यह उस समय की बात है, जब आचार्य श्री जी पेण्ड्रा गाँव में थे। उनके पैर में हरपिश रोग हो गया था, उन्हें पैर में बहुत तकलीफ थी। मैं उनके पैरों के पास बैठा हुआ था। यदि गुरूदेव बैठना चाहते तो दर्द होता था, यदि लेटना भी चाहें तो दर्द होता था, फिर चलने में तो और ही अधिक दर्द होता था। हम सभी को उनकी वेदना देखकर रहा नहीं जाता था, ऐसा लगता था जितना बन सके उनकी सेवा करें और हमेशा समीप में ही बैठे रहें। लेकिन आचार्य श्री संकेत कर देते चलो बहुत समय हो गया तुम लोग विश्राम कर लो और स्वयं माला फेरने बैठ जाते। ये सब देखकर लगा। धन्य हैं ऐसे गुरु जो इतनी वेदना में भी आत्मस्थ हैं, समता की साक्षात्मूर्ति हैं। वे ऐसे लग रहे थे जैसे वह इस शरीर को पड़ौसी समझते हों, उनके चेहरे पर वही शांति झलकती थी| मैंने मन ही मन प्रार्थना की कि - हे प्रभु मुझमें भी ऐसी समता कब आवेगी जब ये बाह्य दुःख गौण करके आत्मस्थ हो जाऊँगा। ऐसे रोगादि परीषहों को समता से सहन कर पाऊँगा। सच ही है ऐसे गुरूदेव की कृपा से ही ऐसा बन पाना संभव है। धन्य है उनका समतामयी जीवन।
समता जहा है, समझना वहां धर्मध्यान है।
समता के अभाव में जीवन दुःखमय प्रतीत होता है।