प्रायः युवा लोग किसी वृद्ध, दुःखी आदि को देखकर हँसी-मजाक करने लगते हैं, जबकि उसकी अवस्था या परिस्थिति को नहीं समझते और यह भी नहीं सोचते कि यह हमारा भविष्य है। कल हमारी भी यही अवस्था आने वाली है। वृद्धों की लाचारी को देखकर हँसना नहीं चाहिए, बल्कि शिक्षा लेनी चाहिए कि स्वस्थ अवस्था रहते हुए जब तक बुढ़ापा नहीं आता, इन्द्रियां शिथिल नहीं होती और कोई रोग नहीं घेरता तब तक आत्मकल्याण में प्रवृत्त हो जाना चाहिए वरना बाद में कुछ नहीं कर पाएंगे। पश्चाताप ही हाथ लगेगा। बचपन में ज्ञान प्राप्त करना चाहिए, जवानी में संयम धारण करना चाहिए एवं वृद्धावस्था में समाधि लेना चाहिए तभी मनुष्य जीवन सार्थक हो सकता है।
ऐसा ही वह प्रसंग था जब आचार्य श्री समझा रहे थे कि हमारे मन, वचन और काय सभी में अहिंसा होनी चाहिए इतना तक कि हमारी लेखनी में भी अहिंसा ही झलकनी चाहिए। व्यंगात्मक लेखन नहीं होना चाहिए। उन्होंने कहा कि - एक वृद्ध लाठी लेकर गर्दन, पीठ झुकाए हुए चल रहा था उसी समय दो-चार युवक आये, उस वृद्ध व्यक्ति पर व्यंग्य करते हुए कहने लगे कि दादाजी क्या गिर गया है जो आप ढूँढ़ रहे हो, दादाजी कोई कम नहीं थे, अनुभवी थे बोले बच्चों क्या करें मेरी जवानी गिर गयी है, उसे ढूंढ़ रहा हूँ। “उन बच्चों को लगा जैसे हमसे बहुत बड़ी भूल हो गयी हो और बहुत बड़ी शिक्षा दी जा रही हो कि जवानी का उपयोग हँसी-मजाक, मौज-मस्ती में नहीं बल्कि भगवान् की भक्ति में, परोपकार में एवं आत्मकल्याण में करना चाहिए।" इसी प्रकार हमारी लेखनी में व्यंगात्मकता या दूसरे को कष्ट पहुँचाने वाली बातें नहीं होना चाहिए, बल्कि आत्मकल्याण हो, सभी का भला हो, ऐसा लेखन होना चाहिए। हमारी कलम में भी और कदम में भी फूल हों अर्थात, लेखन और आचरण दोनों में अहिंसा धर्म झलकना चाहिए।