आशा और विश्वास, ये शब्द बोलने मे ऐसे लगते हैं जैसे-दोनों एक ही हों। लेकिन, जब इनके अर्थ की ओर दृष्टिपात करते हैं तब पाते हैं कि उनका कुछ अलग ही अर्थ हुआ करता है। आशा का अर्थ है - कुछ पाने की इच्छा रखना। और, विश्वास का अर्थ है - जो जैसा है उसे वैसा ही स्वीकार करना। जिसमें संदेह को कोई जगह नहीं दी जाती। कुछ भी इच्छा न रखकर मात्र प्रभु पर विश्वास रखने वाले को धर्म प्राप्त होता है। इसलिए, किसी लोभ, आशा, तृष्णा को लेकर धर्म को धारण करने का भाव नहीं रखना चाहिए।
आचार्य महाराज एक दिन बता रहे थे कि-इस धर्म को कोई निकट भव्य ही धारण कर पाता है। धर्म की पवित्रता को शब्दों के द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता है क्योंकि, महान आत्माओं के द्वारा ही इसका साक्षात्कार किया गया है। हाँ, ध्यान रखो-प्रभु के दरबार में आशा मत रखना किन्तु, उन पर विश्वास अवश्य रखना।
इसलिए हम सभी धर्म प्रेमी बंधुओं को प्रभु के दरबार में कुछ इच्छा, कामना लेकर नहीं आना चाहिए किन्तु विश्वास के साथ उनके चरणों में समर्पित हो जाना चाहिए। भगवान का दास कभी उदास नहीं होता क्योंकि वह संसार भोगों की आस नहीं रखता वह तो इस संसार भोगों से सदा उदासीन रहता है।
गरु चरणों की शरण में, प्रभु पर हो विश्वास।
अक्षय सुख के विषय में, संशय का हो नाश॥
(अतिशय क्षेत्र बीना बारहा जी, 4 अक्टूबर 2005, मंगलवार)