रविवारीय प्रवचन के पूर्व सभा के बीच में एक कवि महोदय ने अपनी कविता का पाठ किया। कविता में उन्होंने बोला- हम संत की संतान हैं। यह सुन सभी ने तालियाँ बजा दीं। उस समय आचार्य महाराज सब देख रहे थे, सुन रहे थे। उसके उपरांत प्रवचन प्रारंभ हुये। तब प्रवचनों में आचार्य भगवन्त ने कहा - संत की संतान होने का क्या अर्थ होता है ? संत जो कहते हैं उसी बात को जो तानकर (खींचकर) आगे बढ़ाता है वह संतान कहलाता है लेकिन जो न जानता है, न मानता है और ऊपर से तानता है वह संत की संतान नहीं कहला सकता।
एक छोटी सी श्लेषपूर्ण बात लेकिन बहुत गंभीर विषय को लिये हुए है कि-हम अपने आप को वीर की संतान, संत की संतान कहते हैं लेकिन उनकी बात नहीं मानते, उनके बताये मार्ग पर नहीं चलते; तो हम उनकी संतान कहलाने के योग्य नहीं हैं। जो धर्म परम्परा को आगे बढ़ाता है, धर्म की प्रभावना में जीवन लगाता है वही सही मायने में धार्मिक कहलाने के योग्य है। ये टाइटल अपने किये गये कर्मों से प्राप्त होते हैं मात्र किसी जाति में उत्पन्न होने से नहीं।
आचार्य महाराज का संकेत था कि-संत दया, करुणा, अहिंसा की बात करते हैं। आप सभी लोगों को भी अहिंसा के प्रचार-प्रसार में लगना चाहिए। देश में जो हिंसा का ताण्डव नृत्य चल रहा है उसे बंद कराने का प्रयास करना चाहिए। अहिंसा की बात देश के कर्णधारों (नेताओं) तक भेजना चाहिए, कत्लखानों को बंद करवाने के लिए आगे आना चाहिए तभी आप संत की संतान कहलाओगे।।
(दयोदय तीर्थ, तिलवारा घाट जबलपुर, 30.10.2004)