कला बहत्तर पुरूष की जा में दो सरदार ।
एक जीव की जीविका, एक जीव उद्धार ।।
पुरूष की बहत्तर कलाओं का वर्णन ग्रंथों में मिलता है, जिसमें दो कलाएँ मुख्य हैं एक जीव की आजीविका जो सात्विक हो, न्याय पूर्वक धनोपार्जन होता हो और दूसरी है जीव का उद्धार, आत्मकल्याण के पथ पर बढ़ना। गृहस्थ बनेगा तो आजीविका का साधन अपनाना ही पड़ेगा इसलिए न्याय-नीति पूर्वक ही सम्पदा कमाना चाहिए। जब भी सम्पदा बढ़ती है तो अन्याय-अनीति के कारण ही बढ़ती है।
इसी बात को आचार्यश्री ने उपदेश में बतलाया कि सज्जनों की सम्पदा भी मात्र न्याय नीति से ही वृद्धि को प्राप्त नहीं होती बल्कि उसमें भी न्याय नीति का उल्लंघन समाहित हो जाता है। "श्रावक जब भी धन कमाने का लोभ करता है तब श्रावक के बारह व्रतों और षट्आवश्यकों का उल्लंघन तो होता ही है यही तो अन्याय और अनीति है ।"
अंत में आचार्य श्री ने कहा कि आवश्यकों के समय पर धन कमाने से अन्य समय में धन कमाने की अपेक्षा अधिक पाप बंध होता है। इसलिए कहा है कि सम्पदाएँ बिना अन्याय-अनीति के वृद्धि को प्राप्त नहीं होती। जैसे नदी में बाढ़ गंदे पानी के बिना नहीं आती। अतः श्रावकों को पूजन, सामायिक आदि के समय पूजन, सामायिक आदि ही करना चाहिए उस समय दुकान खोलकर नहीं बैठना चाहिए।