आचार्य गुरुदेव के पास कलकत्ता से एक वैद्य आये थे। वैसे हमेशा कोई न कोई विद्वान, वैद्य आदि बहुत से बड़े-बड़े राजनैतिक पदों पर पदस्थ लोग गुरुजी के दर्शनार्थ आते ही रहते हैं। गुरुजी का व्यक्तित्व ही ऐसा है कि हर व्यक्ति उनकी ओर खिंचा चला आता है जैसे-एक फल-फूल से परिपूर्ण वृक्ष किसी पक्षी, पथिक आदि को बुलाता नहीं है बल्कि, पक्षी और पथिक स्वयं वृक्ष की छाया लेने, फूल की सुगंध लेने एवं फल का स्वाद लेने वृक्ष की शरण में स्वत: ही चले आते हैं। संत का भी वास्तविक जीवन यही है कि जो दुनियां से दूर हो लेकिन दुनियां उसे करीब से देखने को लालायित होती हो।
उन वैद्य ने गुरुदेव से निवेदन किया कि-मैं एकान्त में आपसे मन में पल रही कुछ शंकाओं का समाधान चाहता हूँ। यह सुनकर गुरुदेव कुछ देर कुछ न बोले, फिर सहसा मुस्करा कर बोले-कि संसार में एकान्त मत ढूंढो अपने मन में एकान्त बना लो। वैद्य जी समझ गये कि शायद गुरुदेव इस स्थान से उठकर कहीं एकान्त में बात करने नहीं जायेंगे। वे हाथ जोड़कर निवेदन करने लगे - हे गुरुदेव! जब, हम ब्रह्म के अंश हैं तो ब्रह्म में और हममें इतनी विषमता क्यों ? यह बात समझ में नहीं आती। तब आचार्य गुरुदेव ने कहा - हम और ब्रह्म एक से हैं, एक नहीं वह एकपना शक्ति की अपेक्षा हैं, अभिव्यक्ति की अपेक्षा नहीं। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति में परमात्मा बनने की शक्ति है लेकिन, अभी उस शक्ति की अभिव्यक्ति नहीं हुई इसलिए हम और परमात्मा एक नहीं हो सकते हैं। हममें परमात्मा बनने की शक्ति है, लेकिन अभी आत्मा ही है। अभी उस योग्यता का उद्घाटन नहीं हुआ है।
(27.03.2003)