो भगवान् हैं अर्थात् मंदिर जी में जाने से हम अपने स्वरूप का बोध प्राप्त कर लेते हैं। हमें अपने स्वरूप का ज्ञान हो जाए इससे बड़ी और क्या महिमा हो सकती है। मंदिर जी की सबसे बड़ी महिमा तो यही है कि देव-दर्शन से निज दर्शन की ओर बढ़ जाते हैं।
  20. “सम्यक्काय कषाय लेखना - सल्लेखना "- सम्यक् प्रकार से शरीर और कषायों को कृष करने का नाम सल्लेखना है। शरीर के पोषण से कषायों में वृद्धि होती है इसलिए शरीर का पोषण हमारे लिए अभिशाप सिद्ध हो जाता है, क्योंकि इससे कर्मों का बंध जारी रहता है रुकता नहीं है। उसी प्रकार यदि कषायों के वशीभूत होकर शरीर को तपाया जाता है तो भी वह हमें और अभिशाप सिद्ध होता है क्योंकि कषाय के माध्यम से बन्ध जारी रहता है। इसी बात को समझाते हुए आचार्य महाराज ने यह कहा कि सल्लेखना मत्यु के समय ही होती हो ऐसा नहीं है, किन्तु सल्लेखना प्रति समय भी चल सकती है क्योंकि सल्लेखना का अर्थ है- काय के प्रति निरीहता। सल्लेखना में मात्र शरीर को ही क्षीण नहीं किया जाता, बल्कि कषायों को भी क्षीण किया जाता है। जिस प्रकार वृक्ष की ऊपरी वृद्धि करने के लिए नीचे की हरी-भरी पत्ती की कटिंग कर दी जाती है उसी प्रकार से व्रतों की वृद्धि करने के लिए शरीर के प्रति निरीहता होना और कषायों का कृष् होना आवश्यक है। How are you old? तुम कितने पुराने हो गये हो। यह मुहावरा अपने आप में बहुत मायना रखता है। मत्यु महोत्सव को याद कराता है। आचार्य महाराज हम सभी को यही शिक्षा दे रहे हैं कि प्रत्येक साधक, धर्मात्मा को प्रतिक्षण कषायों को कम करते जाना चाहिए। आयु का कोई भरोसा नहीं है इसलिए आज एवं अभी आत्मकल्याण में प्रवृत्त हो जाना चाहिए। धन्य हैं, हमारे गुरूवर जो स्वयं कषायों को दिन-प्रतिदिन कृष् करते जा रहे हैं एवं हम सभी साधकों को भी यही उपदेश दे रहे हैं।
  21. संसार में सबसे अधिक विकल्प के कारण परिग्रह और परिचय हैं। कहा भी है- "परिग्रह, चिंता, दुःख ही मानो" अर्थात् जितना अधिक परिग्रह होगा उतने अधिक विकल्प होगें इसलिए विकल्पों से बचना चाहते हो तो परिग्रह एवं परिचय का त्याग करो। ठीक उसी प्रकार दूसरे से परिचय करने से विकल्प उत्पन्न होते हैं। पर - पदार्थों से पहले परिचय होता है फिर वह चित्त में आता है, चित्त में आकर चिपक जाता है फिर आत्मा को गाफिल कर देता है। इसी बात को समझाते हुए आचार्य श्री जी ने एक दिन कहा कि- दूसरे पदार्थ के साथ परिचय प्राप्त नहीं करना ही मोक्षमार्ग में बहुत बड़ी साधना मानी जाती है। धार्मिक क्षेत्र में किसी को भी मित्र व पड़ोसी बनाने की आवश्यकता नहीं पड़ती। साधना के क्षेत्र में यदि कोई साथी हैं तो वह है अपनी श्वाँस। लेकिन एक बात हमेशा याद रखना यह साथी तभी साथ देता है जब आत्मा पंचेन्द्रिय के विषयों से दूर हो जाता है। अंत में आचार्य श्री जी ने कहा कि- लौकिकता में जिसे जितना अधिक पर पदार्थों का परिचय होता है वह उतना अधिक बुद्धिमान माना जाता है लेकिन मोक्षमार्ग में जिसे जितना अधिक पर पदार्थों से परिचय होता है या जो दूसरों के परिचय प्राप्त करने में लगा रहता है वह उतना ही बड़ा पागल माना जाता है।
  22. जैसे घर परिवार में भाई-बहिन रहते हैं, बड़ी बहन की बात छोटे भाई मानते हैं और बहन के कारण भाई का महत्व बढ़ जाता है, बहन दोनों कुलों को उज्ज्वल करती है, भाई के कुल को एवं पति के कुल को, दोनों कुलों को मंगल सिद्ध होती है इसलिए उभय कुल मंगल वर्धिनी हो जाती है और यदि वही दीक्षा ले लेती है तो "लोक मंगल वर्धिनी" सिद्ध होती है। इसी बात को समझाते हुए गुरूदेव ने कहा - "आस्था बहन है, और ज्ञान, चारित्र उसके दो भाई हैं। भाईयों का महत्व बहन से बढ़ जाता है, आस्था (सम्यग्दर्शन) के प्राप्त होते ही ज्ञान, चारित्र सम्यक हो जाते हैं, पूज्यनीय एवं स्वर्ग, मोक्ष के कारण हो जाते हैं। यह आस्था रूपी बहन ज्ञान और चारित्र दोनों के महत्व को बढ़ा देती है, इसलिए यह आस्था भी "उभय कुल मंगल वर्धिनी है। इस प्रसंग से हमें यह शिक्षा मिलती है कि आस्था को निर्दोष बनाने का प्रयास करना चाहिए एवं घर, परिवार, कुल को उज्ज्वल बनाने के लिए बहनों को अपना जीवन निर्दोष व्यतीत करना चाहिए। ऐसा कोई कार्य नहीं करना चाहिए जिससे कुल, परिवार के लोग ऊंचा सिर उठाकर न चल सकें। एक बात हमेशा याद रखें "यदि हम माता-पिता की इज्जत बड़ा नहीं सकते तो कभी ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए जिससे माता-पिता की इज्जत कम हो।”
  23. सर्वोदय तीर्थ अमरकंटक की ओर विहार चल रहा था। जहाँ पर कुल घना जंगल पड़ता है वहाँ नक्सली लोग रहा करते हैं, विहार में पुलिस की एक गाड़ी आ गयी जिसमें 8-10 जवान बंदूक लिए साथ में सुरक्षा की दृष्टि से चलने लगे। आचार्य श्री जी ने कहा - हमें सुरक्षा की आवश्यकता नहीं, तब पुलिस के जवान बोले महाराज हमारी तो ड्यूटी है सरकार का कर्तव्य है यदि हम लोगों को आप साथ नहीं चलने देगें तो हमारी तो नौकरी ही चली जाएगी। आचार्य श्री मौन रहे कुछ नहीं बोले क्योंकि किसी की आजीविका का सवाल था और श्रावकों ने भी कहा - हे गुरूवर! ये आपकी व्यवस्था में नहीं बल्कि हम श्रावकों की व्यवस्था में हैं। जब एक जिले से दूसरे जिले में प्रवेश होने लगा तो पहले ड्यूटी वाले पुलिस के जवान जाने लगे तब वे गुरूदेव के श्री चरणों में नमन करके कहने लगे अभी तक हम आपकी रक्षा व्यवस्था में थे अब हमारी सीमा समाप्त हो गयी, अब हम जा रहे हैं, ऐसा आशीर्वाद प्रदान कीजिए ताकि हमारा जीवन सफल हो सके। तब आचार्य श्री जी ने कहा आप लोगों ने यहां कुछ समय के लिए रक्षा व्यवस्था की पर हम ऐसी बात बताते हैं जिससे तुम्हारे इस भव और भव-भव तक की रक्षा व्यवस्था हो जावेगी, वह यह है कि आप लोग सप्त व्यसन का त्याग कर दो, कभी माँस नहीं खाना, जुआ नहीं खेलना, शराब नहीं पीना फिर आप लोगों की हमेशा व्यवस्था होती रहेगी और परभव में जहाँ भी जाओगे वहाँ भी सुखी रहोगे। यह सुनकर सभी लोगों ने नियम लिये और अपने को धन्य मानते हुए चले गये। इस प्रसंग से हमें यह शिक्षा मिलती है कि हम लोग गुरु की सेवा नहीं करते बल्कि उनके माध्यम से हम अपने जीवन को पवित्र बना लेते हैं। अपना भी भला होता है। गुरु से हमें ऐसी शिक्षा मिलती है एवं उनकी सेवा से ऐसा पुण्य बंध होता है कि हमारे भव-भव सुधर जाते हैं और अंत में भवसागर से पार हो जाते हैं। (यह संस्मरण चाँदखेड़ी प्रवास के दौरान मुनि श्री सुब्रतसागर ही महाराज जी ने सुनाया था)।
  24. प्रतिकूल परिस्थितियों में आने वाले आवेग का नाम क्रोध है। क्रोध एक ऐसा विकारी भाव है जो हमारे तन, मन और धर्म सभी को दूषित करता है। यह एक खतरनाक बीमारी है और हमेशा से चली आ रही है। एवं व्यापक भी है, इसलिए यह बीमारी-सी नहीं लगती। दूसरों की गलती पर क्रोध करने का अर्थ है दूसरों की गलती की सजा स्वयं को देना। कुछ लोगों का कहना है क्रोध मैं नहीं करता कर्म का उदय कराता है, इसका समाधान देते हुए आचार्य श्री जी ने कहा कि - कर्म कभी क्रोध नहीं करता, कर्म के उदय में आत्मा क्रोध करता है। पुद्गल (कर्म) में क्रोध कराने की शक्ति है पर आप क्रोध करेंगे तब वह करा सकता है वरना नहीं करा सकता। आचार्य श्री जी ने अजीव से क्रोध कैसे करता है यह उदाहरण देते हुए समझाया कि जैसे दर्पण सामने रखा है और मुर्गा उसके सामने खड़ा है उसमें दिखाई देने वाली अपनी ही आकृति से लड़ता है जब उसकी चोंच से खून आने लगता है तो वह समझता है दर्पण में बनी हुई आकृति से आ रहा है, क्रोध भी उसी मुर्गे के समान है।
  25. प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन को अच्छा एवं सुंदर बनाना चाहता है लेकिन मात्र शरीर की सुंदरता में अटक जाता है मन और आत्मा को सुंदर बनाने की नहीं सोचता। बाह्य सौन्दर्य कितना भी अच्छा क्यों न हो लेकिन अंतरंग में कलुषता भरी हो तो उस सौन्दर्य से आँखे तो तृप्त हो सकती हैं लेकिन आत्मा कभी तृप्ति का अनुभव नहीं कर सकती। याद रहे काया का रंग भले ही अच्छा न हो कार्य करने का ढंग अच्छा होना चाहिए। तपस्या के माध्यम से ही हमारे जीवन में सौंदर्य फूटता है, जैसे सोना आग में तपकर और निखरता है। यह प्रसंग उस समय का है जब ब्रह्मचारी विद्याधर जी ने अपने आपको आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के श्रीचरणों में समर्पित कर दिया था और गुरूवर ने समर्पण देखकर उन्हे जैनेश्वरी मुनि दीक्षा प्रदान की थी। दीक्षा के उपरांत मुनिवर श्री विद्यासागर जी महाराज उस समय अजमेर शहर में विराजमान थे तभी कर्नाटक प्रान्त के सदलगा ग्राम से ब्र0 विद्याधर जी के पिता मल्लप्पा जी मुनिराज के दर्शनाथ अजमेर शहर पहुँचे, गुरूवर के दर्शन करते ही उनके शरीर की कांति को देखकर मल्लप्पा जी कह उठे “साधना से आंतरिक और बाय दोनों सौन्दर्य संवरते हैं।” इस प्रसंग से हमें यह शिक्षा मिलती है कि शरीर में सौन्दर्य तपस्या से आता है श्रृंगार से नहीं। व्यक्ति के व्यक्तित्व की पहचान शरीर के बनावटी श्रृंगार से नहीं बल्कि उसके आत्मिक गुणों से होती है।
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