प्रभु का नाम लेने मात्र से कर्म की निर्जरा होती है। कर्म निर्जरा जिससे होती है। उसका नाम साधना माना जाता है। इसलिए, प्रभु का नाम जपने वाला भी अपने आप में साधना ही तो कर रहा होता है। दुनियां में रागी-द्वेषी का नाम याद न करके कम से कम यह संकल्प तो ले लेता है कि-मैं इतने समय तक मात्र प्रभु का ही नाम लूंगा। यह भी अपने आप में बहुत बड़ा संयम/साधना है। कहा भी है -
कर्मों के बंधन खुलते हैं प्रभु नाम निरंतर जपने से।
भव-भोग-शरीर विनश्वर तव, क्षणभंगुर लगते सपने से।
अमरकंटक में एक मठ के साधु आते रहते थे। गुरुदेव के दर्शन करते, कुछ शंकासमाधान करके चले जाते। एक दिन वे एक नये साधु के साथ आये और गुरुदेव को नमस्कार कर पास में ही बैठ गये। चर्चा के दौरान आचार्य श्री ने पूँछा - ये कौन हैं? तब वे बोले ये मेरा नया चेला है (हाथ में माला लिये जल्दी-जल्दी मणिका खिसकाते जा रहे थे)। आचार्य श्री ने पूँछा-ये क्या कर रहे हैं? तब उन्होंने कहा-ये नाम साधना कर रहे हैं। हर समय राम के नाम की माला फेरते रहते हैं।
तब आचार्य श्री ने कहा - हाँ, नाम साधना से ये लाभ होता है कि इष्ट के प्रति कितनी आस्था है क्योंकि इष्ट के प्रति मजबूत आस्था उनको नमस्कार करने से बनती है। और मंत्र को मन के माध्यम से जितना घोटेंगे उतनी ही मंत्र की शक्ति बढ़ती जाती है औषधि की तरह। जैसे आयुर्वेद में औषधि को जितना घोंटो उतनी उसकी गुणवत्ता बढ़ती है, ऐसा नियम है। राम फेल हो सकते हैं लेकिन हनुमान कभी फेल नहीं हो सकते। ग्रंथ घोंट-घोंटकर भी पी लो तो भी कल्याण होने वाला नहीं है यदि आज्ञा सम्यक्त्व नहीं है। तो....। प्रभु के प्रति विश्वास होना चाहिए तभी कल्याण होगा।
इस प्रसंग से हमें शिक्षा मिलती है कि-हमें हमेशा प्रभु का स्मरण करते रहना चाहिए। इस जनम-मरण से बचने के लिए मात्र एक ही साधन है प्रभु का नाम स्मरण करना। अंत समय, सल्लेखना के समय मुख से प्रभु का नाम निकल जाये तो बड़ा सौभाग्य समझना। क्योंकि भगवान का स्मरण मरण को सुन्दर बना देता है।
(अतिशय क्षेत्र बीना बारहा जी, 27 जुलाई 2005)