भजन, स्तवन एवं भावनाओं आदि के माध्यम से श्रावक प्रभु और गुरू की भक्ति करता है एवं विषयों से आसक्ति छूट जावे इसलिए बारह भावना, वैराग्य भावना आदि का पाठ करता है। लेकिन कभी-कभी वह यह ध्यान नहीं रख पाता कि कब क्या बोलना चाहिए। गुरु और प्रभु के समक्ष हमेशा स्तुति परख भजन ही कहना चाहिए। आहार चर्या के बाद गुरु का गुणगान ही करना चाहिए। वहाँ बारह भावना आदि नहीं सुनाना चाहिए, क्योंकि कभी-कभी ऐसे शब्द मुख से निकल जाते हैं जो ग्लानिकारक (मांस, चीत्कार, मरण, नाली का पानी एवं अर्थी आदि) होते हैं।
इसी बात को समझाते हुए आचार्य श्री जी ने एक दिन कहा कि - आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज कहते थे कि आवकों को घर में रहते हुए “सुखी रहें सब जीव जगत के" ऐसी भावना भानी चाहिए। घर में विषय-कषायों के साथ बारह भावना नहीं भायी जाती। कभी-कभी दुःख भी होता है और श्रावकों की अज्ञानता पर हँसी भी आती है। एक बार गृहस्थ के यहां शादी हो रही थी और "राजा राणा क्षत्रपति का म्यूजिक चल रहा था।” एक बार महाराज घर में आहार ले रहे थे और श्रावक गाने लगे "आतम के अहित विषय-कषाय इनमें मेरी परिणति न जाए" तब ग्रास देंगे तो महाराज के ग्रास लेने के भाव होंगे क्या? नहीं। इसलिए श्रावक को कब क्या बोलना चाहिए इसका विवेक अवश्य रखना चाहिए। अंत में आचार्य श्री जी ने कहा कि - एक बात याद रखो "भक्ति अंधी होती है लेकिन भक्त अंधा नहीं होना चाहिए।"