यदि कोई विद्यार्थी एक वर्ष तक पढ़ाई करता है तो उसकी परीक्षा भी देता है और उसका परिणाम भी निकलता है। ठीक उसी प्रकार जो व्यक्ति वर्षों से स्वाध्याय कर रहा है, उसका भी तो कुछ परिणाम निकलना चाहिए। कषायों, विकल्पों में कमी आनी चाहिए एवं परिणामों में निर्मलता आनी चाहिए। सांसारिक विकल्पों को भूलना एवं कषायों को कम करना ही शास्त्र ज्ञान प्राप्त करने का उद्देश्य है। यदि शास्त्र ज्ञान के उपरांत भी कषाएँ शांत नहीं होती तो समझना कि कोई सार्थक परिणाम नहीं निकला। इसी प्रसंग पर गुरूदेव का उपदेश चल रहा था तभी किसी शिष्य ने आचार्य श्री से शंका व्यक्त करते हुए कहा कि - आचार्य श्री सांसारिक विकल्पों को भूलने का सरल तरीका क्या है, बतलाने की कृपा करें?' आचार्य गुरूदेव ने सहज भाव से शंका का समाधान करते हुए कहा कि - "सांसारिक विकल्पों को भूलना चाहते हो तो बच्चों जैसा बन जाओ।" क्योंकि बालक जल्दी भूल जाता है और बड़ा नहीं भूलता। किसी भी घटित घटना को जैसे बच्चे को माँ ने एक चांटा मार दिया फिर दुलार (पुचकार) लिया। एक चुटकी बजाते ही वह बच्चा मुस्कराने लगता है, आँखा में पानी है और होंठों पर मुस्कान। यह है तत्काल भूलने की कला। शिष्य ने पुनः शंका व्यक्त करते हुए कहा कि - फिर किसी को बड़ा होना ही नहीं चाहिए, बच्चा ही बना रहना चाहिए। तब आचार्यश्री जी ने कहा कि - हाँ, बिल्कुल हमेशा बालकवत् बने रहो, सरल परिणाम बनाये रखो, यह सबसे बड़ी साधना मानी जाती है।