वीतरागी गुरूओं का जीवन दया, करूणा से भरा हुआ होता है, वे अपने दुःख को सहन करने के लिये वज्र के समान कठोर हो जाते हैं। और दूसरे के दुःख को देखकर नवनीत की तरह या मोम की तरह पिघल जाते हैं। जब मेरे पैर में तकलीफ थी तब आचार्य श्री जी कक्ष के सामने से देव-वंदना के लिये निकले। कुछ 10-25 कदम आगे निकल गये अचानक उन्हें कुछ याद आया कि मुझे पैर में दर्द है देव-वंदना के पूर्व ही मेरे कक्ष में लौटकर आ गये| मैंने नमोस्तु करते हुए कहा आचार्य श्री जी आप वंदना के बाद भी तो आ सकते थे। आप बीच से ही लौट आये। आचार्य श्री ने कहा – हाँ ठीक है, यह भी तो जरूरी है, कैसी है तकलीफ यह उनकी दया और अनुकम्पा है जिन्हें हम मात्र अनुभूत कर सकते हैं, शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्त नहीं कर सकते। इससे गुरु से हमें यह शिक्षा मिलती है कि मंदिर जाने से पहले किसी को दुःख है। तो उसमें संवेदना व्यक्त करना चाहिए। दया, अनुकम्पा सबसे जरूरी है।
आचार्य श्री जी ने लिखा भी है -
पर की पीड़ा
हमारी करूणा की
परीक्षा लेती।
दूसरे के दुःख को दूर करने के भाव करते हैं तो यह अपाय विचय धर्मध्यान माना जाता है।
गुरूवर का दिल दुःख गया देख पराई पीर।
दयोदय उद्भव हुआ, तिलवारा के तीर।।