एक दिन आचार्य श्री जी ने परिग्रहपरिमाण व्रत की चर्चा के दौरान बताया कि चेतन परिग्रह की भी एक सीमा होना चाहिए। पहले सुना था कि किसी देश में जनसंख्या वृद्धि हो रही थी तब उसको रोक लगाने के लिए देश में नियम बना दिया था कि देशवासी ज्यादा पुत्र अपने घर में नहीं रख सकते एक बेटे को देश की रक्षा के लिए देना अनिवार्य होगा। अब हमें भी एक नियम बनाना पड़ेगा कि श्रावक को अपने एक संतान (पुत्र, पुत्री) को हमें देना होगा ताकि हम उसे धर्म की रक्षा के लिए आत्मकल्याण में लगा सकें उसे मुनि या आर्यिका बना | सकें। (सभी लोग हँसने लगे तालियों से सभी श्रावकों ने समर्थन किया)
परिग्रह को ब्रेक लगाना चाहते हो तो स्वदारसंतोष व्रत (अपनी ही स्त्री के अलावा अन्य सभी स्त्रियों का त्याग करना) धारण करो। संतोष धारण करने से अनंत पाप कम हो जाता है। जैसे सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होते ही अनंतानुबंधी चली जाती है। फिर अनंत संसार चुल्लुभर बचता है, जल्दी मोक्ष मिल जाता है। वैसे ही यह व्रत ग्रहण कर लेने पर पाप चुल्लु भर बचता है। यदि मर्यादा में नहीं रहेंगे तो षष्टम्काल आने में देर नहीं लगेगी। इसलिए श्रावक को अपनी जीवनचर्या मर्यादित कर लेना चाहिए क्योंकि इसका प्रभाव आगे आने वाली पीढ़ी पर भी पड़ता है।