सम्यकदृष्टि जीव संसार में ऐसा रहता है जैसे कीचड़ के बीच में कमल। वह कभी संसार विषयों में आसक्त नहीं होता। ज्ञानी हंस के समान है जो विषयरूपी कमलपत्र पर आसक्त नहीं होता और मिथ्यादृष्टि अज्ञानी भ्रमर के समान आसक्त हो जाता है और उस आसक्ति के वशीभूत होकर अपना सर्वस्व खो बैठता है।
किसी सज्जन ने आचार्य श्री के समक्ष शंका रखते हुए कहा कि - आचार्य श्री जी सम्यकदृष्टि के लिए ऐसा कोई मंत्र बताएँ ताकि वह गृहस्थी में रहते हुए भी कर्मबंध से बच सके तब गुरूदेव ने शंका का समाधान करते हुए कहा कि सम्यकदृष्टि को चार संज्ञाओं (आहार, भय, मैथुन और परिग्रह) के वशीभूत नहीं होना चाहिए। तीन अशुभ (कृष्ण, नील और कापोत) लेश्याओं में नहीं जाना चाहिए। इंद्रियों के विषयों से बचना, आर्त-रौद्र ध्यान से बचना चाहिए एवं ज्ञान का दुरूपयोग नहीं करना चाहिए। बस यही मंत्र है। ज्ञान के दुरूपयोग का अर्थ है अभिमान नहीं करना एवं ख्याति लाभ-पूजा आदि की चाह नहीं करना। धर्मोपदेश देते समय बदले में पैसों की चाह नहीं रखना चाहिए।