एक दिन आचार्य श्री मोहनीय कर्म एवं मोही प्राणी के बारे में समझा रहे थे। उन्होंने कहा कि मोह को सबसे बड़ा शत्रु कहा है, क्योंकि यह मोह ही संसारी प्राणी को चारों गतियों में भटकाता रहता है। ऐसे मोह की संगति से बचो और जो मोह से बचकर निर्मोही, साधु, त्यागीव्रति बन गये हैं, उन्हें मोहियों से भी बचना चाहिए, दूर रहना चाहिए। मोह को महामद यानि शराब की उपमा दी गयी है तो मोही को शराबी की उपमा दी जा सकती है।
आचार्य श्री ने आगे कहा कि - जैसे सभ्य लोग शराब पीने से तो बचते ही हैं, लेकिन शराबी की संगति से भी बचते हैं। शराबी से बात करना भी पसंद नहीं करते, वैसे ही साधुजनों को मोह तो करना ही नहीं चाहिए और हमेशा मोही श्रावकों से भी बचना चाहिए। उनसे ज्यादा बात नहीं करना चाहिए। अंत में उन्होंने कहा कि - "मोह और मोहियों से दूर रहना ही मोक्षमार्ग है।"