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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. यह उस समय की बात है, जब आचार्य श्री जी पेण्ड्रा गाँव में थे। उनके पैर में हरपिश रोग हो गया था, उन्हें पैर में बहुत तकलीफ थी। मैं उनके पैरों के पास बैठा हुआ था। यदि गुरूदेव बैठना चाहते तो दर्द होता था, यदि लेटना भी चाहें तो दर्द होता था, फिर चलने में तो और ही अधिक दर्द होता था। हम सभी को उनकी वेदना देखकर रहा नहीं जाता था, ऐसा लगता था जितना बन सके उनकी सेवा करें और हमेशा समीप में ही बैठे रहें। लेकिन आचार्य श्री संकेत कर देते चलो बहुत समय हो गया तुम लोग विश्राम कर लो और स्वयं माला फेरने बैठ जाते। ये सब देखकर लगा। धन्य हैं ऐसे गुरु जो इतनी वेदना में भी आत्मस्थ हैं, समता की साक्षात्मूर्ति हैं। वे ऐसे लग रहे थे जैसे वह इस शरीर को पड़ौसी समझते हों, उनके चेहरे पर वही शांति झलकती थी| मैंने मन ही मन प्रार्थना की कि - हे प्रभु मुझमें भी ऐसी समता कब आवेगी जब ये बाह्य दुःख गौण करके आत्मस्थ हो जाऊँगा। ऐसे रोगादि परीषहों को समता से सहन कर पाऊँगा। सच ही है ऐसे गुरूदेव की कृपा से ही ऐसा बन पाना संभव है। धन्य है उनका समतामयी जीवन। समता जहा है, समझना वहां धर्मध्यान है। समता के अभाव में जीवन दुःखमय प्रतीत होता है।
  2. गर्मी का समय था, विहार चल रहा था। सामायिक के उपरान्त मैं आचार्य गुरूदेव के चरणों के समीप जाकर बैठ गया, नमोस्तु किया। आचार्य श्री जी ने आशीर्वाद देते हुए कहा - क्यों कुंथु गाड़ी (स्वास्थ्य) ठीक है, आज थोड़ा ज्यादा चलना है। मैंने कहा जी आचार्य श्री जी लेकिन गर्मी बहुत है। ऐसी गर्मी में जमीन बहुत गर्म है, लू चल रही है। इतनी धूप में जल्दी विहार कैसे करेंगे। आचार्य महाराज कुछ चिन्तन करने के बाद बोले - भैया ठंडे दिमाग से चलो भले गर्मी में चलो, कुछ नहीं होगा। "इन्टेन्शन ठीक रखो टेंशन नहीं होगा।” मैंने कहा आप तो हैं हमारा इंटेन्शन सुधारने वाले और टेंशन दूर करने वाले। फिर हमें काहे का टेंशन। (सभी लोग हँस पड़े)। सच बात है गुरु को जीवन समर्पित कर देने के बाद हमें तनाव मुक्त हो जाना चाहिए। गुरु को नाव बना बैठा तू, फिर क्यों तनाव में। गुरु की वाणी को यदि जीवन में नहीं उतारते हैं तो वह कागज के फूल के समान है जैसे कागज के फूल से नासिका तृप्त नहीं होती वैसे वाणी को सुनने मात्र से जीवन तृप्त नहीं होता है। यदि वाणी को जीवन में आत्मसात् करते हैं तो जीवन फूल की तरह महक उठता है।
  3. विद्या से विनय प्राप्त होती है, और लघुता से गुरूता प्राप्त होती है। वृक्ष जितना अधिक फलों से लदा होगा, उतना ही अधिक नीचे की ओर झुका होगा। वैसे भी जो जितना अधिक ज्ञानी होगा वह उतना ही विनयवान् होता है इस अनुभव को मैंने गुरु के जीवन में जीवन्त पाया है। भोजपुर में प्रातः धवला जी की 16वीं पुस्तक की वाचना चल रही थी। उस समय सूर्य की किरण आचार्य श्री जी के ऊपर पड़ रही थी। समीप में बैठे हुए महाराज जी ने कहा - एक सूर्य दूसरे सूर्य का दर्शन कर रहा है। उनके बदन को स्पर्श कर रहा है। आचार्य महाराज ने अपनी प्रशंसा पर ध्यान न देते हुए बल्कि अपनी लघुता दर्शाते हुए कहा - देखो यह सूर्य ऐसा लग रहा है मानो सामने वाली पहाड़ी के पीछे ही हो, इतने पास लग रहा है जबकि पृथ्वी से कितनी दूरी है। इससे ज्ञात होता है कि "हमारा ज्ञान कितना नगण्य है, यह परोक्ष ज्ञान है।” अपना ज्ञान केवल ज्ञान के सामने ना के बराबर है। हमें इस ज्ञान पर कभी भी अभिमान नहीं करना चाहिए। यह सब सुनकर मुझे लगा धन्य है गुरु की निरभिमानता अपने आपको कितना लघु समझते हैं। यह उनकी महानता धन्य है। धन्य है ऐसे गुरु जो नाम और मान से कोसों दूर रहते हैं। जो प्राप्त ज्ञान से मोह का हनन करता है वही मुमुक्षु माना जाता है। ज्ञान शिक्षण या पुरूषार्थ से प्राप्त नहीं होता, बल्कि श्रद्धा और समर्पण से प्राप्त होता है।
  4. द्रव्य संग्रह ग्रन्थ की वाचना के समय जीव द्रव्य का व्याख्यान करते हुए आचार्य महाराज ने कहा कि - जीव द्रव्य दिखता तो नहीं पर उसे महसूस किया जा सकता है। स्वयं आत्म तत्व का संवेदन किया जा सकता है। अपनी पहचान तो अपनी है। ज्ञान सागर जी महाराज हमें कुछ समझाते थे तो हिन्दी में बोलकर समझाते थे, उस समय हमें हिन्दी भाषा समझ में नहीं आती थी। तो महाराज जी कहते थे कि - बोलो, तो हम सोचते थे क्या बोलें हिन्दी तो आती नहीं। अपनी पहचान तो अपनी है। दूसरों को क्या बतायें। इसी प्रकार हम जीव हैं यह मेरी पहचान है तो दूसरों को क्या बतायें - "अपनी पहचान तो अपनी है।"
  5. विहार करते हुए चले जा रहे थे रास्ते में शिष्य ने आचार्य गुरूदेव से निवेदन किया कि आचार्य श्री जी इस बार ऐसे स्थान पर ले चलो जहाँ पर अभी तक नहीं गये हों, फिर क्या था, आचार्य श्री थोड़े चिन्तन में खो गये ऐसा लगा जैसे वह यह सोच रहे हों कि हम कहाँ नहीं गये, फिर मुस्कुराते हुए बोले - भैया कहाँ है ऐसा स्थान - जहाँ पर यह जीवन गया हो, प्रत्येक स्थान पर तो यह जीव जन्म-मरण कर चुका है | बस एक ही स्थान बचा है, जहाँ हम नहीं गये वह है मोक्ष। हम उसी मोक्षमार्ग पर चल रहे हैं अनवरत इसी मार्ग पर बढ़ते चलो। यह सुनकर सभी ने कहा जी आचार्य श्री हम सभी वहीं चलने के लिए तैयार हैं। सच में गुरूदेव की प्रत्येक क्रिया मोक्ष मार्ग पर चलने का उपदेश देती है।
  6. विहार करते हुए नेमावर की ओर से जा रहे थे। रास्ते में ही आचार्य श्री जी से पूछा - आप तो आचार्य श्री जी नवमीं कक्षा तक पढ़े हैं और हम लोगों को एम0ए0 पढ़ने के लिए कहते हैं| यदि आचार्य ज्ञान सागर जी महाराज ने आपको एम0ए0 तक पढ़ने को कहा होता तो आप हम लोगों को कहाँ तक पढ़ने को कहते - पी.एच.डी., लॉ आदि। आचार्य श्री जी हँसकर बोल उठे - नहीं पहले मल्लिसागर जी (मल्लप्पा जी) कहते थे ज्यादा क्या पढ़ना, खेती-किसानी तो करना ही है। मेन सब्जेक्ट तो कृषि ही है। यह हल चलाओ जो कि समस्त समस्याओं का हल है। पहले लोग नौकरी (सर्विस) को अच्छा नहीं मानते थे, खेती को ही प्रधानता देते थे। उत्तम खेती, मध्यम व्यापार और जघन्य नौकरी ऐसा मानते थे, इसलिए दक्षिण में आज भी नौकरी को अच्छा नहीं मानते है। (रेहटी 1/2/2002 बुधवार)
  7. पंचकल्याणक का कार्यक्रम सम्पन्न होने जा रहा था। ध्वजारोहण के दिन एक सज्जन आचार्य महाराज के पास में आकर फोटो खींचने लगे पास आते हुए देखकर ऐसा लग रहा था जैसे वह गुरूदेव से कुछ बात करने जा रहा हों या कुछ नियम लेने आया हो, तब आचार्य श्री जी ने कहा - मैंने सोचा तुम कुछ व्रत, नियम लेने आये हो तुम तो फोटो लेकर चले गये। ( छपारा )
  8. शाम का समय था उस दिन आचार्य श्री जी का उपवास था। हम और कुछ महाराज लोग वैयावृत्ति की भावना से आचार्य श्री जी के पास जाकर बैठ गये, तब आचार्य श्री जी ने हँसकर कहा - आप लोग तो मुझे ऐसा घेर कर बैठ गये जैसे किसी पदार्थ, गुड़ आदि के पास चारों ओर चीटियाँ लग जाती हैं | तभी शिष्य ने कहा - हाँ आचार्य श्री जी गलती चींटियों की नहीं है, बल्कि गलती तो गुड़ की है वह इतना मीठा क्यों होता है। आचार्य श्री जी ने कहा - गुड़ तो गुड़ होता है उसका इसमें क्या दोष। शिष्य ने कहा क्या करें आचार्य श्री गुड़ में मिठास ही कुछ इस प्रकार की होती है | चींटियों को उसकी गंध बहुत दूर से ही आ जाती है और वे इसके पास दौड़ी चली आती हैं। आचार्य श्री ने कहा - यह तो उसका स्वभाव है। शिष्य ने कहा - ऐसा ही आपका स्वभाव है, इसलिये सभी आपके पास दौड़े चले आते हैं।
  9. यह बात उस समय की है जब आचार्य महाराज भोपाल में झिरनों के मंदिर में दर्शन करने गये थे। बहुत प्राचीन खड़गासन प्रतिमा जी के दर्शन किये। वहाँ एक सज्जन ने पूछा आचार्य श्री जी ये कौन से भगवान हैं, आचार्य श्री जी ने कहा कौन से भगवान हैं बस भगवान हैं, इतना ही जानो। सज्जन पुनः बोले - चिन्ह तो देखो इस प्रतिमा जी में स्पष्ट नहीं हैं। तब आचार्य गुरूदेव ने कहा कि बस वीतरागता ही इनका चिन्ह है।
  10. वीतरागी गुरूओं का जीवन दया, करूणा से भरा हुआ होता है, वे अपने दुःख को सहन करने के लिये वज्र के समान कठोर हो जाते हैं। और दूसरे के दुःख को देखकर नवनीत की तरह या मोम की तरह पिघल जाते हैं। जब मेरे पैर में तकलीफ थी तब आचार्य श्री जी कक्ष के सामने से देव-वंदना के लिये निकले। कुछ 10-25 कदम आगे निकल गये अचानक उन्हें कुछ याद आया कि मुझे पैर में दर्द है देव-वंदना के पूर्व ही मेरे कक्ष में लौटकर आ गये| मैंने नमोस्तु करते हुए कहा आचार्य श्री जी आप वंदना के बाद भी तो आ सकते थे। आप बीच से ही लौट आये। आचार्य श्री ने कहा – हाँ ठीक है, यह भी तो जरूरी है, कैसी है तकलीफ यह उनकी दया और अनुकम्पा है जिन्हें हम मात्र अनुभूत कर सकते हैं, शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्त नहीं कर सकते। इससे गुरु से हमें यह शिक्षा मिलती है कि मंदिर जाने से पहले किसी को दुःख है। तो उसमें संवेदना व्यक्त करना चाहिए। दया, अनुकम्पा सबसे जरूरी है। आचार्य श्री जी ने लिखा भी है - पर की पीड़ा हमारी करूणा की परीक्षा लेती। दूसरे के दुःख को दूर करने के भाव करते हैं तो यह अपाय विचय धर्मध्यान माना जाता है। गुरूवर का दिल दुःख गया देख पराई पीर। दयोदय उद्भव हुआ, तिलवारा के तीर।।
  11. पैर में तकलीफ बढ़ती ही जा रही थी, आचार्य महाराज कक्ष में आये और मुझसे पूछने लगे - क्यों महाराज कैसी है तकलीफ? मैंने कहा - बढ़ती ही जा रही है। आचार्य श्री बोले - इस रोग में कोई औषधि तो काम करती ही नहीं है, समता ही रखनी होगी। मूलाचार में साधु को सबसे बड़ी औषधि बताई है बताओ वह क्या है ? मैंने कहा - जी आचार्य श्री समता खुश होकर आचार्य श्री बोले - बहुत अच्छा ऐसी ही समता बनाए रखना। मैंने कहा - आपका आशीर्वाद रहा तो सब सहन हो जावेगा, आप आ जाते हैं तो साहस बढ़ जाता है। आचार्य श्री कहते हैं भैया और मैं क्या कर सकता हूँ, आशीर्वाद ही दे सकता हूँ। मैंने कहा - आपके आशीर्वाद से ही मुझे सब कुछ मिल जाता है।
  12. भोपाल में महावीर जयंती मनाने के उपरांत सिद्धोदय सिद्धक्षेत्र नेमावर की ओर विहार हो गया। कुछ दिन पश्चात हमारे पैर में दर्द शुरू हो गया कारण हरपिश रोग हो गया यह बड़ा खतरनाक पीड़ादायक रोग माना जाता है। मैंने आचार्य श्री जी से कहा कि न जाने आचार्य श्री जी कौन-सा कर्म का उदय आ गया जो इतना बड़ा रोग घेर गया। आचार्य श्री जी ने कहा, भैया - "यह कर्म का उदय पराये घर के समान है।” जिसमें हमारी कुछ नहीं चलती। आचार्य श्री ने हमें एक ऐसा सूत्र दिया जिसके माध्यम से जीवन में आये हुये कर्मों के उदय को हम समता के साथ सहन कर सकते हैं।
  13. गर्मी का समय था विहार चल रहा था एक महाराज जी (पद्म सागर जी) का अन्तराय हो गया। आचार्य गुरूदेव ने उन्हें उसी दिन उसी गाँव में रुकने को कहा। उन्होंने कहा नहीं हम तो आपके साथ ही चलेंगे। दो, तीन बार कहने के बाद नहीं माने। आचार्य श्री जी ने डाँटते हुए कहा - हम जैसा कहते हैं, वैसा करो। महाराज (पद्म सागर जी) मौन रह गये, गुरूदेव के चरण छुये और रुकन की सहमति में सिर हिला दिया। उसी दिन संघ का विहार हो गया। गर्मी बहुत थी दूसरे दिन अगले गाँव में किसी भी मुनिराज से अच्छे से आहार नहीं लिये गये। ईर्यापथ भक्ति के बाद आचार्य श्री जी ने कहा - देखा महाराज मान नहीं रहे थे उनकी तो यहाँ और हालत खराब हो जाती। शिष्य ने कहा, क्या करें आचार्य श्री आपको कोई छोड़ना नहीं चाहता। आचार्य श्री ने कहा, ध्यान रखो यह मोक्ष मार्ग है, मोह मार्ग नहीं। यह गुरूदेव की निष्पृहवृत्ति एक अनोखा गुण है। वे हमेशा निरीहता के साथ जीवन व्यतीत करते हैं एवं सभी को निरीह बनने का उपदेश देते हैं।
  14. एषणा समिति की चर्चा चल रही थी। बीच में ही पूछ लिया आचार्य श्री जी वैद्यों का कहना है कि हँसते हुये आहार लेना चाहिए। आचार्य श्री ने कहा - हाँ, प्रशस्तता के साथ आहार लेना चाहिए, दलिया खा रहे हों तो ऐसा लगना चाहिए जैसे हलवा (हलुआ) खा रहे हों। आचार्य श्री जी आपकी बात अलग है, आप तो नीरस को रस बनाने में रस लेते हैं। आचार्य श्री ने कहा नीरस को रस बनाने में अलग ही रस आता है, जिसे दुनिया के पदार्थों में रस आता है उसे नीरस में रस नहीं आ सकता। संसार में रस कहाँ है "संसार तो नीरस है" यदि आत्मा का रस लेना चाहते हो तो संसार के पदार्थों में रस लेना छोड़ दो।
  15. रागी, वीतरागता में भी राग ढूंढ़ लेता है और वैरागी राग में भी वैराग्य खोज लेता है। यह दृष्टि का अंतर है, सृष्टि वही है, दृष्टि बदलते ही सृष्टि बदल जाती है | अतिशय क्षेत्र बहोरीबंद की बात है। गर्मी का समय था धर्मशाला के पीछे एक बकरा अनार वृक्ष के पत्तों को खाने के लिए दोनों पैरों को ऊपर उठाकर तोड़ने का प्रयास कर रहा था। तब आचार्य श्री जी ने कहा - देखो कुंथुसागर यह बकरा। मैंने कहा - हाँ आचार्य श्री जी उसको भूख लगी है तभी तो इतना प्रयास करके पत्तियाँ तोड़ रहा है। आचार्य श्री जी ने कहा - यह आहार संज्ञा है चारों संज्ञायें बड़ी प्रबल होती हैं। आहार संज्ञा तीर्थंकरों को भी होती है। मुनि अवस्था में वे भी आहार के लिए उठते हैं। (संज्ञा = इच्छा)।
  16. नेमावर सिद्धोदय सिद्धक्षेत्र से विहार हुआ। पक्की सड़क से चलते-चलते आ रहे थे, रास्ता मुड़ गया खारदा गाँव की ओर, जो कि कच्चा रास्ता था। मैंने आचार्य श्री से कहा - ये अच्छा मार्ग है, आचार्य श्री ने कहा - भैया यह राजमार्ग नहीं महाराज मार्ग है। (सभी हँसने लगे) मैंने पुनः कहा आचार्य श्री जी यहाँ ट्रॉफिक आदि भी नहीं है, तब आचार्य श्री बोले जब हम शहरों की ओर जाते हैं ट्रॉफिक में चलते हैं तो लगता है हम संयम पाल रहे कि नहीं लेकिन आज साधु लोग शहरों में जाना पसंद करने लगे हैं, क्या करें। आचार्य श्री की निरीहता देखिये वे मात्र संयम की चिन्ता करते हैं चलते, उठते, बैठते उन्हें हमेशा अपने मार्ग की चिन्ता रहती है। भले ही व्यवहार में किसी भी मार्ग (रास्ते) में चल रहे हो।
  17. यह बात उस समय की है जब सर्वोदय तीर्थ अमरकण्टक में 4 नवम्बर 2003 के दिन श्री आदिनाथ जी की प्रतिमा को नये निर्माणाधीन मंदिर की वेदी पर विराजमान करने के लिए यथा स्थान पर लाया जा रहा था। चूंकि प्रतिमाजी अष्टधातु से निर्मित होने से उसका वजन 24 टन था इसलिए उसे उठाने के लिए बहुत बड़ी क्रेन लायी गई थी। तीन मोटी लौह रस्सियों में जकड़कर प्रतिमा को उठाने का प्रयास किया जा रहा था, तीनों रस्सियों के माध्यम से संतुलन बनाया जा रहा है। इस दृश्य को आचार्य श्री सहित सारा संघ देख रहा था। आचार्य महाराज ने कहा देखो पहले भी इतनी बड़ी-बड़ी प्रतिमायें स्थापित की जाती थीं, पहले के लोग कैसे इतनी बड़ी प्रतिमायें उठाकर रखते होंगे। शिष्य ने कहा जी आचार्य श्री पहले क्रेन तो थी ही नहीं। आचार्य गुरूदेव ने कहा - हाँ क्रेन नहीं थी लेकिन उस समय ब्रेन (दिमाग) तो था। शिष्य - हाँ आचार्य श्री ब्रेन से ही क्रेन बनी है। आचार्य श्री ने कहा - भैया क्रेन से काम लेने के लिए भी ब्रेन की आवश्यकता होती है, प्रत्येक कार्य को सफल करने के लिए। बाह्य साधन के साथ-साथ बुद्धि की भी आवश्यकता होती है। जब प्रतिमा जी को उठाया गया तब तीनों लौह रस्सियों को पूर्ण संतुलित करके उठाया गया, आचार्य श्री बोले - केवली भगवान भी जब अन्त में ऊर्ध्वगमन करते हैं तो तीनों योगों को संतुलित करना पड़ता है। ऊर्ध्वगमन तो एक समय में होना है, लेकिन उससे पहले योग–निरोध रूप आयाम करना पड़ता है। शुद्धोपयोग, साधु बने बिना नहीं हो सकता । योग और उपयोग के कारण ही गुणस्थान बनते हैं ।।
  18. यह उस समय की बात है जब कुण्डलपुर से पंचकल्याणक के बाद सागौनी की ओर विहार हुआ, गर्मी बहुत थी, सड़क भी गरम थी। अचानक रास्ते में पानी बरसने जैसा मौसम हो गया मंद-मंद जलवृष्टि होने लगी मानो देवता स्वागत कर रहे हों। आश्चर्य की बात यह है कि ऐसा मौसम (पानी बरसने वाला) न तो कुण्डलपुर में था और न ही आगे सागौनी में था बल्कि मात्र रास्ते में था। आचार्य श्री जी को दूसरे दिन जब मौसम के बारे में बताया, तब आचार्य श्री जी ने कहा - "देखो जिसका रास्ता सही होता है, सम्यग्दृष्टि होता है, उसका सभी साथ देते हैं। चाहे मनुष्य हो, प्रकृति हो या देवता हो।”
  19. एक बार रास्ते में विहार करते हुए आ रहे थे। एक गाँव से गुजरना हुआ वहाँ दुकान पर एक भजन चल रहा था। "दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समायी, तूने काहे को दुनिया बनायी।” इस पंक्ति को सुनकर आचार्य श्री के चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान आ गयी तो साथ में चलने वाले सभी हँसने लगे। आचार्य महाराज ने कहा - ऐसा कहना ठीक नहीं बल्कि ऐसा कहो "दुनिया बसाने वाले क्या तेरे मन में समायी, तूने काहे को दुनिया बसायी।” संसार में तुम ही फँसे हो, गृहस्थी तुमने ही बसायी है खुद को दोषी कहो, भगवान को दोषी मत कहो।
  20. नेमावर में पू0 मुनि श्री पवित्र सागर जी महाराज के पैर में एक फोड़ा हो गया उन्हें पैर में बहुत वेदना थी। आचार्य श्री जी उन्हें देखने कक्ष में आये देखकर बोले यह फोड़ा अभी पका नहीं है एकदम मत फुड़वाना। कर्म भी एकदम नहीं पकते कठिन तपस्या करना पड़ती है। आप भी कुछ तपस्या करो।
  21. विहार करता हुआ पूरा संघ अकलतरा की ओर बढ़ रहा था, वहाँ जाने के लिए दो रास्ते थे एक पक्की सड़क से होकर और एक कच्चे रास्ते से होकर जाता था। कच्चा रास्ता दूरी में कम पड़ता था। वहा अनेक लोगों ने अपने-अपने ढंग से रास्ता बताया कुछ महाराज पहले ही बताये गये रास्ते से आगे निकल गये। एक वृद्ध दादा जी ने आकर बताया कि - बाबाजी आप लोग तो सीधे इसी रास्ते से निकल जाइये, आप जल्दी पहुँच जायेंगे और रास्ता भी ठीक है, मैं इस रास्ते से अनेकों बार आया गया हूँ। तब आचार्य महाराज जी के साथ हम सभी महाराज उसी रास्ते पर चल दिये आगे चलकर देखा रास्ता एकदम साफ-सुथरा था एवं दूरी भी कम थी। आचार्य महाराज जी ने कहा – देखो उस वृद्ध का बताया हुआ रास्ता एकदम सही है क्योंकि यह अनुभूत रास्ता है। इसी प्रकार मोक्ष मार्ग में हर किसी के बताये रास्ते पर नहीं चलना चाहिए, बल्कि जो अनुभूत कर चुके हैं ऐसे ही वीतरागी गुरु के बताये रास्ते पर चलना चाहिए। तभी हम सुरक्षित और जल्दी मोक्षमार्ग प्राप्त कर सकते हैं और जल्दी मुक्ति भी प्राप्त कर सकते हैं।
  22. सर्वोदय तीर्थ अमरकण्टक में नवनिर्मित अष्टधातु की आदिनाथ भगवान् की प्रतिमा जी को वेदी में स्थापित करने के लिए ट्रक में लाया जा रहा था, पर वह वहीं बीच में ही रुक गया। ट्रक का आधा पहिया जमीन में धंस गया। ट्रक वहीं रुक गया, आगे नहीं बढ़ रहा था तब आचार्य श्री ने कहा - भैया भगवान् बिना परीक्षा के वेदी में नहीं बैठते तो सोच लो आपके मन मंदिर में भी बिना परीक्षा के कैसे बैठेंगे।
  23. एक दिन आचार्य गुरूदेव से कहा - गुरूदेव कुछ लोग गलत कार्य करते हैं, उन्हें समझाते हैं फिर भी वे गलत कार्य करना नहीं छोड़ते ऐसी स्थिति में क्या करना चाहिए ? आचार्य गुरूदेव ने युक्ति पूर्वक समझाते हुए कहा - जिससे आप पाप छुड़वाना चाहते हो उससे पहले मित्रतापूर्वक व्यवहार करो । फिर कहो भैया देखो हमें आपके ये कार्य अच्छे नहीं लगते । मैं आपसे मित्र की तरह मिलता रहता हूँ, साथ में उठना-बैठना भी होता है आप ऐसे कार्य मत किया करो । सरलता से समझाकर ही यह कार्य हो सकता है, अपनापन देकर आप मनुष्य से क्या पशु पक्षी से भी पाप छुड़वा सकते हो वरना नहीं। यदि हमारा उसके प्रति सदव्यवहार न हो तो उसको ठेस लगने से उसका सम्यग्दर्शन भी छूट सकता है। इसलिए ऐसा व्यवहार करो जिससे अपनी दृष्टि मजबूत हो और दूसरे को भी सही दृष्टि प्राप्त हो, क्योंकि दुकान सरलता से, नम्रता से चलती है जोर जबरदस्ती से नहीं ।
  24. एक दिन आचार्य श्री जी ने परिग्रहपरिमाण व्रत की चर्चा के दौरान बताया कि चेतन परिग्रह की भी एक सीमा होना चाहिए। पहले सुना था कि किसी देश में जनसंख्या वृद्धि हो रही थी तब उसको रोक लगाने के लिए देश में नियम बना दिया था कि देशवासी ज्यादा पुत्र अपने घर में नहीं रख सकते एक बेटे को देश की रक्षा के लिए देना अनिवार्य होगा। अब हमें भी एक नियम बनाना पड़ेगा कि श्रावक को अपने एक संतान (पुत्र, पुत्री) को हमें देना होगा ताकि हम उसे धर्म की रक्षा के लिए आत्मकल्याण में लगा सकें उसे मुनि या आर्यिका बना | सकें। (सभी लोग हँसने लगे तालियों से सभी श्रावकों ने समर्थन किया) परिग्रह को ब्रेक लगाना चाहते हो तो स्वदारसंतोष व्रत (अपनी ही स्त्री के अलावा अन्य सभी स्त्रियों का त्याग करना) धारण करो। संतोष धारण करने से अनंत पाप कम हो जाता है। जैसे सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होते ही अनंतानुबंधी चली जाती है। फिर अनंत संसार चुल्लुभर बचता है, जल्दी मोक्ष मिल जाता है। वैसे ही यह व्रत ग्रहण कर लेने पर पाप चुल्लु भर बचता है। यदि मर्यादा में नहीं रहेंगे तो षष्टम्काल आने में देर नहीं लगेगी। इसलिए श्रावक को अपनी जीवनचर्या मर्यादित कर लेना चाहिए क्योंकि इसका प्रभाव आगे आने वाली पीढ़ी पर भी पड़ता है।
  25. किसी सज्जन ने आचार्य गुरूदेव से कहा साधुओं को गौशाला खुलवाने की प्रेरणा नहीं देना चाहिए उसमें हिंसा होती है। उन्हें तो आत्म ध्यान करना चाहिए। यह सुनकर आचार्य श्री ने कहा गौशाला में हिंसा नहीं होती, साक्षात् दया पलती है, करूणा के दर्शन होते हैं, गौशाला भी आयतन हैं, "अहिंसा का आयतन सम्यग्दर्शन में अनुकम्पा गुण कहा है वह गौशाला में पशुओं के संरक्षण से प्रयोग में आता है यह सक्रीय सम्यग्दर्शन माना जाता है। बच्चों को पालना मोह है, किन्तु पशुओं को पालना दया अनुकम्पा है।
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