गर्मी का समय था विहार चल रहा था एक महाराज जी (पद्म सागर जी) का अन्तराय हो गया। आचार्य गुरूदेव ने उन्हें उसी दिन उसी गाँव में रुकने को कहा। उन्होंने कहा नहीं हम तो आपके साथ ही चलेंगे। दो, तीन बार कहने के बाद नहीं माने। आचार्य श्री जी ने डाँटते हुए कहा - हम जैसा कहते हैं, वैसा करो। महाराज (पद्म सागर जी) मौन रह गये, गुरूदेव के चरण छुये और रुकन की सहमति में सिर हिला दिया। उसी दिन संघ का विहार हो गया। गर्मी बहुत थी दूसरे दिन अगले गाँव में किसी भी मुनिराज से अच्छे से आहार नहीं लिये गये। ईर्यापथ भक्ति के बाद आचार्य श्री जी ने कहा - देखा महाराज मान नहीं रहे थे उनकी तो यहाँ और हालत खराब हो जाती। शिष्य ने कहा, क्या करें आचार्य श्री आपको कोई छोड़ना नहीं चाहता। आचार्य श्री ने कहा, ध्यान रखो यह मोक्ष मार्ग है, मोह मार्ग नहीं। यह गुरूदेव की निष्पृहवृत्ति एक अनोखा गुण है। वे हमेशा निरीहता के साथ जीवन व्यतीत करते हैं एवं सभी को निरीह बनने का उपदेश देते हैं।