एक दिन कुछ महाराज जी आचार्य श्री जी के पास बैठे हुये थे चर्चा के दौरान आचार्य श्री जी ने कहा कि आचार्यों ने साधु को आत्मा की साधना में लीन रहने को कहा है। साधु को अपना समय व्यर्थ की चर्चा में नहीं खोना चाहिए। जैसे माँ अपने बच्चे को समझाती है कि बेटा तू लडडू, फल, दूध आदि खाया कर लेकिन बच्चा तो बाहर जाकर मिट्टी को ही खाने में लगता है उसी में खेलता है। इमली, बेर जैसे शरीर को नुकसान पहुँचाने वाले पदार्थ ही खाता है।
यह सुनकर समीप में ही विराजमान पू. मुनि श्री प्रसाद सागर जी महाराज ने पूछा - आचार्य श्री जी ये बड़े-2 बेर (बनारसी बेर) क्या दक्षिण (सदलगा) में भी मिलते हैं? तब आचार्य गुरूदेव ने कहा - "जैसे दुनिया में हर जगह बैर मिलता है, पाया जाता है वैसे ही हर जगह बेर मिलते हैं।” यह बैर हमेशा दुख देने वाला होता है। इससे भव्यात्माओं को बचना चाहिए।