संसारी प्राणी अज्ञान के कारण संसार में भटकता रहता है, और हेयोपादेय का ज्ञान नहीं कर पाता। यदि हेयोपादेय का ज्ञान हो भी जावे तो हेय का विमोचन और उपादेय को ग्रहण नहीं कर पाता। अनादिकाल के संस्कारों को एकदम नहीं छोड़ पाता। जिस पदार्थ के प्रति जो धारणा बन जाती है वह मुश्किल से छूटती है और यदि सदगुरु की कृपा से यह अज्ञान की, भ्रम की निवृत्ति हो जाती है तो अंतर आत्मा में अलग ही आनंद उत्पन्न होता है। और आँखों में खुशी के आंसू आ जाते हैं। ऐसे ही ‘आचार्य श्री जी के पास आने पर कई लोगों की गलत धारणायें बदल गयीं और धर्म का वास्तविक स्वरूप क्या है यह ज्ञात हो गया और वे वास्तविक जीवन जीने लगे।
एक पंडित जी आचार्यश्री जी के पास आये और उन्होंने अपनी सारी आगमिक शंकायें गरुदेव के सामने रखी। एक-एक शंका का समाधान पाते ही वे पंडित जी आनंदित हो उठते उन्हें लगता मानो साक्षात् अर्हन्त प्रभु ही हमें मिल गये हों और मेरी बांकाओं का समाधान कर रहे हों। उनकी सारी गलत धारणाएँ बदल गयीं और सही तत्त्व का ज्ञान हो गया| भ्रम टूट गया, वास्तविकता के करीब पहुँच गये।
वास्तविकता का ज्ञान होते ही उनकी आँखों में से आँसू आ गये और बोले- हे गुरुदेव ! आज तक मैं गलत धारणाओं की कटीली झाड़ियों में उलझा रहा, आप जैसे पथ-प्रदर्शक ने मुझे वास्तविकता के/सत्य के उपवन में लाकर खड़ा कर दिया। आज आपको पाकर मेरा जीवन सफल हो गया। आपकी वाणी ने हमारी भ्रमणा को दूर कर दिया। आज अज्ञान का पर्दा हट गया। हे गुरुदेव! आज तक जो गलत धारणा थी वह बदल गयी और चारित्र के प्रति आस्था दृढ हो गयी। अब आदेश दीजिए मैं क्या करूं? तब आचार्य महाराज ने कहा - अभी तक आपने सम्यग्दर्शन का डंका बजाया अब सम्यग्चारित्र का डंका बजाओ।
ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो गुरुदेव कह रहे हों - सम्यग्दृष्टि, सम्यग्ज्ञानी का पहला कर्तव्य है चारित्र की ओर बढ़ना क्योंकि, वही ज्ञान सही माना जाता है जो पापों से बचाने वाला हो, आत्मा की ओर ले जाने वाला हो, आचरण में ढलने वाला हो। कहा भी है।
“सम्यग्ज्ञानी होय बहुरि दृढ़ चारित्र लीजे''
(28.03.2003)