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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. संत शिरोमणि स्वर्णिम राष्ट्रीय संगोष्ठी (उत्तराध) आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के आशीर्वाद से दिनांक 6 अप्रैल से 8 अप्रैल 2018 पावन सान्निध्य - पूज्य मुनि श्री १०८ समतासागर जी महाराज पूज्य ऐलक श्री १०५ निश्चय सागर जी महाराज सभी बाल ब्रम्हचारी, स्वाध्यायी, व्रती एवं बहनों की ऐतिहासिक संगोष्ठी स्थान - श्री १००८ दि. जैन मंदिर घाटोल जिला बांसवाड़ा ( राज. ) आयोजक - सकल दि. जैन समाज घाटोल
  2. घाटोल गनोडा लिंक रोड बना आचार्य विद्यासागर चौराहा लोकार्पण - घाटोल में आचार्य विद्यासागर कीर्ति स्तंभ का लोकार्पण, सांसद ने अहिंसा मंदिर में भवन और प्रधान ने पक्की सड़क बनवाने की घोषणा की
  3. गुण और गुणी की चर्चा करते हुए आचार्य श्री जी ने कहा कि ज्ञान गुण है और यह जीव गुणी है। जैसे जिसके पास धन होता है।वह धनिक होता है। उसी प्रकार जिसके पास ज्ञान होता है वह ज्ञानी कहलाता है। इसलिए आत्महित चाहने वाले व्यक्ति को ज्ञान की आराधना करना चाहिए। तब मैंने कहा- आचार्य श्री स्वाध्याय तो सभी लोग करते हैं लेकिन कषायें कम नहीं होती तो क्या इसे हम ज्ञान की आराधना मान सकते हैं? तब आचार्य श्री ने कहा कि जो स्वयं शांत रहे और दूसरों को शांत कर दे यही ज्ञान की सच्ची आराधना है। आचार्य श्री जी हम सभी को यही शिक्षा देते हैं कि - ज्ञान प्राप्त करने का अर्थ अक्षर ज्ञान से नहीं है, बल्कि परिणामों की निर्मलता से है। उन्होंने आगे कहा कि- ज्ञान का अभिमान न करना ही ज्ञान की शुद्धि है। ज्ञान साधन है, चारित्र साध्य है। साधन को कभी साध्य नहीं मानना चाहिए। ज्ञानियों के लिए कुछ मुख्य बिंदु आध्यात्मनिष्ठ होने वाले को ज्ञान देना सार्थक है। उपदेश देने वाले के पास पूर्वा पर विवेक एवं करुणा होनी चाहिए। एक दूसरे ने एक दूसरे को पहचान लिया लेकिन अपने आप को नहीं पहचाना यही तो अज्ञान है। जब मैं अमूर्त आत्मा हूँ तो मुझे कोई देख नहीं सकता फिर मैं किसको परिचय दूँ और किसका लूँ। एड्रेस तो ड्रेस (शरीर) का होता है, आत्मा का नहीं। मोह के कारण ज्ञान रूपी सरोवर में विकल्प रूपी तरंगे उठती रहती हैं इसलिए ज्ञानी को सबसे पहले मोह का त्याग करना चाहिए। सच्चा ज्ञान वही है, जो प्राणी को पाप से बचाये। यदि प्रयोजन भूत आत्मतत्व की ओर दृष्टि नहीं है तो सभी तत्त्वों का ज्ञान कोई कार्यकारी नहीं है। अपने ज्ञान का उपयोग, अपने विषय में ही करना चाहिए। दूसरे का अहित हो जाए ऐसा सोचना तो व्यर्थ है, अनर्थ का कारण है |
  4. पशु-पालन एवं खेती के बारे में चर्चा चल रही थी। आचार्य श्री जी ने कहा कि- आदिपुराण ग्रंथ में लिखा है कि- वैश्य उन्हें कहा जाता था जो आजीविका का निर्वाह खेती एवं पशु-पालन से किया करते थे। आज व्यापारियों को ही वैश्य की संज्ञा दी जा रही है। और आज भारतीय बीज समाप्त होते चले जा रहे हैं, विदेशी बीजों का उपयोग होने लगा है। जिसमें पैदावार अधिक होती है लेकिन उनमें इतना स्वाद नहीं होता। पहले पशु-पालन एवं खेती को उत्तम माना जाता था। व्यापार को मध्यम एवं नौकरी को जघन्य माना जाता था। आज के युग में यह सब विपरीत हो गया है सभी को नौकरी से प्रेम हो गया है। आज बच्चों को माता-पिता इसलिए पढ़ाते है कि वह नौकरी करेगा, एक अच्छा इंसान बनेगा इसलिए नहीं। तब किसी ने आचार्य श्री से कहा कि- आपको विदेशी बीज न लाया जाए स्वदेशी बीज का ही उपयोग किया जाए इसके बारे में बोलना चाहिए तब आचार्य श्री ने कहा- लोग सब कुछ जानते हैं फिर भी पैसे के लालच में यह सब कर जाते हैं। विषय को पलटते हुए आचार्य श्री जी कहते है कि "सम्यग्दर्शन ही स्वदेशी बीज है बाकी सब विदेशी बीज हैं। इसलिए अपनी मनोभूमि पर सम्यग्दर्शन के बीज बोओ तभी मोक्ष रूपी फसल प्राप्त होगी।" इस संस्मरण में आचार्य श्री जी ने हम सभी को लौकिक ज्ञान के साथ-साथ मोक्षमार्ग की भी शिक्षा प्रदान की है कि हम सभी को मोक्ष का बीज जो सम्यग्दर्शन है उसे हमेशा सुरक्षित रखना चाहिए तभी हमें आत्मा का स्वाद आ सकता है एवं मोक्ष सुख की प्राप्ति हो सकती है।
  5. कुछ लोग अपने आपको भगवान मान बैठे हैं और कहते भी हैं। कि “भक्त नहीं भगवान् बनेगें।” ऐसे अध्यात्म प्रेमीजन भगवान की सच्ची भक्ति भी नहीं कर पाते एवं व्रत, नियम को अपने जीवन में स्थान नहीं दे पाते। वे व्यवहार धर्म को पूर्णतः छोड़कर निश्चय धर्म की चर्चा में अपना समय निकाल देते हैं लेकिन आचरण के बारे में कुछ नहीं सोचते ऐसे व्यक्तियों को उपदेश देते हुए आचार्य श्री जी ने कहा कि- जिसका आदि, अन्त और मध्य नहीं है अर्थात् जो अथ से रहित हैं वे नाथ कहलाते हैं। यह बात सही है कि अपने आपको भगवान नाथ स्वीकार किए बिना अध्यात्म आ नहीं सकता लेकिन ऐसा भगवान एवं दुनिया के सामने मत कहो। जो भगवान के सामने ऐसा कहते हैं कि हम भक्त नहीं भगवान बनेगें तो क्या वे भगवान को चुनौती दे रहे हैं ? व्यवहार में तो ऐसा ही कहना होगा कि हे भगवन! मैं अपने आपको भगवान कहता आया हूँ, अहंकार में डूबा रहा हूँ इसलिए आप ही इस अनाथ को संसार के दुःख से बचाओ, अपना जैसा बनाओ। फिर आचार्य श्री जी ने मुस्कुराते हुए कहा कि- ऐसा कहो कि- न तो हम नाथ हैं और न ही अनाथ हैं हम तो अपने साथ हैं। तब मैंने कहा कि- हे गुरुवर! मैं तो ऐसा समझता हूँ कि में अनाथ हूँ, आप मेरे नाथ हैं और आप हमारे साथ हैं। यह सुनकर सभी लोग बहुत खुश हुए एवं आचार्य श्री जी के चेहरे पर भी मुस्कान आ गई।
  6. संसारी प्राणी का सुख-दुःख दूसरों पर आधरित रहता है। क्योंकि वह वास्तविक सुख से परिचित ही नहीं होता। उसके सुख-दुःख का रिमोट कन्ट्रोल दूसरों के हाथ में हुआ करता है। कोई दूसरा व्यक्ति उसे अच्छा या बुरा जो कुछ भी कहता है उसे वह उसी रूप में स्वीकार कर लेता है। दूसरा उसकी निन्दा करता है तो दुःखी हो जाता है और प्रशंसा करता है तो आनन्दित हो उठता है। एक दिन आचार्य श्री जी ने बताया कि संसार का सुख-दुःख कल्पना मात्र है, किन्तु ये संसारी प्राणी उसे वास्तविक मानकर चलता है। जब कोई व्यक्ति बाजार से अपनी मनपसंद का एवं मँहगा सुन्दर कपड़ा खरीदकर लाता है तो फूला नहीं समाता है। जब कोई व्यक्ति उसके नए कपड़े देखता है तो कहता है कि अरे! इतने बेकार कपड़े और इतने मॅहगे तुम तो ठग गये। और यदि उन्हीं कपड़ों को देखकर दूसरा व्यक्ति कह देता है कि आपने कितने सुन्दर कपड़े खरीदे तो वह व्यक्ति खुशी के मारे फूला नहीं समाता और सोचता है कि मेरे तो पैसे बसूल हो गये इससे सिद्ध होता है कि संसारी प्राणी का सुख-दुःख दूसरों पर आधारित है। इस संस्मरण से हमें शिक्षा मिलती है कि- हमें किसी की निन्दा और प्रशंसा पर ध्यान न देते हुए वास्तविकता की पहचान करते हुए सुख का स्रोत स्वयं में खोजना चाहिए।
  7. एक कहावत तो सभी ने सुनी भी होगी कि- "अधजल गगरी झलकत जाए" । इसका अर्थ भी आप जानते ही होगें कि जो गगरी जल से पूर्ण भरी नहीं होती उसका पानी बाहर छलकता रहता है। ठीक उसी प्रकार जिसके पास थोड़ा-सा ज्ञान होता है वह सभी को बताने का प्रयास करता है एवं दूसरों के सामने अपने आप को विद्वान, लेखक एवं साहित्यकार आदि के रूप में अपनी पहचान बनाना चाहता है। सभी लोगों से मेरी एक पृथक् पहचान हो ऐसी उसकी प्रबल भावना रहती है। एक बार आचार्य श्री जी ने कहा कि हम संसारी प्राणियों का ज्ञान जुगनु की भांति है एवं भगवान का ज्ञान सूर्य के प्रकाश की भांति है। भगवान की दृष्टि (ज्ञान) में तीनों लोकों के चराचर पदार्थ युगपद् झलकते हैं। हमें अपना ज्ञान पदार्थ की ओर ले जाना पड़ता है, जबकि भगवान के ज्ञान में सभी पदार्थ स्वतः ही दर्पण की तरह इालकते हैं। आगे उन्होंने कहा कि किसी व्यक्ति ने एक पुस्तक लिखी है जिसका शीर्षक है "महावीर मेरी दृष्टि में वह इस बात को भूल गए कि भगवान हमारी दृष्टि में नहीं आ सकते, क्योंकि हमारे पास परोक्ष ज्ञान है। इसीलिए" महावीर मेरी दृष्टि में ऐसा न लिखकर "मैं महावीर की दृष्टि में क्या हूँ?" इस पर चिंतन करना चाहिए तब अपनी भूल ज्ञात हो। आगे चलकर हम भी भगवान महावीर जैसी दुष्टि प्राप्त कर सकें ऐसा पुरुशार्थ करें। भगवान की भक्ति करके ही भगवान जैसी दृष्टि (ज्ञान) प्राप्त कर सकते हैं। इस संस्मरण से हमें यह शिक्षा मिलती है कि हमें कलम उठाकर कुछ लिखने से पहले आगे-पीछे सोच लेना चाहिए। बड़ों से सलाह दिशा-बोधलेकर ही एवं इसके परिणाम क्या होंगे यह चिन्तन करने के बाद ही कुछ लिखना चाहिए।
  8. आज का प्रत्येक व्यक्ति पद-प्रतिष्ठा एवं मान सम्मान का भूखा हो गया है। उसे जहाँ पर मान-सम्मान मिलता है वह वहाँ पर अपना तन, मन, धन सब कुछ समर्पित करने तैयार हो जाता है और जहाँ पर सम्मान नहीं मिलता भले ही उस कार्य में सभी का भला हो रहा हो, वहाँ पर मौन हो जाता है। सारी दुनिया अपनी स्वार्थ सिद्धि में लगी रहती है लेकिन सच्चा साधु वह होता है जो स्वार्थ त्याग की कठिन तपस्या करता हुआ दूसरों के दुख को दूर करने का प्रयास करता है। एक दिन आचार्य श्री जी ने हम सभी मुनिराजों को उपदेश देते हुए कहा कि- आज अहिंसा धर्म के अनुयायियों की सबसे बड़ी कमजोरी यह हो गई है कि वह ख्याति, लाभ, पूजा का त्याग नहीं कर पाते। उन्होंने सच्चे साधु की पहचान बताते हुए कहा कि- जैसे समुद्र, त्रण आदि को एवं आँख कचरा आदि को बाहर निकाल देता है, वैसे ही सच्चा साधु अपने मन से ख्याति, लाभ, पूजा एवं मान, सम्मान को कचरा समझकर बाहर निकाल देता है एवं मान, अपमान दोनों में समताभाव धारण करता है। ख्याति, लाभ, पूजा को कचरा की उपमा देते हुए आचार्य श्री के कहने का उद्देश्य यह है कि जहाँ कचरा होता है, वहाँ पर गंदगी फैलती है एवं मैलापन आ जाता है। इसी प्रकार ख्याति, लाभ, पूजा से भी हमारे व्रतों में दोष लग सकते हैं इसलिए इनसे बचना चाहिए। इस संस्मरण से हमें शिक्षा लेनी चाहिए कि हमें कभी भी ख्याति, लाभ, पूजा की कामना नहीं करना चाहिए बल्कि गुरु के बताये हुए सच्चे रास्ते पर बिना किसी कामना के निरंतर बढ़ते रहना चाहिए। इसी में हम सभी की भलाई है।
  9. शुद्धोपयोग की चर्चा चल रही थी। आचार्य श्री जी हम सभी को उपदेश दे रहे थे कि साधु जीवन की सार्थकता शुद्धोपयोग प्राप्त करने में है। पाप का त्याग एवं व्रतों का ग्रहण यह सब शुभोपयोग है इससे ऊपर की भी प्रक्रिया होती है जब साधु सब विकल्पों से मुक्त होकर निर्विकल्प समाधि में लीन होता है। यह अवस्था सप्तम गुणस्थान से प्रारंभ होती है। जिनवाणी में शुद्धोपयोग सातवें गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक बताया है। एक दिन मैंने आचार्य गुरुवर से पूछा कि-हे गुरुवर! आज कल कुछ लोग अपने आप को सम्यग्दृष्टि एवं चतुर्थ गुणस्थानवर्ती मानते हैं। चतुर्थ गुणस्थानवर्ती को शुद्धोपयोग होता है ऐसा भी मानते हैं। यह क्या उचित है? तब आचार्य श्री जी ने हँसते हुए कहा कि यह तो आगम विरुद्ध बात हुई ऐसे लोगों को चतुर्थ गुणस्थानवर्ती नहीं बल्कि चतुर गुणस्थानवर्ती मानो। यह है आचार्य महाराज का दृष्टिकोण सामने वाले की चतुराई भी समझ गए और उसे बता भी दिया, लेकिन उसकी निंदा नहीं की बस यही दृष्टिकोण हम सभी धर्मात्माओं का होना चाहिए।
  10. एक बार सप्रतिष्ठित वनस्पति- जमीकंद, गणन्त का प्रकरण चल रहा था तब किसी ने कहा कि- आचार्य श्री जी आज कल बड़े-बड़े विद्वान भी जमीकंद आदि सप्रतिष्ठित वनस्पति का त्याग नहीं कर पाते क्या वे लोग श्रावकाचार आदि आचरण परख ग्रंथों का स्वाध्याय नहीं करते हैं। तब आचार्य श्री जी ने उन विद्वानों की आलोचना न करते हुए हँसते हुए एक ही बात कही कि- "आज पंचम काल में प्रतिष्ठित व्यक्ति भी सप्रतिष्ठित वनस्पति खा रहा है।" इस छोटी-सी बात से हमें बहुत बडी शिक्षा मिलती है कि हमें किसी की कमजोरी पर हंसना नहीं चाहिए एवं उसकी निंदा भी नहीं करना चाहिए। हो सके तो सामने वाले को मधुर शब्दों से उसकी गलती का एहसास कराना चाहिए।
  11. आचार्य श्री जी अपना समय हमेशा स्वाध्याय, ध्यान एवं आत्मचिंतन में व्यतीत करते रहते हैं। यदि कोई आत्मकल्याण करना चाहता है तो उसे मार्गदर्शन करने के लिए थोड़ा-सा समय दे देते हैं, क्योंकि आचार्य परमेष्ठी का परहित सम्पादन करना ही मुख्य गुण होता है। वे कभी किसी को अपना समय नहीं देते। यदि कभी मनोविनोद का मन होता है तो कुछ ऐसी बात कह देते हैं जिसमें हँसना भी हो जाता है और इसके बहाने मना भी हो जाती है एवं व्यक्ति को जीवनभर के लिए शिक्षा भी मिल जाती है। एक बार ऐसा ही हुआ कि एक विद्वान ने आचार्य श्री जी से कहा कि- हमें आपसे कुछ चर्चा करने के लिए समय चाहिए। आचार्य श्री ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया कि- हमारे पास घड़ी तो है नहीं हम तुम्हें कहाँ से समय दे। घड़ी में हो समय तो घड़ी से मांग लो यह सुनकर सभी लोग हँसने लगे एवं सभी को एक महत्त्वपूर्ण शिक्षा मिल गई कि अपना समय चर्चा में नहीं गँवाते हुए अपनी चर्या में लगाना चाहिए।
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