जो जहा रहता है वहीं रमने लगता है वह वहाँ से कहीं अन्यत्र नहीं जाना चाहता, और कोई भी जीव दूसरी जगह किसी कारणवश चला भी जाता है तो पुनः लौटकर अपने स्थान पर आ जाता है। ठीक वैसे ही योगीजन, मुनिजन अपनी आत्मा को ही निवास स्थान मानते हैं। एवं वहीं रमण करते हैं। आत्मा को छोड़कर अन्यत्र कहीं अपने उपयोग को नहीं ले जाते। बाह्य पदार्थों से योगी अनभिज्ञ होते हैं। वे राग-द्वेष के बिना ही पदार्थों को जानने का प्रयास करते हैं। क्योंकि वे जानते हैं। कि पर (शरीर) पर ही है और अपना (आत्मा) अपना ही है। अतः पर शरीरादि से दुःख होता है और आत्मा से सुख होता है। इस प्रकार का उपदेश गुरूवर के मुख से सभी भव्यात्माएँ सुन रहीं थीं। तभी किसी भव्यात्मा ने गुरूवर से पूछा कि - हे गुरूवर! हम लोगों से तो आत्मा में एक क्षण भी नहीं रहा जाता है, आप लोग कैसे आत्मा में हमेशा रह लेते हैं? तब आचार्य भगवन् ने कहा - "जैसे आप लोग अपनी दुकान छोड़कर अन्यत्र जाने की, दूसरे की दुकान पर बैठना (विक्रय करना) पसंद नहीं करते, यदि किसी की दुकान पर पहुँच भी जाओ तो तत्काल अपनी दुकान पर लौट आते हो बस वैसे ही योगी भी अपनी आत्मा को छोड़कर अन्यत्र जाने की इच्छा नहीं करते।"