प्रायः लोग एक-दूसरे से यह कहते हुए मिलते हैं/ दिखाई देते हैं कि जब कभी आप पर आपत्ति आये या किसी की जरूरत पड़े तो मुझे याद कर लेना। भावना तो अच्छी है लेकिन ऐसा क्यों सोचते हो कि किसी पर आपत्ति आये तो हम दूर करें, बल्कि ऐसा सोचना चाहिए कि कभी किसी पर आपत्ति ही न आये। सबसे उत्तम भावना तो यही है कि हम हमेशा ऐसा ही सोचें कि हे भगवन्! कभी किसी पर कोई आपत्ति ही न आये, कोई कभी दुःखी न हो, सभी का कल्याण हो।
यह प्रसंग उस समय का है जब एक दिन एक डॉक्टर आचार्य गुरूदेव के पास दर्शन करके चरणों के समीप बैठ गये और गुरूदेव से निवेदन करने लगे कि - आचार्य श्री, मैं आपकी सेवा नहीं कर पाता, आप हमें सेवा का अवसर नहीं देते। तब आचार्य श्री मुस्कराते हुए बोले - आप हमसे दूर रहो यही हमारी सेवा है। मुझे रोग होगा तभी तो आप सेवा करेंगे। सेवा की भावना मत रखो बल्कि रोग ही न हो ऐसी भावना करो। यही सच्ची सेवा है।