किसी सज्जन ने आचार्य भगवन्त से कहा - आज पुनः देश भोग से योग की ओर लौट रहा है। आज जगह-जगह पर योग शिविर आयोजित किये जा रहे हैं। योगासन के माध्यम से लोगों को रोग मुक्त किया जा रहा है। बड़ी-से-बड़ी बीमारियों में भी लोगों को योगाशन से लाभ मिल रहा है। आज योग शिक्षा के क्षेत्र में देश बहुत ध्यान दे रहा है। आज योग का क्षेत्र अंतर्राष्ट्रीय हो गया है। यह सब आचार्य महाराज चुपचाप सुनते रहे फिर मुस्कुरा कर बोले कि "योग का क्षेत्र अंतर्राष्ट्रीय नहीं अंतर्जगत है।"
योग लगाने का अर्थ है मन-वचन-काय की प्रवृत्ति को बाह्य जगत से हटाकर अंतर्जगत की ओर ले आना। यह कितनी गम्भीर बात गुरुदेव के श्रीमुख से हम लोगों को उपलब्ध हुई, आज की सबसे बड़ी योग साधना यही है अंतर्दृष्टि का प्राप्त होना। इस बहिर्मुखी आत्मा को अंतर्मुखी बनाने का एकमात्र उपाय है-योग के माध्यम से मन-वचनकाय एकाग्र करना और आत्मा को ध्यान का विषय बनाना।
मैंने प्रभु से कहा
हे प्रभु!
मैं क्या भगवान
बन सकता हूँ?
उत्तर नहीं मिला।
मैंने फिर कहा - हे प्रभु!
मैं मंदिर बन सकता हूँ?
उत्तर नहीं मिला।
मैंने पुनः कहा - हे प्रभु!
मैं भगवान नहीं, मंदिर नहीं
बन सकता तो
मंदिर का एक पत्थर तो
बन सकता हूँ ?
उत्तर मिला - हाँ
वेदी में विराजमान
पत्थर की तरह.....
(अतिशय क्षेत्र बीना बारहा जी, 30.08.2005)