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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. गुना नगर में चातुर्मास चल रहा था, उसी समय महावीर भाई (ब्रह्मचारी विद्याधर जी के बड़े भाई) दर्शनार्थ आये। गुना के श्रावकों को टोपी लगाकर प्रवचन सुनते देखा तो वे बहुत खुश हुए और बोले टोपी लगाने की यह परंपरा आज समाप्त होती चली जा रही है। मुझे यहां सभी श्रावकों को टोपी लगाये हुए देखकर बहुत खुशी हो रही है। दक्षिण प्रांत में तो सभी श्रावकगण टोपी लगाया करते हैं, यह सज्जन की पहचान है। हमेशा सिर ढककर ही आना चाहिए, यह देव, शास्त्र एवं गुरू का बहुमान है। उन्होंने बताया कि जब मैं ब्रह्मचारी विद्याधर जी की दीक्षा हो रही थी उसके पूर्व विनौरी निकल रही थी उस दीक्षा को देखने के लिए गया था, उस समय बहुत भीड़ थी, वहां तक पहुंचना बहुत मुश्किल था, उस समय ब्रह्मचारी विद्याधर जी हाथी पर विराजमान थे, मेरी टोपी को देखकर वह पहचान गये कि यह तो महावीर हैं। यह टोपी ही थी जो मुझे सबसे पृथक् कर रही थी और मेरी पहचान बता रही थी। इस प्रसंग से हमें यह शिक्षा मिलती है कि श्रावकों को हमेशा प्रभु के दर्शन करने मंदिर में एवं गुरु के दर्शन करने सिर ढककर ही जाना चाहिए। इससे विनय गुण झलकता है एवं यह टोपी महाजनता का प्रतीक भी है।
  2. एक दिन आचार्य श्री मोहनीय कर्म एवं मोही प्राणी के बारे में समझा रहे थे। उन्होंने कहा कि मोह को सबसे बड़ा शत्रु कहा है, क्योंकि यह मोह ही संसारी प्राणी को चारों गतियों में भटकाता रहता है। ऐसे मोह की संगति से बचो और जो मोह से बचकर निर्मोही, साधु, त्यागीव्रति बन गये हैं, उन्हें मोहियों से भी बचना चाहिए, दूर रहना चाहिए। मोह को महामद यानि शराब की उपमा दी गयी है तो मोही को शराबी की उपमा दी जा सकती है। आचार्य श्री ने आगे कहा कि - जैसे सभ्य लोग शराब पीने से तो बचते ही हैं, लेकिन शराबी की संगति से भी बचते हैं। शराबी से बात करना भी पसंद नहीं करते, वैसे ही साधुजनों को मोह तो करना ही नहीं चाहिए और हमेशा मोही श्रावकों से भी बचना चाहिए। उनसे ज्यादा बात नहीं करना चाहिए। अंत में उन्होंने कहा कि - "मोह और मोहियों से दूर रहना ही मोक्षमार्ग है।"
  3. अपना, अपना ही होता है और पराया, पराया ही होता है। अपना सबको अच्छा लगता है और पराया कितना भी अच्छा क्यों न हो पर अपने से अच्छा नहीं लगता। अपने के प्रति सभी को लगाव होता है और अपना निर्दोष जैसा लगता है। किसी साधक ने आचार्य श्री से प्रश्न किया, आचार्य श्री ने उसका उत्तर भी दिया लेकिन उन्हें अपना प्रश्न अच्छा लगा, किन्तु आचार्य श्री ने जो उत्तर दिया ऐसा लगा मानो उन साधक को उस उत्तर से संतुष्टि न मिली हो। वह पुनः प्रश्न करने लगे तब आचार्य श्री जी ने कहा कि आचार्य ज्ञान सागर जी महाराज कहा करते थे कि - "प्रश्न उत्तर से अच्छा होता है, क्योंकि प्रश्न अपना होता है। और अपना सबसे अच्छा होता है।" उत्तर की प्रतीक्षा करो एक दिन ऐसा उत्तर मिलेगा कि फिर कोई प्रश्न ही पैदा नहीं होगा। सभी लोग इस बात को सुनकर बहुत खुश हुए।
  4. प्रायः लोग एक-दूसरे से यह कहते हुए मिलते हैं/ दिखाई देते हैं कि जब कभी आप पर आपत्ति आये या किसी की जरूरत पड़े तो मुझे याद कर लेना। भावना तो अच्छी है लेकिन ऐसा क्यों सोचते हो कि किसी पर आपत्ति आये तो हम दूर करें, बल्कि ऐसा सोचना चाहिए कि कभी किसी पर आपत्ति ही न आये। सबसे उत्तम भावना तो यही है कि हम हमेशा ऐसा ही सोचें कि हे भगवन्! कभी किसी पर कोई आपत्ति ही न आये, कोई कभी दुःखी न हो, सभी का कल्याण हो। यह प्रसंग उस समय का है जब एक दिन एक डॉक्टर आचार्य गुरूदेव के पास दर्शन करके चरणों के समीप बैठ गये और गुरूदेव से निवेदन करने लगे कि - आचार्य श्री, मैं आपकी सेवा नहीं कर पाता, आप हमें सेवा का अवसर नहीं देते। तब आचार्य श्री मुस्कराते हुए बोले - आप हमसे दूर रहो यही हमारी सेवा है। मुझे रोग होगा तभी तो आप सेवा करेंगे। सेवा की भावना मत रखो बल्कि रोग ही न हो ऐसी भावना करो। यही सच्ची सेवा है।
  5. सम्यकदृष्टि जीव संसार में ऐसा रहता है जैसे कीचड़ के बीच में कमल। वह कभी संसार विषयों में आसक्त नहीं होता। ज्ञानी हंस के समान है जो विषयरूपी कमलपत्र पर आसक्त नहीं होता और मिथ्यादृष्टि अज्ञानी भ्रमर के समान आसक्त हो जाता है और उस आसक्ति के वशीभूत होकर अपना सर्वस्व खो बैठता है। किसी सज्जन ने आचार्य श्री के समक्ष शंका रखते हुए कहा कि - आचार्य श्री जी सम्यकदृष्टि के लिए ऐसा कोई मंत्र बताएँ ताकि वह गृहस्थी में रहते हुए भी कर्मबंध से बच सके तब गुरूदेव ने शंका का समाधान करते हुए कहा कि सम्यकदृष्टि को चार संज्ञाओं (आहार, भय, मैथुन और परिग्रह) के वशीभूत नहीं होना चाहिए। तीन अशुभ (कृष्ण, नील और कापोत) लेश्याओं में नहीं जाना चाहिए। इंद्रियों के विषयों से बचना, आर्त-रौद्र ध्यान से बचना चाहिए एवं ज्ञान का दुरूपयोग नहीं करना चाहिए। बस यही मंत्र है। ज्ञान के दुरूपयोग का अर्थ है अभिमान नहीं करना एवं ख्याति लाभ-पूजा आदि की चाह नहीं करना। धर्मोपदेश देते समय बदले में पैसों की चाह नहीं रखना चाहिए।
  6. यदि कोई विद्यार्थी एक वर्ष तक पढ़ाई करता है तो उसकी परीक्षा भी देता है और उसका परिणाम भी निकलता है। ठीक उसी प्रकार जो व्यक्ति वर्षों से स्वाध्याय कर रहा है, उसका भी तो कुछ परिणाम निकलना चाहिए। कषायों, विकल्पों में कमी आनी चाहिए एवं परिणामों में निर्मलता आनी चाहिए। सांसारिक विकल्पों को भूलना एवं कषायों को कम करना ही शास्त्र ज्ञान प्राप्त करने का उद्देश्य है। यदि शास्त्र ज्ञान के उपरांत भी कषाएँ शांत नहीं होती तो समझना कि कोई सार्थक परिणाम नहीं निकला। इसी प्रसंग पर गुरूदेव का उपदेश चल रहा था तभी किसी शिष्य ने आचार्य श्री से शंका व्यक्त करते हुए कहा कि - आचार्य श्री सांसारिक विकल्पों को भूलने का सरल तरीका क्या है, बतलाने की कृपा करें?' आचार्य गुरूदेव ने सहज भाव से शंका का समाधान करते हुए कहा कि - "सांसारिक विकल्पों को भूलना चाहते हो तो बच्चों जैसा बन जाओ।" क्योंकि बालक जल्दी भूल जाता है और बड़ा नहीं भूलता। किसी भी घटित घटना को जैसे बच्चे को माँ ने एक चांटा मार दिया फिर दुलार (पुचकार) लिया। एक चुटकी बजाते ही वह बच्चा मुस्कराने लगता है, आँखा में पानी है और होंठों पर मुस्कान। यह है तत्काल भूलने की कला। शिष्य ने पुनः शंका व्यक्त करते हुए कहा कि - फिर किसी को बड़ा होना ही नहीं चाहिए, बच्चा ही बना रहना चाहिए। तब आचार्यश्री जी ने कहा कि - हाँ, बिल्कुल हमेशा बालकवत् बने रहो, सरल परिणाम बनाये रखो, यह सबसे बड़ी साधना मानी जाती है।
  7. कला बहत्तर पुरूष की जा में दो सरदार । एक जीव की जीविका, एक जीव उद्धार ।। पुरूष की बहत्तर कलाओं का वर्णन ग्रंथों में मिलता है, जिसमें दो कलाएँ मुख्य हैं एक जीव की आजीविका जो सात्विक हो, न्याय पूर्वक धनोपार्जन होता हो और दूसरी है जीव का उद्धार, आत्मकल्याण के पथ पर बढ़ना। गृहस्थ बनेगा तो आजीविका का साधन अपनाना ही पड़ेगा इसलिए न्याय-नीति पूर्वक ही सम्पदा कमाना चाहिए। जब भी सम्पदा बढ़ती है तो अन्याय-अनीति के कारण ही बढ़ती है। इसी बात को आचार्यश्री ने उपदेश में बतलाया कि सज्जनों की सम्पदा भी मात्र न्याय नीति से ही वृद्धि को प्राप्त नहीं होती बल्कि उसमें भी न्याय नीति का उल्लंघन समाहित हो जाता है। "श्रावक जब भी धन कमाने का लोभ करता है तब श्रावक के बारह व्रतों और षट्आवश्यकों का उल्लंघन तो होता ही है यही तो अन्याय और अनीति है ।" अंत में आचार्य श्री ने कहा कि आवश्यकों के समय पर धन कमाने से अन्य समय में धन कमाने की अपेक्षा अधिक पाप बंध होता है। इसलिए कहा है कि सम्पदाएँ बिना अन्याय-अनीति के वृद्धि को प्राप्त नहीं होती। जैसे नदी में बाढ़ गंदे पानी के बिना नहीं आती। अतः श्रावकों को पूजन, सामायिक आदि के समय पूजन, सामायिक आदि ही करना चाहिए उस समय दुकान खोलकर नहीं बैठना चाहिए।
  8. भजन, स्तवन एवं भावनाओं आदि के माध्यम से श्रावक प्रभु और गुरू की भक्ति करता है एवं विषयों से आसक्ति छूट जावे इसलिए बारह भावना, वैराग्य भावना आदि का पाठ करता है। लेकिन कभी-कभी वह यह ध्यान नहीं रख पाता कि कब क्या बोलना चाहिए। गुरु और प्रभु के समक्ष हमेशा स्तुति परख भजन ही कहना चाहिए। आहार चर्या के बाद गुरु का गुणगान ही करना चाहिए। वहाँ बारह भावना आदि नहीं सुनाना चाहिए, क्योंकि कभी-कभी ऐसे शब्द मुख से निकल जाते हैं जो ग्लानिकारक (मांस, चीत्कार, मरण, नाली का पानी एवं अर्थी आदि) होते हैं। इसी बात को समझाते हुए आचार्य श्री जी ने एक दिन कहा कि - आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज कहते थे कि आवकों को घर में रहते हुए “सुखी रहें सब जीव जगत के" ऐसी भावना भानी चाहिए। घर में विषय-कषायों के साथ बारह भावना नहीं भायी जाती। कभी-कभी दुःख भी होता है और श्रावकों की अज्ञानता पर हँसी भी आती है। एक बार गृहस्थ के यहां शादी हो रही थी और "राजा राणा क्षत्रपति का म्यूजिक चल रहा था।” एक बार महाराज घर में आहार ले रहे थे और श्रावक गाने लगे "आतम के अहित विषय-कषाय इनमें मेरी परिणति न जाए" तब ग्रास देंगे तो महाराज के ग्रास लेने के भाव होंगे क्या? नहीं। इसलिए श्रावक को कब क्या बोलना चाहिए इसका विवेक अवश्य रखना चाहिए। अंत में आचार्य श्री जी ने कहा कि - एक बात याद रखो "भक्ति अंधी होती है लेकिन भक्त अंधा नहीं होना चाहिए।"
  9. जो जहा रहता है वहीं रमने लगता है वह वहाँ से कहीं अन्यत्र नहीं जाना चाहता, और कोई भी जीव दूसरी जगह किसी कारणवश चला भी जाता है तो पुनः लौटकर अपने स्थान पर आ जाता है। ठीक वैसे ही योगीजन, मुनिजन अपनी आत्मा को ही निवास स्थान मानते हैं। एवं वहीं रमण करते हैं। आत्मा को छोड़कर अन्यत्र कहीं अपने उपयोग को नहीं ले जाते। बाह्य पदार्थों से योगी अनभिज्ञ होते हैं। वे राग-द्वेष के बिना ही पदार्थों को जानने का प्रयास करते हैं। क्योंकि वे जानते हैं। कि पर (शरीर) पर ही है और अपना (आत्मा) अपना ही है। अतः पर शरीरादि से दुःख होता है और आत्मा से सुख होता है। इस प्रकार का उपदेश गुरूवर के मुख से सभी भव्यात्माएँ सुन रहीं थीं। तभी किसी भव्यात्मा ने गुरूवर से पूछा कि - हे गुरूवर! हम लोगों से तो आत्मा में एक क्षण भी नहीं रहा जाता है, आप लोग कैसे आत्मा में हमेशा रह लेते हैं? तब आचार्य भगवन् ने कहा - "जैसे आप लोग अपनी दुकान छोड़कर अन्यत्र जाने की, दूसरे की दुकान पर बैठना (विक्रय करना) पसंद नहीं करते, यदि किसी की दुकान पर पहुँच भी जाओ तो तत्काल अपनी दुकान पर लौट आते हो बस वैसे ही योगी भी अपनी आत्मा को छोड़कर अन्यत्र जाने की इच्छा नहीं करते।"
  10. इष्टोपदेश ग्रंथ की 43वें नं0 के श्लोक का व्याख्यान करते हुए आचार्य महाराज ने कहा कि - ज्ञानी भी इस संसार में रहता है और अज्ञानी भी इस संसार में रहता है लेकिन जो जहा रहता है वह वहा रमने लगता है वह वहा से अन्यत्र नहीं जाना चाहता। ज्ञानी आत्मा में रमता है अज्ञानी शरीर, संसार भोगों में रमता है, क्योंकि ज्ञानी आत्मा में रहता है और अज्ञानी शरीर, संसार आदि में रमता है। तभी श्रोताओं में से किसी ने आचार्य भगवंत के सामने एक शंका रखी कि - हे गुरूवर! संसार में रहते हुए ज्ञानी और अज्ञानी जीव किस प्रकार के विचार करते हैं? आचार्य श्री जी ने शंका का समाधान करते हुए कहा कि - अज्ञानी विषय-भोगों में ही रमता हुआ आनंदित होता है और उन्हीं को प्रयोजनभूत मान लेता है, जबकि ज्ञानी योगी प्रयोजनभूत आत्मतत्व को ही ग्रहण करता है, उसी का चिंतन, मनन, ध्यान करता है। उसी आत्मतत्व में रमता है और संसार, शरीर से छूटने का चिन्तन करता है। आचार्य श्री ने उदाहरण देते हुए कहा कि जैसे जेल में जेलर और कैदी दोनों हैं, जेलर जेल में रहता हुआ भी हँसता है और सोचता है यही राम राज्य है यह कभी न छूटे, और कैदी जेल में रहता हुआ रोता रहता है और सोचता है यह रावण राज्य है, हे भगवान! यह जेल कब छूटे, कब मैं इससे बाहर निकल जाऊ। ठीक इसी प्रकार अज्ञानी सोचता है यह भोगोपभोग कभी न छूटे। लेकिन योगी की दृष्टि इससे विपरीत होती है। जब उसे आत्मस्वरूप के चिंतन, मनन, ध्यान से समुत्पन्न आनंद का अनुभव होने लगता है तब भोग नीरस और दुखदायी प्रतीत होते हैं।
  11. प्रायः युवा लोग किसी वृद्ध, दुःखी आदि को देखकर हँसी-मजाक करने लगते हैं, जबकि उसकी अवस्था या परिस्थिति को नहीं समझते और यह भी नहीं सोचते कि यह हमारा भविष्य है। कल हमारी भी यही अवस्था आने वाली है। वृद्धों की लाचारी को देखकर हँसना नहीं चाहिए, बल्कि शिक्षा लेनी चाहिए कि स्वस्थ अवस्था रहते हुए जब तक बुढ़ापा नहीं आता, इन्द्रियां शिथिल नहीं होती और कोई रोग नहीं घेरता तब तक आत्मकल्याण में प्रवृत्त हो जाना चाहिए वरना बाद में कुछ नहीं कर पाएंगे। पश्चाताप ही हाथ लगेगा। बचपन में ज्ञान प्राप्त करना चाहिए, जवानी में संयम धारण करना चाहिए एवं वृद्धावस्था में समाधि लेना चाहिए तभी मनुष्य जीवन सार्थक हो सकता है। ऐसा ही वह प्रसंग था जब आचार्य श्री समझा रहे थे कि हमारे मन, वचन और काय सभी में अहिंसा होनी चाहिए इतना तक कि हमारी लेखनी में भी अहिंसा ही झलकनी चाहिए। व्यंगात्मक लेखन नहीं होना चाहिए। उन्होंने कहा कि - एक वृद्ध लाठी लेकर गर्दन, पीठ झुकाए हुए चल रहा था उसी समय दो-चार युवक आये, उस वृद्ध व्यक्ति पर व्यंग्य करते हुए कहने लगे कि दादाजी क्या गिर गया है जो आप ढूँढ़ रहे हो, दादाजी कोई कम नहीं थे, अनुभवी थे बोले बच्चों क्या करें मेरी जवानी गिर गयी है, उसे ढूंढ़ रहा हूँ। “उन बच्चों को लगा जैसे हमसे बहुत बड़ी भूल हो गयी हो और बहुत बड़ी शिक्षा दी जा रही हो कि जवानी का उपयोग हँसी-मजाक, मौज-मस्ती में नहीं बल्कि भगवान् की भक्ति में, परोपकार में एवं आत्मकल्याण में करना चाहिए।" इसी प्रकार हमारी लेखनी में व्यंगात्मकता या दूसरे को कष्ट पहुँचाने वाली बातें नहीं होना चाहिए, बल्कि आत्मकल्याण हो, सभी का भला हो, ऐसा लेखन होना चाहिए। हमारी कलम में भी और कदम में भी फूल हों अर्थात, लेखन और आचरण दोनों में अहिंसा धर्म झलकना चाहिए।
  12. विदिशा में गर्मी के समय प्रवास चल रहा था, गर्मी बहुत थी। 8 अप्रैल को गुरूदेव ने केशलुंच किया था। उसी रात पानी गिरा एवं मौसम ठंडा हो गया। सुबह आचार्य श्री जी से कहा - आपके केशलुंच होने के कारण देवताओं ने वर्षा कर दी ओर मौसम ठंडा हो गया। यह सुनकर आचार्य महाराज जी ने कहा - आप लोगों ने ऐसी भावना भायी होगी। आप लोगों की भावना से ऐसा हुआ है, हमने कहा नहीं आचार्य श्री जी यह सब आपका ही प्रताप है। आचार्य भगवन् हमेशा जब कभी अपनी प्रशंसा सुनते हैं तो मौन हो जाते हैं या यों कह देते हैं कि सब गुरु महाराज की कृपा है, या यह सब आप लोगों की भावना से हुआ। ऐसा कह देते हैं। स्वयं अपने को इससे अछूता रखते हैं। मान से हमेशा दूर रहते हैं यह उनकी महानता है। कर्तव्य के समय यदि हमारी दृष्टि प्रलोभन की और चली जाती है तो हमारी दिशा विपरीत हो जाती है। कर्तव्य सामान्य होकर किया जाता है और कर्त्तव्य विशेष स्वामी बनकर किया जाता है। कर्तव्य को दिशाबोध तत्वज्ञान से प्राप्त होता है।
  13. रामटेक से छिंदवाड़ा की ओर विहार करते हुए चले जा रहे थे, धूप होने की वजह से रास्ते में बैठने के भाव हो रहे थे, लेकिन बहुत दूर-दूर तक कोई भी छायादार वृक्ष दिखाई नहीं दे रहा था। कुछ दूर और चलने पर देखा आचार्य श्री जी एक पेड़ के नीचे बैठे थे हम लोगों को देखकर आचार्य महाराज ने कहा आओ महाराज बैठ लो अब थोड़ा और चलना है। हम दोनों महाराज आचार्य महाराज के समीप जाकर बैठ गये जो साथ में महाराज थे उन्होंने कहा हम लोग अभी यही चर्चा कर रहे थे कि कितना चलना हो गया, आचार्य श्री तो कुछ आहार में लेते भी नहीं और इतना चलते भी हैं तो आचार्य महाराज हँसकर कहते हैं, "कुछ लेना ना देना मगन रहना।" हम तो तुम जवानों को देखकर चलते रहते हैं तो हम लोगों ने कहा हम आपको देखकर चलते रहते हैं। फिर बोले बहुत देर बाद एक छायादार वृक्ष मिला। अब तो मानना होगा 1 वृक्ष 100 संतान के बराबर होता है। देखो कितने लोग इसकी छाया में बैठकर शांति का अनुभव कर रहे हैं। आज वृक्षों को काटकर नगर बसाये जा रहे हैं, लेकिन प्रकृति के बिना मानव सुरक्षित नहीं रह सकता। मानव को इस ओर भी ध्यान देना चाहिए। मोक्षमार्ग की साधना चार प्रत्ययों में पूर्ण होती हैं, अज्ञान निवृत्ति, हान (विषय त्याग) उपादान (व्रत ग्रहण) एवं उपेक्षा (विकल्पों की शून्यता)।
  14. भोजपुर में अष्टमी के दिन आचार्य श्री जी ने केशलौंच किया। तदुपरान्त जंगल की ओर चले गये। थोड़ी देर बाद मैं भी जंगल गया वहाँ देखा पूज्य गुरूदेव एक बड़ी शिला पर विराजमान हैं, दोनों हाथ जोड़े हुए आँख बंद किये हुए कुछ पाठ पढ़ रहे हैं। मैं उनके समीप में ही पहुँच गया। मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मैंने उनके दर्शन करके सब कुछ पा लिया हो साक्षात् चतुर्थकालीन दृश्य, हृदय गद्गद् हो उठा। उसी शिला पर नीचे की ओर मैं भी हाथ जोड़कर बैठ गया आचार्य महाराज लगातार अनेक बार एक ही कारिका का पाठ कर रहे थे वह कारिका थी - सर्वं निराकृत्य विकल्प जालं, संसार कान्तार निपात हेतुम्। विविक्तमात्मान मवेक्षमाणो, निलीयसे त्वं परमात्म तत्त्वे //29 // यह सामायिक पाठ की कारिका है। थोड़ी देर बाद गुरूदेव ने आँखें खोली, बोले- क्यों तुम आ गये, मैंने हाथ जोड़कर कहा कि आचार्य श्री मैं आ गया। हमारा सौभाग्य है कि जिन कारिकाओं को गुफाओं में, जंगलों में बैठकर आचार्यों ने लिखा होगा उन्हीं कारिकाओं को आचार्य महाराज के श्री मुख से इन्हीं शिलाओं पर बैठकर सुन रहा हूँ। आचार्य महाराज जी कहते हैं, हाँ जो कारिकायें अच्छी लगती हैं उनका मैं बार-बार पाठ करता हूँ, उन कारिकाओं की माला भी फेर लेता हूँ। कम से कम अपन इन कारिकाओं का पाठ ही कर लें। यह सुनकर ऐसा लगा मानों आचार्य महाराज का जिनवाणी के प्रति, पूर्वाचार्यों के प्रति कितना बहुमान है। शायद यही कारण है उनके प्रत्येक शब्द में सागर जैसी गहराई दिखाई देती है। उनके प्रत्येक वाक्य मंत्र का काम करते हैं। जीवन में नई प्रेरणा एवं उमंग भर देते हैं । आगे उन्होंने बताया कि यह संसार विकल्पों का जाल है और विकल्प संसार के कारण हैं, इन्हें छोड़कर आत्मरथ होना चाहिए। निर्विकल्प होना चाहिए। तभी संसार से मुक्ति मिल सकती है ।
  15. गुण और दोष की चर्चा करते हुए आचार्य श्री जी ने बताया कि हमारी दृष्टि सुनार की भाँति होनी चाहिए। सुनार की दृष्टि हमेशा स्वर्ण की ओर जाती है, जबकि एक तोला सोना है और उसमें 20 गुना पाषाण (दोष) है फिर भी उसकी दृष्टि दोषों पर नहीं जाती। उसी प्रकार जो मोक्षमार्ग पर आरूढ़ है उनके गुणों के प्रति हमारी दृष्टि रहना चाहिए। इसी दृष्टि के माध्यम से हमारे गुणों का विकास होता है। दूसरों के दोषों को ढकने से हमारा सम्यग्दर्शन निर्मल होता है। यह सुनकर के लगा वास्तव में गुरूदेव की दृष्टि भी हमेशा सृष्टि में गुण ही देखा करती है। मैंने गुरूदेव के मुख से आज तक किसी के दोष के बारे में नहीं सुना। यदि कभी किसी ने उन्हें दूसरे के दोष बतलाने का प्रयास किया है तो आचार्य श्री कह देते हैं क्या करें उसके कर्मों का उदय ही ऐसा है। सचमुच गुरूदेव का हृदय हिम के समान पवित्र एवं स्वच्छ है। वे हमेशा कहते हैं दूसरों के दोष देखना भी एक बहुत बड़ा दोष है। इस दोष को हमेशा के लिए त्याग देना चाहिए।
  16. स्वर्ग के देवी-देवताओं का प्रकरण चल रहा था। किसी सज्जन ने आचार्य श्री से शंका व्यक्त करते हुए कहा कि - आचार्य श्री जी आप देवी देवताओं को मानते हैं या नहीं ? आचार्य श्री जी ने कहा - हाँ, मैं मानता हूँ, क्यों नहीं मानूगां। जैसा उनका स्वरूप आगम ग्रंथों में कहा है, उस रूप में मानता हूँ। देव चार प्रकार के होते हैं, असयंमी होते हैं। इसी रूप में मानते हैं। वे तो असंयमी हैं उनका क्या आदर करना, उनका आदर करना महान भूल है। आगम में जिसका जो स्वरूप कहा गया है उसे उसी रूप में स्वीकारना चाहिए। वरना सच्चे देव देवाधिदेव की आसादना हो जावेगी। संयमी ही पूज्यनीय होते हैं। असयंमी देव पूजने के योग्य नहीं हैं।
  17. दीक्षा के कुछ दिन उपरान्त हम कुछ महाराज गुरूदेव के पास बैठे हुए थे, ऐसा लग रहा था मानो हमें गुरु नहीं बल्कि साक्षात् प्रभु मिल गये हों, उनके करीब रहने का आनंद अलग ही होता है। यह बताया नहीं जा सकता मात्र अनुभूत किया जा सकता है। आचार्य महाराज जी ने पूछा - क्यों दीक्षित होने के उपरान्त कैसा लग रहा है? हम सभी महाराजों ने कहा - बहुत अच्छा, बिल्कुल निराकुल जीवन हो गया है, ये सब आपकी महिमा है। आपने हम सब पर बड़ा उपकार कर दिया। आचार्य श्री बोल उठो - नहीं भैया मैंने कुछ नहीं किया आपने पुरूषार्थ किया उपादान जागृत किया, जो चाहा मिल गया मैं निमित्त मात्र हूँ। वास्तव में आचार्य भगवन् जन-जन का उद्धार कर रहे हैं लेकिन कर्तृत्व, भोगतृत्व और स्वामित्व से परे रहते हैं। वे हमेशा अपने कर्त्तापन के बोझ से रहित हैं। वे कर्तव्य समझकर अपने पथ पर निरंतर बढ़ते रहते हैं, धन्य हैं यह उनकी निरीह वृत्ति वे मात्र शब्दों से नहीं बल्कि अपनी चर्या के माध्यम से उपदेश देते हैं कि प्रत्येक साधक को हमेशा कर्त्तापन भोक्तापन और स्वामीपन से दूर रहना चाहिए। जीवन की परवाह न करते हुये धर्म की रक्षा में समर्पित हो जाना ही सही समर्पण है। सौंदर्य आँखों से दिखता है, और पवित्रता मन से दिखती है। आचरण नकल से नहीं बल्कि हृदय के साथ विश्वास के साथ ग्रहण किया जाता है।
  18. छिंदवाड़ा से नरसिंहपुर की ओर आ रहे थे, रास्ते में एक गाँव में रुकना हुआ। शाम को विहार करना था सामायिक के बाद कुछ श्रावकगण आचार्य महाराज जी के पास गये और निवेदन किया कि हम श्रावकों को कुछ उपदेश दीजिए। तब आचार्य महाराज ने कहा – हम आप लोगों को क्या उपदेश दें, आप लोगों की जीवन की गाड़ी पटरी से नीचे उतर गयी है। उसे पटरी पर लाने का प्रयास करो, जो गाड़ी पटरी से उतर जाती है, उसे पुनः पटरी पर लाने के लिए बड़ी-बड़ी क्रेन की आवश्यकता पड़ती है। तब एक सज्जन ने कहा इसलिए तो आचार्य श्री हम आप जैसी महान् क्रेन के पास आकर बैठ गये अब आपई जानों। तब आचार्य महाराज ने कहा - भैया क्रेन ऐसई नई मिल जात और क्रेन में खर्चा बहुत लगता है, क्रेन जो गाड़ी काम की होती है (जवान गाड़ी) उन्हीं को उठाती है जो काम में नहीं आती (बूढ़ी गाड़ी) उन्हें नहीं उठाती। सभी लोग आचार्य महाराज का अभिप्राय समझकर हँसने लगे। क्योंकि आचार्य श्री जवान गाड़ी को ही अपने पास रखते हैं, बुजुर्ग को नहीं। प्रायः जवानों को ही दीक्षा देते हैं। स्वाध्याय से संघर्ष का समापन होना चाहिये। निरीहता के साथ वस्तुतत्व का प्रतिपादन करने से जिनधर्म की अच्छी प्रभावना होती है। अपने जीवन को उपदेशमय बनाइये। स्वाध्याय का उद्देश्य मात्र कषायों का शमन करना होना चाहिये। विषयों के प्रति उपेक्षा होना चाहिए।
  19. आधुनिक शिक्षा के बारे में चिन्ता व्यक्त करते हुए आचार्य महाराज जी ने कहा कि - आज जहाँ बच्चे पढ़ते हैं वह सरस्वती का मंदिर है| हॉस्टल आदि में बच्चों को शुद्ध, भक्ष्य एवं दिन में भोजन की व्यवस्था करना चाहिए| यह श्रावकों का कर्तव्य है, इससे बच्चे बीमारी एवं कुविचारों से बच सकते हैं। मैंने कहा - आचार्य श्री जी आज विज्ञान के युग में मात्र व्यक्ति सुविधा देखता है, धर्म और संस्कारों की ओर किसी की दृष्टि नहीं जाती। आचार्य श्री ने कहा इसलिए तो सोचा है कि ऐसी शिक्षा व्यवस्था की जावे ताकि बच्चे ज्ञान विज्ञान के साथ सम्यग्ज्ञान भी प्राप्त कर सकें। यह प्रतिभा मण्डल की बहिनें तैयार हो रही हैं, जिनके माध्यम से स्कूल में धार्मिक संस्कार भी दिये जायेंगे।
  20. आचार्य श्री ने कहा - आचार्यों के सूत्रों का अर्थ सूझबूझ के साथ निकालना चाहिए। वरना अर्थ का अनर्थ हो जाता है। जैसे मशीन के नटवोल्ट की संयोजना अपने ढंग से होती है, वरना विपरीत हो जाता है। एक बार एक व्यक्ति को कुर्ता के स्वरूप का बोध तो था लेकिन उसे पहनने का बोध नहीं था। उसने उसे उल्टा पहिन लिया वह हँसी का पात्र बन गया। वैसे ही हमें शास्त्र का सही-सही ज्ञान रखना चाहिए और उसका सही-सही उपयोग करना चाहिए वरना हँसी के पात्र बनना पड़ेगा एवं अशुभ कर्म का बंध भी होगा। मोक्ष मार्ग में जो उपदेश देते हैं वह पक्षपात से रहित होकर उपदेश देवें। परमार्थ की सिद्धि के लिए उपदेश देना चाहिए स्वार्थ सिद्धि के लिए नहीं। आज अर्थ (पैसा) के युग में सब कुछ बिक रहा है उपदेश भी और चिकित्सा भी इसलिये तो इसका प्रभाव नहीं पड़ रहा है।
  21. शाम को एक दिन वैयावृत्ति कर रहे थे कि चर्चा के दौरान आचार्य श्री जी ने कहा - आज दो अजैन बच्चियाँ हमारे पास आयीं और कहने लगीं आचार्य श्री जी ये लोग हम लोगों को नीचे से आपके दर्शन करने नहीं आने देते और दो पत्र पैरों के पास रख दिये। उनकी अच्छी भावना लगी। पत्र को मैंने पढ़ा ऐसा लगा जैसे कोई जैन कवि की भाषा हो पर वे तो रघुवंशी समाज की थीं। उन्होंने अन्त में पद्य में दो पंक्ति लिखीं, सुना है आप पत्र नहीं पढ़ेंगे पर मेरी भावना है. आप संत ही नहीं कपानिधान भी हैं, अतः मुझे विश्वास है कि आप मेरी प्रार्थना पर अवश्य ध्यान देंगे और मुझे आशीर्वाद देंगे। देखो लोगों की कितनी पवित्र भावनायें होती हैं, ये जैन लोग, कार्यकर्ता समझते नहीं है इन्हें थोड़ा विवेक से कार्य करना चाहिए - वे पंक्तियाँ - (जो उन बहनों ने आचार्य श्री के लिये लिखी थीं) एक पथिक चल रहा निरंतर रखकर वेश अपना दिगम्बर। एक पथिक चल .......... न चाह उसको छाँह की वो खुश हैं सबको छाँव देकर न कामना है विश्राम की वो चल रहा विश्राम देकर। एक पथिक चल ..... ग्रीष्म की विभीषिका भी नत है उसके सामने झुक रहा है सूर्य भी तेज उसका देखकर | एक पथिक चल....... मोह बंधन से दूर है वो ज्ञान का भंडार है। कुबेर भी है भीख माँगे कोष उसका देखकर। एक पथिक चल......
  22. एक बार आचार्य श्री ने बताया कि आप लोगों (मुनिराजों) की रत्नत्रय की गाड़ी है, इसमें रत्न भरे हैं, अध्यात्म इस गाड़ी की स्टेरिंग है। मोक्ष की इच्छा रखने वाले मुमुक्षु को अध्यात्म की ओर ही दृष्टि रखना चाहिए। अध्यात्म को कभी भी भूलना नहीं चाहिए। अध्यात्म स्टेरिंग की भाँति है जैसे गाड़ी में स्टेरिंग होती है जहाँ, जब चाहो उसे स्टेरिंग के माध्यम से मोड़ सकते हो, एक्सीडेन्ट (दुर्घटना) से बच सकते हो। वैसे ही मोक्ष मार्ग में बढ़ने वाले साधक को अध्यात्म स्टेरिंग की भाँति है, जीवन में किसी भी प्रकार के मोड/समस्या, आ जावे तो अध्यात्म के माध्यम से बचा जा सकता है उपसर्ग परीषह के समय अध्यात्म ही काम आता है। इसलिए साधक को हमेशा अध्यात्म की ओर दृष्टि बनाये रखना चाहिए, लौकिकता से बचना चाहिए।
  23. गर्मी का समय था एक गाँव में रुकना हुआ, तखत पाटे बाहर खुली हवा में लगा दिये ताकि गर्मी न लगे शाम होते ही थोड़ी ठंडी हवा चलने लगी। मैंने पाटे को उठवाया और जमीन का परिमार्जन करके देहलान में लगवा दिया। यह देखकर आचार्य महाराज जी ने कहा - देखो चेन्ज करने की अपेक्षा पहले चयन कर लेना चाहिए। बार-बार स्थान चेन्ज नहीं करना चाहिए क्योंकि चेन्ज करना अच्छा नहीं माना जाता। मुझे लगा जैसे गुरूदेव हमें इस बात के लिए आगाह कर रहे हों कि संसार में कोई भी कार्य करो, कोई भी रास्ता चलो, कोई भी उद्देश्य, ध्येय रखो पहले सोच समझकर करो ताकि बाद में उसे बदलना ना पड़े। गुरु के प्रत्येक वाक्य में जीवन जीने की सामग्री होती है | उनके वाक्यों पर यदि हम अमल करने लगे तो हमारा जीवन धन्य हो जायेगा।
  24. एक बार आचार्य महाराज जी ने बताया कि पाठ करते समय मात्र पाठ (शब्दों) की ओर दृष्टि जाने पर लीनता नहीं आती है बल्कि लीनता तो अर्थ की ओर जाने पर आती है। शिष्य ने कहा - लेकिन आचार्य श्री जी अर्थ की ओर चले जाते हैं तो पाठ भूल जाते हैं। आचार्य श्री ने कहा - भूलना तो स्वभाव है। "जैसे ज्ञान आत्मा का स्वभाव है वैसे ही भूलना मनुष्य का स्वभाव है।” मनुष्य तो भूल का पुतला है। दूसरे शिष्य ने कहा - भूलता तो पागल है, आचार्य श्री जी बोले - यह भी एक भूल है, दूसरे को पागल कहना। भूल तो मात्र भगवान् से नहीं होती बांकी सभी से होती है। अन्त में उन्होंने कहा - अनावश्यक को भूलना सीखो तो आवश्यक स्मरण में रहेगा। मनोरंजन में नहीं आत्मरंजन में रहना सीखो |
  25. एक दिन आचार्य महाराज जी ने बताया कि हम कषाय की परिभाषा में उलझकर भी कषाय कर जाते हैं, लेकिन इतना स्वाध्याय करने के बाद भी हम कषायों का उपशमन नहीं कर पाते हैं। क्षय नहीं कर पाते हैं। एक बार आचार्य ज्ञान सागर जी महाराज ने पंडित जी से पूछा कषाय किसे कहते हैं, एक बार, दो बार, तीन बार पूछा फिर थोड़े गुस्सा भरे शब्दों में जोर से कहा - अरे पंडित जी आपको कषाय की परिभाषा तक नहीं आती। फिर पंडित जी ने कहा - हाँ महाराज जी मैं समझ गया कषाय किसे कहते हैं। महाराज जी ने बताया कि "अपनी बात को जबरन मनवाना, दूसरे पर थोपना, जोर से बोलना यह भी कषाय की सूक्ष्म परिणति है।"
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