गुना नगर में चातुर्मास चल रहा था, उसी समय महावीर भाई (ब्रह्मचारी विद्याधर जी के बड़े भाई) दर्शनार्थ आये। गुना के श्रावकों को टोपी लगाकर प्रवचन सुनते देखा तो वे बहुत खुश हुए और बोले टोपी लगाने की यह परंपरा आज समाप्त होती चली जा रही है। मुझे यहां सभी श्रावकों को टोपी लगाये हुए देखकर बहुत खुशी हो रही है। दक्षिण प्रांत में तो सभी श्रावकगण टोपी लगाया करते हैं, यह सज्जन की पहचान है। हमेशा सिर ढककर ही आना चाहिए, यह देव, शास्त्र एवं गुरू का बहुमान है।
उन्होंने बताया कि जब मैं ब्रह्मचारी विद्याधर जी की दीक्षा हो रही थी उसके पूर्व विनौरी निकल रही थी उस दीक्षा को देखने के लिए गया था, उस समय बहुत भीड़ थी, वहां तक पहुंचना बहुत मुश्किल था, उस समय ब्रह्मचारी विद्याधर जी हाथी पर विराजमान थे, मेरी टोपी को देखकर वह पहचान गये कि यह तो महावीर हैं। यह टोपी ही थी जो मुझे सबसे पृथक् कर रही थी और मेरी पहचान बता रही थी।
इस प्रसंग से हमें यह शिक्षा मिलती है कि श्रावकों को हमेशा प्रभु के दर्शन करने मंदिर में एवं गुरु के दर्शन करने सिर ढककर ही जाना चाहिए। इससे विनय गुण झलकता है एवं यह टोपी महाजनता का प्रतीक भी है।