हे सूर्य! तुम अकेले मे रहना चाहो लेकिन, क्या तुम्हारी रश्मियाँ तुम्हें अकेले में रहने देंगी ? तुम हमेशा ढूंढते हो एकान्त, पर वहाँ भी भक्त पहुँच जाते हैं। जंगल में भी मंगल हो जाता है। आपके पास हमेशा दर्शनार्थियों की भीड़ ही लगी रहती है। इस भीड़ से बचकर आप तीर्थक्षेत्रों पर विराजमान हो जाते हैं फिर भी वहाँ भी शहरों जैसी भीड़ दिखाई देने लगती है। ऐसा लगता है-मानो इस क्षेत्र पर साक्षात् अरहंत प्रभु का समवशरण आ गया हो। आपकी वीतराग मुद्रा में इतना आकर्षण है कि लोग अनायास ही घर गृहस्थी छोड़कर महीनों-महीनों आप के चरणों में रहते हैं और रहने को लालायित बने रहते हैं।
अतिशय क्षेत्र बीना बारहा जी में चातुर्मास के दौरान बहुत भीड़ हो जाती। एक दिन आचार्य महाराज जी ने बताया कि-एक दिन पूरा संघ प्रवास में था तो इतनी भीड़ आ गयी कि मैं चारों ओर से घिर गया कहीं से हवा तक नहीं आ पा रही थी। तभी यह सब देख किसी ने पूँछ ही लिया-महाराज यह आपका पुण्य है या पाप ? आचार्य श्री सहसा ही बोले - भैया पुण्य है, लेकिन यह भी आकुलता पैदा करता है। साता की उदीरणा में भी आप निर्विकल्प समाधि में नहीं जा सकते।
यह है गुरुदेव की पुण्य के फल के प्रति उपेक्षा। ऐसी निरीहता, निष्पृहता उनकी। प्रत्येक समय हम अपनी आँखों से देख सकते हैं मन से महसूस कर सकते हैं। वीतरागता की जीवन्त प्रतिमा का आज भी हम दर्शन कर अपने जीवन को उपकृत कर सकते हैं और अपना जीवन भी निष्पृहता के साथ व्यतीत कर सकते हैं।
(अतिशय क्षेत्र बीना बारहा जी - 19.08.2005)