इष्टोपदेश ग्रंथ की 43वें नं0 के श्लोक का व्याख्यान करते हुए आचार्य महाराज ने कहा कि - ज्ञानी भी इस संसार में रहता है और अज्ञानी भी इस संसार में रहता है लेकिन जो जहा रहता है वह वहा रमने लगता है वह वहा से अन्यत्र नहीं जाना चाहता। ज्ञानी आत्मा में रमता है अज्ञानी शरीर, संसार भोगों में रमता है, क्योंकि ज्ञानी आत्मा में रहता है और अज्ञानी शरीर, संसार आदि में रमता है। तभी श्रोताओं में से किसी ने आचार्य भगवंत के सामने एक शंका रखी कि - हे गुरूवर! संसार में रहते हुए ज्ञानी और अज्ञानी जीव किस प्रकार के विचार करते हैं? आचार्य श्री जी ने शंका का समाधान करते हुए कहा कि - अज्ञानी विषय-भोगों में ही रमता हुआ आनंदित होता है और उन्हीं को प्रयोजनभूत मान लेता है, जबकि ज्ञानी योगी प्रयोजनभूत आत्मतत्व को ही ग्रहण करता है, उसी का चिंतन, मनन, ध्यान करता है। उसी आत्मतत्व में रमता है और संसार, शरीर से छूटने का चिन्तन करता है। आचार्य श्री ने उदाहरण देते हुए कहा कि जैसे जेल में जेलर और कैदी दोनों हैं, जेलर जेल में रहता हुआ भी हँसता है और सोचता है यही राम राज्य है यह कभी न छूटे, और कैदी जेल में रहता हुआ रोता रहता है और सोचता है यह रावण राज्य है, हे भगवान! यह जेल कब छूटे, कब मैं इससे बाहर निकल जाऊ। ठीक इसी प्रकार अज्ञानी सोचता है यह भोगोपभोग कभी न छूटे। लेकिन योगी की दृष्टि इससे विपरीत होती है। जब उसे आत्मस्वरूप के चिंतन, मनन, ध्यान से समुत्पन्न आनंद का अनुभव होने लगता है तब भोग नीरस और दुखदायी प्रतीत होते हैं।