शाम को एक दिन वैयावृत्ति कर रहे थे कि चर्चा के दौरान आचार्य श्री जी ने कहा - आज दो अजैन बच्चियाँ हमारे पास आयीं और कहने लगीं आचार्य श्री जी ये लोग हम लोगों को नीचे से आपके दर्शन करने नहीं आने देते और दो पत्र पैरों के पास रख दिये। उनकी अच्छी भावना लगी। पत्र को मैंने पढ़ा ऐसा लगा जैसे कोई जैन कवि की भाषा हो पर वे तो रघुवंशी समाज की थीं। उन्होंने अन्त में पद्य में दो पंक्ति लिखीं, सुना है आप पत्र नहीं पढ़ेंगे पर मेरी भावना है. आप संत ही नहीं कपानिधान भी हैं, अतः मुझे विश्वास है कि आप मेरी प्रार्थना पर अवश्य ध्यान देंगे और मुझे आशीर्वाद देंगे। देखो लोगों की कितनी पवित्र भावनायें होती हैं, ये जैन लोग, कार्यकर्ता समझते नहीं है इन्हें थोड़ा विवेक से कार्य करना चाहिए - वे पंक्तियाँ - (जो उन बहनों ने आचार्य श्री के लिये लिखी थीं)
एक पथिक चल रहा निरंतर
रखकर वेश अपना दिगम्बर। एक पथिक चल ..........
न चाह उसको छाँह की
वो खुश हैं सबको छाँव देकर
न कामना है विश्राम की
वो चल रहा विश्राम देकर। एक पथिक चल .....
ग्रीष्म की विभीषिका भी
नत है उसके सामने
झुक रहा है सूर्य भी
तेज उसका देखकर | एक पथिक चल.......
मोह बंधन से दूर है
वो ज्ञान का भंडार है।
कुबेर भी है भीख माँगे
कोष उसका देखकर। एक पथिक चल......