यह बात नेमावर क्षेत्र की है, गर्मी के समय संघ वहाँ साधनारत था। मेरे पैर में हरपिश रोग हो गया। उस दिन पैर में तकलीफ बढ़ती ही जा रही थी। आचार्य महाराज मेरे पास आये और मुझसे पूँछने लगे- क्यों कुंथु, कैसी है तकलीफ! उनका कक्ष में आना मानो सौभाग्य का उदय। मेरा हृदय तो उनके प्रति कृतज्ञता से भर गया और उनकी यह संवेदनशील बात को सुनकर कण्ठ भर आया। मैंने कहा - आचार्य श्री !तकलीफ बढ़ती ही जा रही है। तब आचार्य महाराज का हृदय भी दया से भर गया और बोले इसमें औषधि तो काम करती ही नहीं है, इसे तो सहन करना होगा, समता ही रखनी होगी। फिर कुछ सोचकर बोले - मूलाचार में साधु को सबसे बड़ी औषधि बतलाई है बताओ-कुंथु वह क्या है ? मैंने तत्काल कहा -आचार्य श्री जी ‘समता'। यह सुनकर आचार्य महाराज बहुत खुश हुए और बोले - बहुत अच्छा, समता रखना। मैंने कहा-आपका आशीर्वाद बना रहा तो सब ठीक हो जावेगा, सब सहन हो जावेगा। आप आ जाते हैं तो साहस बढ़ जाता है, आधा दर्द आपके पूँछ लेने से वैसे ही चला जाता है। आचार्य श्री जी बोले - भैया और मैं क्या कर सकता हूँ, पूँछ सकता हूँ या आशीर्वाद दे सकता हूं। मैंने कहा-आपके आशीर्वाद से सब कुछ ठीक हो जाता है।
आचार्य भगवन् कोमलता के साथ, वात्सल्यता के साथ स्वयं अपने दर्द के प्रति कठोर होने, समता रखने का उपदेश दे रहे थे। किसी भी परिस्थिति में हमें अधीर नहीं होना चाहिए बल्कि साहस रखना चाहिए। औषधि की ओर दृष्टि न ले जाकर आत्मा की ओर दृष्टि मोड़ लेना चाहिए, ताकि शरीर से उपयोग हट जावे और तकलीफ का भान ही न हो सके। मैं तो यही मानता हूँ कि गुरुदेव के आशीर्वाद में उठा हाथ हो या सिर पर स्पर्श हुआ उनका हाथ हो, यही परम औषधि है।
(सिद्धोदय सिद्ध क्षेत्र नेमावर 2002)