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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. ज्ञान और तप से नि:सृत वे चरित्र देखने और समझने के प्रतीक बन गये थे। उनके मन में घुल रही शीतलतायें समग्र श्रावकों का मन शीतल कर रहीं थी। चंद्रमा से नि:सृत शीतलता में उतनी शीत नहीं होती जितनी ग्रीष्म के दिवस में उस दिन भगवान चंदाप्रभु के उन भक्तों में परिलक्षित की गई थी। मैंने चंदाप्रभु का नाम इसलिये लिया कि दोनों संघ वहाँ से प्रस्थान कर किशनगढ़ के जिस विख्यात देवालय में पहुँच रहे थे, वह भगवान चंदाप्रभु का मंदिर ही था। श्रावकों ने मंदिरजी में यथा स्थान सन्तों को बैठने की व्यवस्था बनाई थी। दो गुरुवरों के लिये दो पृथक् आसन रखे गये थे। आसनों को देखते ही वात्सल्य मूर्ति पू. ज्ञानसागरजी ने धर्मसागरजी से अनुरोध किया- “हे आचार्यवर ! परम्परानुसार आप मेरे दीक्षा गुरु के गुरुभाई हैं, अत: मेरा अनुरोध है कि आप उच्चासन ग्रहण कर मुझे उपकृत करें। ज्ञानसागरजी के अनुरोध से पू. धर्मसागरजी का रोम-रोम हर्ष से खिल उठा। वे कुछ सोचने लगे, फिर अगले ही क्षण बोले- हे गुरुवर ज्ञानसागर ! आप सदा ही एक उपाध्याय की तरह मेरे समक्ष रहे हैं, आप मेरे शिक्षा गुरु हैं, अत: मेरी विनय है उच्चासन स्वीकार कर मुझे कृतकृत्य करें। दोनों संतों की वार्ता का जनमानस पर प्रेरक प्रभाव पड़ा। अंत में भक्तों की प्रार्थना मानते हुए दोनों सन्त समानोच्च आसनों पर विराज गये। जयकारों से आकाश भर गया। ऐसे करुणा और वात्सल्य प्रधान सन्त कभी देखे न थे लोगों ने। दोनों संघ कुछ दिनों तक साथ-साथ किशनगढ़ में रहे। ग्रीष्मावकाश के बाद पू. धर्मसागरजी का संघ अन्य नगर की ओर प्रस्थान कर गया। कुछ ही दिन बीते थे कि पू. ज्ञानसागरजी भी प्रस्थान करने लगे तब समाज के लोगों ने उनके चरण पकड़ लिये और बोले कि हमारे पास कुछ दिन पूर्व तक दो-दो सूर्य थे, अब आप एक साथ दोनों का अभाव न बनायें। एक प्रस्थान कर गये, कम से कम आप यहाँ एक चातुर्मास कर श्रावकों को ज्ञानप्रकाश प्रदान करें। भक्तों के आगे भगवान को हर युग में हारना पड़ा है, सो यहाँ भी गुरुवर हार गये, भक्त जीत गये। किशनगढ़ का वह चातुर्मास आज भी लोगों को अच्छी तरह याद है कि जिसमें केवल धर्मचर्चा और ज्ञानचर्चा के बीच पूरा चातुर्मास काल व्यतीत हुआ था। लोगों को इतना कुछ सीखने मिला चार माहों में, कि उतना चार वर्ष में भी नहीं सीखा-समझा जा सकता था । पूज्य ज्ञानसागरजी ने अपनी प्रज्ञा, प्रतिभा और पुरुषार्थ की अनोखी छाप तो छोड़ी ही थी, आश्चर्यजनक प्रभावना भी की थी। बड़ी बात यह कि चातुर्मास के प्रारम्भ से लेकर अन्त तक, उन्होंने अपने गुरु/गुरुवर होने का भाव कहीं नहीं आने दिया, कभी नहीं आने दिया। वे नित्य एक लघु साधक के रूप में ही अपना परिचय जाहिर करते थे। बड़प्पन के थोथे प्रदर्शन से दूर, बड़बोलेपन के मानसिक रोग से परे, उनकी भावाभिव्यक्ति में सदा स्वयं की लघुता की ठंडक और संतुष्टि व्याप्त रहती थी जो उनके 'महान' होने की घोषणा करती थी। पू. ज्ञानसागर के प्रथम मानसपुत्र गृहस्थ शिष्य श्री धर्मचंद गुरुवर का सामीप्य पा वर्ष १९६२ में ही पांडित्य प्राप्त कर चुके थे, परन्तु पैतृक व्यवसाय के कारण उन्हें सीकर छोड़ कर देश के पूर्वीप्रान्त आसाम के नगरों में अपना व्यवसाय समृमृद्ध करने जाना पड़ा। जाने को तो वे १९६२ में ही चले गये थे, पर वर्ष में एक या दो बार सीकर लौटते तो पता लगाकर पू. ज्ञानसागरजी के चरणों में अवश्य ही उपस्थित होते थे, क्रम वर्ष दर वर्ष चालू था। इस वर्षायोग में जब कि पू. ज्ञानसागरजी ससंघ किशनगढ़ रेनवाल में थे, सीकर के वे ज्ञानप्रेमी बंधु धर्मचंद यहाँ भी पहुँच गये। लगभग दस दिनों तक गुरु-चरण-सान्निध्य में रुकने का पावनावसर प्राप्त भी कर सके। उन्होंने यहाँ वह दृश्य भी देखा जो सन् १९६२ में वे अनुभूत चुके थे, वही कि पूज्य ज्ञानसागरजी एक प्रज्ञापुत्र को नित-नित पढ़ाने और बढ़ाने में तल्लीन थे। वह प्रज्ञापुत्र कोई और नहीं - पूज्य ज्ञानसागरजी के इतिहास प्रसिद्ध मानस पुत्र पू. मुनि विद्यासागरजी थे। वे महाकाव्यों को पढ़ाते हुए पू. विद्यासागर में संस्कृत का भंडार स्थापित कर रहे थे। धर्मचंद ने दस दिन तक उनकी ज्ञानगोष्ठी में सम्मिलित होकर वह लाभ प्राप्त किया, साथ ही गुरुवर के आदेश से दस दिनों तक रात्रिकालीन सभा में शास्त्रवाचन करने का सुन्दर निर्वाह किया। पू. विद्यासागरजी धर्मचंद को देखकर हर वर्ष प्रभावित होते थे और सोचते थे-श्रावक के रूप में इतना ज्ञान अर्जित और वितरित करने वाला यह धर्मचंद कहीं मुनि बन गया होता तो अच्छा होता। माता के मोह और गृहिणी के गृह चक्कर को काटने (नष्ट करने) का ज्ञान प्राप्त क्यों नहीं किया। उसी वर्ष एक नाम और जुड़ गया संघ में, जब १४ जुलाई १९७० को आचार्य ज्ञानसागरजी ने ब्र. जमनालालजी को क्षुल्लक दीक्षा प्रदान की। नामकरण किया गया क्षुल्लक श्री १०५ सुखसागरजी महाराज। गुरुवर का अध्ययन और अध्यापन का क्रम देखकर लगता ही नहीं था कि वे ७६ वर्ष के वृद्ध हैं। उनका उत्साह तीव्र था। दिनचर्या का एक पल भी नाहक ना जाने देते थे, फलत: शिष्यगण भी उन्हीं का अनुसरण करते रहते और आत्मसाधना में लीन रहते। अध्यापन और अध्ययन की दिन भर की कार्य शैली का चित्रण पूज्य सुधासागरजी महाराज ने मुझे इस तरह बतलाया था। मेरे वर्ष १९९८ (महावीर जयंती के समय) के प्रवास में प्रातः ५.३० से एक घंटा तक अध्यात्मतरंगणी और समयसार-कलश। उनके बाद एक घंटे का समय शौचादि के लिये होता था। पुन: सुबह ७.३० से एक घंटा तक प्रमेयरत्नमाला। फिर दो घंटा -- ८.३० से १०.३० तक समयसार और अष्टसहस्री। मध्याह्न १ बजे से २ बजे तक कातंत्ररूपमाला व्याकरण। फिर तीन से चार तक पंचास्तिकाय। शाम ४.३० से ५.३० तक पंचतंत्र और जैनेन्द्र व्याकरण। एक तरफ उनके अध्ययन-अध्यापन का क्रम था, दूसरी ओर उनकी प्रवचन शैली थी जो देश के विद्वानों को लगातार प्रभावित कर रही थी। जो विद्वान अपनी पूर्ण विद्वत्ता के साथ उनके सान्निध्य में रहा है, वह भी उनसे कुछ न कुछ ज्ञान वीतराग-विज्ञान प्राप्त कर ही लौटा है। ऐसे विद्वानों में कुछ नाम याद हैं- श्री अभयलाल जैन, श्री हीरालाल शास्त्री, श्री रतनचंद कटारिया, श्री पन्नालाल जैन साहित्याचार्य, श्री छगनलाल पाटनी, श्री स्वरूपचंद कासलीवाल, श्री वटेश्वर दयाल वैद्यराज, प्राचार्य निहालचंद, साहित्य प्रेमी श्री धर्मचंद, श्री महावीर प्रसाद वकील, बाबू देवकुमार जैन, लाला श्रीकृष्णदास आदि। एक पुराना प्रसंग याद आ गया, जो यहाँ नवीन हो गया था। जब पू. मुनि विजयसागर एक ‘श्रावक मात्र थे। हुआ यह कि सन् । १९६२ में जब विहार के दौरान पू. मुनि ज्ञानसागरजी (उस समय मुनि थे, आचार्य नहीं) ग्राम खाचरियावास पधारे थे, तब उनके ज्ञान और चर्या को देखकर वहाँ के सभी श्रावक बहुत प्रभावित हुए थे, उनमें से एक श्रावकरत्न इतने प्रभावित हुए कि ज्ञानसागर के साथ चलने तैयार हो गये। कहें- सशरीर न जा सके जब, तब उनका मन मुनिवर के साथ चला गया। वही श्रावकरत्न सन् १९६६ में अजमेर गये थे और मुनिवर से ब्रह्मचर्य दीक्षा के व्रत प्राप्त करने में सफल रहे। सन् १९६९ में अजमेर में मुनिवर पुन: पधारे थे तब वह श्रावकरत्न फिर उनके चरणों में पहुँचा और उनसे स्व-गृहत्याग का संकल्प लिया। श्रावक का आना-जाना और धर्म लाभ लेना निरंतर रहा, फलत: सन् १९७० में जब आचार्य श्री ज्ञानसागरजी रेनवाल में थे, तब उन श्रावक महोदय ने अपनी भक्ति, श्रद्धा और चर्या के बल पर पू. आचार्यश्री से (आषाढ़ शुक्ला दश, संवत २०२७ को) क्षुल्लक दीक्षा प्राप्त कर ली। वही भव्य श्रावक बाद में मुनि विजयसागरजी महाराज बने थे। रेनवाल का वह भक्ति प्रधान प्रसंग नहीं भुलाया जाता, जब चातुर्मास के बाद पू. ज्ञानसागरजी रेनवाल से प्रस्थान कर रास्ते में कुलिग्राम में ससंघ रुके थे। वहाँ के श्रावक भारी नवधाभक्ति के साथ चौका लगा रहे थे। जिस चौके में ज्ञानसागरजी आहार ले रहे थे, उसमें एक भक्त ने, अनजान में, काफी गर्म दूध मुनिवर की अंजुलि में भर दिया था, दूध इतना गर्म था कि हथेलियाँ और अंगुलियाँ जल गईं। मुनिवर अंतराय मान बैठ गये। लोगों ने समझने में विलम्ब नहीं किया, मुनिवर के हाथ देखे तो अवाक् रह गये, फोले पड़ आये थे। श्रावक भारी शर्मिन्दा हुए, मुनि चरणों पर गिर पड़े, रोये, अपनी भूल स्वीकारी, प्रायश्चित्त धारण किये, दिन भर निराहार रहने का संकल्प ले लिया।
  2. वरिष्ठ श्रावक गुरुवर के उत्तर से धन्य-धन्य हो गये, फिर सब ने अपने गुरु को धन्य मानते हुए चर्चा समाप्त की। बाद के दिनों में वहाँ आचार्यश्री ने संघ को पढ़ाने और आत्मानुशासन में प्रवीण होने में ही अधिक समय दिया। १७ फरवरी ६९ को सुबह-सुबह आचार्यश्री को समाचार मिला कि उनके परम धन्य वीतरागी गुरु पू. आचार्य शिवसागरजी महाराज का समाधिपवूक मरण हो गया है। वे उस समय श्रीमहावीरजी में थे। समाचार से गुरुवर ज्ञानसागर स्तब्ध से रह गये, जैसे “इष्ट वियोग अनिष्ट योग में, सहनशीलता दिखलावें सोच रहे हों। समाज के लोग आये। विचार-विमर्श हुआ। मध्याह्न ही शोक सभा आयोजित की गई और श्री माणिकचंदजी एडवोकेट की अध्यक्षता में उपस्थित श्रावकों और संतों ने श्रद्धांजलि प्रदान की। गुरुवर ने अपने समाधिस्थ गुरुवर पर महत्त्वपूर्ण विचार रखे। उन्होंने स्पष्ट किया कि गुरुवर श्रीमहावीरजी (चाँदनपुर) में थे, उन्होंने फाल्गुन कृष्ण अमावस्या, सं. २०२५, तदनुसार १६ फरवरी १९६९ दिन रविवार को नश्वर शरीर का त्याग कर दिया है। कुछ दिन और रुके गुरुवर वहाँ, फिर ७ मार्च ६९ को नसीराबाद से विहार कर दिया। स-संघ ब्यावर जा विराजे । ब्यावर नगर मुस्कुरा रहा था, नसीराबाद उदास था। ब्यावर पहुँचने के बाद, गुरुवर के कानों में केशरगंज के भक्तों की पुकार अनुगुंजित हो रही थी, कुछ दिनों का समय यहाँ देकर उनके चरण केशरगंज की ओर बढ़ गये। १९६९ के चातुर्मास का लाभ केशरगंज (अजमेर) को मिला। ग्रीष्म की तेज धूप राजस्थान की धरती पर कुछ अधिक ही ताप लेकर आ रही थी, मई का माह जो चल रहा था। आचार्य ज्ञानसागर के तप के समक्ष धूप का ताप कोई अर्थ नहीं रखता था। एक कारण और था- पृथ्वी को तप्त करनेवाला सूरज, वहाँ, नगर के आकाश में, एक ही था। मगर नगर की गोद में एक नहीं दो सूर्य विराजमान थे। पहले ज्ञानसागर, दूजे विद्यासागर । अब आप ही विचार करें कि दो-दो तपस्वियों के उद्दीप्त तप के समक्ष बेचारे एक सूरज का ताप क्या प्रभाव छोड़ सकता था ? सो सूरज अपने कार्य में जितना मग्न (प्रसन्न) था, तप:कर्ता सन्त अपने तप में उतने ही मग्न (लीन) थे। किसी को किसी से कोई शिकायत नहीं थी। तभी समाचार मिला पू. ज्ञानसागरजी को कि उनके एक प्रिय भक्त लाला श्री बनवारीलालजी नहीं रहे। श्री बनवारीलालजी कुछ वर्षों से पू. ज्ञानसागरजी से जुड़ गये थे। हिसार के रहनेवाले थे। वे वही आदर्श गृहस्थ थे जिन्होंने “घर में सन्नयास' साकार किया था। श्री लाला चड़तीमल के सुपुत्र, किन्तु उन्हें गोद ले लिया था- लाला सोहनलालजी ने। बनवारीलालजी सही अहिंसावादी और सदाचारी थे, उन्होंने जीवन में कभी चमड़े की वस्तुओं और रेशमी वस्त्रों का उपयोग नहीं किया था। धर्म पर समर्पित, धुन के पक्के थे। एक बार पुराने ग्रन्थ और पत्रिकायें देख रहे थे, उन्हें सन् १९०९ के गजटीयर में पढ़ने मिला कि जहाजपुल-कोठी की साथवाली मस्जिद, पूर्व में एक जैन मंदिर के रूप में थी, जो समय के शासकों द्वारा मस्जिद में परिवर्तित कर दी गई थी। बस उस ऐतिहासिक लेख के आधार पर उन्होंने अथक परिश्रम किया। एडवोकेट श्री महावीर प्रसाद जैन की सेवायें ली गई । बनवारी लालजी ने संकल्प कर लिया कि जब तक मंदिर प्राप्त नहीं हो जावेगा, वे एक वक्त ही भोजन लेंगे और एक समय ही जल ग्रहण करेंगे। घोषणा यह भी की कि मंदिर मिल जाने के बाद उसका नवीनीकरण करायेंगे और प्रतिष्ठोपरान्त गृह त्याग कर मुनिसंघ में चले जायेंगे। उनके आत्मविश्वास और मानसिक तथा दैहिक श्रम के फलस्वरूप कुछ ही वर्षों में वह स्थल समाज को मिल गया। समय पर उसका नवीनीकरण कराया गया और फिर प्रतिष्ठा महोत्सव। उसके बाद संकल्पानुसार श्री बनवारीलालजी पू. मुनि ज्ञानसागरजी की शरण में चले गये, उनसे संघ प्रवेश की प्रार्थना की। मुनिवर ने उन्हें ब्रह्मचर्य व्रत प्रदान कर संघ में रहने की अनुमति दे दी। गुरुवर की कृपा से सन् १९६३ का चातुर्मास संघ में रहते हुए, उन्होंने फुलेरा में सम्पन्न किया था। संघ की क्रियाओं के अनुकूल जीवन ढाल दिया था। वे संघ में स्वस्थ रहकर धर्मसाधना करते रहे। धीरे-धीरे काया में भारी शिथिलता आ गई, सो बीमार रहने लगे। वह कोई वर्ष १९७० की बात है। पू. ज्ञानसागरजी और पू. विद्यासागरजी उन पर लगातार ध्यान दे रहे थे। बाद मैं अधिक कमजोर देखते हुए साधु द्वय ने हिसार से उनके पारिवारिकजनों को बुलवाया, उन्हें हिदायत दी कि ब्र. बनवारी लालजी को वापिस ले जावें, उनकी सेवा करें, धर्मसाधना में सहायता करें एवं पंडित मरण का सुयोग प्राप्त करायें। ब्र. जी फुलेरा जंक्शन स्से हिसार चले गये। वहाँ सारा नगर उनके दर्शनार्थ उमड़ पड़ा था। हिसार में भी उनका जीवन धर्ममय बना रहा, बाद में २३ मई १९७० को प्रात: ६ बजे सामायिक करते हुए उन्होंने नश्वर संसार का त्यागर कर दिया था। वे उस समय ८२ वर्ष के थे। महान धर्मात्मा थे, अत: उनकी चर्चा साधुओं के साथ, साधुओं के ग्रन्थ में स्थान पा सकी और धर्म की शोभा बढ़ाने का कारण बनी। आचार्य ज्ञानसागरजी अपने साधु जीवन में श्रावकों से अधिक व्रतियों-सन्तों के मध्य चर्चित रहे। दस में से चार श्रावक उनकी चर्चा करते थे, तो दस में से आठ मुनि उनकी चर्चा से आनन्द पाते थे। तब लगा कि वे अपना प्रचार या धर्म का प्रचार शब्दों के माध्यम से नहीं करना-कराना चाहते थे, वह तो उनके हाथों से सर्जित कृतियों से आपों-आप होगा। कुछ कृतियाँ कागज पर थीं और कुछ व्रत धारण कर लेनेवाले शिष्यों में कहें वे एक ऐसे शिल्पकार बन गये थे कि उनसे अधिक चर्चा उनकी कृतियों की होने लगी थी। एक तरफ उनके २४ से अधिक ग्रन्थ थे जो संस्कृत और हिन्दी के धरातल पर जगमग थे तो दूसरी तरफ उनके शिष्य थे जो आत्मानुशासन से भरे हुए, दर्शन, ज्ञान और चारित्र के धरातल पर अग जग को जगमग कर देने योग्य तपस्या और ज्ञानाभ्यास कर रहे थे। पू. विद्यासागर ऐसी कृतियों में प्रथम कृति' का रूप पाकर धर्मक्षेत्र में आ चुके थे, उनके बाद अन्य अन्य शिष्य सामने आते गये, जिनमें पू. मुनि श्री विवेकसागरजी, ऐलक सन्मतिसागरजी, क्षु. विजयसागरजी, क्षु. सम्भवसागरजी, ब्र. स्वरूपानन्दजी एवं ब्र. लक्ष्मीनारायण के नाम तत्कालीन जनमानस के अक्षरों पर चढ़े रहते थे। आचार्य ज्ञानसागरजी द्वारा लिखित ग्रन्थों को देखकर श्रावकगण उन्हें सरस्वती का अवतार कहते थे तो उनके तपरत ज्ञानवान शिष्यों को देख आचार्यश्री को तपस्याओं का पुञ्ज कहते थे। वर्ष १९७० तक उनका शरीर अत्यन्त कृश और तेजहीन हो चुका था, किन्तु ज्ञान अंगार की तरह प्रखर था, आत्मा पल-पल ध्यान में लीन रहती थी। उनके शरीर और व्यक्तित्व को देख कर कोई विद्वान उनके ज्ञान का आभास नहीं कर पाता था, किन्तु उनकी दो प्रकार की कृतियों (ग्रन्थों और निग्रंथों) को देख लेने के बाद उन्हें साक्षात् ज्ञान का सागर कह कर गद्गद् होता था। सन् १९७० की ही बात है, तब गुरुवर किशनगढ़ रेनवाल के आस-पास ही ससंघ चल रहे थे। उन्हें पता चला कि पूज्य आचार्य धर्मसागरजी महाराज ससंघ किशनगढ़ रेनवाल पहुँचनेवाले हैं। वहाँ के उत्तम श्रावक श्री दीपचंद जैन, श्री मूलचंद लुहाड़िया ज्ञानसागरजी के उतने ही करीब थे, जितने अजमेर के कजोड़ीमलजी जैन । इन्हीं श्रावकों से सही समाचार प्राप्त होते रहते थे। ज्ञानसागरजी भी किशनगढ़ रेनवाल पहुँचनेवाले थे। ज्ञानसागरजी का संघ पहले रेनवाल पहुँच गया । धर्मसागरजी से दोनों गुरु-शिष्य मिलने-बतियाने उतावले हो पड़े, उस दिन ज्ञान के सागर में वात्सल्य की लहरें उठ पड़ी थीं। चार दिन बाद पू. धर्मसागरजी का संघ आया, ज्ञान और वात्सल्य की जीवंत मूर्ति पू. ज्ञानसागरजी श्रावकों के जुलूस के साथ ससंघ चल पड़े उनकी अगवानी करने। वह ग्रीष्म का समय था। मील भर ही चल पाये होंगे कि पू. धर्मसागरजी १ का संघ अन्य श्रावकों के साथ आता हुआ दीखा। दोनों संघ, दोनों गुरु, दोनों श्रावक-समूह आपस में मिले, एक दूसरे को आत्मीय सम्बोधनों से मंडित किया और दो जुलूस मिलकर एक हो गये। दोनों गुरुवरों के नमोऽस्तु का दृश्य कभी नहीं भुलाया जा | सकता। वे दोनों महान आचार्य अपने सम्बोधनों से एक दूजे को बड़ा, वरिष्ठ, ज्ञानवृद्ध ज्ञापित कर रहे थे। पर बड़ा बनने कोई तैयार नहीं था।
  3. केशरगंज के प्रबुद्ध जन जब लौटने लगे। तो अपने मन की बात वहाँ के प्रबुद्ध जनों से कह आये । सो वहाँ के लोगों में भी पहले दिन से संकल्प बन गया कि गुरुवर को आचार्यपद दिये जाने का क्षण नसीराबाद को ही प्राप्त हो । वे टोह में रहने लगे कि जब भी कोई त्यागी यहाँ दीक्षित किया जावेगा तभी आचार्यपद की योजना भी पूरी कर ली जावेगी । नसीराबाद में शिष्यों को पढ़ाने का कार्य गुरुवर ने तेज कर दिया। वहाँ ठंड अधिक पड़ रही थी, जनवरी का माह था। तभी वहाँ बासिम (महाराष्ट्र) निवासी मुनिभक्त श्री लक्ष्मीनारायणजी जैन ने गुरुवर से प्रार्थना कि उन्हें श्रमण पथ की दीक्षा प्रदान कर भवभय से बचा लें। लक्ष्मीनारायणजी पूर्व से ही संघ में थे और ब्रह्मचारी दीक्षा प्राप्त कर चुके थे। गुरुवर को उनकी पात्रता पूर्व से ही प्रभावित कर रही थी, अत: उन्होंने विषय पर विचार करना उचित ही समझा। एक दिन उन्होंने समाज-प्रधान से कहा कि ब्र. लक्ष्मी को मुनिदीक्षा देने का समय आ गया है, सुविधा हो तो ७ फरवरी (६८) को दीक्षा समारोह कर लिया जावे। संकल्प पूर्ति का क्षण दे सकता है, अत: उन्होंने गुरुवर के चरण पकड़ते हुए स्वीकृति में अपना शीष चरणों पर धर दिया और बोले विचार उत्तम है। हम शीघ्र व्यवस्था करेंगे। मंदिरजी से लौटकर प्रधानजी ने गुरुवर के आदेश से सभी को अवगत कराया। दूसरे दिन ही पंचायत की बैठक हुई और उचित कार्यकर्ताओं को कार्य-विभाजन कर दिया गया। पत्रिकायें प्रकाशित कराई गई। सम्पूर्ण नगर में फिर केशरगंज मंदिर और सोनीजी की नसिया में पत्रिकायें सूचना पटल पर लगाई गई। बाहर के शहरों को भी यथासमय भेज दी गईं। पंडितों और विद्वानों के परामर्श से आठ दिवसीय समारोह की रूपरेखा बना ली गई, फिर आचार्यश्री के समक्ष प्रस्तुत कर, आज्ञा प्राप्त करली गई। धूमधाम और उत्साह के साथ गुरुवर के सान्निध्य में कार्यक्रम प्रारंभ करने के क्षण आ गये । सबसे पहले श्री कजोड़ीमलजी अजमेर द्वारा छोल भरी गई, वह ३१ जनवरी ६९ का समय था। दूसरे दिन अधिक संख्या और अधिक उत्साह ने स्थान पाया जब श्री रिखबचंद पहाड़िया पीसागन द्वारा आचार्य निमंत्रण किया गया। पं. चम्पालालजी द्वारा चारित्र शुद्धि विधान सम्पन्न कराया गया। उसी दिन सांध्य बेला में श्री पाथूलालजी प्रेमचंद बड़जात्या द्वारा शोभायात्रा सम्पन्न कराई गई। ब्र. लक्ष्मीनारायण साक्षात् राजकुमार दीख रहे थे, तब १-२ फरवरी को मध्याह्न, मण्डल विधान तो रात्रि में चौकड़ीमुहल्ला नसीराबाद के श्रावकों द्वारा पुनः शोभायात्रा। ३ फरवरी को पुनः दिन में मंडल विधान और रात्रि में श्री जतनलाल जी टीकमचंदजी गदिया द्वारा शोभायात्रा । ४ फरवरी को पुन: मंडल विधान पूजन और रात्रि में श्री कनकमलजी मोतीलालजी सेठी द्वारा शोभायात्रा प्रभावना का क्रम जारी रहा, फलत: ५ फरवरी को दिन में विधान और रात्रि में छप्यावालों की ओर से शोभायात्रा । ६ फरवरी को विधान, मंडल पूजन, शांति, विसर्जन, शांतिधारा और रात्रि में दिगम्बर जैन पंचायत नसीराबाद के संयोजन में विशाल शोभायात्रा। अति भव्य विन्दोरी। फिर आया ७ फरवरी ६९ का शुभ-प्रभात । प्रात: विशाल रथयात्रा निकाली गई। मध्याह्न एक बजे से दीक्षा कार्यक्रम । विशाल पंडाल में बीस हजार से अधिक नर-नारियाँ समा गये थे, लोग खिचे चले आ रहे थे, पंडाल में जगह न रह गई थी। पहले जैन पाठशाला के छात्रों द्वारा सामूहिक मंगलाचरण प्रस्तुत किया गया, फिर अजमेर के श्री प्रभुदयाल जैन एडवोकेट द्वारा मंगलगान का पाठ किया गया। श्री मनोहरलाल जैन प्रधानाचार्य, (अभिनव प्रशिक्षण केन्द्र चिड़ावा) के मुख्य भाषण के बाद दीक्षा विधि प्रारंभ करने पूज्य आचार्य श्री ज्ञानसागरजी उठे और उन्होंने विधि-विधान पूर्वक ब्र. लक्ष्मीनारायण को दिगम्बरी मुनिदीक्षा तथा क्षु. सन्मतिसागरजी को ऐलक दीक्षा प्रदान कर दी। ब्र. लक्ष्मीनारायण का नामकरण किया गया- मुनि विवेकसागरजी और क्षुल्लकजी का ऐलक सन्मतिसागरजी। जैसा माहौल साल भर पहले, पू. विद्यासागरजी की दीक्षा के समय अजमेर में बना था, लगभग वैसा ही समदर्शी गुरुवर ज्ञानसागर के सान्निध्य से, नसीराबाद में बन गया था। पू. विवेकसागरजी के उद्बोधन हुए। समय विशेष पर उनके पिता श्री सुगमचंदजी जैन एवं भ्राता श्री सुखदेवजी भी उपस्थित थे। परिवार की ओर से भरे गले से उनके पिताजी ने ‘दो शब्द' कहे थे दीक्षा के पूर्व । अन्य श्रावकों में श्री उम्मेदमलजी, श्री कजोड़ीमलजी, ब्र. प्यारेलालजी बड़जात्या, पं. विद्याकुमारजी सेठी अजमेर, पं. चम्पालालजी नसीराबाद आदि अपनी निरन्तर उपस्थिति बनाये रहे। सम्पूर्ण वातावदन आचार्यश्री और नवदीक्षित साधुओं के जयघोष से गूंज गया। गुरुवर समझे कार्यक्रम पूर्ण हो गया। वे चुपचाप अपने आसन पर बैठे थे कि तब तक माइक से दीक्षा समारोह के अध्यक्ष सेवाभावी नागरिक एवं मुनि भक्त श्रावक श्री सुमेरचंद जैन की विनय युक्त आवाज आने लगी, श्रोताओं के कान उस तरफ हो गये, सभी जन शांति से सुनने लगे। सुमेरचंदजी के स्वर में नसीराबाद, ब्यावर, केशरगंज अजमेर और जयपुर आदि से पधारे श्रावकों के स्वर भी समाहित थे। स्वर थे- परमपूज्य आचार्यश्री हम सभी भक्तों और संघस्थ सन्तों की प्रार्थना पर ध्यान दें एवं आज की एक पावन बेला में संघ का आचार्यपद ग्रहण कर हम सबको उपकृत करें। श्री माणिकचन्द श्री वकील साहब ने समर्थन करते हुए समाज द्वारा प्रस्तावित प्रस्ताव पद को सुनाया। सेठ भागचन्द सोनीजी ने जैन समाज की ओर से समर्थन ज्ञापित किया। माइक से निकलती आवाज ने सभी के कानों को धन्य कर दिया । हजारों श्रावकों का वह समूह एक सुर से पुकार उठा - “आचार्य पद'' उचित है। गुरुवर स्वीकार करें। देखते हुए भी, गुरुवर ने विनय पूर्वक मना कर दिया। किन्तु कोई उनकी बात मानने तैयार न हुआ, सभी जन प्रार्थनायें दोहराने लगे। गुरुवर जन्मजात विद्वान थे। वे जान रहे थे कि यह आचार्यपद उनके मुनिपद पर एक भार है, एक परिग्रह है, पर संघ का सविधि संचालन करने के लिये वह उचित भी है। वे मौन होकर अपने स्थान पर बैठ गये। पंडितों ने आचार्यपद क्रिया विधि-विधान सहित प्रारंभ कर दी। कुछ ही समय में कार्य पूर्ण हो गया। प्रधानजी ने माइक पर जोर से पुकारा बोलिये “आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज की जय। सम्पूर्ण उपस्थित लोगों ने भारी हर्ष के साथ जयघोष किया। फिर अनेक जयघोषों से आकाशक्षेत्र भर दिया। प्रधानजी ने आभार प्रकट किया और गुरुवर से : उच्चासन पर पधारने की प्रार्थना की। गुरुवर उच्चासन पर आसीन हो गये। पुन: काफी समय तक जयघोष होता रहा। नसीराबाद धन्य हो गया। धन्य हो गये वे नेत्र जो वहाँ उपस्थित थे। गुरुवर के जीवनकाल में नसीराबाद के प्रसंग ऐसे जुड़े हैं कि बगैर उनकी चर्चा के पू. ज्ञानसागर के जीवन वृत्त को कहा ही नहीं जा सकता। वही नसीराबाद पू. विवेकसागरजी के नाम से भी जुड़ गया, जब उन्हें यहाँ मुनि दीक्षा मिली। दूसरे दिन शाम को कतिपय वरिष्ठ श्रावकगण गुरुवर के पास बैठे धर्म-चर्चा कर रहे थे, तब एक सज्जन ने विनयपूर्वक पूछा- गुरुवर, आपने जब पू. विद्यासागरजी एवं पू. विवेकसागरजी का दीक्षा कार्यक्रम रखा था,तब उनके लिये भव्य विन्दोरी निकाले जाने के पावन संकेत प्रदान कर दिये थे, किन्तु जब सन् ५९ में पू. शिवसागरजी खानिया में आपको मुनि दीक्षा दे रहे थे, तब आपने विन्दोरी नहीं निकाली जाने दी थी, ऐसा क्यों? पू. ज्ञानसागर वरिष्ठ श्रावक के प्रश्न से सोच में पड़ गये, फिर अतीत और वर्तमान पर ध्यान देते हुए बोले- जब मुझे दीक्षा दी जा रही थी, उस वक्त मेरी उम्र ६५ से ऊपर हो पड़ी थी। क्या हाथी पर ६८ वर्ष के सजे धजे वृद्ध को ‘राजकुमार' मानने में जनमन का मानस स्वीकारोक्ति सहजता से दे पाता? राजकुमार की तरह काले घूघराले केशों का सत्य कहाँ से लाता? श्रेष्ठिजी, उम्र और समय देख कर निर्णय लेने पड़ते हैं। विद्यासागरजी और विवेकसागरजी गजराज पर, बैठने के पूर्व ही साक्षात् राजकुमार दिख रहे थे, अतः उनके लिये विन्दोरी का निकाला जाना उचित था, वयसंगत उपक्रम था।
  4. वर्ष १९६८ का चातुर्मास पू. ज्ञानसागरजी के समस्त जीवन के चातुर्मासों से विशेष हो गया था। अक्टूबर माह में ही, वहीं नसियाजी में, बहुचर्चित तत्कालीन एक और अन्य शिष्य लक्ष्मीनारायणजी को गुरुवर ज्ञानसागरजी ने ब्रह्मचारी दीक्षा प्रदान की एवं अपने श्री संघ में स्थान दिया। समय पर ज्ञानसागरजी ने वर्षायोग की विस्थापना कर डाली। चेला तन का मल विसर्जित करे तो गुरु कैसे पीछे रहेंगे, अत: ३ नवम्बर ६८ को पू. ज्ञानसागरजी ने भी अपना केशलुञ्च किया। सहयोग किया श्री विद्यासागर मुनि ने। उस दिन भी विराट समारोह आयोजित किया गया था। उसी दिन पिच्छिका-परिवर्तन समारोह भी आयोजित था। पुन: विद्वानों की वही टीम- श्री भागचंदजी, श्री पं. विद्याकुमारजी, पं. चम्पालालजी, डॉ. निहालचंदजी ने प्रवचन किये। इस बार केशलुञ्चन के साथ-साथ पिच्छिका परिवर्तन पर भी वक्ताओं ने प्रकाश डाला। श्री भागचंद जी ने मुनिवरों को नव पिच्छिका समर्पित की। बाद में उनके अनुरोध पर मुनि द्वय ने कल्याणकारी प्रवचन प्रदान किये। जो संत जितने अधिक मात्रा में विद्वान होते हैं, वे उतने अधिक मनोविनोद के प्रसंग वार्ता में ले आते हैं। आचार्य ज्ञानसागरजी तो हास्य की फुलझड़ियाँ चाहे जब प्रदान कर देते थे। कोई विद्वान या समाज सेवी या श्रेष्ठ-वर्ग वार्ता करता तो : अवसर स्वयमेव उपस्थित हो जाते थे। एक दिन कतिपय विद्वानगण अपने प्रश्न का उत्तर उनसे जानना चाह रहे थे। पूज्यवर ने एक उदाहरण देकर समाधान प्रस्तुत कर दिया। मगर उपस्थित विद्वान न समझ पाये, अतः उन्होंने विनम्रता से कहागुरुवर थोड़ा और खुलासा कीजिए। गुरुवर ने पुन: दूसरे प्रकार से बात समझाई और शांत हो गये। मगर विद्वान तब भी तह तक न पहुँच पाये, अत: शर्माते हुए बोलेगुरुवर तनिक फिर स्पष्ट कर दीजिए। उनकी सामयिक हतबुद्धि पर गुरुवर को विनोद करने का मन हो आया। अत: मुस्करा कर कहने लगे- “वह आपको अब केवलज्ञान प्राप्त होने पर ही स्पष्ट हो पायेगा।" वाक्य सुनकर वे विद्वान और उपस्थित अन्य जन एक साथ हँस पड़े। विनोद की तरंग ने धर्म की चर्चा को शीतलता युक्त स्पर्श जो दे दिया था। कतिपय गुणी-श्रावक चाहते रहते कि गुरुवर उनसे देर तक बातें । करें, पर वे वैसा सौभाग्य न प्राप्त कर पाते थे; अत: कभी-कभी गुरुवर को छेड़ देते कि कुछ तो सुनने मिल जावे। गुरुवर चश्मा लगाकर ही अध्ययन करते थे। एक बार कुछ वरिष्ठ श्रावक नमोऽस्तु के बाद काफी देर तक बैठे रहे, पर गुरुवर ने उनसे बातचीत नहीं की, चश्मा लगाये हुए ग्रन्थ पढ़ने में लीन रहे आये। श्रावकों ने देखा एक घंटा हुआ जा रहा है, मगर गुरुवर वार्ता ही नहीं कर रहे हैं, अत: उनमें से एक ने उन्हें छेड़ते हुए कहा- गुरुवर आप तो चश्मा लगाते हैं, यह परिग्रह है, फिर हम आपको अपरिग्रही कैसे मानें और कैसे नमोऽस्तु करें? व्यंग्य सुनकर गुरुवर ने ग्रन्थ धर दिया, फिर छेड़नेवाले सज्जन से मुखातिब हुए- सेठजी, मान लो आपकी दो अंगुलियाँ कमजोर हों और शेष शरीर ठीक चल रहा हो तो क्या इतने मात्र से समाधि ले लेंगे या धर्म साधना का कोई अन्य तरीका खोजेंगे? प्रश्न सुनकर सेठजी ने हड़बड़ा कर उत्तर दिया-महाराज, समाधि क्यों लेंगे, अंगुलियों का उपचार कराते हुए धर्मसाधना करेंगे। उत्तर सुनकर गुरुवर मुस्कुराये, फिर बोले- वही तो मैं कर रहा हूँ, चश्मा लगाकर धर्मप्रधान ग्रन्थों का अध्ययन और लेखन करता रहता हूँ। आप लोगों की तरह अपनी काया या अन्य की काया नहीं निहारता, न प्रकृति की छटा देखने लालायित रहता। यह जड़ चश्मा अभी धर्मसाधना में एक हेतु है, अत: यह परिग्रह कैसे हो गया? गुरुवर की वार्ता से सेठजी एवं उनके समीप बैठे अन्य श्रावक गद्गद् हो गये। फिर सेठजी बोले- महाराज, हम लोग घंटा भर से बैठे थे, आप वार्ता ही नहीं कर रहे थे, इसलिए आपको छेड़ बैठे। पर छेड़छेड़ में हमें यह सदुज्ञान भी हो गया कि आप जैसे तपस्वी सन्तों के लिये ‘चश्मा' कभी भी परिग्रह की श्रेणी में नहीं माना जावेगा, वह सही में धर्म-साधना का एक महत्त्वपूर्ण हेतु है। सोनीजी की नसिया अजमेर के अत्यंत प्रभावनाकारी चातुर्मास के समय, समीपी मुहल्ला केशारगंज के भक्त इतने प्रभावित हुऐ थे पू. ज्ञानसागर जी से कि वर्ष १९६२ के चातुर्मास के लिये उनकी आँखों में सपने सज चुके थे कि गुरुवर केशरगंज की सुधि लेवें । भक्तगण जब भी जाते, श्रीफल चरणों पर चढ़ाकर प्रार्थना करते- केशरगंज को एक चातुर्मास प्रदान कीजिए। गुरुवर मुस्करा कर भक्तों की तरफ देखते फिर कहते- समय आने दीजिए। भक्तों की भक्ति से गुरुवर का निर्णय एक दिन केशरगंज के मंदिर में साधना करने का हो गया। वहाँ के मंदिर, मंदिर के समीप धर्मशाला, धर्मशाला में त्यागी व्रती जनों को रहने की व्यवस्था- गुरुवर की स्मृति में थी। एक दिसम्बर ६८ को केशरगंज के श्रावकों का भारी समूह नसियाजी के समीप रुका रहा, जब गुरुवर ससंघ निकले तो जुलूस, मनोहर शोभायात्रा में परिणत हो गया। बाजे, शहनाई, बेनर, झंडे, कलश, शोभायात्रा की श्रीशोभा के श्रेष्ठ प्रतीक थे। हर चौरस्ते सजायें गये थे। अनेक महा-द्वार (गेट) बनाये गये थे। केशरगंज के हर श्रावक ने अपने निवास स्थान पर केशरिया झंडा फहराया हुआ था। श्रावकगण गुरुवर को लेकर चले, तो भक्त नसियाजी के समीपी श्रावक कहाँ रुकनेवाले थे, वे गुरुवर की शोभायात्रा के साथ ससमूह चल पड़े। केशरगंज के लोगों के चेहरे पर भारी उमंग थी कि गुरुवर पधार रहे हैं। नसियाजी के भक्त उदास-उदास थे, गुरुवर जा रहे हैं। केशरगंज के लोग उन्हें धैर्य रखाते- भाईसाब ! क्यों परेशान हो रहे हैं, अभी नसियाजी तक आप आते थे, अब दो कदम अधिक चलना और केशरगंज आ जाना, गुरुवर के दर्शन करने। उनके सम्बोधनों से नसियाक्षेत्र के लोगों को शांति मिलती थी। गुरुवर ससंघ केशरगंज आ गये। वहाँ के श्रावकों में प्रभावना दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ने लगी। लोग बतलाते- गुरुवर आगमन से सोना बरसने लगा है। गुरुवर श्रेय न लेते हुए उन्हें धीरे से उत्तर देते- सोने से क्या होता है, यहाँ तो पहले ही से केशर बरसती रही है। लोग सुनकर गद्गद् हो जाते । अभी कुछ ही दिन बीते थे कि समाज के समस्त प्रमुख लोगों ने एक अंतरंग बैठक में निर्णय लिया कि गुरुवर की वय ७७ वर्ष हो चुकी है, इस बीच उनने २२से अधिक ग्रन्थ संस्कृत और हिन्दी में रच डाले हैं, एक बड़े संघ का सुंदर संचालन भी कर रहे हैं। अत: क्यों न उन्हें ‘आचार्य' सम्बोधित किया जावे, उनसे आचार्यपद ग्रहण करने की प्रार्थना की जावे। समाजसेवी एक सूत्र में बँध गये। उन्होंने अपना मन्तव्य संघ के सदस्यों के समक्ष भी रखा, सभी सदस्यों को उनकी बात ठीक लगी। तब संघस्थ साधुओं ने शंका रखी- गुरुवर ऐसे-वैसे तो आचार्यपद नहीं लेंगे, किसी की दीक्षा का अवसर सामने आने दीजिए, उसी अवसर पर आप प्रयास करें तो सफलता पा सकेंगे। वार्ता हो गई। सब जन शांत रहे आये जैसे कोई विमर्श ही न हुआ हो। समाजसेवी सोच-विचार कर योजना को मूर्त रूप देने की सोच रहे थे कि तब तक गुरुवर ने ससंघ वहाँ से विहार कर दिया। लोग चकित । गुरुवर को नसीराबाद और ब्यावर के मंदिरों के दर्शन करने थे। उनके चरण उसी तरफ थे। केशरगंज का आकुल-व्याकुल समाज संघ के साथ ससमूह चल जा रहा था। मन की बात मन में ही रह गई थी। गुरुवर नसीराबाद पाहुँच गये। उधर नगर-सीमा पर पूरा शहर उतर आया था अपने आराध्य की अगवानी के लिये। गुरुवर जैसे ही पहुँचे, भक्तों ने पाद-प्रक्षाल किया। चरण जल सिर आँखों पर धरा और गुरुवर को शोभायात्रा के साथ नसीराबाद के बड़े मंदिरजी में ले गये।
  5. केशलुञ्चन-क्रिया चल रही थी मंच पर, तब तक गुरुवर पंडितों को प्रवचन के लिये आदेश प्रदान कर देते हैं। पं. विद्याकुमार सेठी, श्री नाथूलाल वकील बूंदी, श्री के. एल. गोधा एवं पं. हेमचंद शास्त्री के वैराग्य वर्धक प्रवचन सम्पन्न हुए। ब्र. विद्याधर के माता-पिता की ओर से सम्मति प्रदान करने एवं गुरुवर का आभार मानने, उनके अग्रज श्री महावीरप्रसाद जैन एक भतीजे सहित पधारे थे। सम्बोधनों के लिये उन्हें भी माइक पर आमंत्रित किया गया, वे आये और अपने संक्षिप्त उद्बोधन से अपना मन्तव्य कह गये। अंत में समाज को श्री भागचंद सोनी का उद्बोधन सुनने मिला। उन्होंने गुरुवर को धन्यवाद प्रदान किया एवं दीक्षा श्रेष्ठता और सामयिकता का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए अजमेर के सौभाग्य की चर्चा की। केशलुञ्च कार्य पूर्ण होते ही गुरुवर ज्ञानसागर उनके समीप जाकर खड़े होते हैं। पंडितगण थाली में पूजादि योग्य द्रव्य लेकर पास पहुँच जाते हैं। गुरुवर दीक्षा प्रदान कर संस्कारित करते हैं, अपने हाथों से द्रव्य चढ़ाते हैं, अपने अक्षरों से मंत्रों का उच्चारण करते हैं। गुरु का संकेत पाते ही विद्याधर वस्त्र छोड़ देते हैं। गुरुवर उनका नामकरण करते हैं- आज से आप मुनि विद्यासागर हो गये। धूप की तपन भूल कर लोग नव-मुनि के दर्शन में लीन थे। सभी दौड़कर उनके चरण स्पर्श कर नमोऽस्तु कर लेना चाहते थे। तब तक आकाश में उड़ रहे बादलों को लगा कि जब ये नागरिक चरण छूने की बात सोच सकते हैं तो हम तो सीधे उनका चरण प्रक्षाल कर सकते हैं। आवारा-बादलों को कौन रोक सका है? देखते ही देखते वे ऊधमी बच्चों की तरह नसियान्जी के आकाश क्षेत्र पर दौड़ आये। सूरज के ताप को शिथिल कर लोगों तक शीतल छाया का संदेश भेजा। ताप तप्त लोगों ने राहत की सांस ली और धूप को बादलों के हाथ से हारते हुए देखा। लोग देख ही रहे थे कि तब तक बादल बरसना शुरू। कुछ मिनट तक वह क्रम रहा, फिर बन्द। तब लगा कि हजारों नागरिकों के मध्य बादल आये, अपने गुरुवर और मुनिवर के पैर पखारे और चले गये। पंडितों ने विचार किया कि भक्त रूपी बादलगण प्रकृति के प्रतिनिधि बन कर आये थे और साक्षात् गोमटेश्वरी दिगम्बर मुद्रा का महामस्तकाभिषेक कर चले गये। कवि गण सोच रहे थे- बादल बादल नहीं थे, वे जरूर देव थे, इन्द्र सहित आये थे और प्रथम अभिषेक का लाभ लेकर विलीन हो गये। कुछ समय पानी रुक गया। बादल विहार कर गये। किरणों का आगमन हुआ। धूप ने फिर झंडा फहराने का प्रयास किया। जनसमूह प्रकृति का पावन परिवर्तन देख रहा था। उन्हें लगा यह सब गुरु और शिष्य के पुण्यों का प्रभाव है। बस ! भीड़ में सयाने थे तो बच्चे भी थे। अपने मनगढन्त विचार गुनने में लगे थे, उन्हें लगा कि ब्र. विद्याधर ने जैसे ही वस्त्र छोड़े, इंद्र का सिंहासन डोल गया, अत: उसने अपनी सम्मति दर्शाने के लिये बादलों का रूप लिया, नाचा, वर्षा की,. अभिषेक का लाभ लिया और चलता बना। पूज्य गुरुवर ने उन्हें स-ममंत्र पिच्छिका और कमंडलु प्रदान किये, आवश्यक निर्देश दिये और फिर दिया कल्याणकारी प्रवचन । उनकी आज्ञा से दो शब्ळ्द मुनि विद्यासागर ने भी बोले। समूह गुरु और शिष्य के दर्शनों में लीन था। अपार जनमेदिनी अपने नेत्र धन्य कर रही थी। युवा सम्राट मुनि विद्यासागर बालयति महावीर की तरह प्रतीत हो रहे थे। सब एक टक देख रहे थे। कोई आँखें हटाने तैयार नहीं था। सदलगा की धूल धर्म के सेहरा का फूल बन गई थी, अजमेर जहाँ सेहरा की चर्चा सबसे अधिक की जाती है, उस अजमेर में। विद्यासागर जी के दीक्षा संस्कार में पिता-माता बनने का गौरव, गुरुवर ज्ञानसागर के परमभक्त श्री हुकमचंद लुहाड़िया एवं उनकी धर्मपत्नी श्रीमती जतन कॅवरजी ने प्राप्त किया था। जो यश आज उक्त माता-पिता ने प्राप्त किया था, वह उस कार्यक्रम के २२ वर्ष पूर्व सदलगा में भी एक माता और पिता ने प्रकृति के माध्यम से पा लिया था। तब पिता थे - श्री मलप्पाजी अष्टगे और माता थी श्रीमती श्रीमतीजी। अजमेर के मंच पर विराजित धर्म पिता-माता (लुहाड़िया दम्पति) ने गुरुवर ज्ञानसागरजी से आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत प्राप्त किया एवं भव सफल बनाने के सु-सूत्र हृदय में सजा लिये। कार्यक्रम पूर्ण हो गया। दूसरे दिन अजमेर की नसिया से आहार के लिये - एक नहीं, दो मुनिराज निकले। आगे गुरुवर ज्ञानसागरजी पीछे मुनिवर विद्यासागरजी। ज्ञानसागर के परम भक्त धर्मवीर भागचंद सोनी को प्रथम दिन प्रथम आहार का सौभाग्य प्राप्त हुआ, पू. मुनि विद्यासागरजी ने उनके चौके में उजास फैला दिया। दिगम्बरी-दीक्षा का आत्मकल्याणकारी महोत्सव हो गया पर , उसकी चर्चा रोज हर घर में चलती थी। वह उत्सव “समाज-कल्याणक' का हेतु भी बना है- जन सामान्य धीरे-धीरे समझ पाया। ग्रीष्म के गरम दिन विदा ले गये। वर्षा ऋतु प्रारंभ होने को थी। चातुर्मास स्थापना की तिथि लोगों में भय पैदा कर रही थी कि कहीं गुरुवर ज्ञानसागर विहार न कर दें। श्रेष्ठिगण विद्वानों के साथ श्रीफल लेकर चाहे जिस दिन गुरुवर के समक्ष पहुँच जाते और वर्षायोग का समय माँगते रहते । गुरुवर सदा की तरह एक ही जबाब देते समय आने दीजिए, देखेंगे। अजमेर के सौभाग्य से वह समय भी आ गया जब आषाढ़ शुक्ल चौदस को विधि विधान के साथ गुरुवर ने ससंघ चातुर्मास की स्थापना नसियाजी परिसर में सम्पन्न कर दी। लोगों का खटका/संशय समाप्त हो गया। सब प्रसन्न थे- श्री संघ का समय मिलेगा निरंतर | धीरे-धीरे पर्वराज-पर्युषण आ गये। अब संतों की व्यस्तता और बढ़ गई। पठन-पाठन और स्वाध्याय-प्रतिक्रमण के साथ-साथ प्रतिदिन २ बजे मध्याह्न से ४.३० तक मुनिवरों के प्रवचन होने लगते । पू. ज्ञानसागर की आज्ञा से पह्वले पू. विद्यासागरजी बोलते थे, बाद में गुरुवर । लोग गद्गद होते गुरुभक्त श्री कजोड़ीमलजी लगभग पूरे दिन ही संघ के समीप बने रहते थे, वे आहार एवं जलादि के लिये ही घर पहुँच पाते थे, अन्यथा पूरा दिन श्रीसंघ के पास बिताते । कभी मुनिवर ज्ञानसागरजी से बतियाते रहते तो कभी मुनि विद्यासागरजी से। नवदीक्षित मुनिराजजी बातें कम, संकोच अधिक करते थे, अत: कजौड़ीमल ही क्या, अनेक श्रावक उनसे वार्ता सुख न पा पाते थे। पर्वराज का महत्त्व द्विगुणित करने के लिये समाज ने ब्यावर से श्री पं. हीरालालजी जैन सिद्धान्त शास्त्री को आमंत्रित कर लिया था, वे वहाँ ऐलक पन्नालाल-सरस्वती भवन के सुविख्यात व्यवस्थापक थे। श्री भागचंद सोनी सरावगी मुहल्ला स्थित मंदिरजी में प्रवचन का लाभ बाँट रहे थे। संघ किसी भी नगर बस्ती में होता था, पर प्रतिवर्ष पू. ज्ञानसागरजी की प्रेरणा से वहाँ के समाज के सहयोग से चारित्र चक्रवर्ती पू. शांतिसागरजी मुनिराज का स्मृति दिवस अवश्य मनाते थे। वह अजमेर में भी मनाया गया। फिर कुछ समय पूर्व दिवंगत हुए मुनि सुपार्श्वसागरजी की पुण्यतिथि भी मनाई गई। (इन्हीं महाराज के नाम राशि तत्कालीन मुनि सुपार्श्वसागरजी, जो अन्यत्र चातुर्मास कर रहे थे, पृथक् थे ।) उसी वर्ष नागौरी गोठ छोटा-धड़ा के भट्टारक श्री देवेन्द्रकीर्तिजी का स्वर्गवास हो गया था, तब नागौरी गौठ में एक शांतिसभा भी भागचंद सोनी की अध्यक्षता में सम्पन्न की गई। गुरुवर वहाँ तो नहीं गये, पर उनका आशीष छोटा धडा पंचायत के सदस्य प्राप्त कर सके थे। मुनि विद्यासागरजी के सिर के काले बाल बढ़ कर बतला रहे | थे कि उन्हें दीक्षा लिये तीन माह से अधिक हो गये हैं। मुनिवर ने गुरुवर से केशलुञ्च की आज्ञा ली । मिल गई, पर गुरुवर ने कार्यकर्ताओं को बतला दिया, अत: १८ अक्टूबर ६८ को भारी समारोह के मध्य मुनिजी की दीक्षा के बाद, प्रथमबार, केशलुञ्च हुए। समारोह कुछ अधिक ही खिंच गया; क्योंकि लुन्चन-क्रिया के चलते, वहाँ श्री भागचंद सोनी, पं. चम्पालाल, पं. विद्याकुमार, श्री निहालचंद, श्री अशोककुमार, श्री हेमचंद शास्त्री आदि विद्वज्जनों के सारगर्भित प्रवचन भी हुए। उसके बाद परमपूज्य ज्ञानमूर्ति ज्ञानसागरजी मुनि महाराज और पू. विद्यासागरजी (नये) महाराज के प्रवचनों का पुण्य भी जनता ने बटोरा।
  6. पच्चीसवें बड़े हाथी को कुछ अधिक ही सजाया गया था, लोग उसे इंद्र महाराज का ऐरावत कह रहे थे। उस पर युवा सम्राट शोभा बिखेर रहे थे। सम्राट के पीछे-पीछे चल रहे हैं देश के अनेक प्रान्तों से आये श्रावकगण । उन्हीं के मध्य हैं मनीषी साहित्यकार गण। उन सबके पीछे मातायें बहिनें मंगलकलश लिये चल रही थीं। उनकी संख्या भी शतकों में थी। उन सबके पीछे चल रहा था लाखों श्रावकों-बालगोपालों का प्रभावनाकारी जुलूस। बच्चे अपने बड़ों के साथ संगामित्ति कर चल रहे थे, डर था कहीं भीड़ में छूट न जावें। कोई विद्याधर के समीप था शोभायात्रा में, कोई काफी दूर था, पर सत्य यह है कि जो जहाँ था, वह वहीं से विद्याधर के साथ था। महावीरप्रसादजी इस दिन पहली बार समय की सुन्दरता को खुली आँखों से देख सकने में सफल हुए थे। सुबह की वह विन्दोरी काफी दूर-दूर तक घुमायी गई। शोभायात्रा की भव्यता से एक ओर जैन समाज की एकता और धर्म लगन का महान रूप सामने आया, वहीं सम्पूर्ण नगर में धर्मप्रभावना की नूतन आभा प्रदीप्त हो गई। उस दिन का अजमेर एक नया, भव्य और दिव्य नगर बन कर आँखों में समा गया था। करीब साढ़े दस बजे शोभायात्रा पूर्ण हो गई। तब तक लोगों को अमृत वचनों की प्यास हो आई, सो शोभा यात्रा बदल गई धर्मसभा में। फिर श्रावकों की प्रार्थना पर ज्ञानअवतार पू. ज्ञानसागरजी ने अपने अमृत वचनों से सभी को तर कर दिया। सुबह-सुबह सूर्य की किरणें ऊधमी बच्चों की तरह जबरन भीड़ में घुस कर विद्याधर को बार-बार छू रही थी। बाल अरुण अपने नेत्र खोलता ही जा रहा था, किरणों की आँच से स्पष्ट होता चल रहा था। नगर के मठ, मढ़िया, मंदिर, नसिया, चैत्यालय, गुरुद्वारे, चर्च मस्जिदें मिलकर मुस्करा रहे थे। उनके गर्भ से गूंजती घंटों की आवाजें और भक्तों की स्वर-लहरियाँ एक संदेश बार-बार दोहरा रहे थे - मोह कर्म को नाश, मेट कर सब जग की आशा । निज पद में थिर होय लोक के शीश करो बासा। जैन मंदिरों पर बने श्याम-पटों पर एक सप्ताह पूर्व लगाये गये पत्र-पत्रिकायें समाचार को बार-बार आँखों में ला रहे थे। नगर के समस्त दैनिक अखबार उसी समाचार से अभिमंडित थे। प्रमुख अखबारों ने विद्याधर का सचित्र परिचय प्रकाशित कर अपना दायित्व पूर्ण किया था। सुबह की विन्दोरी में शामिल होने की होड़ सी लग गई थी। धनिक आ रहे थे, मनीषी आ रहे थे, खास आ रहे थे, आम आ रहे थे, कर्मचारी आ रहे थे, अधिकारी आ रहे थे, जैन आ रहे थे, अजैन आ रहे थे। पृथक्-पृथक् परिवारों के झुण्ड आ रहे थे। कुछ बहुयें अपनी वृद्धा सास का हाथ पकड़े साथ चल रही थीं। कुछ स्वस्थ-मस्त सासे अपनी नई नवेली बहुओं के घूघट खुलवा रही थीं और उस ओर इंगित कर रही थीं - जहाँ युवा सम्राट उपस्थित थे। पहले, एक माह पूर्व श्री ज्ञानसागरजी का आगमन अजमेर में हुआ था, तब उन्होंने एक अन्य श्रावक को क्षुल्लक दीक्षा प्रदान की थी। उस समय भी एक दृश्य बना था शहर में, मगर यह ३० जून का दृश्य तो अद्भुत बन पड़ा था। मध्याह्न दो बजे तक पुन: भीड़ उमड़ कर बाबाजी की नसिया । के उद्यान में और उसके बाहर चारों तरफ एकत्र हो गई थी। उस जमाने में अजमेर जैसे विशाल शहर में दस हजार की भीड़ इकट्ठा करने में नेताओं को पसीना आ जाता था, पर दीक्षा दिवस के दिन स्व-प्रेरणा से तीस हजार से अधिक जन उद्यान में भर गये थे तो उतने ही उद्यान के बाहर की सड़कों पर, चारों ओर खड़े थे, उतने ही जन समीपी भवनों के छतों, सीढ़ियों, द्वारों पर चढ़ कर देख लेना चाह रहे थे। अजैन श्रद्धालुओं की संख्या भी कम न थी। जय घोषों से आकाश क्षेत्र भरता चला जा रहा था। लोग वृद्ध मुनिवर और युवा ब्रह्मचारी की एक झलक देख लेने को बेचैन थे। वह तपसी जिसके शरीर पर अभी चार धागों का एक नन्हा वस्त्र है, कुछ देर बाद उसे भी उतार फेंकेगा । उसका वह दिगम्बर रूप इतना विशाल हो जावेगा कि संसार का कोई वस्त्र उसके माप का न रह जावेगा। उसमें वह वैराट्य समाहित हो जावेगा कि तब आकाश को ही वह ओढ़ पायेगा और पृथ्वी हो जावेगी उसका एक मात्र विछावन। उसका वह दिगम्बर रूप इतना प्रसरणीय हो पड़ेगा कि हर दिशा में वह ही वह होगा और हरेक दिशा भी उसी से प्रारंभ होकर उसी के पास पूर्ण हो जावेगी। मंच, पंडाल, मैदान की सीमायें होती हैं। वहाँ नसियाजी के चारों तरफ आदमियों का ताँता लगा है, पर अब कोई पंडाल में नहीं पहुँच पा रहा है, वह धरतीमाता की गोद की तरह भर कर खिल उठा है। नसिया के चारों ओर फैला विशाल भू-क्षेत्र नर-मुण्डों से जैसे पट गया हो। हर गली, छत, देहलान पर आदमी ही आदमी। सब की नजरें पंडाल में निर्मित विशाल मंच पर केन्द्रित हो गई हैं। श्री भागचंद सोनी माइक पर आते हैं, जनमानस की बुदबुदाहट शान्त हो पड़ती है, वे बोलते हैं- कुछ ही क्षणों के बाद, ज्ञानमूर्ति, चारित्र-चक्रवर्ती, वरिष्ठ मुनि पुंगव पूज्य ज्ञानसागरजी महाराज पधारने वाले हैं, आप लोग शांति बनाये रखें। कुछ ही पल बाद पूज्य श्री पधार गये, समीप ही बैठे विद्याधरजी। वहीं पास में श्री सोनीजी, श्री पं. विद्याकुमारजी आदि जन विराज गये । तब तक जनता पुनः मुनिवर, का जयघोष करने लगी। सोनीजी की नसिया के उस भू-भाग पर जैसे किसी तीर्थंकर का समवशरण उतर आया हो। मंच पर एक ऊँचे आसन पर गुरुवर मुनि ज्ञानसागर जी शोभायमान हैं, उनके साथ क्षुल्लक सन्मतिसागरजी, क्षु. सम्भवसागरजी, क्षु. सुखसागरजी एवं कतिपय ब्रह्मचारीगण । वही हैं। प्राचार्य निहालचंद, श्री मूलचंबंद लोहाड़िया, श्री दीपचंद पाटनी और श्री कजौड़ीमल जैन। ब्र. विद्याधर के अग्रज सुश्रावक श्री महावीरप्रसाद जैन अष्टगे एवं उनके सम्बंधी श्री बुल्लूजी बदनकाय भी उस महिमावन्त मंच की शोभा में शामिल हैं- विद्या के परिवार की तरफ से। दर्शकों का ध्यान विद्याधर के चेहरे पर है, उनकी दाढ़ी के काले, सघन, चमकीले बाल युवावस्था के गोपन-संकल्पों की कहानी कह रहे थे तो सिर पर शिशुओं की झालर (नूतन बाल) की तरह हवा में लहराते धुंघराले केश जीवन की क्षणभंगुरता का ज्ञापन प्रदान कर रहे थे। समाज के कर्णधारों-श्रीमानों-धीमानों ने प्रेम और वात्सल्य से सने हाथों से उन्हें (विद्याधर को) भूलोक के एक महान चक्रवर्ती सम्राट की तरह सजाया-सँवारा है। देह पर बेशकीमती रेशमी पोशाक। गले में स्वर्ण अलंकार। भुजाओं पर भुजबल प्रदर्शक सोनपट्टी। कलाई पर सोने के ब्रासलेट (पहुँचियाँ) (वर्तमान में चल रहे ब्यूटी पार्लरों की पहुँच से बाहर, उनका चेहरा उत्साही जनों ने ऐसा सजाया था जैसे इंद्रपुरी के ब्यूटी पार्लर से कोई विशेषज्ञ आकर सजा गया हो) शीश पर रत्न जड़ित मुकुट से सूर्य की किरणें अठखेलियाँ कर रही थीं। सत्य यह भी है कि जो जन्म से ही सर्वांग सुन्दर रहा हो, वह विभिन्न सजावटी पदार्थों से अत्यंत मनोहर क्यों न दीखेगा? संचालनकर्ता के आह्वान पर एक पाँच वर्षीय नन्हें बालक ने माइक पर आकर तोतली किन्तु मीठी आवाज में मंगलपाठ पढ़ा। फिर एक गायन मंडल द्वारा वैराग्य और संसार के वर्णन से गुम्फ्ति मधुर गीत, स-संगीत प्रस्तुत किया गया। गीत पूरा हुआ। ब्र. विद्याधर गुरु के समीप खड़े हो गये मंच पर, फिर हाथ जोड़ कर उनसे प्रार्थना की- “हे सरस्वती सूनु ! मेरी पुकार सुनें। मैं एक नादान युवक, आपके चरणों में रह कर अपना जीवन धन्य करना चाहता हूँ, सो हे गुरुवर! मुझे दिगम्बरी दीक्षा प्रदान करें और इस दास का परम उपकार करें। विद्याधर की वाणी से नि:सृत एक-एक शब्द को लोग पकड़ पकड़ कर कान से लगा रहे थे और उन्हें हृदय तक ले जाने का प्रयास कर रहे थे। विद्याधर की विनय सुनकर करुणा के सागर गुरुवर ने हाथ उठाकर आशीष दिया, तब विद्याधर आगे बोले- मैं एक सामान्य युवक हूँ। मुझसे अनेक त्रुटियाँ हुई होगीं। मैं समस्त प्राणियों से क्षमा मांगता हूँ, यहाँ उपस्थित परिचितापरिचित लोगों से क्षमा माँगता हूँ, साधु संघ से क्षमा की याचना करता हूँ, परम उपकारी गुरुवर से क्षमा चाहता हूँ। विद्याधर द्वारा किये गये क्षमायाचना के भाव से अनेक श्रावकश्राविकाओं की आँखें भर आईं, अनेक जन रोमांचित हो गये। समग्र समुदाय अपलक नेत्रों से उन्हें और गुरुवर को देख रहा था। विद्याधर के सारगर्भित एवं सार्वजनिक प्रवचन ज्यों ही पूर्ण हुए, वे धैर्यपूर्वक अपने स्थान पर बैठ गये और गुरुवर से प्राप्त निर्देशानुसार अपने ही हाथों से अपने केशलुञ्च करने लगे। वे अपनी सशक्त मुस्टिका से केशों को उखाड़ कर फेंक रहे थे, श्रावक केशों को हाथों हाथ लेकर गीली कनक पर रखते जा रहे थे। कोई मुस्टिका इतनी कड़ाई से खींचते विद्याधर कि केशों के निकलते ही रक्त बह पड़ता। सिर के बाल, फिर दाढ़ी के बाल, फिर मूछों के बाल। पूरा चेहरा और मुण्डा रक्त रंजित हो गया।
  7. श्रेष्ठिगण अपने तर्क रख रखकर थक गये। पगड़ी के नीचे से विद्वत्ता पसीने की तरह बह कर चेहरे पर आ गई, पर दीक्षा कार्य को स्पष्ट सम्मति न दे सके, वे समय के हस्ताक्षर कहे जानेवाले समाजसेवी। अधखिले चेहरे बनाये हुए हट गये गुरुवर के समीप से। लस्त-पस्त। खिन्न-भिन्न ।बिफरे-बिफरे। अशान्त । लौट आये निज गृहों को, निवासों कोठियों-महलों को, जहाँ सुख था, स्वर्ण था, सुखाद्य था, सुनाद्य था, संगीत का, सुगीत था, सुविधा थी, सुमुखि थी। थे नहीं तो तप, त्याग, संयम । न था आकिञ्चन्य का सु-भाव । न था तपस्वी-स्वभाव। गुरुवर के शब्द समाज में नव-प्रेरणा का संचार कर सके, फलत: दूसरे दिन से बालाबाल नर-नारियों में भारी उत्साह जाग गया, यह जान कर कि विद्याधर को मुनिदीक्षा दी जावेगी ! जो श्रेष्ठजन थक कर लौटे थे, दूसरे ही दिन उनके विवेक ने प्रभाव दिखाया और निर्मल मन से गुरुवर के समीप आ गये-व्यवस्थाओं के लिये मार्गदर्शन प्राप्त करने। एक भव्य आत्मा के पुण्योदय से समूचे नगर में पुण्य संचार हो पड़ा था। हर आत्मा में आनंद और उत्साह था। हर व्यक्ति धर्म कार्य के लिये समर्पित। गुरुवर की आज्ञा से एक दिन का उत्सव सात दिनी महोत्सव बन गया। सो २५ जून ६८ को सेठ मिश्रीलाल मीठालालजी की ओर से पहली बिन्दोरी निकाली गई। शाम के समय युवक विद्याधर को राजकुमारों की तरह सजाया गया। कीमती वस्त्र । स्वर्ण अलंकार / मुकुट । गाजे-बाजे,रथ, बघ्घी, विद्युत सज्जा। जैसे राजा के बेटे को दूल्हा बनाकर निकाला गया हो बारात के साथ। उसके पूर्व २२ जून से २४ जून तक बाल आश्रम दिल्ली के कलाकारों के कार्यक्रम सम्पन्न कराये जा चुके थे। समाज के आग्रह पर तब तक उदयपुर से पं. बाबूलाल जामदार और आगरा से सुयोग्य श्रावक सेठ सुनहरीलाल भी पहुँच चुके थे। सात दिवसीय कार्यक्रमों के अंतर्गत उनके प्रवचनों ने अजमेर नगर में भारी धर्म प्रभावना की। प्रभावना ऐसी थी कि नसियाजी का वह कार्यक्रम समूचे अजमेर नगर का कार्यक्रम बन गया था। हर मुहल्ले, कालोनी के श्रावक भारी संख्या में रोज उपस्थित हो रहे थे। हर क्षेत्र के प्रमुख जन एकता से कार्य कर रहे थे, मिल कर परस्पर । कुछ नाम सदा उल्लेखनीय रहेंगे - सर्वश्री धर्मवीर सेठ, भागचंद, छगनलाल पाटनी, कजोड़ीमल, श्री स्वरूपचंद कासलीवाल, श्री प्राचार्य निहालचन्द बड़जात्या, पदमकुमार जैन (फोटोवाले), पदमकुमार जैन एडवोकेट, किशनलाल जैन, मिलापचंद पाटनी, ताराचन्द पाटनी, कैलाशचन्द पाटनी, श्रीपंत जैन, माधोलाल गदिया, कमल बड़जात्या, विद्याकुमार सेठी, महेन्द्र बोहरा, हुकमचन्द लुहाड़िया आदि के नाम कभी नहीं भुलाये जा सकते। कार्यक्रम की शोभा बढ़ाने में स्थानीय संगीत मंडल, जैन वीर दल, जैसवाल जैन स्वयं सेवक दल, अग्रणी रहे। श्रेष्ठगण विन्दोरी निकालने का प्रस्ताव लेकर पू. ज्ञानसागरजी को घेरे हुए थे, ज्ञानसागरजी भी चाहते थे कि उनके प्रज्ञावान शिष्य ब्र. विद्याधर की दीक्षा का कार्यक्रम अद्भुत बन पड़े। अत: उन्होंने श्रेष्ठियों को शेष दिनों के लिये विन्दोरी के निर्देश दे दिये। फलत: २६ जून को पुनः शाम ७ बजे से सेठ राजमल मानकचंद चाँदीवाला के संयोजन में भव्य विन्दोरी निकाली गई। अजमेर की हर नई दिशा में, मार्ग में विन्दोरियाँ जा रही थी, २७ जून को सेठ पूसालाल गदिया को संयोजन का पुण्य मिला, वे विन्दोरी को घुमाते हुए अपने निवास की ओर से ले गये थे। प्रतिदिन विन्दोरी की शोभा बढ़ाने का प्रयास किया जाता था श्रावकों द्वारा। २८ जून को सेठ माँगीलाल रिखबदास (फर्म नेमीचंद शांतीलाल बड़जात्या) के भाग्य जागे, उस दिन का संयोजन पू. ज्ञानसागरजी के निर्देश से उन्हें मिला था। उन्होंने भी शोभा में बढ़त लाने के लिये मित्रों से चर्चा की, चर्चा पू. ज्ञानसागर तक पहुँच गई, तब मुनिवर ने मुस्कराकर बतलायाराजकुमार तो हाथी पर चलते थे, तुम्हारे राजकुमार किस साधन पर चल रहे हैं ? लोगों को संकेत समझते देर न लगी, वे बेचारे तो विद्याधर के ‘सवारी-त्यागी' के कारण अभी तक हाथी नहीं लाये थे, जब मुनिवर से संकेत मिल गया तो उस शाम विन्दोरी के समय राजकुमार विद्याधर को सजाने के बाद सुसज्जित हाथी पर बैठाया गया। पगड़ी बाँधे हुए ब्रह्मचारीजी उस दिन और अधिक खिल रहे थे। सड़कों पर तोरण द्वार उनका स्पर्श पाकर धन्य होते तो घरों के द्वारों-दरवाजों पर श्रावकों द्वारा समायोजित आरतियों से श्रावकों के मन और मकान धन्य हो रहे थे। जुलूस लाखनखेड़ी की और बढ़ता चला जा रहा था। प्रभावना इतनी बढ़ी कि श्वेताम्बर भी ब्रह्मचारीजी के स्वागत और आरती कर उपकृत हुए थे। २९ जून को समस्त दिगम्बर जैन जैसवाल पंचायत केशरगंज के संयोजन में विद्याधर की विन्दोरी भव्यता से निकली। हजारों व्यक्तियों के मध्य वह असरदार युवक समाज का सरदार बन कर जब हाथी पर बैठा तो लोगों के मन नाच उठे। लगा हर डगर पर पुण्य के मयूर नर्तन कर रहे हैं। उस दिन विद्याधर के तन पर वस्त्राभूषण और मुकुट नहीं थे, वे मात्र धोती दुपट्टे में ही भव्य दिख रहे थे। वे वीतरागी मुद्रा के समीप थे। अभी तक की सभी विन्दोरियाँ शाम को आयोजित की जाती रहीं, परन्तु ३० जून ६८ की ऐतिहासिक विान्दोरी प्रात: साढ़े सात बजे निकाली गई थी। उस तिथि में विद्याधर को दीक्षा मिलनेवाली थी, उस दिन संयोजन का सौभाग्य मिला था - सेठ हुकमचंद नेमीचंद दोषी को। सारा अजमेर उमड़कर इकट्ठा हो गया था, लाख से अधिक बालाबाल नर-नारी पूज्य ज्ञानसागरजी और उनके शिष्य के दर्शन करने पहुँचे थे। नगर के साथ-साथ अन्य नगरों प्रान्तों से पहुँचे हुए भक्तों की संख्या भी बहुत अधिक हो गई थी। शोभायात्रा निकली। लाखों नेत्रों में समा गई । विद्याधर हाथी पर बैठे मुस्करा रहे थे। दाढ़ी और मूछ के बीच उनकी दन्तावलि की शुभ्रता मुनियों के मन का परिचय दे रही थीधवल निर्मल श्वेत । विद्वज्जन जानते थे कि युवा सम्राट क्यों मुस्करा रहे हैं ? वे नादान नहीं हैं कि हाथी पर बैठने के उपलक्ष्य में मुस्करायें। वे बच्चे नहीं हैं कि राजसी पोशाक के कारण मुस्करायें। वे अलंकारों के कारण भी नहीं मुस्करा रहे थे। वे उस दिन सबसे न्यारे-प्यारे दीख रहे थे, इसलिये भी नहीं। वे आत्मा से उपजे सत्य के दर्शन कर मुस्करा रहे थे, वे जानते थे कि यह रूप, शृंगार, पोशाक, अलंकार, मुकुट, मुद्रिकायें सब क्षणिक हैं। जब ये सब इस शरीर से विलग हो जायेंगे, तब मिलेगा सच्चा रूप। वे उस सच्चे रूप, दिगम्बर रूप के क्षण प्राप्त करने की प्रतीक्षा पूरी होते देख मुस्करा रहे थे। उन्हें ज्ञात था कि एक भव में भगवान महावीर ने भी अपना स्वयं का राजपाट छोड़कर शांतिघाट की ओर चरण दिये थे। विद्या का वह राजपाट-शोभा शृगार तो उठाया हुआ था, अत: उन्हें इसके त्याग देने में अधिक खुशी होना स्वाभाविक ही था। वे संसार द्वारा थोपे गये परिग्रह पर हँस रहे थे, परिग्रह के त्याग और अपरिग्रह की कामना पर खुश थे। वे संसार को छोड़कर ‘सार गह लेने के क्षण हेतु मुस्कुरा रहे थे। श्रावक उन्हें साक्षात् राजकुमार वर्धमान निरूपित कर रहे थे, किन्तु उनकी आँखों में परिव्राजक महावीर का सौम्य मुखमण्डल आकार ले रहा था। दिगम्बर महावीर का देहोजाला उन्हें दीख रहा था, देहाभा दीख रही थी। अग्रज महावीर को अपना प्यारा भाई देवोपम दीख रहा था। वे जुलूस में शामिल होकर, जुलूस का ओर-छोर देख रहे थे। एक विशाल शोभायात्रा अजमेर के राजपथ पर फैली हुई है। अजमेर का हर चौराहा सजाया गया है। हर गली के प्रारम्भ में ही तोरण द्वार बने हैं। हर भवन पर केशरिया झंडा लहरा रहा है। एक मकान से वंदनवार चल कर दूसरे को बाँध रहा था, जैसे समाज की एकता का यथार्थ समझा रहा हो। झंडे और झंडियाँ तो गिने ही नहीं जा सकते थे। पूरा नगर पू. ज्ञानसागरजी के वाक्यों से लिखित कपड़ा-पट्टियों (बेनरों) से दमक रहा था। सबसे आगे बेण्डबाजों का दल, फिर शहनाई वादकों का दल उनके पीछे २४ सजे हुए गजराज झूमते हुए चल रहे थे। हर हाथी पर मुकुट बाँधे हुए श्रावक धर्मध्वजा फहराने का आनंद ले रहे थे।
  8. सन् ६८ भी सन् ६७ की तरह रहा पू. ज्ञानसागरजी के संघ में । एक मायने में जुलाई ६७ से १० जून ६८ तक मुनि ज्ञानसागर हर पल एक ज्ञानरथ अपने मानस से चलाते जो अगले ही पल ब्र. विद्याधर के मानस में उतर जाता। समय के वे ग्यारह-बारह माह गम्भीर अध्यापन और अध्ययन के रहे गुरु-शिष्य के मध्य । ज्ञानसागरजी विद्याधर को कई-कई घंटे पढ़ाते थे और विद्याधर जितने घंटे पढ़ते थे, उतने ही घंटे एकान्त में बैठकर उसका चिन्तन-मनन करते, पाठ्यक्रम को हृदयंगम करते, पढ़े हुए पाठों-सर्गों को घोकते, याद करते । प्रतिदिन ८-१० घंटे का क्रम रहता था, परन्तु बीच-बीच में वह समय १५-१६ घंटे तक भी रहा है। गुरु ने दिन भर में यदि दो बैठकों में कुल ८ घंटे पढ़ाया है तो शिष्य ने उसने बाद आठ घंटे अपनी ओर से और दिये उस पढ़े हुए अंश को हृदय के शिलालेख पर उत्कीर्ण कर देने के लिये। श्रावक कहते हैं - न कोई सन्त इतना अधिक और इतना ललित पढ़ा सकता है तथा न कोई शिष्य इतने अधिक घंटों तक रोज अध्ययन कर सकता है। विद्या धर दिन में ही नहीं, रात में भी तीन बजे तक पढ़ते रहते थे। कजौड़ीमलजी ने जब कभी रुक कर ध्यान दिया है। तो उन्हें तो यही लगता था कि यह ब्रह्मचारीजी तो सारे दिन पढ़ते हैं। और सारी रात याद करते हैं। निद्रा/सोने का कार्य कब करते हैं, समझ में ही नहीं आता। कौन जानता था कि जो विद्याधर सोने तक के लिये समय नहीं देते, वे चुपचाप अपना सम्पूर्ण भविष्य ‘सोने' का बना रहे हैं। सोने का भविष्य माने भावही जीवन को स्वर्ण मंडित कर रहे हैं, गुरु ज्ञानसागर के ज्ञान रूपी सोने से। ज्ञानसागरजी को विद्या के साथ-साथ उनकी दैनिक चर्या भी प्रभावित करने लगी थी। कठिन तपस्या, स्व कर से स्व केश कुंचन, मुनियों जैसे व्रत-उपवास की स्वीकृति और निर्विघ्न । एक चटाई पर रात निकालने का संकल्प, उदासीन भाव, गुरुसेवा की ललक पिच्छिका बनाने की कला, श्रावकों से अत्यंत सीमित वार्तालाप अनेक महत्त्वपूर्ण और साधुत्वोचित लक्षण देख कर उन्हें लगा कि शिष्य को वस्त्र भार से मुक्त कर शिव-पथ पर आरूढ़ कर देना चाहिए। उसी माह में ही, पू. ज्ञानसागरजी के अनेक भक्तों ने पूछागुरुवर । अब ब्र. जी को दीक्षा कब दे रहे हैं। गुरुवर ऐसे प्रश्नों के उत्तर न देते थे, मौन रखते थे, पर उस दिशा में सोचना द्विगुणित कर देते थे। धीरे-धीरे एक दो पंडितों और एक दो श्रेष्ठियों तक चर्चा गई, फिर पंडितों और श्रेष्ठियों ने गुरुवर से चर्चा की। चर्चाओं का क्रम इतना बढ़ गया कि कुछ जन कहते कि दीक्षा देने में क्या आपत्ति ? चाहे जब दे सकते हैं तो कुछ जन बोले - अभी ब्र. जी युवक हैं, पहले क्षुल्लक दीक्षा उपयुक्त रहेगी, फिर बाद में अन्य पदों की दीक्षायें। सबकी बातें सुनने के बाद, गुरुवर ज्ञानसागरजी ने समाज को अपना निर्णय सुना दिया- ३० जून ६८ को विद्याधर को मुनि दीक्षा प्रदान की जावेगी, तदनुसार व्यवस्थायें बनायी जावें। श्री भागचंद सोनी, समाज प्रमुख, ने सीधी मुनि दीक्षा की बात सुनी तो गुरुवर को समझाने का सविनय प्रयास करने लगे। समय की खोज में थे कि कब बात करें उनसे। विद्याधर को दीक्षा आदि का संकल्प-विकल्प मन में नहीं था, वे अध्ययन के बाद गुरु सेवा में लग जाते थे। गुरुवर को गठियावात का कष्ट था, विद्या उनके जोड़ों को सहलाते रहते, कभी हाथ की कोहनियों पर हल्का मर्दन करते तो कभी पैरों के घुटनों पर। कभी कमर दबाते रहते तो कभी तलवों को। श्रद्धा से सनी हुई हथेलियों का स्पर्श चुपचाप ही गुरु ज्ञानसागर से वह वार्ता कर लेता जो विद्या के अधर न कर पाते। कई बार ज्ञानसागरजी को लगता कि विद्या के स्पर्श में जादू है, जहाँ हाथ धर देता है, वहाँ का दर्द चला जाता है। सत्य तो यह है कि वे प्रिय शिष्य के सेवा भाव से चकित हो पड़े थे, कहते- तू वैद्य बनकर आया है मेरी देख-रेख के लिए? कैसे सीखा तूने वैयावृत्ति का यह वेदना-निग्रह-गुण। वे महान ज्ञानी मुनि रोज-रोज विद्या के स्पर्श में सेवा, आदर, श्रम, कर्मठता, विनम्रता, लगन, निष्ठा और निष्कपटता के मंगलभावों की पड़ताल करते चल रहे थे। भागचंदजी एक जागृत श्रावक थे। चिंतन के धनी। समाज सेवा में अग्रणी। मुनि सेवा में समर्पित । समय पाकर एक दिन गुरुवर के कक्ष में मित्रों सहित जा पहुँचे, नमोऽस्तु के बाद निवेदन किया- गुरुवर आप प्रकांड विद्वान हैं, महातपस्वी हैं, निर्विकार निर्ग्रन्थ हैं, मात्र २२ वर्ष की उम्र के युवक को मुनि पद की कठिन डगर पर क्यों डाल रहे हैं? पहले क्षुल्लक बनाइये, चर्या देखिये, फिर आगे के लिये सोचिये। गुरुवर अपनी गुरु गम्भीर वाणी में बोले- मैंने उस युवक को परख लिया है, वे मुनिचर्या में सफल भर न होंगे, बल्कि मुनिपद की गौरव-गरिमा भी बढ़ायेंगे। भागचंदजी हाथ जोड़कर कहने लगे- अभी कुछ वर्ष मुनिदीक्षा न दीजिए। - क्यों ? पूछ बैठे गुरुवर। - उम्र और अनुभव कम है। - मुनिपद के लिये क्या उम्र होना चाहिये, क्या अनुभव होना चाहिये ? कहीं कोई अर्हतायें लिखीं हो तो बतलाइये ? - जी यह तो नहीं मालूम, पर हमारा मन कहता है कि .... - मन के कहने पर चल रहे हैं आप ? जो देख रहे हैं, जो जीवन का यथार्थ है, उसके कहने पर कब ध्यान देंगे ? - बस दो-चार वर्ष के लिये ही रोक रहा हूँ। - क्यों ? - अभी उम्र कच्ची है। - कच्ची और पक्की उम्र वर्ष या फल-छिन से नहीं बनती, वह आत्मतैयारी से बनती है। भीतर की परिपक्वता से। - गुरुवर, हम दो चार लोग नहीं, सारा समाज कह रहा है कि उम्र अभी कच्ची है। - हम त्यागीजन, समाज को नहीं, आगम को कसौटी मानते हैं। - तो भी महाराज, पहले उन्हें साल दो साल के लिये क्षुल्लक या वर्षी जी के पद पर रखिये। श्रेष्ठियों की वार्ता से क्षोभ हो आया गुरुवर को। पर वे महान ज्ञानी संत उसे मन ही मन दबा गये, फिर वात्सल्य गंगा उलीचते हुए बोले सम्मुख बैठे प्रमुखों से - कोई मुमुक्षु कोई जिज्ञासु, कोई श्रावक मेरी या आपकी इच्छा से वर्णी/क्षुल्लक ऐलक/मुनि बने- यह सम्भव नहीं है, शुभ नहीं है, प्राकृतिक नहीं है। कोई व्यक्ति मुनि ‘बनता' नहीं, ‘हो जाता है। मैं उसे ‘बना नहीं रहा, वह हो रहा है। मुन्यवस्था धारण कर रहा है। मैं तो निमित्त मात्र हूँ। आपकी बातें “मैं नहीं मान सकता, मैं मान भी जाऊँ तो उसे आपका कहना मानने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता । तपसी गण तप का भाव अपनी क्रियायें देख कर ही बनाते हैं, वे बाह्यतत्त्व पर सोचने या रुकने को विवश नहीं हैं। यदि उनके भीतर मुनि-अवस्था धारण करने का दृढ़ संकल्प है तो मैं या आप क्या, पूरा देश उन्हें नहीं रोक सकता। वह अपनी साधना के बल पर देश के किसी भी मंदिर में मुनि-अवस्था धारण करने स्वतंत्र हे। फिर मैं या आप बाधा क्यों बने? - ठीक है, महाराज ! जैसा आप उचित समझें, किन्तु पात्र की दृढ़ता ? - देख ली मैंने। तपस्वी के संकल्पों की तरह दृढ़ है वह और उसकी पात्रता। - आपके पास आये, उन्हें मात्र ग्यारह माह हुए हैं, सो ताड़ना, प्रताड़ना, परीक्षण, अवलोकन भी तो आवश्यक है ? ज्ञानसागरजी मुस्कराये, फिर बोले- वह सब कर चुका हूँ। पुष्प-सा कोमल दीखनेवाला वह युवक भीतर से कड़ा और स्वावलम्बी है, निजाश्रित है। उसे सुकोमल ही न मानते रहिये, वह कंटक की तरह कड़ा भी है- धर्म, चारित्र और तप के कठिन आवरण में भिद सकता हैं। आँधी आने पर फूल-साा झर तो सकता है, पर उसे देख डर नहीं सकता।
  9. १५ जनवरी को संघ ने विहार करने का मनोदय स्पष्ट कर दिया। श्रावकगण सन्तों को जानते थे, उनके विहार और उनके पड़ाव उनके ही सोच-विचार से होते थे, उक्त दो क्रियाओं के लिये किसी की बात नहीं मानी जाती थी। विहार के समय एक सभा का आयोजन किया गया पण्डित विद्याकुमार सेठी एवं विद्वान श्रावक श्री मूलचंद लुहाड़िया ने अपने उद्बोधनों में चातुर्मास से समाज को हुए लाभ का वर्णन किया और गुरुवर का आभार ज्ञापित किया। संघ दादिया नगर की ओर विहार कर गया, तब श्रावकशिरोमणि भागचंदजी और श्री माणिकचंद सोगानी अजमेर ने खुलासा किया कि वे जब हम लोगों की ही विनय सुनकर नहीं रुके तो अन्य की विनय पर कैसे विचार करते ? उनके समक्ष तो सभी जन बराबर हैं। संघ ने लगभग एक माह तक कड़कड़ाती ठंड में प्रकृति से स्पर्धा की और प्राकृतिक उपसर्गों पर विजय पाते हुए, १२ फरवरी ६८ को दादिया की भूमि पर चरण धर दिये। समाज के धर्मप्रेमी नागरिक संघ की अगवानी करने नगर की सीमा पर पहले से बाजे-गाजे के साथ उपस्थित थे। सभी ने मुनिवर का पाद प्रक्षाल किया फिर स-समूह शोभायात्रा के रूप में संघ सहित ग्राम में प्रवेश किया। उस समय संघ में पू. क्षुल्लक श्री सन्मतिसागरजी, पू. सु. श्री सिद्धसागरजी एवं पू. क्षु. श्री शंभूसागरजी सहित कतिपय अन्य त्यागी भी थे जिनमें से एक थेश्री विद्याधरजी। दादिया पहुँचने के पूर्व, जब श्रीसंघ रास्ते ही में था, तब एक हृदयविदारक समाचार सुनने मिला। परमपूज्य मुनिवर ज्ञानसागरजी अपने बाँके ब्रह्मचारी श्री विद्याधर को प्राकृत का एक ग्रन्थ पढ़ा कर उठ ही रहे थे कि समाज सेवा और गुरुभक्ति से जुड़े स्थानीय एक सज्जन ने उनके समीप आकर मन्द स्वर में कान में कहा- “१९ जनवरी को पार्वमती माताजी की समाधि हो गई है।'' पू. ज्ञानसागरजी आर्यिका पार्श्वमतीजी को काफी नजदीक से जानते थे, वे गुरुवर पू. आचार्यश्री वीरसागरजी द्वारा दीक्षित थीं। समाधि के समय वे ससंघ आँगला उपनगर में थीं। आर्यिकाश्री को पू. ज्ञानसागरजी काफी समय तक पढ़ाते रहे थे- अन्य-अन्य साधु-सन्तों के साथ। मुनिवर ने वहीं शांतिसभा में आर्यिकाश्री को अपनी व संघ की श्रद्धांजलि अर्पित की। श्रावकों के अनुरोध पर आर्यिकाश्री के जीवन पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने बतलाया कि माताजी का पूर्व नाम गेंदाबाई जैन था, उनका जन्म स्थान जयपुर है, संयोग से ससुराल भी जयपुर ही बना। एक वर्ष जयपुर में आचार्य शिरोमणि, चारित्र चक्रवर्ती श्री १०८ शांतिसागरजी मुनि महाराज का चातुर्मास हुआ था, तब उनसे प्रभावित होकर गेंदाबाई ने सातवीं प्रतिमा के व्रत धारण किये थे। कुछ वर्ष बाद जब आचार्य वीरसागरजी का ससंघ चातुर्मास कचनेर में चल रहा था, तब गेंदाबाई वहाँ पहुँचीं और उनसे प्रार्थना कर क्षुल्लिका की दीक्षा प्राप्त की। झालरापाटन के चातुर्मास के समय उक्त आचार्य भगवन्त श्री वीरसागरजी से ही उन्होंने आर्यिका दीक्षा प्राप्त की थी और उन्हीं के संघ में रह कर धर्मसाधना करती रहीं। माताजी गम्भीर से गाम्भीर रुग्णावस्था में भी घबड़ाती नहीं थीं, न किसी श्राविका या ब्रह्मचारी से अपनी वैयावृत्ति कराती थीं। वृद्ध माताजी काफी समय से उनके संघ में धर्म प्रभावना करती चल रही थीं, इस बीच उन्हें श्वास रोग का कष्ट भी हो गया, पर उन्होंने चर्या और व्रतादि में शिथिलता नहीं आने दी। आहार के समय आयुर्वेदिक औषधि गुरु-आज्ञा से स्वीकार कर लेती थीं। वे अपने परिणामों को सहज तथा मन को निर्मल रखने का सच्चा प्रयास करती थीं। आचार्य वीरसागरजी की समाधि के बाद जीर्ण अवस्था देख कर उन्होंने कई बार पू. शिवसागरजी के समक्ष समाधि मरण का प्रस्ताव रखा, पर उन्होंने आज्ञा नहीं दी, समाधि दीक्षा टलती रही। पू. मुनिवर ने माताजी विषयक अनेक बातें बतलाकर अपना प्रवचन समाप्त किया और माताजी को श्रद्धांजलि प्रदान की। श्रद्धांजलि सभा के बाद वह व्यक्ति जो समाचार लेकर मुनिवर के कानों तक पहुँचा था, मुनिवर को करुणा पूर्वक बतलाने लगा-- | महाराजजी ! माताजी की ज्योति तो १९ जनवरी को बुझी है, पर उन्होंने काँपते हुए एक दिन पूर्व ही, १८ जनवरी को आचार्य शिवसागर से समाधिमरण दीक्षा प्रदान करने की प्रार्थना की थी, पर आचार्य श्री ने टाल दिया था, बोले थे- अभी तुम्हारा समय दूर है, परन्तु दूसरे दिन ही वह समय पास आ गया। वे चली गयीं। श्रावक से चर्चा के बाद गुरुवर ज्ञानसागर के चेहरे पर करुणा के भाव देखने मिले थे। जनवरी माह में पू. ज्ञानसागरजी के गुरुवर पू. शिवसागर महाराज राजस्थान के ऐतिहासिक शहर उदयपुर से ८० किलोमीटर दूरस्थ ग्राम गंगला में ससंघ विराजित थे, जबकि ब्र. विद्याधर के प्रथम दीक्षा गुरु | पू. आचार्य देशभूषण महाराज कर्नाटक प्रान्त के सुप्रसिद्ध शहर बेलगाँव के ग्राम कोथली-कुप्पनवाड़ी में, जो कोल्हापुर से ५६ कि.मी. पर है, विराजमान थे संघ सहित । इसी माह पू. ज्ञानसागरजी द्वारा रचित एक और महान ग्रन्थ ‘वीरोदय' प्रकाश में आया । जैन समाज के प्रख्यात विद्वान एवं अन्यान्य ग्रन्थों के सम्पादक पं. हीरालाल जैन सिद्धान्त शास्त्री ने इसका सम्पादन अत्यन्त सूझबूझ से किया था। ग्रन्थ की प्रस्तावना १६८ पृष्ठों में लिखी गई थी जबकि पूरा ग्रन्थ ६५० पृष्ठों में सजिल्द तैयार किया गया था। मुनि श्री ज्ञानसागर ग्रन्थ-माला ब्यावर'' का यह तृतीय पुष्प माना गया। उसके पूर्व दो महान ग्रन्थ ‘दयोदय एवं सुदर्शनोदय' समिति पहले ही प्रकाशित कर चुकी थी। उक्त ग्रन्थों से जहाँ मुनिवर के ज्ञान और साहित्य को लोग जान सके, वहीं सम्पादक और समिति के कार्य भारी सराहना अर्जित कर सके। आश्चर्य इस बात का सभी जन करेंगे कि ६५० पृष्ठों के सजिल्द ग्रन्थ ‘वीरोदय' का मूल्य मात्र छ: रुपये रखा गया था। तभी पं. गणेशीलाल रतनलाल कटारिया ने अनेक जैन-पत्र पत्रिकाओं में वक्तव्य नि:सृत किया कि पू. ज्ञानसागरजी के प्रकाशित उक्त तीन ग्रन्थों का संग्रह हर जैन मंदिर और जैन पुस्तकालय में अवश्य होना चाहिए। इसी क्रम में पं. कैलाशचंद जैन ने एक वक्तव्य जैन अखबारों में दिया कि वे अजमेर के समीप किशनगढ़ पहुँचे थे, वहाँ उन्होंने पू. ज्ञानसागरजी मुनि के पहली बार दर्शन किये हैं। मुनिवर का शास्त्रज्ञान उच्चकोटि का है। पंडितजी ने अपने वक्तव्य में स्पष्ट किया था कि मुनिभक्त वर्ग और पं. कानजी के वर्ग के श्रावकों में मैत्री एवं सद्भावना की तीव्र इच्छा है। इस बीच पू. ज्ञानसागरजी के ग्रन्थों के साथ एक मनोरंजक घटना हो गई। ग्रन्थमाला-समिति ब्यावर ने अखबारों में सूचना दी थी कि मुनिवर की पुस्तकों का सेट १० (दस) रुपये में भेजा जा रहा है, जिसका धन-आदेश (मनीऑर्डर) पहले आयेगा, वह पहले पा सकेगा। समिति के लोग अचानक चक्कर में पड़ गये कि लोगों के मनीआर्डर दस रुपये के स्थान पर मात्र एक-एक रुपये के आ रहे हैं। सैकड़ों मनीआर्डर पहुँच चुके थे। कई ने यह भी लिखा था कि अमुक अखबार में आपकी सूचना पढ़ी थी । समिति के विद्वान कार्यकर्ताओं ने उस अखबार की सूचना पढ़नी चाही, उसमें भूलवश १० की जगह १ रुपया प्रकाशित हुआ था। एक के बाजू का शून्य कहीं शून्य में विलीन हो गया था। त्रुटि समझते देर न लगी, पुन: उसी अखबार के द्वारा सूचना जारी की गई कि दस के स्थान पर एक छप जाने से भ्रम उत्पन्न हुआ है, अत: जिसने एक रुपया मनीआर्डर से भेजा है, वे शेष नौ रुपये भी भेजें ताकि ग्रन्थ उनकी ओर पोस्ट किये जा सकें। धीरे-धीरे बात सम्भल गई। मुनिसंघ दादिया से विहार कर पुन: धर्म यात्रा पर चल पड़ा। अजमेर निवासी बन्धु पिछले चार माह से अनुरोध कर रहे थे। संयोग की बात कि १० जून ६८ को अजमेर स्थित नसियाजी की तरफ संघ पहुँच ही रहा था कि श्री भागचंदजी समूह सहित उसके स्वागतार्थ खड़े मिले । मुनिवर की पूजादि के बाद गाजे-बाजे के साथ संघ को केशरगंजपुलिस केन्द्र के पास से सम्पूर्ण नगर में शोभायात्रा के साथ घुमाते हुए सोनीजी की नसिया में ले जाया गया।
  10. गुरुवर को विश्वास हुआ कि उनका श्रम बेकार नहीं जायेगा, वे जो कुछ पढ़ा रहे हैं, वह विद्या के मन मस्तिष्क तक पहुंच रहा है। उस दिन से विद्याधर की यात्रा बिन्दु से सिन्धु की ओर प्रारम्भ हुई मान ली गई और उसी दिन यह विश्वास बना कि एक सिन्धु, एक नन्हीं बिन्दु पर पूरी-पूरी तरह से ध्यान प्रदान कर रहा है। सोचनेवाले सोच रहे थे, परन्तु पथ पर चलनेवाले और आगे बढ़ गये थे। बिन्दु सिन्धु में समाहित होना चाह रहा था और उतने ही वात्सल्य से सिन्धु बिन्दु को अपने में समेट लेना चाह रहा था। मदनगंज-किशनगढ़ की धरती पर गुरु-शिष्य की सात्त्विक एवं सर्वांग सुन्दर परम्परा जन्म ले चुकी थी। वहाँ उनके मुख से बरसता अमृत नित्य श्रावकों की हृदय रूपी पृथ्वी पर स्थाई ज्ञानानन्द का संचार कर रहा था। पू. ज्ञानसागरजी संस्कृत पढ़ाते थे, पर सत्य तो यह है कि ब्र. विद्याधर, तब हिन्दी भी नहीं जानते थे, वे मूलरूप से दक्षिण भारतीय थे, अत: बाल्यकाल से ही उनके समक्ष कन्नड़ और मराठी भाषायें और बोलियाँ ही आती रहीं, उन्हें दोनों भाषाओं का ज्ञान भी था। ज्ञानसागरजी ने पं. महेन्द्रकुमार पाटनी को निर्देश दिये कि हिन्दी प्रधान ग्रन्थों की पढ़ाई वे करा दें। समय तय कर दिया गया। पं. पाटनी निश्चित समय पर रोज विद्याधर को हिन्दी ग्रन्थ और हिन्दी भाषा का अध्ययन कराने लगे। (बाद में ये पण्डितजी भी गुरुवर से क्षुल्लक दीक्षा प्राप्त कर, सन्त पथ के सच्चे अनुयायी बने थे।) मदनगंज-किशनगाढ़ का वैभव धरती के गर्भ से उदभुत वे पाषाण खंड हैं जो शिल्पकार की छैनी का स्पर्श पा मूर्ति का रूप धारण कर सदियों तक मंदिरों की श्रीशोभा के हेतु बनते हैं, परन्तु वहाँ के भक्तजन कहते हैं कि हमारे नगर का वास्तविक वैभव तो मुनियों के वे चरण हैं, जिनके आगमन से आदमी के भीतर की चट्टानें गरिमायुक्त आकार पाने लगती हैं। भीतर पड़ी मोह की चट्टानें, दम्भ के पाषाण खण्ड और दौलत के रोड़े, मुनिचरणों की प्रेरणा से मानवीय आचरण की जलधारा बन जाते हैं, जो जीवन के कल्मष धोकर, स्व को धवल निर्मल बना देते हैं। ऐसी धर्मप्रधान बस्ती में जब मुनि ज्ञानसागरजी के चरण पड़े हों तो चट्टानें क्या फौलाद भी पिघल कर धर्मायतन के आकार में ढल | जाने का गुण प्राप्त करने विकल हो पड़ा। १९६७ का वर्षाकाल पूज्य मुनिवर ज्ञानसागर-के वर्षायोग के कारण ऐसे क्षण प्राप्त करने में सफल भी रहा, चार माहों से अधिक समय तक, वहाँ के श्रावकों को गुरुवर प्रणीत अमृत में अवगाहन करने का अवसर मिला था। उस चातुर्मास में वहाँ मुनिवर के संघ में युवा तपसी बाल ब्रह्मचारी विद्याधर पृथक् ही आभा बिखेर रहे थे। तब तक एक दिन वहाँ श्री धर्मचंदजी पहुँच गये। वे देश के पूर्वी भाग से लौटकर सीकर स्वगृह आये थे, वहाँ से फिर मदनगंज-किशनगढ़ | पू. ज्ञानसागरजी के दर्शनार्थ आये। उन्होंने ब्र. विद्याधर को यहाँ पहली बार देखा था। देखा तो देखते रह गये थे। विद्याधर की झील-सी गहरी और बड़ी-बड़ी आँखों में विचारों की नौकायें चलती प्रतीत हुई, उनके सिर पर घने और घंघराले बाल भगवान आदिनाथ की मूर्तियों पर की गई कलाकारी का स्मरण कर रहे थे, उनका उन्नत ललाट हिमालय की ऊँचाइयों का प्रतिघोष करता लग रहा था, देह का गौरवर्ण वातास पर धूप की तरह छिटक जाने को लग रहा था, मगर शरीर पर धारण किये | गये श्वेत वस्त्रों ने देह के सूरज को बादलों की तरह ढक लिया था। वह एक दर्शनीय रूप था, एक ऐसी छवि जिसमें ज्ञान, विद्या, तपस्या और संयम की विराट सरितायें लहरा कर समय के समुद्र से मिल जाने बेताब थीं। धर्मचंद विद्याधर को देख रहे थे। विद्याधर एक प्रश्न करते हुए ज्ञानसागरजी को देख रहे थे। कुछ क्षणों तक सन्नाटा-सा छाया रहा गुरुवर के कक्ष में । फिर गुरुवर ने धर्मचंद का परिचय विद्याधर से कराया । परिचय कराने के बाद दोनों शिष्यों में हो आये अति उत्साह को शान्त करने के उद्देश्य से उन्होंने विद्याधर से हँस कर कहा- सवाल न बन रहा हो तो धर्मचंद से पूछ लो । वाक्य सुनते ही दोनों शिष्य विचारशीलता की भूमि पर आ गये। उनका उत्साह विदा हो गया। धर्मचंद का यह सोच कि मैं ज्ञानसागर का वरिष्ठ शिष्य हूँ- उड़ गया। वहीं विद्याधर का यह सोच कि जब गौतम गणधर तुल्य साक्षात् गुरुदेव ज्ञानसागर यहाँ उपस्थित हैं तो अन्य से क्यों पूछू - स्थापित हो गया। धर्मचंद जितने ज्ञानवान थे उस समय, उतने ही संकोची और सहयोगी, अत: गुरु का वाक्य – “धर्मचन्द से पूछ लो’ - सुन कर धर्म संकट में पड़ गये, सो मधुर स्वर में बोले- ‘जी, मैं गणित का छात्र नहीं रहा कभी, अत: मैं क्या जानू यह सवाल'। धर्मचन्द के मद रहित उत्तर से पू. ज्ञानसागरजी को भारी खुशी हुई, वे आगे विद्या से बोली- सच है विद्याधर, ये तो संस्कृत का छात्र रहा है, साहित्य का पुजारी है, काव्य रसिक है। कभी इन विषयों पर चर्चा करना हो तो अवश्य समय निकालना। धर्मचंद गुरुवचनों से कृतकृत्य हो गये। गुरु के समक्ष वह था उनका प्रथम परिचय विद्याधर से। कुछ दिनों तक रुक कर धर्मचंद चले गये। पूज्य ज्ञानसागरजी का वर्षायोग चलता रहा। जो ज्ञानानुभव के बीजकरण कभी उन्होंने धर्मचंद में भर देने चाहे थे, वे अब विद्याधर में भर रहे थे। विद्याधर जो उनके मन का पात्र था। जो कभी वापिस नहीं जायेगा। जिससे प्रथम मिलन में ही वाहन त्याग' का संकल्प सुना कर चकित कर दिया। ६ सितम्बर ६७ को वर्तमान काल के धर्मप्रवर्तक, चारित्र चक्रवर्ती समाधिस्थ सन्त, श्री १०८ आचार्य शांतिसागरजी का ‘पुण्य-दिवस' मनाया गया। पू. ज्ञानसागरजी ने आचार्यश्री को ज्ञान भीनी श्रद्धांजलि अर्पित की और प्रवचन में उनके समयकाल की यशोगाथा का सटीक चित्रण किया। उन्होंने स्मरण दिलाया कि आजकल देश में जितने भी मुनिगण दीख रहे हैं, ये सब उन्हीं आचार्य भगवन्त की देन हैं। संघस्थ अन्य त्यागियों ने भी अपने भावभीने उद्गार रखे। जिस समय, जिस दिन उक्त कार्यक्रम हो रहा था, गुरुवर ज्ञानसागर जी की आँखों में भारी कष्ट था, वे ठीक से आँखें न खोल पा रहे थे, पीड़ा कई दिनों से थी, सात्त्विक उपचार भी चल रहा था, पर उस समय तक नेत्रों में आराम नहीं लग पाया था। समाज चिंतित था। पढ़े लिखे जानकार लोग बतला रहे थे कि आँखों का दर्द चश्मे से ही जायेगा। मुनिवर की आज्ञा के लिये न रुका जावे, बल्कि उन्हें प्रेरणा देकर चश्मे की बात कही जावे। श्रीजी के दर्शन करते रहना है, आगम पढ़ते रहना है और नव साहित्य तथा टीकायें लिखते रहना है तो चश्मा जरूरी है; परन्तु गुरुवर ने इस दिशा में कुछ सोचा ही नहीं था। वे नहीं विचार कर पाये थे कि जो काया ७६ वर्ष पुरानी हो गई है, उसके नेत्र, कान, गला, रीढ़, घुटने, तलुए आदि अंग कमजोरी तो अनुभूत करेंगे ही। समय का पक्षीराज अपने पंख फैला कर उड़ रहा था, कहेंकिशनगढ़ का वर्षायोग समय की सीमा स्पर्श कर चुका था। मदनगंज-किशनगढ़ के उस चातुर्मास में वहाँ के धर्मप्रेमी श्रावक श्री दीपचंद चौधरी गुरुवर के सान्निध्य से बहुत आनंदित थे, वे दिन में कभी दो बार, कभी एक बार गुरुवर से वार्ता करने अवश्य पहुँचते थे। एक दिन गुरुवर की पांडुलिपियों पर चर्चा चल पड़ी। तब उन्हें ज्ञात हुआ कि गुरुवर ने जितने ग्रन्थ लिखे हैं, उनमें से एक तिहाई भी अभी प्रकाशित नहीं किये जा सके हैं, फिर भी गुरुवर अपने विशाललेखन की किसी से चर्चा तक नहीं करते। दीपचंदजी को गुरुवर के इस गुण पर भारी आश्चर्य हुआ, वे एक अन्य वरिष्ठ एवं विद्वान श्रावक मूलचंद लुहाड़िया से कह उठे आजकल मात्र दस-पचास पन्ने लिखनेवाले जन अपने आपको बहुत बड़ा साहित्यकार मान बैठते हैं, गुरुवर ने तो मोटे-मोटे अनेक ग्रन्थ लिख दिये हैं, पर प्रचार-प्रसार की चर्चा तक नहीं करते ?' दीपचंद की बात पर लुहाड़ियाजी सम्मत होते हुए मुखरित हुए‘भाईजी, गुरुवर एक साधक हैं, उन्होंने आत्मकल्याण का मार्ग चुना है, यदि वे प्रचार-प्रसार पर ध्यान देते तो उद्देश्य से भटक सकते थे।' तब दीपचंद बोले- साधना का यह दृष्टिकोण श्रेष्ठ तो है ही, अनुकरणीय भी है। इस तरह हर श्रावक गुरुवर के कोई न कोई गुण की चर्चा कर अपनी वार्ता को पावन और जिह्वा को पवित्र बनाते थे। चातुर्मासोपरान्त संघ मदनगंज-किशनगढ़ से विहार करना चाहता था, पर श्रावकगण, मुनिवर की आँखों की तकलीफ देखते हुए रुके रहने की प्रार्थना कर रहे थे। कोई उनसे कहते तो कोई विद्याधर से कहते । श्रावकों के समक्ष सन्त मौन रहते, कुछ कहते नहीं।
  11. ढाई दिन की रेलयात्रा पूर्ण कर युवक अजमेर पहुँचा था- वह ढाई दिन से ही निर्जला थे। केशरगंज के मंदिर में अपने ‘भावी आराध्य का पता लगाने जा पहुँचे। मंदिर के भीतर नहीं गये, बाहर ही एक सज्जन से पूछताछ की। कई बार ऐसा होता है कि पिता से मिलने जाओ तो पुत्र मिलता है। भगवान से मिलने जाओ तो भक्त मिल जाता है। जिनके साथ ऐसा हुआ है वे अधिक लाभ में रहे हैं। उस दिन भी ऐसा ही हुआ, विद्याधर को भगवान के बदले भक्त पहले मिल गये। जिस सज्जन से उन्होंने अपने भगवान (गुरुवर) का पता पूछा था, उन्होंने पहले भक्त का पता बतलाया, बोले- वो समीप ही आदरणीय श्री कजौड़ीमलजी अजमेरा रहते हैं, उनसे मिलो, वे सब कुछ बतला देंगे। | युवक विद्याधर श्री कजोड़ीमल के निवास पर जा पहुँचे। कजौड़ीमल ने ध्यान से उनकी बातें सुनीं, फिर उनके चेहरे पर उपवासों के जो पावन चिह्न हो आये थे, वे देखे और बोले- बेटे, पहले स्नान कर ले, फिर उनसे मिला देंगे। वे यहाँ नहीं हैं, थोड़ी दूरी पर स्थित नगर मदनगंज-किशनगढ़ में हैं। विद्याधर यह सुनकर अधीर हो गये, पूछ बैठे- कितनी दूर ? - यही कोई २८-३० किलोमीटर। विद्याधर सोचने लगे कुछ। उन्हें लगा कि अभी पैदल ही चल दें। तब तक कजौड़ीमलजी ने पुन: कहा- सोच-विचार न कर, चल पहले स्नान कर। कजोड़ीमलजी ने विद्याधर को स्नान, मंदिर, भोजन की व्यवस्था करा दी, फिर उन्हें साथ लेकर मदनगंज-किशनगढ़ को प्रस्थान किया। रास्ते में कजोड़ीमलविचार करने लगे- अभी तक दक्षिण से जो लोग यहाँ आते रहे हैं, वे अक्सर इस इलाके के प्रसिद्ध पत्थर खरीदकर ट्रक भर-भर ले जाते रहे हैं, यह पहला युवक है जो मदनगंज-किशनगढ़ के पत्थरों से नहीं, भगवान से मिलने आया है। जरूर कोई भाग्यशाली है। विद्याधर सोच रहे थे - इधर, उत्तर भारत के आदमी कितने अच्छे हैं। भोजन और भगवान का लाभ दिलाते हैं। मदनगंज पहुँचकर कजोड़ीमलजी ने उचित समय पर विद्याधर को पू. ज्ञानसागरजी के समक्ष खड़ा कर दिया। फिर पूरा हाल बतलाया। विद्याधर मुनिवर के चरणों से लग गये, जैसे चरणों पर गिर पड़े हों, फिर नमोऽस्तु किया। ज्ञानसागरजी को युवक की एक क्रिया सबसे पृथक् लगी। उसकी क्रिया में समर्पण भाव का सच्चा संकेत था, उसकी नमोऽस्तु में अनेक पूजाओं की ध्वनियाँ समाहित मिलीं। गुरुवर ने आशीष दिया - वात्सल्य से हाथ उठा कर। आशीष पाकर विद्याधर को लगा कि अभी-अभी सावन के घने बादल उन पर बरस गये हैं, उनका तन-मन भिगो गये हैं, वे हाथ जोड़ कर गुरुवर के समीप खड़े हो गये। कजोड़ीमल चुपचाप दर्शक की तरह दृश्य देख रहे थे। तब तक गुरुवर ने विद्यमा से पूछा- क्या नाम है तुम्हारा? प्रश्न जिस मध्यम आवाज और मीठे स्वर में किया गया था, वे मुश्किल से ही उपलब्ध होते हैं। क्षण भर को विद्याधर के कानों में अमृत-सा घुल गया। विद्याधर ने हाथ जोड़कर उत्तर दिया- जी, विद्याधर। उनके उत्तर देने में जो ध्वनि गुरुवर के कानों में व्यापी थी, वह भी अद्वितीय थी। उन्हें लगा किसी ने धीरे से कान में रजत-घंटियाँ बजा दी हैं। विद्याधर की आवाज उनके हिये तक को जैसे स्पर्श कर गई हो। उत्तर सुनकर गुरुवर मुस्कुराये, फिर बोले- हूँ, आम विद्या सीखने आये हैं। ठीक है, सीख लेना। सीख कर विद्याधरों की तरह उड़ जाना। मुझे श्रम ही हाथ लगेगा। - नहीं गुरुवर ! नहीं। मैं उड़कर वापिस होने नहीं आया हूँ। आपकी चरण रज में रमने आया हूँ। विश्वास कीजिए, ज्ञानार्जन कर भागूंगा नहीं, उसका अनुवाद चारित्र में कर दूंगा। उसे आपके आशीष से चारित्र में उतारूंगा। - क्यों कजोड़ीमलजी, मैं विश्वास कर लें इस युवक पर? गुरुवर ने कजोड़ीमल से व्यंग्य में पूछा था। कजौड़ीमल कुछ बोल पाते, उसके पूर्व ही विद्याधर ने श्रद्धा सहित हाथ जोड़कर उत्तर दिया - गुरुवर यदि आपको विश्वास न हो रहा हो तो उसके लिये में अभी आपके चरणों के समक्ष ‘आजीवन सवारी' का त्याग करता हूँ। विद्याधर का संकल्प सुनकर गुरुवर चकित हो गये। जरा-सी बात पर जीवन भर का महान त्याग । एक प्रश्न पर इतना त्याग। भविष्य में मेरे संकेतों पर जाने क्या-क्या त्याग सकता है? ज्ञानसागरजी को विद्याधर पर विश्वास हो आया सो बोले - अच्छा रुको । बाद में चर्चा करेंगे। गुरुवर के श्वासन ने विद्याधर के कानों में मिश्री घोल दी। उनकी आत्मा को भारी प्रसन्नता हुई, हो गया मानस संतुष्ट । पुन: कुछ आगे बढ़े, पकड़ लिये मुनिवर के चरण अधरों से बोले - नमोऽस्तु । धर दिया शीश चरणों पर पुष्प की तरह। आत्मा से एक पुकार उठीगुरुवर मुझे शरण में ले लो। जैसे आत्मा की मौन विनय गुरुवर ने सुन ली हो, अत: उनके मनीषा रंजित हाथ आशीष के लिये उठ गये। नव शिष्य अद्भुत नमोऽस्तु कर रहा था। वरिष्ठ मुनि अपने आशीष से सर्वांग शीतलता प्रदान कर रहे थे। तब तक विद्याधर के मानस की गंगा उमड़कर आँखों के रास्ते बह निकली। जैसे प्रथम मिलन में ही नयन-नीर से अभिषेक कर रहे हों चरणों का। अश्रु बिन्दु चरणों पर खेल रहे थे, उधर गुरुवर का हाथ विद्याधर के घने काले बालों में से शीश पर आशीष का संचार कर रहे थे। गुरु के वात्सल्य भरे किंचित् स्पर्श से विद्याधर निहाल हो गये, जैसे सबकी नजरों से बचकर उनकी पदरज आँखों मे आँज लेने में सफल हो गये हों। उसी क्षण से विद्या रूक गये गुरु चरणों के समीप । हो गई चरणों में स्थापना। कक्ष में शांति हो गई थी। तब तक गुरुवर अपनी धीमी, किन्तु गम्भीर वाणी में बुदबुदाये ‘मेरे कहे अनुसार चलते रहोगे तो कुछ पा जाओगे। बस तन-मन दोनों अभ्यासरत रहें। दूसरे दिन से गुरुवम् ज्ञानसागर ने अध्यापन का गुरुतर कार्य प्रारंभ कर दिया। वे पढ़ाते., विद्या पढ़ते। संघानुकूल कार्यक्रमों और नित्य क्रियाओं में दृष्टि देकर चलते । इन सबसे समय निकाल कर विद्या वृद्ध गुरु की सेवा करते करते हर टहल कुछ ही समय में उनका आगम ज्ञान बढ़ता चला गया। गुरुवर वहाँ के भक्तों की पुकार से मंत्रमुग्ध हो गये थे, अतः नियत समय पर वहीं मदनगंज-किशनगढ़ के ऐतिहासिक मंदिर परिसर में चातुर्मास की स्थापना कर दी। स्थापना-क्रियाओं के समय विद्याधर को साथ-साथ रखा गुरुवर ने। समय थोड़ा और खिसका तो तब तक दशलक्षण पर्व के दिन आ गये। श्रावकगण मंदिर में अधिक समय देने लगे, उससे भी अधिक समय पू. ज्ञानसागरजी की वार्ताओं और प्रवचनों में देते। पर्व के दूसरे दिन की बात है, मंच पर प्रवचनार्थ बैठे गुरुवर ने अचानक विद्याधर को आदेश दिया- ब्रह्मचारीजी, आप तत्त्वार्थ सूत्र का पाठ कीजिये। आदेश सुनकर विद्याधर सम्भल कर आसंदी पर बैठे, तब तक व्यवस्था कर रहे सज्जन ने उनके समक्ष माइक लाकर रख दिया। विद्याधर ने हाथ जोड़े, नेत्र बन्द किये और पाठ प्रारंभ कर दिया - पहले गुरुवंदना में चार पंक्तियाँ, फिर मंगलाचरण और फिर सूत्रजी। आँख बंद करे हुए सूत्रजी का पाठ करने लगे। संस्कृत शब्दों का निर्दोष उच्चारण अत्यन्त ललित वाणी में प्रारंभ था। गुरुवर ने ध्यान दिया कि विद्याधर ने पुस्तक तो ली ही नहीं है, कहीं कुछ भूल गया तो बीच में ही पुस्तक लेने रुकना पड़ेगा। गुरुवर सोचकर चुप ही रहे। विद्याधर पर ध्यान दे रहे थे। वे देखते हैं कि विद्या तो लगातार मौखिक ही बोलते चले जा रहे हैं। लगभग पौन घंटे बाद उनका प्रवचन पूर्ण हो गया। उनके मौखिक ज्ञान और निर्दोष उच्चारण से गुरुवर को प्रसन्नता हुई, वहीं उपस्थित श्रोतागणों को भी विद्याधर की शैली और याददाश्त की सराहना करनी पड़ी।
  12. अजमेर एक किस्म से सैलानियों के शहरों में से एक है। वहाँ रोज देशी-विदेशी पर्यटक पहुँचते ही रहते थे। उस दिन जब पूज्यश्री का केशलुञ्च चल रहा था तब स्विटजरलेण्ड से आये दो पर्यटक नसियाजी की जगप्रसिद्ध- स्वर्णिम-झाँकी ‘अयोध्या नगरी' को देखने आये। जब उन्होंने मुनिवर को केशलुञ्चन करते हुए देखा तो देखते ही रह गये। उन्हें उस क्रिया पर भारी आश्चर्य हुआ। उन्होंने नसिया में उपस्थित प्रबुद्ध लोगों से जैनधर्म के इस मर्म को समझने का सुंदर प्रयास किया। जब कुछ बातें समझ में आ गई तो सीधे मुनिवर के निकट पहुँचकर उनके चरणों से लग गये। उनका आशीष लिया। कार्यक्रम समाप्त हुआ, पर विदेशी लोगों में हुई प्रभावना से उपस्थित जनसमूह हर्षित हो गया। जब पू. ज्ञानसागरजी अजमेर थे, तब उनके संघस्थ साधु क्षुल्लक श्री आदिसागरजी, ज्ञानसागरजी के आदेशानुसार शहर रेवाड़ी में चातुर्मास कर रहे थे। वहाँ अगस्त के ही माह में उनके मंगल सान्निध्य में बड़े मंदिर जी में “तीन लोक विधान की पूजा सम्पन्न कराई गई, जिससे धर्म प्रभावना तो हुई ही, पू. ज्ञानसागरजी के शिष्य की सराहना हुई। लोगों ने शिष्य के साथ गुरुवर को भी बार-बार सराहा- यह बतलाने की जरूरत नहीं थी, परन्तु वहाँ के धार्मिक श्रावक लाला गोपीचंदजी सर्राफ, लाला फूलचंद जी भला शान्त कैसे रह सकते थे ? वे तो शिष्य और गुरु के परम भक्त थे। पूज्य ज्ञानसागरजी धर्म और साहित्य के सागर तो थे ही, उनमें राष्ट्रीय भावना भी कूट-कूट कर भरी थी। फलत: वे राष्ट्रीय सन्त' का सही अर्थों में निर्वाह भी करते चल रहे थे। २ अक्टूबर ६५ का दिवस तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री लालबहादुर शास्त्री के जन्म का मंगल दिवस था। भारतीय शासन द्वारा उसे शांति दिवस' के रूप में मनाये जाने की राष्ट्रव्यापी पहल की गई थी। स्वत: राष्ट्रपति महोदय ने अपने एक वक्तव्य में इस आशय के उद्गार प्रकट भी किये थे। अजमेर में भी शांति-दिवस' मनाया जावे, श्रावकों में चर्चा चल रही थी। बात श्री भागचंद सोनी तक गई। वे पहले से ही इसी विषय पर विचार कर रहे थे। उन्होंने वार्ता के लिये आये श्रावकों को साथ लिया और पू. ज्ञानसागरजी के कक्ष में जा पहुँचे। उनका प्रस्ताव सुन ज्ञानसागरजी ने उन्हें निराश नहीं किया, बल्कि उनकी बातों को बल देते हुए कार्यक्रम निर्धारित कर दिया। दो एवं तीन अक्टूबर श्री सिद्धकूट चैत्यालय में भारी उत्साह के साथ शांतिदिवस' का आयोजन किया गया। पू. गुरुवर ने वांछित प्रकाश डाला और शास्त्रीजी के जन्मदिन को शांति दिवस के रूप में लेने के मनोदय को, जैनधर्म प्रणीत विचारों से प्रभावित माना। उन्होंने कहा यह सुन्दर विचारों का अहिंसावादी सुफल है। उनके पश्चात् मास्टर विशेषण से प्रसिद्ध श्री मनोहरलालजी एवं अजमेर नगर के सिटी मजिस्ट्रेट श्री खन्ना साहब ने भी समय सापेक्ष उद्बोधन प्रस्तुत किये। सेठ भागचंद सोनी ने उस दिन ‘शांति दिवस' पर विचार रख कर भारी सराहना अर्जित की। शाम को उनके मार्गदर्शन में मान्य श्री लालबहादुर शास्त्री प्रधान मंत्री, भारत को बधाई संदेश भेजा गया। इतना ही नहीं, दोपहर में भगवान शांतिनाथ की पूजा कर शास्त्रीजी के लिये निर्विघ्न जीवन की कामना की गई। समय को कोई बाँध नहीं सका, न बाँध सका दिगम्बर मुनिराजों को वर्षायोग का समय धीरे-धीरे पूरा हो गया। अजमेर के हर घर में ज्ञानसागरजी के ज्ञान की चर्चा समा चुकी थी। नियम समय पर गुरुवर ने चातुर्मास की निष्ठापना की और संघ को पुन: नये सिरे से विहार प्रारम्भ कर देने के क्षण उपस्थित कर दिये। सोने की अयोध्या के समय के राम ने विहार कर दिया। स्वर्ण मंडित झाँकी नसिया में चमकती रही और ज्ञानमंडित आत्मा ज्ञानसागर के भीतर। अजमेर चातुर्मास के समय जयपुर के श्रावक मूलचंद बोहरा का सौभाग्य कमल खिल सका था, जब उनकी पुनीत प्रार्थना पर गुरुवर ज्ञानसागरजी ने उन्हें श्रावककोत्तम क्षुल्लक दीक्षा प्रदान की थी। ठीक ऐसा ही शुभावसर फतेहपुर निवासी श्री सुखदेवजी गोधा को, वहाँ अजमेर चातुर्मास में प्राप्त हुआ था, उन्हें भी श्रावकोत्तम क्षुल्लक दीक्षा प्राप्त हो सकी थी। अजमेर से विहार करने के बाद, गुरुवर के चरण ब्यावर की ओर चलते प्रतीत हो रहे थे। पूज्य ज्ञानसागरजी वर्ष १९६५ में ही ब्यावर समाज और उसके विद्वानों के सम्पर्क में आये। उस समय वहाँ पं. हीरालाल जैन सिद्धान्त शास्त्री, पं. प्रकाशचंद जैन एवं पं. गणेशीलाल रतनलाल कटारिया आदि विद्वज्जन सश्रद्धा मुनि सेवार्थ अग्रिम पंक्ति में थे। श्रावकों ने देखा कि मुनिवर ७० से अधिक वय के धारक हैं। आगम का अगमज्ञान लिये हुए हैं वाणी में । उस समय तक संस्कृत और हिन्दी के मिलाकर चौदह ग्रन्थों का प्रणयन मुनिवर अपने कर्मठ और मनीषाप्रधान करकमलों से कर चुके थे। ग्रन्थों में धर्म और साहित्य का अपूर्व तालमेल देखकर वहाँ के सुधी श्रावकों ने गुरुवर से ग्रन्थ प्रकाशन की आज्ञा ली। फिर “गुरुवर ज्ञानसागर ग्रन्थमाला प्रकाशन समिति ब्यावर' का गठन किया और प्रथम पुष्प के रूप में ‘दयोदय चम्पू' का प्रकाशन कार्य पूर्ण किया। सादगी किन्तु गरिमा से मंडित सदस्य जनों ने ग्रन्थों को समीक्षार्थ विभिन्न पत्रिकाओं को भेजा। उस समय भी पत्रिकायें और उनके सम्पादक गण व्यावसायिक नहीं होते थे, वे मात्र धर्म और संस्कृति के संरक्षण और सेवा के लिये सम्पादन-प्रकाशन करते थे। लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादकों ने न केवल ‘दयोदय चम्पू' ग्रन्थ की, बल्कि उसके प्रणेता पू. ज्ञानसागरजी मुनि महाराज की मुक्तकण्ड से प्रशंसा की थी। कई विद्वानों/सम्पादकों ने स्वीकारा था कि मुनिपद पर पहली बार इतना महान लेखक एवं विद्वान व्यक्तित्व देखने में आया है। चूंकि मुनिवर प्रथम बार ब्यावर नगर पधारे थे, अतः सम्पूर्ण समाज में उनकी सेवा के प्रति उत्साह और उपस्थिति के प्रति आदर शुरू से अंत तक रहा। उनका प्रथम ग्रन्थ और उसके बाद कुछ और ग्रन्थ ब्यावर से प्रकाशित हुए थे, तो कतिपय ग्रन्थ किशनगढ़-मदनगंज और रेवाड़ी से भी प्रकाश में आ सके थे। वर्ष १९६५ की सीमावधि समाप्त हो गई थी, सन् १९६६ का सूर्य उदित हो चुका था। एक सूर्य पहले से ही समाज का गौरववर्धन कर रहा था- ज्ञानसागर सुनाम से, दूसरे ने क्षितिज पर आकर जग का अँधियारा दूर किया रोज की तरह। अजमेर शहर का सुविख्यात वार्ड केशरगंज का जैन मंदिर और वहाँ का दिगम्बर जैन समाज सदा ही मुनियों का सान्निध्य पाने अग्रणी रहा है। वहाँ का जागृत समाज कभी उन्माद में नहीं आया, न कभी एकता से परे हटा। समाज के कर्ता-धर्ता कई माहों से मुनि ज्ञानसागरजी से समय प्रदान करने की प्रार्थना कर रहे थे। चातुर्मास का प्रसंग सामने देख, एक बार पुनः भारी श्रद्धा से श्रावकों ने मुनिवर से विनय की । उनकी श्रद्धा रंग लाई और पूज्य मुनिवर ने समय पर केशरगंज में वर्षायोग की स्थापना कर दी। उस समय मुनिवर के ग्रन्थों का प्रकाशन कार्य ब्यावर आदि स्थानों के श्रावकों की प्रेरणा से चल ही रहा था, उनका लेखन कार्य भी निरन्तर था। केशरगंज के शांत और सुलझे हुए वातावरण में मुनिवर का लिखने-पढ़ने-संशोधन करने में खूब मन लगा। वर्षायोग की समस्त क्रियाओं का स-प्रभावना पालन व संचालन हुआ। मुनिवर की उपस्थिति से प्राण-प्राण में संतुष्टि की धारा बह रही थी। सन् १९६७ का समयकाल पू. ज्ञानसागरजी के जीवन में ‘महत्त्वपूर्ण' था, किन्तु वह पू. विद्यासागरजी के जीवन का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण वर्ष बन गया था, तब उस समय विद्यासागरजी आचार्य या मुनि नहीं थे, मात्र ब्रह्मचारी थे और नाम था विद्याधर। विद्याधर एक २१ वर्षीय युवक जो भारत के दक्षिण से चलकर उत्तर में आया था- गुरु की शरण खोजते हुए । मन में मुनि दीक्षा की भावना साथ लिये। जुलाई का माह था। मुनिवर ज्ञानसागर मदनगंज-किशनगढ़ में विराजे हुए थे। दक्षिण से यात्रा प्रारंभ करनेवाले विद्याधर को इतना भर ज्ञात था कि वे (मुनिवर) अजमेर शहर में हैं या उसके आस-पास होंगे।
  13. नसियाजी पहुँच कर जुलूस ने सभा का स्वरूप ले लिया। सोनीजी ने स्वागत भाषण किया, तत्पश्चात उन्होंने प्रवचन हेतु मुनिवर से प्रार्थना की। मुनिवर ने समूह को आशीष दिया और अपने मंगलोबोधन से जन-जन के मन को शीतलता प्रदान की। अजमेर में ज्ञानसागरजी के कारण मेला-सा लगा था, उधर लगभग उन्हीं दिनांकों में मध्य प्रदेश के सुप्रसिद्ध तीर्थस्थल सोनागिरिजी का मेला चल रहा था। वहाँ पूज्य आचार्य शांतिसागर जी (तत्कालीन) एवं मुनि क्षीरसागरजी विराजमान थे। श्रावकों की प्रार्थनाओं पर ध्यान देते हुए मुनिवर ज्ञानसागर जी ने ग्रीष्मकालीन अवकाश अजमेर में ही पूर्ण किया, जिससे सामाजिक एकता और आडम्बरों के बहिष्कार के सूत्र पुनः पुष्ट हो सके। धीरे-धीरे ग्रीष्मकाल विदा ले गया, वर्षाकाल के आगमन की सूचनायें मिलने लगी। मुनिवर के चरण कहीं विहार के लिये उठे उसके पूर्व ही समाज के श्रीमानों धीमानों ने उनके श्रीचरणों में श्रीफल भेंट करते हुए अजमेर में ही चातुर्मास स्थापना करने की प्रार्थना कर डाली। ७४ वर्षीय ज्ञानसागर जी अपनी धुन के पक्के थे, वे करते वही थे, जो उनकी और आगम की दृष्टि में अनुकूल हो । चूँकि वे अजमेर वासियों को अधिक समय पहले ही प्रदान कर चुके थे, पर पन्थों के विवादों को शान्त रखने के लिये उन्हें लगा कि अजमेर को चातुर्मास का समय देना उपयुक्त है, अत: उन्होंने श्रीफल चढ़ा रहे श्रावकों को आशीष प्रदान कर दिया। भारी जयघोषों के माध्यम से श्रावकों ने अपने मन की संतुष्टि को ज्ञापित किया। समय आने पर मुनिवर ने एक सादे समारोह में वर्षायोग की स्थापना अजमेर स्थित नसियाजी में की। उनके संघ में उस समय आर्यिका अनन्तमतीजी, आर्यिका पार्श्वमतीजी एवं क्षुल्लक सन्मतिसागर जी, क्षुल्लिका सुव्रतमतीजी एवं चार ब्रह्मचारी भाई उनकी आज्ञा से अवस्थित थे। सोनीजी की नसिया में पौषध पथ के पथिक मुनिपुंगव पू. ज्ञानसागरजी को विराजे हुए एक दो सप्ताह हो चुके थे। नसिया क्षेत्र में भारी चहल-पहल रहती थी। भिन्न-भिन्न प्रकार के लोग, विभिन्न धर्मों के लोग और भिन्न स्वभावों के लोग आते-जाते रहते थे। उन्हीं के साथ भक्तगणों का भी दर्शनार्थ आवागमन लगा रहता था। एक दिन सौम्यसाधना के साधक श्रावक श्री भागचंद सोनी कुछ परेशान हो गये। हुआ यह कि रोज वे श्रीजी का पूजन-प्रक्षाल कर, मुनिवर को खोजकर उनके समक्ष जाते थे और द्रव्य संजोकर, मुनिवर की पूजा पढ़ते हुए अर्थ्य चढ़ाते थे, नमन/नमस्कार करते थे और बाद में अवसर पाकर उनसे बतियाते रहते थे। परन्तु उस दिन कुछ विचित्र सा हो गया। मुनिवर अपने काष्ठासन पर किसी ग्रंथ के लेखन में तल्लीन थे, कब सोनीजी वहाँ पहुँचे, उन्होंने कब अर्घ्य चढ़ाया, वे कुछ ध्यान ही न दे पाये, लेखन में मग्न रहे आये। सोनीजी कुछ समय तक रुके रहे, पर ज्ञानोपासक मुनिवर का ध्यान न टूटा। वे लौट पड़ने की सोच ही रहे थे कि देखते हैं कि एक विदेशी पर्यटक उनके (सोनीजी के) पीछे खड़ा है, मुनिवर को ध्यान से देख रहा है और हाथ जोड़े हुए है। सोनीजी अपने स्थान पर तब जहाँ के तहाँ मूर्तिवत् बैठे रहे, नहीं उठे। पर्यटक सोनीजी को देख चुका था कि उन्होंने मुनिवर के समक्ष कुछ चढ़ाया है या रखा है। (सोनीजी ने पुञ्ज जो चढ़ायी थी।) पर्यटक शायद निर्णय नहीं ले पा रहा था कि वह क्या चढ़ाये, क्या रखे, क्या भेट दे? अचानक वह विदेशी आगे बढ़ा, मुनिवर के समक्ष रखी हुई बाजोट पर, कोट के जेब से एक चपटी-सी शीशी (बाटेल) निकाली और मुनिवर के समक्ष पूर्ण श्रद्धा से रख दी। फिर हाथ जोड़े, कुछ देर रुका और कुछ सोचता-विचारता-सा वापिस होने लगा। तब तक मुनिवर को आभास हो गया, उन्होंने नजर भर कर विदेशी को देखा और आशीषार्थ अपना हाथ उठा दिया । विदेशी खुश होकर लौट गया। अब बारी थी सोनीजी की। वे एक निर्दोष बालक की तरह मुनिवर से पूछने लगे। गुरुवर ! मैंने अर्घ्य पढ़ा, अर्थ्य चढ़ाया तब तो आपने हाथ हिलाया तक नहीं, और उस विदेशी द्वारा बाटेल चढ़ाने पर आशीष दे दिया? क्या पूजा की द्रव्य मुझे भी बदलनी होगी? कल से अक्षत की जगह बाटेल...........। तब सयाने मुनिवर ने, बारे सोनीजी को समझाया- सोनीजी, वह विदेशी है, नहीं जानता कि क्या चढ़ाना है और क्या नहीं, न पूजा जानता, बस श्रद्धा के आधार पर यहाँ तक पहुँच गया। धर्मविमुख ऐसे लोगों को मुनियों का आशीष समय पर मिलता रहे तो अपनी श्रद्धा के बल, वे एक दिन धर्मपरायण बन सकते हैं, धर्मात्मा हो सकते हैं। अतः ऐसे लोगों के लिये करुणाभाव और वात्सल्यभाव मुनिगण छुपा कर नहीं रख सकते, वे तो स्नान करा देंगे वात्सल्य रस से। विदेशी की क्रिया पर अनेकान्त दृष्टि से विचार करें तो ऐसा लगेगा कि शायद वह मद्य-पीना छोड़ना चाहता था, इसलिए मद्य से भरा कीमती पात्र ही छोड़ गया किसी अदृश्य प्रेरणा से। हो सकता है कि द्रव्य के रूप में वह अपनी सर्वाधिक प्रिय वस्तु चढ़ाना चाहता हो मुनिवर को। सोनीजी को मुनिवर की समझाइश अच्छी लगी, अत: हाथ जोड़कर बोले महाराज ! समझ गया। मगर मुनिवर का मन न माना तो आगे बोले- जो जैन हैं, सही श्रावक हैं, वे शुद्ध द्रव्य के अतिरिक्त अन्य वस्तु क्यों चढ़ायेंगे, क्या उन्हें पाप बन्ध नहीं बँधेगा? | सोनीजी नतमस्तक हो गये, चरण पकड़ कर बोले - गुरुवर आप सही कह रहे हैं। बस ऐसा ही कुछ वृत्तान्त आपसे रोज सुनना चाहता हूँ, इसलिए पूजा के बाद आपके पास बैठ जाता हूँ। मुनिवर विनोद करते हुए बोले- अच्छी बात है, आपको रोज कुछ सुनाऊँगा। ये मोटे-मोटे ग्रन्थ देखे हैं? उन्हें सुनाना शुरू कर दूंगा तो जीवन भर सुनते रहोगे। सोनीजी ने पुन: उनके चरण पकड़े और मुखरित हुए - हे महाराज ! ऐसा सुयोग मुझे मिल जाये तो धन्य हो जाऊँ? मुनिवर हँस पड़े। उस दिन सोनीजी को आत्म-विश्वास हुआ कि सारा देश उन्हें रायबहादुर/केप्टिन/दानवीर आदि विशेषण लिखता और बोलता है, सब मिथ्या है, क्षणिक हैं। सही विशेषण एक ही है, वह जो मुनिवर ने कहा है- “सही श्रावक'। वे मन में संकल्प लेते हैं- मैं ‘सही श्रावक बना रहूँगा उनके आशीष से। सोनीजी नहीं जानते थे कि उनकी सच्ची मुनिभक्ति, धर्मपरायणता और वत्सलभावना के कारण भविष्य में देश का समाज उन्हें ‘श्रावक शिरोमणि' का खिताब नवाजेगा। रायबहादुर या कैप्टिन या सरसेठ से सम्बोधन पाने वाले सोनीजी जीवन में कभी उतने प्रसन्न नहीं हुए, जितना कालान्तर में ‘श्रावक रत्न' सुनकर हुऐ थे। वर्ष १९६५ में जब पू. ज्ञानसागरजी का अजमेर में वर्षायोग चल रहा था, तब पू. विद्यानंदजी मुनि महाराज फिरोजाबाद में सम्पन्न कर रहे थे तो पूज्य मुनि धर्मसागरजी झालरापाटन में और पूज्य मुनि महावीरकीर्ति जी माँगी-तुंगी में। ८ अगस्त ६५ को सुबह-सुबह अजमेर भर के श्रावक सिमट कर नसियाजी में एकत्र हो रहे थे, पूछा गया उनसे तो जवाब मिला, आज पू. ज्ञानसागरजी कैशलुञ्च करेंगे, अत: दर्शनार्थ एकत्रित हुए। - क्या कोई प्रचार किया गया था? - नहीं, श्रावकों की चर्चा चल रही थी। - यही कि कल महाराजजी केशलुञ्च करेंगे। - क्या उन्होंने खुद बतलाया था ? नहीं, उनके संघस्थ ब्रह्मचारीजी शुद्ध राख को कपड़े से छानकर | लाने का निर्देश एक श्रावक को दे रहे थे। दूसरे ने सुन लिया। इस तरह दो श्रावकों ने अपने परिवार में बतलाया, उनके पारिवारिक सदस्यों ने अन्य परिवारों को सूचना दी। बस ! हमें ज्ञात हो गया, सो हम आ गये। कहने का मन्तव्य यह कि केशलुञ्च जैसी महत्त्वपूर्ण क्रियायें भी पू. ज्ञानसागरजी के समक्ष महत्त्व नहीं रखती थीं, वे प्रचार या चर्चा को तनिक भी महत्त्व नहीं देते थे। गुरुवर के ना चाहते हुए भी, केशलुञ्च कार्यक्रम समारोह पूर्वक किया गया। अवसर का महत्त्व प्रतिपादित किया पं. हेमचंद शास्त्री एवं श्री मनोहरलालजी ने, बाद में सिटी मजिस्ट्रेट श्री खन्ना ने भी अपना उद्बोधन दिया था ।
  14. शेखावाटी - अंचल की बात है। मुनिवर विहार कर रहे थे, जंगल में थे, दाँता और फुलेरा के आस-पास। रात्रि बढ़ने लगी थी, बढ़ रहा था वह वैजन्य। मुनिवर साफ जगह में सामायिक कर रहे थे। साथ के श्रावक जल पीने के लिये शाम को ही बस्ती की ओर चले गये थे, लौटने वाले थे। अंधेरी रात थी, दस बजे थे, परन्तु वियावान में ऐसा लग रहा था जैसे रात के दो बज गये हों। अजीब किस्म के सुनसान में विभिन्न प्रकार की धीमी आवाजें मनों में डर भर रहीं थीं। तब तक एक चीता अपने चारों पैरों को दबा-दबा कर धरता हुआ मुनिवर के समीप आया और बैठ गया, जैसे कोई प्रहरी आ गया हो चौकसी के लिये। मुनिवर ध्यान में मग्न, हिंसक पशु उनके सामीप्य में मग्न। तभी श्रावकगण बस्ती से लौटे। उन्होंने मुनिवर के समीप हिंसक पशु को शान्त बैठा देखा। पहले तो भयभीत हो गये, फिर पशु के आनन्द का अर्थ समझे। थोड़ी देर में पशु वहाँ से उठा और अपने गन्तव्य की ओर चला गया। श्रावकगण दौड़ कर मुनिवर के पास पहुँचे और वैयावृत्ति के लिये हाथ बढ़ा दिये। मुनिवर समझ ही न पाये थे कि वे पहले हिंसक पशु के संरक्षण में थे कुछ देर तक। उन्होंने जब नेत्र खोले तो अहिंसा प्रेमी श्रावक उनकी सेवा में उपस्थित थे। हिंगोनिया (फुलेरा) में पू. मुनि ज्ञानसागरजी जब चातुर्मास काल पूर्ण कर चुके तो समाज के अनुरोध पर श्री सिद्धचक्र मंडल विधान और रथयात्रा महोत्सव का उत्साहवर्धक आयोजन किया, पूरे समय तक पं. रमेशचंद शास्त्री (सांभर) उपस्थित रहे एवं विधि पूर्वक विधान सम्पन्न कराने में सहयोगी बने। अंतिम दिन मगसिर कृष्णा ३, वि. सं. २०२०, दिन शनिवार (सन् १९६३) को प्रातः बेला में मुनिवर ने विधानों और रथों की शोभा यात्रा के गुण-दोष पर प्रभावनाकारी प्रवचन दिये और लोगों को विश्वास दिलाया कि ऐसे आयोजन धर्म एवं सामाजिक एकता के साधन बनाये जावें, किन्तु उनके कारण अनावश्यक क्रियाकांड और आडम्बर से बचा जावे। मुनिवर के प्रवचनों से लोगों में रथों के प्रति जो शौक/प्रदर्शन का भाव उपजा था, शान्त हो गया; केवल धर्मसाधना की बात मन में जीवित रह गई। मध्याह्न पुन: पहले पूज्यवर के प्रभावी प्रवचन सम्पन्न हुए, फिर रजत मंडित रथ पर श्री १००८ देवाधिदेव को विराजमान कर भारी जनसमूह के साथ शोभायात्रा निकाली गई। उस जमाने में फुलेरा छोटासा कस्बा था, पर पाँच हजार से अधिक श्रावक समारोह में शामिल हुए, जिससे स्थानीय समाज को मुनिवर की प्रभावना पर भारी हर्ष हुआ। कार्यक्रम निर्विघ्न सम्पन्न हो गया। कृपा पू. ज्ञानसागरजी मुनि महाराज की। वर्ष १९६४ भी, वर्ष ६३ की तरह साहित्य लिखते हुए धर्मयात्रा पर चल रहा था। उस समय वे ग्राम मेढ़ा में अपनी साधना कर रहे थे। तभी दिल्ली के सुप्रसिद्ध धर्मप्रेमी श्रावक श्री फिरोजीलालजी उनके दर्शनार्थ मेढ़ा पहुँचे। कुछ ही दिनों में वह अनुभवी श्रावक पू. उपाध्याय ज्ञानसागरजी मुनि से इतने प्रभावित हुए कि वे उनसे प्रार्थना कर बैठे अपने साथ रख लेने के लिये, संघ में स्थान देने के लिये। ज्ञानसागरजी ने श्री फिरोजीलाल्न की पात्रता निर्दोष पाई थी, अत: उन्हें स्वीकृति देने में हिचकिचाहटा नहीं लगी। दो एक दिन बाद ही समारोह पूर्वक उन्हें क्षुल्लक दीक्षा प्रदान की। जानकारों द्वारा बतलाया जाता है कि श्री फिरोजीलाल संघ में अधिक समय तक न चल सके, अपनी होनी के अनुसार वे असार संसार को छोड़ गये। पू. ज्ञानसागरजी अपने सुनिश्चित कार्यक्रमों को करते हुए धर्मसाधना और साहित्य लेखन में लीन रहे। कभी बस्ती, कभी जंगल पार किये, पर अपना लेखन क्रम निरंतर बनाये रखने में सफल रहे। लोग बतलाते हैं कि उनकी हस्तलिपि बहुत सुंदर थी। कागज पर लिखे गये शब्द मोतियों की कतार की तरह शोभा बिखेरते थे। हर अक्षर, शब्द, वाक्य पूर्ण रूप से स्पष्ट पठनीय होता था। कुछ भी इरछा-तिरछा नहीं। स्वस्थ लिपि, समृद्ध लिपि। उनकी लिपि का एक नमूना पाठकों के अवलोनार्थ यहाँ दिया जा रहा है। विक्रम संवत २०२२ (सन् १९६५) चल रहा था। श्रीमान् कजौड़ीमलजी भागचंदजी अजमेरा तथा श्रावकश्रेष्ठ श्री भागचंदजी सोनी सहित अनेक श्रावकों की प्रार्थना स्वीकार कर पूज्य ज्ञानसागरजी महाराज चैत्र कृष्ण पंचमी को अजमेर स्थित सोनीजी की नसिया में पधारे। पूर्व मंत्रणानुसार फाल्गुन की अष्टाह्निका में श्री सिद्धचक्र, नन्दीश्वरदीप, ढाई द्वीप मंडल पूजन विधान का आयोजन पूज्यवर के सान्निध्य में निर्विघ्न पूरा हुआ। २८ फरवरी १९६५ को वृहत् रथयात्रा महोत्सव का भव्य आयोजन किया गया। विधि-विधान के कार्य पं. विद्याकुमार सेठी द्वारा सम्पन्न किये गये। विशाल अश्वरथ में श्री १००८ भगवान चंद्रप्रभजी की रजत प्रतिमा शोभा बिखेर रही थी। सारथी के स्थान पर श्री सोनीजी एवं श्री अजमेराजी विराजमान दीख रहे थे, रथयात्रा का दृश्य अनुपम था। शोभायात्रा नसियाजी से चौपड़ तक गई, पू. ज्ञानसागर भगवान चंद्रप्रभ जी शोभायात्रा में चरण-चरण चल वहाँ तक गये। समाज की प्रार्थना पर पूज्यवर के प्रवचन हुए। वहाँ पहुँचे हुए कतिपय विदेशी यात्री (फॉरिन टूरिस्ट) कार्यक्रम को देखकर अपनी भारी दिलचस्पी बतला रहे थे। आँखों को जो भव्य-दिव्य लग रहा था, उन्हें अपने कैमरों में बन्द करते जा रहे थे। अजमेर के श्री जैनवीर-दल एवं जैसवाल मंडल का प्रबंध देखने और समझने की वस्तु बन गया था। बाहर से पधारे सहस्राधिक श्रावकों के लिये सविनय भोजन की व्यवस्था की गई थी। श्री दि. जैन विद्यालय के छात्रों द्वारा दिये गये संगीत के कार्यक्रम की मुनिवर द्वारा सराहना की गई। एक दिन पूर्व, २७ फरवरी १९६५ को डॉ. सौभाग्यमल दोसी द्वारा लिखित अभिनय “अहिंसा व्रत का प्रभाव भी युवकों द्वारा अभिनीत किया गया था, जिसकी सभी ने सराहना की थी। पूज्य ज्ञानसागरजी के सान्निध्य का नित-नित जनता ने लाभ लिया था। उनकी ‘चरण-वंदना’ प्रसन्नता का स्रोत बनी हुई थी। अजमेर के लोगों का मन संतुष्ट ही न हो पाया कि मुनिवर वहाँ से गगवाना को विहार कर गये। गगवाना कहने को अजमेर से १२-१३ किलोमीटर है, पर यह तभी से वहाँ के एक मुहल्ले से अधिक प्रिय है। वहाँ राजकीय उच्चतर माध्यमिक शाला के विशाल प्रांगण में २१ मार्च ६५, रविवार को एक सार्वजनिक सभा का आयोजन किया गया, जिसमें वयोवृद्ध मुनिवर का सामाजिक एकता पर प्रेरक प्रवचन हुआ। आयोजकों ने उसी मंच पर आचार्य तुलसी की प्रमुख शिष्या साध्वी केसरजी को भी आमंत्रित किया था। विदुषी साध्वी ने अपने प्रवचन में पूज्य मुनिवर के सूत्रों को फलदायक बतलाते हुए उन पर अमल करने की बात कही। श्रावक बतलाते हैं कि जैन ‘एकता’ की दिशा में वह एक महती सभा थी, जिसने सभी वर्ग के जैनों में मैत्री का संदेश पहुँचाया था। आयोजन के प्रारंभ में ही पं. विद्याकुमार सेठी ने विषय पर प्रकाश डाल दिया था। अणुव्रत समिति के उपाध्याय श्री गुलाबचंद महनोत ने, न केवल साध्वी केसरजी बल्कि मुनिवर ज्ञानसागरजी का परिचय भी अपने मुखारविन्द से दिया, जिसे सुन दिगम्बर जैन समाज के श्रोताओं को भारी हर्ष हुआ और वह परिचय एकता की भावना का आधार बन गया। समिति के मंत्रीजी ने आभार ज्ञापित करते समय मुनिवर ज्ञानसागरजी एवं साध्वीजी को स्मरण दिलाया कि छह वर्ष पूर्व ऐसा संयोग गगवाना के नागरिकों को मिला था, फिर वह आज मिला, अब यह हर वर्ष मिले- हमें संतों का ऐसा आशीष चाहिए। उनके वक्तव्य से तालियाँ गड़गड़ा गईं। शाम होने के पूर्व सभा समाप्त हो गई। मुनिवर समय अधिक न दे सके और वे मीरशाहली जा पहुँचे। वहाँ भी सीमित समय तक ही रुके और पुनः २२ मार्च १९६५ को अजमेर जा पहुँचे। एक मायने में मुनिवर बहते जल की तरह अपनी यात्रा पर रहते थे, कहीं लगातार टिका रहना साधुचर्या के अनुकूल नहीं मानते थे। अजमेर नगर की सीमा पर श्री भागचंद सोनी ससमूह मुनिवर की अगवानी के लिये पहले से ही उपस्थित थे। सोनीजी ने मुनि-चरण वंदना की, फिर नसियाजी में विराजने की प्रार्थना की। एक भारी जुलूस मुनिवर के साथ-साथ चलता रहा।
  15. धर्मचन्द पढ़ते हुए यह नहीं जान पाये थे कि पूज्य मुनिवर संस्कृत के कितने बड़े ज्ञाता हैं, अत: एक दिन उन्होंने मुनिवर से पूछा कि उनके पाठ्यक्रम में महाकवि कालिदास कृत ग्रन्थ 'अभिज्ञान शाकुन्तलम्' तो है ही, संस्कृत की एक गद्य पुस्तक तथा 'गीता' के कुछ अध्याय भी हैं - क्या पढ़ाने की कृपा करेंगे? पुस्तक और उसके विषयों की जटिलता देखते हुए धर्मचन्द वह एक भारी कार्य मान रहे। थे, अतः शंकित थे कि कहीं मुनिवर मना न कर दें, परन्तु मुनिवर ने तो सहज ही कह दिया - हाँ, देख लेंगे। कल से वे ग्रन्थ साथ लाना। दूसरा दिन, धर्मचन्द की अनुभूति में सर्वाधिक महत्त्व का दिन बन गया, जब उन्हें पूज्यवर ने एक-एक घंटे का समय देकर, तीन घंटों में तीनों पुस्तकों का शुभारम्भ करा दिया। उनका पढ़ाने का ढंग ऐसा था जैसे वे तीनों पुस्तकें उन्हें रटी हुई हों। सहजता से उनके मर्म का कथनोपकथनों से समझा देने का गुण पूज्यवर में कहाँ से आ गया - धर्मचंद चकित थे। उन्हें नहीं मालूम था कि पूज्यवर तो पहले ही ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ के स्तर पर चार-चार महाकाव्यों का पुनीत लेखन कार्य सम्पन्न कर चुके हैं। जब धर्मचन्द को मुनिवर के ग्रन्थों की जानकारी मिली तो उन्हें लगा कि वे अब तक एक विराट समुद्र की गोद में खेलते रहे हैं, उन्होंने गोद की सीमा पर ही ध्यान दिया था, समुद्र के ओर-छोर का पता लगाना ही भूल गये थे। धर्मचन्द पूज्यवर के ग्रन्थों और ग्रन्थों में स्थापित हुए उनके ज्ञान के हिमालय को देख कर आँखें फाड़े रह गये। उन्हें इतने महान विद्वान से पढ़ने का सौभाग्य मिला है, सोचकर धन्यधन्य हो रहे थे। परन्तु पू. मुनि ज्ञानसागरजी शिष्य धर्मचन्द की पात्रता से प्रसन्न होते हुए भी, अपने उद्देश्य को पूर्ण नहीं कर पा रहे थे। वे ऐसा शिष्य चाहते थे जिसे अध्ययन के बाद वापिस नहीं होना है। जिसे वे अपना उत्तराधिकारी बना सकें। धन या पीठ या संघ का नहीं, ज्ञान का उत्तराधिकारी। उनका विचार करना उचित था, क्योंकि वे सत्तर वर्ष के हो चुके थे, काया में शिथिलतायें प्रवेश करने मुँह मार रही थी।सन् १९६२ का वर्षायोग चलता रहा। उनके चरणों को छूने और उनसे दो शब्द बतियाने के लिये लोग उन्हें तकते ही रहते थे, दिनभर में सैकड़ों दर्शनार्थी कृतकृत्य हो चले जाते थे। उनका वात्सल्य और आशीष सभी को मिलता था- क्या धनिक क्या निर्धन, क्या विद्वान क्या सामान्यजन और क्या ब्राह्मण और क्या अहिरवार। वे आगम प्रणीत मूल ग्रन्थों को पारायण करते थे और उसमें भरे ज्ञान का विड़ोलन कर जन-जन को बाँट देना चाहते थे। वे स्वत: हर ग्रन्थ की तलस्पर्शी टीका प्रस्तुत करते चलते थे। श्रावकों, पंडितों द्वारा लिखित ग्रन्थ या टीकायें कभी उन्हें प्रभावित नहीं कर सके। जो श्रावक उन्हें किसी श्वेत वस्त्रधारी पंडितों द्वारा रचित या प्रवर्तित ग्रन्थ पढ़ने देते थे, वे उन्हें तुरन्त सावधान करते कि प्राचीन आचार्यों द्वारा लिखित ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये, अन्य ग्रन्थों या टीकाओं को पढ़े तो दिग्भ्रमित होने से बचें। हम जीवन भर, निरंतर भी, यदि पढ़े तो भी आचार्य कुन्दकुन्द, आचार्य उमास्वामी, आचार्य पूज्यपाद, आचार्य जिनसेन, आचार्य समन्तभद्र और आचार्य अकलंक स्वामी के ग्रन्थ पूरे-पूरे न पढ़ पायेंगे, फिर आगम के नाम पर प्रकाशित किये जानेवाले आधुनिक अप्रमाणिक ग्रन्थों में समय क्यों नष्ट करें? सीकर के इस चातुर्मास में मुनिवर ने धार्मिक क्रियाकांड विषयक मान्यताओं के अतिवाद को तोड़ने का सुन्दर प्रयास किया। वे तेरहपंथी और बीसपंथी की धारणाओं पर तटस्थ रहते थे। सचित्त और अचित्त पर कोमलता से प्रकाश डालते थे। शासन देवता को नमस्कार करने वालों से कहते थे कि जो अव्रती हैं, वह किसी अन्य अव्रती को नमन करें तो समाज क्या कर सकता है ? अर्थात क्षेत्रपाल पद्मावती आदि असंयमी हैं, अत: आरती, पूजा के योग्य नहीं हैं। वे तो उक्ताशय की चर्चायें अपने कक्ष में आनेवाले श्रावकों द्वारा पूछने पर, कभी-कभार ही करते थे। इसी तरह पन्थवाद पर जब कभी समझाने की स्थिति आती थी तो वे स्पष्ट कह देते थे कि पन्थवाद दिगम्बर जैन रूपी वस्त्र पर निकल आये छिद्रों से अधिक कुछ नहीं है। जितने अधिक छिद्र होते जावेंगे, वस्त्र जर्जर होता जावेगा। एक समय ऐसा भी आ सकता है, जब कि वस्त्र कई हिस्सों में, फट कर, बँट जाये। अत: समझदार श्रावक छिद्र मात्र को सुधारने-सिलने का कार्य नहीं करते, अपितु पूरे वस्त्र को फटने से बचाने का प्रयास करते हैं। सीकर वर्षायोग में विद्वानों के समक्ष, प्रथम बार, उनके ज्ञान का पारावार देखने में आया था, लोगों ने जाना एवं स्वीकारा कि वे संस्कृत और हिन्दी साहित्य की पद्य और गद्य विद्या में समान अधिकार रखते हैं। यहीं पर उनके द्वारा रचित महाकाव्यों का लाभ भी विद्वानों को मिल सका, जिससे वे सगौरव कह सके कि पूज्य मुनिवर ज्ञानसागरजी महाराज में न्याय, पुराण, चारों अनुयोग, आगम्म-सिद्धान्त, आचार-शास्त्र, अध्यात्म और व्याकरण का प्रमाणित ज्ञान है, उन्हें इन सबका पंडित ही नहीं, महापंडित पुकारा जावे तो भी कम है। सीकर समाज का और भारत देश का सौभाग्य है कि सर्व ज्ञान समम्पन्न महापंडित और महामुनि ज्ञानसागर जी यहाँ की धूल को पावन स्पर्श प्रदान कर रहे हैं। जब लोगों का ध्यान उनकी आहार चर्या पर गया तो वहाँ भी चकित होने के क्षण आये, समाज को गौरवान्वित होने के क्षण आये। लोग बतलाते हैं कि मुनिवर यथा-उचित उपवास ही करते थे, अधिक उपवासों का कीर्तिमान बनाने की ललक उनमें नहीं थी। आहार सरलता से लेते थे, उनके आहार चलते समय, चौका में उपस्थित लोगों की घबड़ाहट या हड़बड़ी, उनके चेहरे का शान्तभाव देख कर अपने आप ही समाप्त हो जाती थी। वे आज्ञा देकर शूद्रजल त्याग कराने के चक्कर में नहीं पड़ते थे, बल्कि लोगों का मानस कुछ ऐसा प्रभावित कर देते थे कि वे स्वयं ही अनेकानेक छोटे-बड़े त्याग स्वीकारने लग जाते थे। जैसी उनकी विचारधारा सरलता के धरातल पर थी, वैसी ही उनकी दिनचर्या, और बाद में, जीवन-चर्या सारल्य से ओत-प्रोत बनी रही। सन् १९५९ से १९७३ तक उन्हें अनेक बार आहार देने का लाभ लेने वाली एक वृद्धामाता ने बतलाया था कि पू. ज्ञानसागरजी सदा सादाआहार लेते थे। लौकी की सब्जी और बेसन की पकौड़ी के लिये कभी मना नहीं करते थे। वे महान दूरदर्शी थे। आगम पर जब कोई विद्वान बोलता था तो वे पहले ही समझा देते थे कि जिस कथन से किसी को दु:ख हो, क्षोभ हो, वैसे कथन प्रवचन में न रखे जावें, तो हम अहिंसा के अधिक करीब हो सकेंगे। जिस लेखन से कोई विवाद उठे, वैसा लेखन न किया जावे तो श्रीजी की पूजा जितना लाभ हम प्राप्त कर सकते हैं। मुनि रूप में दीक्षा प्रदान करने का क्रम उन्होंने सीकर से प्रारंभ किया था, जब उन्होंने वहाँ की एक वरिष्ठ श्राविका, श्री धर्मचन्द जैन की माँ को दूसरी प्रतिमा के व्रत प्रदान किये थे। उस धर्मात्मा महिला रत्न का नाम था- श्रीमती देवी जैन। मुनिवर में एक विशेषता बड़ी रोमाञ्चक थी, जब वे किसी गृहस्थ को, पर्वादि से समय-विशेष के लिये, ब्रह्मचर्य व्रत देते थे तो उन्हें जोड़ी से आने को कहते थे और वे जोड़ी को ही व्रत प्रदान करते थे। ऐसी जोड़ी में प्रथम निमित्त भूत बने थे वहाँ श्री धर्मचन्दजी। उन्होंने पर्वाधि तक के लिये व्रत लिया था। चातुर्मास पूर्ण होने को था, सीकर का धर्मप्रेमी समाज चिन्ता में पड़ गया था- ‘महाराज फिर विहार कर जायेंगे ? यहाँ अमृत की वर्षा कौन करेगा ? हमारे नयन उनके दर्शन कैसे कर पायेंगे ? आदि।' तब तक समाज के प्रबुद्ध जनों ने विचार किया कि उनके चातुर्मास की यादगार स्वरूप एक स्मारिका प्रकाशित करा ली जावे तो महाराज की सभी स्मृतियाँ हमारे पास सुरक्षित रह सकेंगी। प्रस्ताव को अंतिम रूप दिया गया, फिर समाज के सचेतकों ने स्मारिका-सम्पादन का दायित्व श्री धर्मचन्द पर डाल दिया । समाज का आदेश मान कर धर्मचंदजी ने अपने युवकोचित-ज्ञान से एक महत्त्वपूर्ण स्मारिका का सम्पादन किया, जिसके मुखपृष्ठ पर पू. ज्ञानसागर महाराज का चित्र सदा सीकर में उपस्थित रहने का विश्वास दिला रहा था । (किन्तु जब यह कथा लिखी जा रही है, तब वह स्मारिका उपलब्ध नहीं है।) चातुर्मास निष्ठापना के बाद एक दिन मुनिवर सीकर से विहार कर गये। सम्पूर्ण सीकर रोता-बिलखता रह गया। सर्वाधिक बड़ा आघात लगा मुनिवर के प्रथम मानस पुत्र धर्मचन्द को, जिन्होंने दो वर्षायोगों में मुनिवर से वह सब कुछ प्राप्त कर लिया था, जिसके बल पर एक व्यक्ति सही श्रावक कहा जाता है। विद्वान कहा जाता है। भक्त कहा जाता है।
  16. एक सप्ताह ही बीता होगा कि धर्मचन्द की माताजी को मन में लगा कि उसकी लगन तो क्रमशः तीव्र हो रही है, उधर गुरुवर का वात्सल्यभाव भी बढ़ता ही जा रहा है, कहीं अध्ययन के चक्कर में धर्मचंद घर-द्वार न छोड़ बैठे। सो दूसरे दिन ही वे अकेले ही गुरुवर के समीप पहुँची और विनयपूर्वक कहने लगीं - महाराजजी। धर्मचंद ठीक से पढ़ रहा है ना? अभी पिछले वर्ष ही उसकी शादी की है, घर में बड़ी प्यारी बहू है। बस चातुर्मास के चलते आपका सान्निध्य लाभ मिल जाये इतनी ही मनोकामना है। फिर तो आपके आशीष मात्र से उसका जीवन सुख से चलता रहेगा। गुरुवर ने कभी अपनी माँ के चेहरे पर भी यह डर देखा था, अतः बात समझने में उन्हें देर नहीं लगी। वे धर्म की माँ को संतोष दिलाते हुए बोले - तेरा बच्चा सुख से तेरे घर में रहेगा, जा अपना कार्य कर। माता निश्चिन्त होकर लौट आयी। धर्मचन्द को वार्ता का कभी पता ही न चल पाया। चातुर्मासकाल अपनी गति से चलता हुआ पूर्णता की ओर था। दीपोत्सव के दीप संदेश दे चुके थे। विस्थापना क्रिया आचार्य शिवसागर जी द्वारा पूर्ण कर ली गई। भक्तगण टोह प्राप्त कर चुके थे कि संघ विहार करने का मन बना चुका है, किन्तु किसी चर्चा में लगातार समय दिया जा रहा है। संघ के सूर्य पूज्य शिवसागरजी और संघ के आकाश पू. ज्ञानसागरजी के मध्य वह चर्चा निरन्तर थी। सन्तों की चर्चा कितनी ही धीमी हो, परदे में हो, पर वह महत्त्व लिये होती है। चर्चा के विषय संक्षिप्त थे, पर दो थे। पूज्य ज्ञानसागरजी का मानना था कि सब्जियों या फलों को अचित्त करने के लिये उन्हें उबालना या उबलते पानी में धोना उचित है। जबकि संघ की कुछ आर्यिकाओं का मानना था कि यदि उबाले न जा सकें तो उन्हें तोड़कर, छिन्न-भिन्न कर, खोल कर देख लिया जावे तो वे अचित्त माने जा सकते हैं, लेकिन ज्ञानसागरजी कहते हैं - प्राचीन ग्रन्थ मूलाचारादि में तो अग्नि संस्कार से ही वनस्पति को अचित्त कहा है। साधुओं को संघ में चैत्यालय नहीं रखना चाहिये, न ही स्त्री के द्वारा अभिषेक देखकर ही आहार को निकलेंगे - ऐसा नियम होना चाहिये। आचार्य श्री शिवसागरजी इन बातों का बहुत विचार करते थे। वह मानते थे कि ज्ञानसागर जो भी कहेगा आगम के अनुकूल ही कहेगा, लेकिन आर्यिकायें हमेशा ज्ञानसागर से निराधार विवाद करती थीं। इस बात से दुखी होकर आचार्य शिवसागरजी ने विवाद करनेवाली आर्यिकाओं को संघ से निकाल दिया था। एक दिन ज्ञानसागरजी ने देखा कि यहाँ सत्य आगम की बात करने पर विवाद होता है तो गुरु आज्ञा पूर्वक स्वयं ही संघ से पृथक् विहार कर दिया। ज्ञानसागरजी के संघ से निकलने का आ. शिवसागरजी को बहुत दु:ख हुआ। उन्होंने आर्यिकाओं से कहा- आप लोगों ने हमारा एक हाथ काट दिया, अच्छा नहीं किया। हमारे प्रथम शिष्य को अलग कर दिया, शिवसागरजी ने कहा - ज्ञानसागर तो कहीं भी रहकर कल्याण कर लेगा; लेकिन संघ को ऐसा ज्ञानी मुनि नहीं मिलेगा। संघ से विलग हो पू. ज्ञानसागरजी अपने पूज्य गुरु शिवसागरजी की जय बोलते हुए हर बस्ती के मंचों को गुन्ज्जायमान करते बढ़ रहे थे। उनके प्रवचनों में श्रावकों की भारी भीड़ होने लगी। आश्चर्य तो यह कि जैनों के साथ-साथ, उतनी ही संख्या में ब्राह्मण, ठाकुर, नाई, माली, जाट, कुम्हार, मुसलमान आदि तक उपस्थित होते और जैनधर्म की मान्यताओं को श्रद्धा सहित स्वीकारते। पू. ज्ञानसागरजी भी हर वर्ग के श्रोताओं को अपने समीप तक आने का समय देते, उनसे बातें करते और उनमें प्रभावना का सुन्दर संचार करते। पू. ज्ञानसागरजी की एक प्यारी पंक्ति जो बाद में नारा बन गई, वर्षों से उनके अधरों पर देखी जा रही थी, जो यहाँ बहुत ही जनोपयोगी सिद्ध हुई। वे अपने प्रवचन के दौरान अक्सर जनता को सचेत करते हुए बोलते थे- ‘राम बनो, रावण नहीं।’ इस पंक्ति का उपयोग जैनाजैन समाज पर समान रूप से प्रभाव छोड़ता था। अब जब उनकी सभाओं में अन्यअन्य समाज-समुदाय-वर्ग के लोग प्रवचन सुनने आते और पू. ज्ञानसागरजी उन्हें समझाते हुए सम्बोधित करते कि राम बनो, रावण नहीं' तो सभा के सर्व श्रोतागणों में भारी धर्म प्रभावना होती। लोग आनंदातिरेक से वाह-वाह कर उठते, उनकी आत्मा में खुशी होती कि गुरुवर उनके लिये भी कुछ न कुछ ज्ञान के संदेश अवश्य सुनाते हैं। मुनिवर ज्ञानसागरजी अपने गुरु की छाप हृदय में सँवारे हुए कई माहों तक विहार करते रहे। किशनगढ़ पहुँचे, कुछ दिन रह कर विहार कर गये। दो चार माह ही बीते होंगे कि किशनगढ़ के समाज को पुन: धर्म की प्यास लग पड़ी। समाज की बैठक हुई, लोगों के मन बने कि पू. ज्ञानसागरजी से पुन: किशनगढ़ आने के लिये प्रार्थना की जावे। श्रावकगण समूहों में मुनिवर के पास जाने लगे। हर माह कोई न कोई समूह बस या रेल से उनकी सेवा में पहुँचता और किशनगढ़ चलने की अनुनय-विनय करता। मुनिवर मुस्कराकर टाल जाते। कहते देखेंगे- समय आने दीजिये। धीरे-धीरे दस माह निकल गये। समाज का धैर्य टूटने लगा। एक दिन सभी प्रभावशाली भक्त एक बड़े समूह के साथ पूज्यश्री के चरणों में पहुँचे और उनसे किशनगढ़ में पुन: वर्षाकाल का समय प्रदान करने का हार्दिक अनुरोध किया। मुनिवर ने भक्तों को समझाया कि वे निर्ग्रन्थ साधु को आश्वासन में बाँधने का प्रयास न करें, जो कुछ होगा, स्वयं होगा। श्रावक समूह लौट आया, पर सभी को अपनी प्रार्थना पर विश्वास था, अत: एक दिन वह क्षण आ गया, जब पूज्यवर किशनगढ़ पधारे पुनः। पू. ज्ञानसागरजी जंगलों में चलने पर क्या, वहाँ रुकने में भी कभी घबड़ाये नहीं। एक बार विहार के समय चलते-चलते शाम हो गई। बस्ती दूर थी, अत: वहीं एक साफ सुथरी जगह में, वृक्ष के नीचे आत्मसाधक मुनिवर ज्ञानसागरजी सामायिक के लिए बैठ गये। साथ के श्रावक यहाँ-वहाँ दुबक गये, कुछ जन साइकिलों से बस्ती की तरफ चले गये। मुनिवर ने जंगल में ही रात्रि विश्राम किया। सुबह जब श्रावकों की दृष्टि मुनिवर के शरीर पर पड़ी तो चकित रह गये, पूरे शरीर पर बड़े-बड़े चकत्ते हो आये थे। लोगों ने जाँच-पड़ताल शुरू कर दी, तब समझ में आया कि मुनिवर पर रात्रि में दीमक ने हमला बोल दिया था, मगर वे उत्कृष्ट ज्ञान-साधना के महान साधक चुपचाप रहे आये थे। श्रावकों ने सुकोमल सफेद वस्त्र से देह को बुहारा। अपने मुनिवर को उपसर्गों में भी समतापूर्ण और निर्वैर्य पाकर खुश हुए। इस बार सीकर का हर श्रावक पूज्य ज्ञानसागरजी से ज्ञानामृत प्राप्त करना चाहता था, पर सर्वाधिक ज्ञानलाभ पाने में सफलता मिली युवक धर्मचंद को। वह संस्कृत से बी.ए. करने की तैयारी कर रहे थे। उस वर्ष पूज्यश्री का वर्षायोग सीकर का हो गया सो धर्मचन्द के लिये सोने में सुहागा हो गया। सीकर के समाज को गत वर्ष के सभी दृश्यों की याद थी, अत: किसी ने भी पुरानी चर्चा पर पुनरावृत्ति नहीं की। सभी जन अपने आराध्य की सेवा और भक्ति में रम जाना चाह रहे थे। मुनि ज्ञानसागरजी का चातुर्मास अत्यंत सफलताओं के साथ चलता रहा। सुबह से शाम तक के समय को इस तरह निर्धारित कर दिया गया कि हर वर्ग के श्रावक को पूरा-पूरा धर्मलाभ तो मिले ही और पूज्यवर की आगमोचित क्रियायें भी सधती चली जावें। गत वर्ष १९६१ में जो धर्मचंद मुनिवर के समीप आ गये थे, वे बाद में भी पूरे साल उनके समीप बने रहे थे। मुनिवर के पास वे आते जाते रहते थे और अपने अध्ययन की प्रगति से उन्हें अवगत कराते रहते थे। अब जब पूज्यवर उन्हीं के ग्राम में थे तो भला धर्मचंद अधिक समय क्यों न लेते ? उन्होंने चातुर्मास के प्रारंभ में ही पूज्यवर से प्रार्थना कर डाली थी कि संस्कृत से बी.ए. कर रहा हूँ, परन्तु पढ़ाने के लिये घर तो घर, विद्यालय में भी कोई नहीं हैं। अत: आपके सहारे ही कुछ पढ़ पाऊँगा। मुनिवर ने भी उन्हें स्वीकृति दे दी थी, अत: मध्याह्न साढ़े तीन बजे के बाद, नित्य ही कभी एक, कभी दो और कभी तीन घंटे तक का समय धर्मचन्द पा जाते थे उनसे। धर्मचन्द की विद्यालयीन पढ़ाई करते हुए पूज्यवर ने उन्हें ‘सर्वार्थसिद्धि’ ग्रन्थ भी पढ़ाने की कृपा की।
  17. यह महान संयोग ही कहा जावेगा कि जिस तरह पू. आचार्य शिवसागरजी के देश भर में चर्चित श्रीसंघ के अनेक व्रती सदस्य परिवार के मध्य उनके प्रथम शिष्य पू. ज्ञानसागरजी सर्वश्रेष्ठ ज्ञानी-ध्यानी और तपस्वी सिद्ध हो रहे थे, साहित्यकार होने का इतिहास गढ़ रहे थे, ठीक उसी तरह कुछ दशक बाद पू. आचार्य ज्ञानसागरजी के संघ में उनके प्रथम शिष्य पू. विद्यासागरजी महाराज श्रेष्ठताओं के पुंज बन कर उदित हुए थे व्रतियों के देश में। वे अपने ही श्रीसंघ के सदस्यों को ही नहीं, भारत में समकालीन कहे जानेवाले अनेक श्रीसंघों को पीछे छोड़ गये थे। वे गुण, जो पू. ज्ञानसागरजी में थे, पू. विद्यासागरजी ने उन्हें आत्मसात कर कई गुणित बढ़ा दिया था। एक और महान संयोग बना। सन् १९५७ में पू. आचार्य शिवसागरजी के तप प्रधान संघ के लिये जो शब्द विद्वत जन उपयोग में ला रहे थे, लगभग वे शब्द ही सन् १९७० में पू. आचार्य ज्ञानसागर जी के संघ के परिचयार्थ उपयोग में लाये गये और सन् १९८४ में वे ही शब्द पू. आचार्य विद्यासागरजी के संघ के परिचय बने। कहें तीन-तीन आचार्यों ने, तीन पीढ़ियों तक, श्रीसंघ की गरिमा कभी कम नहीं होने दी, उसे उत्तरोत्तर बढ़ाया ही। तीन महासंघों के परिचय में ऐसा क्या कहा जाता था कि हर पीढ़ी के संघ में वे शब्द सत्य उतरते रहे। वे शब्द थे - “अरे भाई ! इनका संघ तो अद्दभुत है। आचार्यश्री अनुशासन की कठोरता पर विश्वास रखते हैं। उनकी ही दृष्टि में क्या, संघ के हर सदस्य की दृष्टि में शिथिलता को कहीं भी स्थान नहीं है। संघ का हर व्रती द्रढ़-आत्मबल का धारक है। आचार्यश्री स्वत: कठिन तपश्चर्या के महाधारक हैं, फलत: पूरे श्रीसंघ का संचालन आगम-निर्दिष्ट सूत्रों पर करने में सफल हैं। आचार्यश्री में एक ओर जहाँ चर्याओं के पालन करने-कराने की कठोरता है, वहीं वे अपने शिष्यों के लिए पल-पल हृदय में वत्सलता भी धारण किये रहते हैं। वात्सल्य समय पर ही देखने मिलता है। वे तो गुरु के रूप में बिलकुल श्रीफल की तरह हो गये हैं। बाहर से कठोर, भीतर से कोमल, उपयोगी और स्वास्थ्यवर्धक। किसी सदस्य से तनिक-सी चूक हो जाये तो कठोर प्रायश्चित्त से गुजरने का आदेश देते हैं, किन्तु कभी किसी व्रती : को तनिक-सा कष्ट हो जावे तो स्वत: ही अपने करकमलों से उसके माथे पर तैल-मर्दन तक करने से नहीं चूकते। जब तक व्रती का कष्ट दूर न हो जावे, उससे लगातार सम्पर्क बनाये रहते हैं। अधिक पीड़ा में तो व्रती को अपने कक्ष में ही रहने, रुकने का आदेश देकर उसकी आधी पीड़ायें अपना सामीप्य प्रदान कर हर लेते हैं। आचार्यश्री पंचाचार का पालन दृढ़ता से करते हैं और अपने संघस्थ-सदस्यों को भी उसके अनुकूल ढाल लेते हैं। संघ के सदस्य आचार्यश्री से पूछे बगैर किसी श्रावक से एक कलम तक नहीं स्वीकार करते। अल्प से अल्प वस्तु भी उनके शिष्य गुरु-आज्ञा के बिना नहीं लेते। आचार्यश्री उन आत्माओं को पहली मुलाकात में ही पढ़ लेते हैं, जिनके भविष्य मे कल्याणमार्ग की उपलब्धि संभव है। वे कल्याणपथ के इच्छुक व्यक्ति को विवेक की तुला पर तौल लेने में पारंगत हैं। वे जान लेते हैं कि व्रत/दीक्षा लेने आये हुए श्रावक में शक्ति, लगन, समर्पण और उदासीनता के बीज हैं या नहीं, वह आगमानुसार जीवनवृत्त सँवार सकेगा या नहीं। तीनों आचार्यों में ये विशेषतायें उनका और उनके संघ का परिचय बन चुकी हैं। वार्ता करते हुए सामने वाले व्यक्तित्व से सूत्र रूप वाक्य कहकर समाधान का धरातल प्रदान कर देना- उनका महान परिचय है। देश का कोई साहित्यकार/पंडित/सम्पादक यदि उनसे सम्पर्क करने पहुँचा है तो मानसिक-भोजन क्या, मानसिक-ऊर्जा ही लेकर लौटा है। धन्य हैं ऐसे आचार्य जो ज्ञान की गंगा, वात्सल्य का हिमालय और तपस्या का सूर्य हर पीढ़ियों के समक्ष स्थापित करते रहे हैं। उक्त परिचय पू. आचार्य ज्ञानसागरजी के जीवन में जिस सत्य को लेकर चला, वह उनके गुरु पू. आचार्य शिवसागर के जमाने में भी था और उनके शिष्य पू. आचार्य विद्यासागरजी के समय-काल में भी है। धर्म की, ऐसी गंगा जो तीन पीढ़ियों तक एक गरिमा से बहती रहे, हर कहीं सम्भव नहीं है। सन् १९६१ के वर्षाकाल का प्रसंग है। पू. ज्ञानसागरजी तब मुनि थे और पू. आचार्य शिवसागरजी के संघ में शोभा पाते थे। चातुर्मास स्थापना की शुभ क्रिया पू. शिवसागरजी सम्पन्न कर चुके थे, फलतः वर्षाकाल के क्रमबद्ध कार्यक्रमों के अनुसार संघ की दैनिक चर्या चल रही थी। सीकर के अनेक धर्मानुरागी और ज्ञानपिपासु लोगों के मध्य वहाँ एक चेहरा उभर कर सामने आया था- एक युवक का। वह थे धर्मचंद जैन। तब वे मात्र १८ वर्ष के थे। उनकी पूज्य मातेश्वरी के मन में भाव जागे कि महान ज्ञानीसंत नगर में पधारे हैं, यदि इनका प्रज्ञाप्रसाद मेरे पुत्र धर्मचंद को मिल जाये तो मुझ पर, मेरे परिवार पर भारी उपकार होगा। ऐसा ही एक प्रसंग है भारतीय इतिहास में, कि वीर शिवाजी को गुरु तक पहुँचाने का शुभ कार्य उनकी पूज्य माता श्रीमती जीजाबाईजी ने किया था, फलतः देश को एक योग्य एवं नीतिवान प्रशासक प्राप्त हो सका था। यहाँ सीकर में एक माँ के विचार बने कि उसका पुत्र गुरु की शरण में स्थान प्राप्त कर योग्य श्रावक बने। श्रावक जो शासक से कम महत्त्वपूर्ण नहीं होता। धर्मचंद की माताजी चातुर्मास के प्रारंभ में ही, पूज्य आचार्य शिवसागरजी के संघस्थ साधुओं में से एक, पू.मुनिभव्यसागरजी से मिलीं। अपने मन की बात बतलाई और विनय की, कि 'धर्म' को प्रतिदिन कुछ ज्ञान प्रदान करने का समय दें। माँ की बात सुनकर पू.भव्यसागरजी सोच में पड़ गये, फिर बोले- पुत्र को पढ़ाने और पढ़ाकर ज्ञान दिलाने का मन है तो आप ज्ञानसागर महाराज से बात करें, उनसे अधिक उपयुक्त कौन हो सकता है। मुनिवर के वाक्य सुन माँ जी धर्मचंद को साथ लेकर पू. ज्ञानसागर जी मुनि के समीप पहुँचीं। उधर मुनिवर के प्रथम दर्शन से माँ तो माँ, पुत्र तक निहाल हो गया। दोनों जन सरलता की प्रतिमूर्ति ज्ञानसागर की वय एवं देह देख कर वात्सल्य से भर उठे, मुनिवर की दुर्बल देह को उनके माथे पर चमकता तेज दबा-दबा दे रहा था। मुनिवर की आँखों ने सदा की तरह, सामने उपस्थित हुए मुमुक्षु को तौला। धर्मचंद के भीतर जुगजुगाती एक ज्योति को गुरुवर देखने में लीन हो गये, ज्योति थी वह प्रज्ञा की। धर्मचंद उनकी ओर देख रहे थे एकटक माँ भी निहार रही थी। कुछ समय के लिये शांति छा गई थी, वातावरण में कहीं कोई शब्द या स्वर नहीं था। केवल शांति थी। धर्मचंद ने सविनय नमोऽस्तु किया, फिर माँ ने किया। गुरुवर ने दोनों को आशीष प्रदान किया। माताजी ने अपने मन की समस्या पूज्यश्री के सम्मुख रख दी। गुरुवर को तथ्य समझने में विलम्ब न लगा। वे धर्मचंद की ओर देखकर बोले- -क्या नाम है आपका? - जी, धर्मचंद - संस्कृत भाषा पढ़ी है ? - जी, इन्टर तक मेरा एक विषय ‘संस्कृत’ रहा है। उक्त उत्तर सुनकर पू. ज्ञानसागरजी की आँखों में संतोष की झलक तैर गई। उन्हें विश्वास हुआ कि इस युग में भी कोई है जो संस्कृत को लेकर चल रहा है; वे संस्कृत, जिसे विद्वानजन देववाणी कहते हैं, के सच्चे सेवक और संरक्षक थे। उन्हीं के समीप ब्रह्मचारी श्री सुखदेवजी भी बैठे थे। वे भी अनुभवी थे। स्वभाव गुरुवर की तरह ही सरल। संस्कृत का ज्ञान रखते थे। वे भी देववाणी के उपासक, अत: बीच में ही, किन्तु पूर्ण सहजता से धर्मचंद से प्रश्न कर बैठे- राम के रूप बोल कर सुना सकते हो? प्रश्न धर्मचन्द के लिये काफी सहज था, अत: मुस्कराकर बोलेजी सुना सकता हूँ। साफ और मिष्ठ उच्चारण के साथ उन्होंने वांछित उत्तर सुना दिया। उनके उत्तर से न केवल ब्रह्मचारीजी, बल्कि गुरुवर भी प्रसन्न हुए। गुरुवर ने उच्चारण मात्र से धर्मचन्द के ज्ञान की थाह ले ली, अत: वे ब्रह्मचारीजी से विनोद करते हुए बोले- यह युवक इंटर कर चुका है, अत: इतने सरल प्रश्न से कुछ नहीं होने वाला, कुछ और पूछो। फिर धर्मचन्द की ओर मुँह कर बोले- तुम नित प्रति मध्याह्न तीन से चार बजे के मध्य मेरा समय ले सकते हो। उन्होंने अपने द्वारा लिखित सूत्रजी की टीका पुस्तक धर्मचन्द को दी और बोले- पहले सूत्रजी पढ़ो। पुस्तक और आश्वासन पाकर धर्मचन्द और उनकी माँ जी को भारी खुशी हुई। वे घर लौट पड़े गुरुवर का आशीष लेकर। पू. आचार्य शिवसागरजी ने चातुर्मासावधि में प्रात:कालीन प्रवचन का दायित्व पू. ज्ञानसागरजी पर छोड़ रखा था। उनके रोज प्रवचन सुनने का शुभ अवसर सीकरवासियों को मिल रहा था। धर्मचन्द को पता था, अत: दूसरे दिन से ही वे नियमित रूप से उनके प्रवचनों का लाभ लेने लगे और मध्याह्नकाल में उनसे विद्यार्जन करने लगे। दोनों बेला वे सुनिश्चित समय पर पहुँच जाते। गुरुवर के प्रवचन सुनने के लिये श्रोतागण सदा लालायित रहते थे।
  18. ऐलक ज्ञानभूषणजी सरल भाषा में बतलाने का सुंदर प्रयास कर रहे थे, उन्होंने दीक्षा विधि पर भी समुचित प्रकाश डाला और उसके बाद दीक्षा-फल का खुलासा जन-मानस के समक्ष किया। ऐलक ज्ञानभूषणजी का प्रवचन लोगों को बहुत अच्छा लगा। उनके परिष्कृत ज्ञान का श्रोताओं को ही नहीं, आचार्य शिवसागर को भी गौरव हो आया। सभी ने धन्यता जाहिर की। निश्चित तिथि आषाढ़ कृष्ण द्वितीया, सं. २०१६ (२२ जून १९५९) सोमवार के दिन एक सादे समारोह में आचार्य श्री शिवसागर जी ने श्रावकों और विद्वानों की उपस्थिति में पू. ऐलक ज्ञानभूषण महाराज को स-विधि दिगम्बरी दीक्षा प्रदान की। नामकरण किया - मुनि ज्ञानसागर। वह समय काल धन्य हो गया। हो गये धन्य वहाँ उपस्थित दस हजार श्रावक आचार्य श्री शिवसागरजी ने आचार्य बनने के बाद प्रथम शिष्य के रूप में मुनि ज्ञानसागर को स्वीकार किया। अर्थात् प्रथम मुनिदीक्षा ज्ञानसागरजी को ही दी थी। कार्यक्रम इतना ही नहीं था, उसी दिन, उसी समय, उसी स्थल | पर अन्य दीक्षायें भी हुई जब पू. आचार्य शिवसागरजी मुनि महाराज ने क्षु. स्वरूपसागरजी, ब्र. लादूलालजी वैद नैनवाँवाले एवं ब्र. भंवरबाई जी विलाला को ऐलक, क्षुल्लिका दीक्षायें प्रदान कर नव परिवेश प्रदान किया, वे उस दिन से हो गये पू. ऐलक आनंदसागरजी, पू. ऐ. भव्यसागर जी एवं पू. क्षुल्लिकाजी। विद्वानों ने विचार किया कि अभी दो वर्ष पूर्व जिस पावन धरती पर भारत माँ का एक दिगाम्बर सपूत (आचार्य वीर सागर) सोया था, उसी धरती पर आज एक सपूत जागा है। आचार्य शिवसागर ने उन्हें मुनि क्या बनाया, उसी समारोह में उन्होंने घोषणा कर दी कि मुनिवर श्री ज्ञानसागरजी को इस संघ का उपाध्याय भी बनाया जाता है, वे श्रीसंघ को पढ़ाने व शिक्षा प्रदान करने का दायित्व भी सम्भालेंगे। उन्होंने उचित विधि-विधान के साथ उपाध्याय पद की भी दीक्षा प्रदान की और मुनि ज्ञानसागर हो गए -“परमपूज्य उपाध्याय १०८ श्री ज्ञानसागरजी महाराज। यहाँ एक संयोग फिर बना है। अजमेर से करीब ५०० कि. मी. दूर मध्यप्रदेश के ग्राम ईशुरवारा में, २१ अगस्त ५८ को पू. माता शान्ता देवी जैन की कुक्षि से शिशु जयकुमार (मुनि सुधासागरजी) ने जन्म लिया था, उस घटना के एक साल बाद, सन् ५९ में पं. भूरामल (ऐ.ज्ञानभूषणजी) ने गुरुवर शिवसागर से दिगम्बरी दीक्षा प्राप्त की और देश के समक्ष मुनि श्रेष्ठ ज्ञानसागर का परिचय आया - प्रकृति ने १९५८ एवं १९५९ को इस संयोग को भावी संयोग का संकेत दिया था। यह जयकुमार आपकी परम्पराओं में दीक्षित होकर मुनि सुधासागर बनकर आपको दादा गुरु के रूप में स्वीकार कर आपके मेधावी प्रशिष्य बनेंगे तथा अपने दादा गुरु की जन्म एवं धर्म साधक स्थली राजस्थान में विहार कर दादा गुरु ज्ञानसागर की साहित्य साधना का शंखनाद कर साहित्य जगत के मनीषियों को जागरूक कर आ. ज्ञानसागर की कृतियों को साहित्य जगत के सार्वोच्य आसन पर विराजमान करेंगे। उनके बाल्यकाल से अब तक के आये पड़ावों पर दृष्टि डालें तो याद आयेगा कि एक मायने में सन् १९०२ से ही भूरामल का पल-पल कठिन सूत्रों से बीत रहा था, वही वह समय था जब १० वर्षीय भूरामल को पितृ-वियोग सहना पड़ा था। क्या दिन, क्या रात, उनके सामने परेशानियों के पहाड़ के अतिरिक्त कुछ न था। बनारस से पढ़कर आ गये, घर में जम गये, कुंवारे रहने की घोषणा में सफलता पा गये, उसके बाद भी दुर्दिनों ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। मगर वे निर्धनता से तनिक भी भय नहीं खाते थे, क्योंकि उन्होंने प्रारम्भ से ही परिग्रह का बोझ धारण नहीं किया था, वे तो सदा उत्तम आकिञ्चन्य की मर्यादाओं में जीने की कला पा चुके थे। संसार से कुछ न लेने का भाव, मगर अपने समीप का सब कुछ वितरित कर देने का मन वे जीवन भर बनाये रहे। श्रावकों तो श्रावकों की, वे दिगम्बरों तक की झोलियों में अपने ज्ञानकण भरते चल रहे थे। शास्त्री आचार्य की विद्यालयीन योग्यता प्राप्त पं. भूरामलजी शास्त्री वय के चालीस-पैंतालीस वर्ष भी पूरे नहीं कर पाये थे कि उनके ज्ञान और अभ्यास की ख्याति देश में स्थित/उपस्थित श्रावकों और विद्वानों तक जा पहुंची थी। फलत: समाज में अध्यापन का कार्य करने वाले निस्पृह पंडित भूरामलजी को मुनिसंघों के सदस्यों को पढ़ाने के लिये भी आदर सहित आमंत्रित किया जाने लगा था। रस, अलंकार, छंदों से सम्पन्न उनके व्याकरण साध्य काव्यलेखन ने तीव्रगति धारण कर ही ली थी, तो अध्यापन कार्य ने प्रभावशीलता धारण कर ली थी। उनका संस्कृत साहित्य का लेखन भी प्रगति कर गया कि जो, संस्कृत लेखन का कार्य, देश में चौदहवीं शताब्दी से रुका सा पड़ा था, विद्वानों के मध्य, वह, उनकी लेखनी से नव-विहान पा गया था। जैनधर्म, जैन साहित्य के साथ-साथ भारतीय संस्कृति को प्रदीप्त रखने का श्रमपूर्ण संघर्ष पं. भूरामल ने ही किया, जो बाद में देश के लिये उदाहरण बन गया। एक या दो नहीं, चार महाकाव्यों की रचना अकिञ्चन भाव के सौदागर श्री भूरामलजी ने ही पूर्ण की थी। कुल २८ ग्रन्थ रचे थे। सन् १९५३ तक तो वे अपने परिवार में आते-जाते रहे, कभी माता की सुध ली, कभी भाइयों की, मगर जब पूज्य माँ घृतवरीजी का निधन हो गया तो वे घर में अधिक समय तक न बँधे रह सके और कुछ ही समय के बाद सन् १९५५ में वे मुनिसंघ में शामिल हो गये। पूज्य आचार्य वीरसागरजी महाराज ने उन्हें क्षुल्लक दीक्षा प्रदान कर उनके मन से भव-भय का क्रम समाप्त कर दिया। यों जब वे ५६ वर्ष के थे, तब वर्ष १९४७ में पू. आचार्य वीर सागरजी एवं पूज्य क्षुल्लक शिवसागरजी के प्रभाव में कुछ अधिक ही आ गये थे, परिणाम यह हुआ कि स्वेच्छा से, स-विधि, उन्होंने १९४७ में ब्रह्मचर्य-प्रतिमा धारण कर, वात्सल्य और समर्पण से चारित्र पथ पर चलने का उद्देश्य प्रकट कर दिया था। मगर बाद में क्षुल्लक दीक्षा धारण कर उन्होंने यह भी सिद्ध कर दिया था कि जीवन की अवधि का तीन चौथाई से अधिक भाग एक जैन पंडित/शास्त्री/विद्वान के रूप में व्यतीत करने के बाद भी वे एक दिगम्बर-सन्त बनने का अत्यन्त उत्तम लक्ष्य मन में रखते हैं। पंडितगण जो मरते -मरते तक दिगम्बरत्व धारण करने से बचते रहे हैं, वे पं. भूरामल मरण के पूर्व एक महान संत का भी सफल जीवन जी सके। पंडित, जो मात्र पढ़ने-पढ़ाने, बोलने बुलवाने और लिखने तक अपनी चर्या प्रसारित कर पाते हैं, वे पंडित जी दर्शन, ज्ञान और चारित्र की चुनौती स्वीकार कर एक दिन दिगम्बर साधु के महान स्वोपकारी एवं परोपकारी पद तक पहुँच सके। वे धन्य हैं। सन् १९५५ से १९७३ तक कुल १८ वर्ष ही साधु जीवन जी| सके थे, शेष अवधि शिशु, किशोर, छात्र और पंडित के रूप में निकाल दी थी। परमपूज्य आचार्य १०८ श्री विद्यासागरजी महाराज जब दीक्षार्थ उनके पास पहुंचे थे तब वर्ष १९६७ का समय चल रहा था, अत: कहा जा सकता है कि पू. विद्यासागर महाराज को अपने पूज्य गुरु ज्ञानसागर जी के पास मात्र छ: वर्ष ही रहने/रुकने मिला था। अनोखे थे वे छ: वर्ष। (चलें मूल कथा की ओर) मुनि दीक्षा के कई वर्ष बाद प्रबुद्धजनों के मन में एक विचार स्पष्ट हुआ कि पू. आचार्य शिवसागरजी महाराज ने अपने जीवन में अनेक व्रतियों को मुनि दीक्षा प्रदान की है। उनके सर्व प्रथम शिष्य पू. ज्ञानसागरजी थे, फिर पू. ऋषभसागरजी महाराज, पू. भव्यसागरजी महाराज, पू. अजितसागरजी महाराज, पू. सुपार्श्वसागरजी महाराज, पू. श्रेयांससागरजी महाराज और पू. सुबुद्धिसागरजी का क्रम बना, पर जो प्रभावना पू.ज्ञानसागरजी ने स्थापित की थी, वह अन्य व्रती नहीं कर पाये। यों सब एक ही डाल के पुष्प हैं, पर पुष्पा/सुगन्ध जुदा-जुदा रही। पू. शिवसागरजी के संघ में मनीषी और तपस्वी मुनियों की तरह अनेक विदुषी-आर्यिका-मातायें एवं ऐलक की क्षुल्लकगण भी उपस्थित थे। उनका विशाल संघ देश में धर्म के पथ पर चारित्र की कंदीलें सजाता चल रहा था।
  19. (अभी) लगभग दो वर्ष पूर्व परमपूज्य शांतिसागरजी के समाधिमरण का समाचार ऐलकजी पं. भूरामल को मिला था, जिसे भूल ही न पाये थे कि वर्ष १९५७ में पुन: एक दुखद समाचार मिला-“परमपूज्य आचार्य वीरसागरजी महाराज समाधिस्थ हो गये।” (ऐलकजी के मन में एक तरफ वियोग की वेदना ने हलचल जारी की तो दूसरी ओर मुक्ति के मसीहा से प्राप्त मोह-विजय का पाठ प्रारंभ हो गया। आचार्य वीरसागरजी ने आसौज कृष्ण अमावस्या वि. सं. २०१४ (२३ सितम्बर १९५७) को खानियाँजी (जयपुर) राजस्थान की भूमि को अपना बिछौना बनाया था, फलत: उस स्थल की गरिमा युक्त चर्चा इतिहास के पन्नों में सदा के लिये प्रवेश कर गई। ऐ. ज्ञानभूषण को संत-परिवार से परे अकेलेपन की अनुभूति हुई भीतर ही भीतर। मगर वे अपने लेखनकार्य के कारण दो वर्ष तक देशाटन करते हुए भी श्रीसंघों की धर्मपूर्ण स्मृतियों की धरोहरें अपने मन में सँजाये रहे। दिगम्बर साधुओं के इतिहास में खानियाँजी का महत्व सदा अक्षुण्ण रहेगा। जिस महान भूमि पर सन् १९५५ में पू. वीरसागरजी ने आचार्यपद स्वीकार किया था, उसी भूमि पर वर्ष १९५७, (कार्तिक शुक्ल एकादशी वि.सं. २०१४) में पूज्य मुनिवर श्री शिवसागरजी महाराज ने भी जनता-जनार्दन और श्री संघ के सदस्यों की प्रार्थना स्वीकृत करते हुए संघ को चलाते रहने के उद्देश्य से आचार्यपद धारण कर लिया। वे खानियाँजी की पवित्र भूमि पर आचार्य बने इस घटना से समस्त खानियाँ क्षेत्र मुग्ध था। वर्ष १९५९ (वि. सं. २०१६) चल रहा था कि ऐ. ज्ञानभूषणजी जयपुर में आचार्य शिवसागरजी के दर्शनार्थ पहुँचे। आचार्यश्री से पुरानी आत्मीयता थी। कुछ ही दिन हुए थे कि आचार्यश्री ने उनसे कहा पंडित, ऐलक तू मुनिदीक्षा ले ले। तुझे उपाध्याय पद पर संघ में रखूँगा तो सारे त्यागी लाभान्वित होंगे। सो मेरी बात मान जा। गुरुवर के तारक शब्द समूह विद्वान ऐलकजी को भीतर तक आन्दोलित कर गये, अत: उन्होंने अपना ज्ञान-पुष्प रूपी शीश उनके चरणों पर धरते हुए कहा- गुरुवर आत्मा तैयार है। शरीर की कृशता तो अब लगी ही रहेगी, पर आत्मा की बलवत्ता विश्वास दिला रही है, आप आशीष प्रदान करें। गुरुवर शिवसागर ने अपने से अधिक विद्वान शिष्य को आशीष प्रदान किया और समय तिथि निश्चित करने की सोचने लगे। दूसरे दिन आचार्य शिवसागरजी ने नगर के समाज-प्रमुखों को निर्देश दिये कि बिन्देरी निकाली जावे, वे अपनी बातें और आगे तक बतलाते कि बीच में ही यथार्थ ज्ञान के साक्षात् अवतार ऐलक ज्ञानभूषण जी (पं. भूरामलजी) ने तुरन्त गुरुवर के समक्ष हाथ जोड़कर इन्कार कर दिया, कहने लगे “अब तक शोभायात्रा ही तो निकलती रही है मेरी, मगर उससे धर्म की कोई शोभा न बढ़ा सका, अत: यह सब रहने दीजिए, आप जो स्वरूप प्रदान करनेवाले हैं, शोभायात्रा उससे ही बन सकेगी। उसी में धर्म और धर्मात्माओं की शोभा निहित है। सो ये धार्मिक औपचारिकतायें मेरे साथ न चलने दें, मुझे तो यथार्थ के पथ पर ले चलें।” ज्ञानभूषणजी के विनम्र निवेदन से आचार्य शिवसागरजी के हृदय में भारी प्रसन्नता हुई, शिष्य की निस्पृहता और उदासीनता की पराकाष्ठा देखकर उनके हृदय में वात्सल्य का वेग दूना हो गया। ज्ञानमूर्ति श्री ज्ञानभूषण के ज्ञान की उन्होंने सराहना की और अन्य शिष्यों तथा श्रावकों के लिए उनका कथन श्लाघनीय निरूपित किया। कि बिंदोरी, हाथी, बाजे, सजावट, राजकुमार आदि के रूप मूलरूप से मिथ्यात्व की झाँकी का ही प्रदर्शन करते हैं, अत: श्री ज्ञानभूषण के कथन के अनुसार उनसे बचा जावे तो उचित ही होगा। गुरुवर ने पुन: ऐलक ज्ञानभूषण के क्रांतिकारी और उदात्त विचारों की सराहना की। उन्हें आशीष दिया। धन्यवाद भी दिया। सभी ने आचार्यश्री के साथ-साथ वृद्ध ऐलक ज्ञानभूषण का भारी जयघोष किया। आचार्य शिवसागरजी ने पं. भूरामल शास्त्री जैसे निष्णात विद्वान, जो कि उस समय ऐलक ज्ञानभूषण के रूप में थे, को दीक्षा देने का मनोदय तो बना लिया, पर दीक्षा के पूर्व उनकी पात्रता की पड़ताल से नहीं चूके। यद्यपि ६८ वर्षीय ज्ञानभूषणजी ज्ञान की साक्षात् मूर्ति थे, फिर भी जैनागम, जैन सिद्धान्त और जैन विधियों की छाया में एक उपक्रम रचाया गया वहाँ। खुले मंच पर जब ऐ. ज्ञानभूषणजी प्रवचन कर रहे थे, तब वहीं उच्चासन पर विराजित आचार्य शिवसागरजी ने प्रश्न उठा दिया- ‘ऐलकजी मुनि दीक्षा के लिये क्या पात्रता होती है, इस पर प्रकाश डालिये। ज्ञानापन्न ऐ. ज्ञानभूषणजी गुरु आज्ञा पाकर प्रसन्न हुए, फिर उन्होंने अपने प्रवचन को तदनुसार मोड़ प्रदान करते हुए उत्तर दिया- हे गुरुवर ! “भावना भव नाशिनी के आधार पर पृथ्वी का कोई भी पुरुष दीक्षा लेने का भाव कर सकता है, पर हर किसी में भाव तो हो सकता है, पर पात्रता नहीं। पात्रता का परिचय इन पंक्तियों में है - विशुद्ध कुलगोत्रस्य, सद्वृत्तस्य वपुष्मत:। जैन आगम-प्रस्थानानुसार प्रस्तावनानुसार जिस व्यक्ति का कुल और गोत्र शुद्ध हो, जो सदाचारी हो, जिसका व्यक्तित्व सुदर्शन हो, वह दीक्षा के योग्य होता है। १. ‘प्रवचनसार’ के चारित्राधिकार में इस विषय को प्रकाश देते हुए कहा गया है। जो वैश्य, क्षत्रिय या ब्राह्मण वर्ण में से किसी एक की संतान हो २. जो तपस्या करने की शारीरिक-सामर्थ्य रखता हो ३. जो न तो अत्यधिक वृद्ध हो, न अति सुकुमार बालक हो। उक्त तीन बिन्दुओं में से तृतीय बिन्दु के समर्थन में मुझसे पूछा जा सकता है कि आप तो ६८ वर्षीय वृद्ध हैं, फिर दीक्षा क्यों? तब मेरा उत्तर उसी प्रवचनसार में वर्णित कथन से ही बनता है कि सल्लेखना पूर्वक शरीरान्त की अभिलाषा रखने वाला वृद्ध भी, जो बीमार या अस्वस्थ भी यदि जागृत-विवेक का है, तो आचार्यों के समक्ष वह दीक्षा का पात्र माना जाता है। उसके बाद बिन्दु क्रमांक - ४ में बतलाया गया है कि जिसका चेहरा और शरीर की बनावट सुंदर हो। तभी बीच में आचार्य शिवसागरजी बोल पड़े - आप वृद्ध हैं, पर सर्व रूप से सुन्दर आपकी छवि है, ज्ञान प्रकाश से प्रदीप्त हैं। शिवसागरजी का वाक्य सुनकर ज्ञानभूषणजी ने हाथ जोड़ कर उनका अभिवादन किया, जैसे साधुवाद दे रहे हों मन ही मन, फिर प्रवचन आगे किया - दीक्षा की अंतिम शर्त है कि दीक्षार्थी का चरित्र निष्कलंक रहा हो और आगे भी रहे। अयोग्य व्यक्ति को दीक्षा प्रदान करने के विरुद्ध रहा है आगम। प्रवचन चल ही रहा था ऐलकजी का, कि शिवसागरजी ने बीच में ही विनम्रता से आज्ञा दी- ऐलकजी, जैनेश्वरी दीक्षा के क्रम पर भी प्रकाश डालिये। आज्ञा सुनते ही ऐ. ज्ञानभूषणजी ने स्वीकृति में सिर हिलाया। और पुन: हाथ जोड़कर अभिवादन किया गुरु को, फिर आगे बोले दीक्षाओं का क्रम निरंतर वृद्धि पा रहा है, परन्तु घर से भागे हुए या समाज से भगाये गये व्यक्ति अन्य दूरस्थ नगर में जाकर दीक्षा लेने का प्रपंच रचें, यह उचित नहीं है। दीक्षा लेने का भाव आत्मजनित हो, स्वस्फुरित हो। इसी तरह संघों में संतों की संख्या वृद्धि का लक्ष्य न हो, संघस्थ साधुओं में गुणवृद्धि का लक्ष्य हो। संख्या तो भेड़ और बकरियों के झुण्डों तक में भी बढ़ जाती है, किन्तु गुण.........गुण तो सिर्फ गुणाध्यायी/गुणोपासक ही बढ़ा सकते हैं। दीक्षा चाहनेवाला दीक्षा लेने में और देनेवाला दीक्षा देने में उतावली न करें, क्योंकि उतावलेपन के कारण पात्र की परिपक्वता और चारित्रिक दृढ़ता की परख नहीं हो पाती। “भगवती-आराधना में स्पष्ट लिखा गया है- शील से सज्जित एक मुनि, एक लाख अपरिपक्व मुनियों से श्रेष्ठतर होता है। अत: पहले दीक्षार्थी को व्रतों के स्वरूप से अवगत कराना चाहिये। आज की तरह भविष्य में भी शीलवान मुनियों की उपस्थिति से पृथ्वी खिले और धर्म सधे, यह ध्यान रखना चाहिये। कठोर परीक्षायें लेना चाहिए तथा पात्र के स्वभाव के साथ-साथ कुल गोत्र और चरित्र परख लेना चाहिए। मुनि दीक्षा देने के पूर्व पात्र पाँच से सात वर्ष तक ब्रह्मचारी, क्षुल्लक, वर्णा और ऐलक अवस्था में रह कर गुरु आज्ञा के अनुसार अध्ययन करें और संघ चर्या का निर्वाह करें। दीक्षा के समय उसके माता-पिता या पालक या कुटुम्बीजन का सम्मत होना अनिवार्य है, बिना उनकी सम्मति के दीक्षा-टालना उचित है। इन सब विचारों के बाद, दीक्षा चाह रहे पात्र में तत्त्वज्ञान का होना आवश्यक है, उसके उदासीन परिणाम हों और उसमें परीषह सहने की शक्ति हो- यह भी देखना जरूरी है।
  20. निष्पृह पंडितजी चुपचाप मंच पर विराजे रहे। ब्यावर की वह यात्रा धर्म पथ पर बढ़ रहे पंडितजी को प्रेरक तो सिद्ध हुई थी, पंडितजी का आगमन दोनों आचार्यों को विश्वास करा गया कि देश में अभी महान पंडितों की परम्परा अक्षुण्ण है। वह दिल्ली का प्रसंग है जहाँ, ब्रह्मचारी पं. भूरामलजी आचार्य सूर्यसागरजी के पास थे। पहाड़ी वार्ड में स्थित जैन धर्मशाला में साक्षात् दो ज्ञान-दिवाकर उतर आये हों जैसे। पंडितजी वहाँ गये थे पढ़ने, किन्तु आचार्य सूर्यसागर के आदेश के कारण उनका अधिक समय मुनिसंघ को पढ़ाने में निकल जाता था। प्रज्ञा के धनी उस महान पंडित को यहीं पहली बार पं. हीरालाल शास्त्री ब्यावर ने देखा था और प्रभावित हुए थे। दोनों का आत्मीय परिचय हुआ। हीरालालजी को उनके प्रति प्रथम श्रद्धा यहीं उत्पन्न हो गई थी। दोनों विद्वान मिलते-जुलते रहे कुछ दिनों तक, फिर अपनेअपने गंतव्य को प्रस्थान कर गये। दिल्ली ही में प्रथम परिचय हुआ था डॉ. सौभाग्यमल दोशी अजमेर वालों का। वे एक खास कविता सुनाने में, उस समय, साधु संघों में चर्चित थे। कविता थी “जीते लकड़ी, मरते लकड़ी, अजब तमाशा लकड़ी का।” जब दोशीजी पं. भूरामल से मिले तो उन्होंने उन्हें भी एक दिन वह गीत गा कर सुनाया। उसमें एक पंक्ति आती थी- “परम दिगम्बर संतों के भी हाथ कमंडलु लकड़ी का।” सरल स्वभावी पंडितजी दोशीजी की उस कविता से बहुत प्रभावित हुए और उनकी प्रशंसा कई बार प्रवचनों तक में की। पं. भूरामलजी की उम्र के अधिकांश वर्ष साहित्य लेखन में समा चुके थे। इस बीच वे मुनिसंघों को भी पढ़ाने का शुभ कार्य कर चुके थे। खासतौर से मुनि वीरसागरजी और बाद में शिवसागरजी के संघ में वे कठिन भूमिका का निर्वाह कर चुके थे। पू. वीरसागरजी का वात्सल्यामृत मिला जब उन्हें, तो उन्हीं के संकेत को शिरोधार्य करते हुए, वे श्रमण पथ पर चलने को तैयार हो गये। यद्यपि वे बालब्रह्मचारी थे, किन्तु उन्होंने आचार्यश्री से सविधि ब्रह्मचर्य प्रतिमा के व्रत एवं दीक्षा प्रदान करने की प्रार्थना की। पू. वीरसागरजी को ऐसा ज्ञानी शिष्य कहाँ से मिलता, अत: वे तुरन्त तैयार हो गये और उसी वर्ष सन् १९४९ में अजमेर नगर में ब्रह्मचर्य दीक्षा प्रदान कर दी। दीक्षा के उपरान्त आचार्य वीरसागरजी ने अपने प्रवचन में कहा सभी संतों को कच्ची माटी के घड़े की तरह शिष्य मिलते हैं, जिन्हें भारी श्रम से पढ़ाना पड़ता है, साधु चर्या सिखलानी पड़ती है, किन्तु हमारे संघ को यह सन्त स्वभावी पंडितजी ऐसी अवस्था में प्राप्त हुए हैं। कि वे अपने मन और तन से स्वयमेव ही एक ज्ञानी सन्त के रूप में पहिचान लिये गये थे, वे कल भी ब्रह्मचारी थे, आज भी हैं, फर्क इतना है कि वे अब हमारे संघ के हो गये हैं। उनके आगमन से उन्हें धर्मलाभ होगा ही, ऐसा मेरा प्रयास रहेगा, किन्तु इस संघ के सदस्यों को भी उनसे ज्ञानलाभ होता रहेगा। वे आगम के गम्भीर अध्येता तो हैं ही, बहुत बड़े रचनाकार हैं। उनकी संस्कृति की रचनाओं से सजे हुए विशाल ग्रन्थों की अनेक पांडुलिपियाँ मैंने देखी हैं, जिसके आधार पर मैं कह सकता हूँ कि वे वर्तमान में संस्कृत के सबसे बड़े' विद्वान एवं रचनाधर्मी हैं। उनके उज्ज्वल भविष्य की कामना करता हूँ। ज्ञान का सागर गुरुवर के प्रवचन सुनकर ब्र. भूरामलजी के रोम-रोम संकोच में पड़ गये, उन्होंने तुरन्त णमोकारमंत्र की जाप दी और मन में संकल्प धारण किया कि गुरुवर के वचनों के अनुरूप अपना कार्यक्षेत्र एवं जीवन बनाऊँगा। दूसरे दिन गुरु आज्ञा हुई कि पं. भूरामल प्रवचन देंगे। नियत समय पर उन्होंने धीमी आवाज में संक्षिप्त प्रवचन प्रदान किये, कहा – मैं कुछ नहीं जानता, अल्पज्ञ हूँ, काशी में पढ़ कर साधारण आदमी ही बना रहा, सच्चा पथ तो अब मिला है जिस पर चलकर आदमी पहले साधु बनता है और बाद में उससे भी बड़ा व्यक्तित्व, किन्तु इस कलयुग में वह सम्भव नहीं है; अत: मैं एक सच्चा, निस्पृह साधु ही बन जाऊँ तो पू. आचार्यश्री का जीवन भर ऋणी रहूंगा। सभा समाप्ति पर श्रावकों में उनके प्रवचन की भारी प्रशंसा हुई। लोगों को पहली बार ज्ञात हो सका कि साधु यदि विद्वान भी हो तो ‘प्रवचन शैली' की ऊँचाई इस तरह प्रेरक, नवीन और बोधगम्य हो जाती है। ब्र. पं. भूरामल सन् १९५२ की सीमा में पहुँचते-पहुँचते श्रावकों और मुनियों के मध्य एक प्रमाणित विद्वान की सात्त्विक ख्याति प्राप्त कर चुके थे, तभी तो पहले कुछ वर्षों तक पू. आचार्य वीरसागरजी अपने संघस्थ साधुओं को पढ़ाने के लिये उन्हें बुलवा लिया करते थे, बाद में जब पू. शिवसागरजी आचार्य बने थे तब वे भी पंडितजी के ज्ञान का लाभ उठा लेते और संध्यस्थ सदस्यों को भी दिलाते थे। सन् १९५२ से वे संतों के पंडित मान लिये गये थे। आर्यिका ज्ञानमति एवं सुपार्श्वमत्तिजी ने पंडित भूरामल से काफी समय तक विद्याध्ययन लाभ प्राप्त किया था। उन्हें शिक्षा गुरु मानती थीं। आचार्य ज्ञानसागरजी दाँता नगर से जितना पंडित अवस्था में जुड़े रहे, उतना ही ध्यान उन्होंने मुनि हो जाने के बाद भी दिया था। सन् १९६२ में जब वे मुनि थे, दाँता के समाज के निवेदन पर वहाँ उनके सान्निध्य में एक विशाल पंच-कल्याणक महोत्सव सम्पन्न कराया गया था। प्रतिष्ठाचार्य थे उसी क्षेत्र के विद्वान पं. श्री पन्नालाल जी। महावीर स्वामी की प्रतिष्ठापन्न प्रतिभा में सूरि-मंत्र पू. मुनि ज्ञानसागरजी ने ही प्रदान कर समारोह पूर्ण किया था। यह उस समय की बात है जब मुनिवर वीरसागरजी ससंघ मनसुरपुर (मन्सूरपुर) में थे। यह उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जनपद में है। वैशाख माह चल रहा था। मुनिवर ने ब्र. पं. भूरामलजी को आज्ञा दी- आपको अक्षय तृतीया के पावन दिवस पर क्षुल्लक दीक्षा दूंगा। तैयार करिये अपने आपको। पंडितजी ने गुरुवर के पैर पकड़ लिये, आभार ज्ञापित करते हुए उत्तर दिया - जैसी आपकी आज्ञा महाराजजी। एक सादे समारोह में वैशाख शुक्ल तृतीया संवत् २०१२ (२५ अप्रैल १९५५) को मुनिवर वीरसागरजी ने पं. भूरामल शास्त्री को विधिविधानपूर्वक क्षुल्लक दीक्षा प्रदान की। नामकरण किया- १०५ क्षुल्लक श्री ज्ञानभूषणजी महाराज। मनसुरपुर की धरती पर वह सादा समारोह एक नूतन इतिहास लिखने में सफल हुआ। श्रावकगण धन्य-धन्य थे। परमपूज्य मुनिवर वीरसागरजी का खानियाँजी (जयपुर) में चातुर्मास चल रहा था। वे ससंघ वहाँ विराजमान थे। तभी गुरु के आदेश तथा समाज और संघ के अनुरोध पर उन्होंने विधि-विधान पूर्वक, भाद्रपद कृष्ण सप्तमी, वि. सं. २०१२ (सन् १९२५) को आचार्य पद ग्रहण कर लिया। समाज ने जयघोष किया। बोलिये परमपूज्य आचार्य वीरसागरजी मुनि महाराज की......जय। नगर उत्साह से भर उठा था। अन्यान्य शहरों, मंदिरों, तीर्थक्षेत्रों, गुरुजनों तक आदरपूर्वक समाचार भेजे गये समाज के द्वारा। वह भादों का माह, पूरा-पूरा बीत ही न पाया था कि संघ को समाचार मिला कि परमपूज्य आचार्य शांतिसागरजी महाराज का कुन्थलगिरि में समाधिमरण हो गया है। सारा देश शोकमग्न है। संघस्थ सदस्य तड़प उठे। मनों ने क्रंदन किया- कहाँ है वह कुन्थलगिरि ? हम अभी वहाँ जाना चाहते हैं। विवेक ने समझाया सैकड़ों मील दूर महाराष्ट्र के उस्मानाबाद जनपद में, मगर अभी तो वर्षायोग चल रहा है- तुम्हारा। मनों की चंचलता समाप्त हो गई; पर क्रंदन चलता रहा। सभी सन्त सामायिक हेतु बैठ गये। (समाधिमरण का दिवस- भाद्रपद शुक्ल द्वितीया, रविवार, वि.सं. २०१२ (१८ दिसम्बर १९५५) क्षुल्लक अवस्था में रह कर क्षु. ज्ञानभूषणजी अनेक तीर्थों और नगरों में गये । इसी काल में उनका एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ “सम्यक्त्व सार शतक प्रकाशित होकरम जैन समाज के समक्ष आया था पहली बार। वर्ष १९५७ में उन्होंने पू. आचार्य देशभूषण महाराज से ऐलक दीक्षा प्राप्त की और आज्ञप्ता लेकर देशाटन पर पुन: निकल गये। अब नाम था - ऐ. ज्ञानभूषणजी महाराज (ऐसा उल्लेख भी मिलता है, देखें भूमिका)
  21. एक दिन साहस कर सोनाबाई अपने पति के साथ पुन: संघ के दर्शनार्थ गई, वहाँ श्री भूरामलजी के समक्ष अपने भय का वर्णन किया। सोनाबाई की आँखें भर आई। उसकी वेदना पं. भूरामलजी समझ रहे थे, अत: कुछ मार्गदर्शन देने का मन बनाया। विचार करते रहे काफी देर तक, फिर बोले- प्रसव के समय कार्य करनेवाली दाई के विषय में कुछ बतला। - क्या ? - यही कि वह शाकाहारी है या.....? - जी वह तो मांसाहारी है। - तो उसे जीव-दया की दिशा में प्रेरित कर, उससे अहिंसा धर्म पालन करने को कह। उसके द्वारा मांसाहार का त्याग कर देने से, उसके हाथ की कला गरिमामयी हो उठेगी, उसकी भावनायें सकल जीव जन्तु और मानवता के प्रति कुछ अधिक मैत्रीपूर्ण और अहिंसक हो जायेंगी। फिर शायद उसके हाथ से किये जानेवाले प्रसव-कार्य सफल होने लगेंगे। उसके आशीष फलदायी होने लगेंगे। - जी पंडितजी, घर जाकर प्रयास करूंगी। - बहिन एक बात और बतला, तेरा पति नित्य देवदर्शन करने मंदिर जाता है ? - जी, जाता ही रहता है। - मतलब कभी जाता है, कभी नहीं। - जी। - तो उसे बोल वह नित्य दर्शन का नियम ले और प्रतिदिन पूजन अभिषेक करे। न कर पाये तो भक्ति भाव से देखे। - जी पण्डितजी ! कह दूँगी। पर क्या इसे धर्म का भय नहीं माना जायेगा ? - भय नहीं बहिन ! आत्मशुद्धि और विचार शुद्धि की दिशा में धर्मपूर्ण अभ्यास माना जावेगा। जब आदमी निर्मल-भाव से जीवन जीता है तो उसके अनेक अटके हुए कार्य प्राकृतिक रूप से सुलटने लग जाते हैं। मंदिर, भगवान, पूजा, प्रक्षाल मन को केन्द्रित बनाने और विकारों को वर्जित करने के हेतु हैं। मेरे कथन में धार्मिक-पाखण्ड या धर्मभय को स्थान नहीं है। सात्त्विक दिनचर्या के लिये प्रेरणा है। सोनाबाई पंडितजी की ज्ञानपूर्ण बातों से हृदय की गहराई तक प्रभावित हुई। स्व-निवास को लौट कर अपने जीवन में रम गई। प्रसव का क्षण आया। सोनाबाई की सहायता के लिये दाई को बुलाने का अवसर ही न आ पाया। पारिवारिक जनों के सहयोग से ही वह निर्विघ्न सम्पन्न हो गया। शिशु स्वस्थ और सुंदर था। सोर / सूतक आदि का समय निकल जाने के बाद, शिशु के पिता ने एक शुभ कार्य स्व-प्रेरणा से प्रारंभ कर दिया, वे प्रतिदिन मंदिर से गंधोदक अवश्य लाते और शिशु के माथे पर लगाते। जब वह डेढ़ माह का ही था, तब उसकी दीर्घ वय की कामना के साथ सोनाबाई उसे एवं पति को लेकर पंडितजी से मिली थी। पंडित जी ने एक नजर उस शिशु को देखा भी था। सोनाबाई के अनुरोध पर पंडित जी ने शिशु का नाम परमानन्द रख दिया था। सन् १९३३ में जन्मा वह बच्चा निरोग रहा, लम्बी उम्र पा सका और दैनिक जीवन में भारी विकास कर योग्य श्रावक बना। परमानन्द छाबड़ा। यों परमानन्द को पितृवियोग आठ वर्ष की उम्र में ही सहना पड़ा, किन्तु प्राप्त संस्कारों के आधार पर उनका आत्मविकास नहीं रुका, वे आज भी पूजा-पाठ के नियम में अग्रणी हैं, समाज में प्रतिष्ठित हैं। सोनाजी वृद्धा हो गई हैं, बेटे के साथ संतुष्ट हैं। नियम का पालन सुख से हो रहा है। पंडित भूरामल के अनेक संस्मरण दाँता, राणोली और सीकर की धरती पर लोगों के अधारों पर खेलते रहते हैं। सन् १९३७ के आस-पास पंडितजी ने मुनि संघ के कारण एक चातुर्मास दाँता में पूरा किया था। दयोदय-चम्पू लेखन का कार्य वहीं प्रारम्भ किया गया था। २५ वर्ष का शास्त्री-युवक लेखनी चलाते-चलाते एक प्रज्ञावानप्रौढ़ हो गया। इस बीच उन्होंने अनेक महान ग्रन्थों की सर्जना कर डाली। परम पूज्य मुनि श्रेष्ठ सुधासागरजी ने अपने लेखों में स्पष्ट किया है -“ब्रह्मचारी अवस्था में पं. भूरामलजी' ने जयोदय महाकाव्य, वीरोदय महाकाव्य, सुदर्शनोदय-महाकाव्य, भद्रोदय महाकाव्य, दयोदय चम्पू, सम्यक्त्वसार शतकम्, मुनि मनोरंजनाशीति, हित सम्पादकम् आदि ग्रन्थ संस्कृत में लिख डाले थे, तो भाग्य परीक्षा, ऋषभ-चरित, गुण-सुन्दर-वृत्तान्त, सचित्त-विचार, स्वामी-कुन्दकुन्द और सनातन जैन धर्म, सरल जैन-विवाह-विधि, इतिहास के पन्ने, ऋषि कैसा होता है, नियम-सार-अनुवाद, अष्टपाहुड़ अनुवाद, शांतिनाथ पूजन विधान (सम्पादन) आदि का लेखन कार्य राष्ट्रभाषा हिन्दी में सम्पन्न किया था। वे क्षुल्लक अवस्था में भी लेखानी की सेवायें लेते रहे, फलतः क्षुल्लक श्री ज्ञानभूषणजी के रूप में उन्होंने हिन्दी में “पवित्र मानव जीवन' नामक काव्य ग्रन्थ एवं “सचिल्त विवेचन' नामक (गद्य) ग्रन्थ लिखे थे। इसी अवस्था में उन्होंने तत्त्वार्थ-सूत्र की टीका और समयसार की गाथाओं पर पद्यात्मक व्याख्या ‘‘‘विवेकोदय' लिख कर अपने श्रेष्ठ एवं प्रमाणित ज्ञान की छाप समाज पर छोड़ी। क्षुल्लक अवस्था के बाद ऐलक अवस्था में उन्होंने विभिन्न मुनि संघों के तत्कालीन मुनियों को पढ़ा कर उपाध्याय पद की महानताओं को आपोआप स्पर्श कर लिया था। उनके द्वारा पढ़ाये गये मुनिगण कुछ ही समय में महान ग्रन्थों का अवगाहन करने की पात्रता और क्षमता प्राप्त कर सके थे। चूंकि उनके लेखन और पठन-पाठन की चर्चा है यह, अत: यहाँ यह बतलाते हुए प्रसन्नता होती है कि मुनि अवस्था में भी उनकी लेखनी ने विराम नहीं लिया, बल्कि वह अनेक गरिमाओं से मंडित होकर चलती रही, सो समाज को महान ग्रन्थ भक्ति संग्रह, कर्तव्य पथ-प्रदर्शन, समयसार-टीका आदि की पावन भेट प्राप्त हो सकी। उनके २४ ग्रन्थों के विषय में एक सम्यक् जानकारी लिख देने का पावन कार्य मुनिवर सुधासागरजी ने किया है, जो इसी ग्रन्थ में संगृहीत है। (हम पुन: कथा की मूल धारा में चलें) उधर दक्षिण में राणोली से करीब १६०० कि.मी. दूर सदलगा नगर में पूज्य माता श्रीमती श्रीमंतीजी के पावन गर्भ में शिशु विद्याधर स्थान पा चुके थे। १० अक्टूबर १९४६ को विद्याधर का जन्म हुआ दक्षिण भारत में, इधर उत्तर भारत में एक साल के भीतर पं. भूरामलजी को नया जन्म मिला, वे श्रावक-पथ से साधु-पथ के ‘शिशु’ बने। स्वेच्छा से ब्रह्मचर्य व्रत की प्रतिमा धारण की थी। क्या सम्बन्ध था विद्याधर के जन्म और पं. भूरामल के साधु पथ धारण के मध्य, कोई ज्योतिर्विद ही बतला सकता है। धर्म की निष्कम्प ज्योति जलाये रखने में राजस्थान के धर्मनगर ‘ब्यावर’ का योगदान अत्यन्त श्रेष्ठ है। यही वह नगर है जहाँ सन् १९४७ के आस-पास देश के प्रथम आचार्य, परमपूज्य शांतिसागरजी मुनि महाराज और द्वितीय आचार्य, परम पूज्य शांतिसागरजी महाराज (छाणी) एक समय में, एक नसिया में, पधार चुके हैं। सेठजी की नसिया में दोनों सन्त ससंघ ठहर कर चारित्र की नव धारायें श्रावकों के समक्ष उपस्थित कर रहे थे, तभी उनके दर्शनार्थ पं. भूरामलजी शास्त्री पहुँचे। चारित्र के दरबार में ज्ञान ने नमोऽस्तु किया। आचार्यगण पंडितजी की प्रतिभा के विषय में पूर्व से ही जानते थे। काशी के पंडित और बाद में दाँता के पंडित के रूप में उनका परिचय, उनसे पूर्व ही, आचार्यों के समक्ष आ चुका था। आचार्यों के दर्शन और सान्निध्य से पंडितजी जितने अधिक प्रसन्न थे, पंडितजी के आगमन से आचार्यगण भी हर्षित थे। था सब कुछ मनोगत। पंडितजी शांतिसागरों के सान्निध्य में आठ दिन रहे। उनके आदेश से पंडितजी ने समाज को अपने प्रवचनों का लाभ भी दिया। आचार्यगण दिन में तीन बार पंडितजी से आगमों पर वार्ता करते थे, हर बार उन्हें लगता था कि आगम की कुञ्जी ही उन्हें मिल गई है। दोनों आचार्य पंडितजी के गम्भीर ज्ञान से मारी प्रभावित हुए। एक दिन आचार्यों के सान्निध्य में वहाँ के धर्म और ज्ञान प्रेमी समाज ने, विशाल मंच पर पंडितजी का सत्कार किया। विद्वज्जनों ने बहुमान दिया। आचार्यों ने पंडितजी वेफ पांडित्य और काव्यकला की भर-भर मुँह प्रशंसा की और आशीर्वाद दिया।
  22. पंडितजी ने दाँता और राणोली के मध्य रहते हुए साहित्य लेखन में समर्पित कर दिया अपने ‘स्व' को। एक दिन किसी कार्य से सीकर गये तो वहाँ एक व्यापारी बंधु से ज्ञात हुआ कि दक्षिण में मुनि शांतिसागरजी को आचार्य पद दिया गया है। समाचार से पंडितजी को भारी हर्ष हुआ। बात की तह तक जाने के लिये वे अन्यान्य व्यापारियों और बुद्धिजीवियों से मिले। सबने जितना सुना था, उतना बतला दिया। उनकी वार्ता से पंडितजी को, जो विवरण उपलब्ध हुआ, वह यह था - परमपूज्य मुनि शांतिसागरजी ने आश्विन शुक्ल एकादशी, वि.सं.१९८१ (सन् १९२४) को महाराष्ट्र प्रान्त के सांगली जिले में अवस्थित, नगर समडोली के समाज के अनुरोध पर विधि विधान पूर्वक आचार्य पद स्वीकार कर लिया है। आचार्य बनते ही उन्होंने संघस्थ क्षुल्लक श्री वीरसागरजी को सविधि मुनि दीक्षा प्रदान की है और उनका नाम “१०८ श्री वीरसागर मुनि महाराज” रखा है। वीरसागरजी इरगाँव (औरंगाबाद) महाराष्ट्र निवासी श्रावक श्री रामसुखजी जैन गंगवाल के सुपुत्र हैं, उनका पूर्व नाम श्री हीरालाल जैन गंगवाल है। सौभाग्यवती माता का नाम श्रीमति भाग्यवती बाई (भागू बाई) है। पंडितजी, जिन्हें श्रावकगण आदर से शास्त्रीजी कहते थे, समाचार की पूर्णता से प्रसन्न हो गये। इस बार उन्होंने दो सन्तों को मौन नमन निवेदित किया- आचार्य शांतिसागरजी को और मुनिवर वीरसागरजी को। और अधरों में बुदबुदाये - हे सन्त द्वय ! नमोऽस्तु। मुझे आपका पथ मिले, मुझे आपके दर्शन मिलें, यही होगा मेरा सौभाग्य। पं. भूरामल के द्वारा की जानेवाली पढ़ाई की चर्चा और विद्यालय की ख्याति अनेक नगरों तक पहुँची थी -कि सन् १९३४ में मुनिदीक्षा लेने के कुछ वर्ष बाद एक बार पू. मुनि (तब वे आचार्य नहीं थे) वीर सागर भी ससंघ दाँता पधारे थे और वहाँ रुककर संघस्थ साधुओं को पं. भूरामलजी से संस्कृत एवं न्याय का अध्ययन कराया था। पं. भूरामल के पाण्डित्य को देखकर संघ के साधु आचार्यश्री से बोले- आप पं. भूरामल को साथ में रख लीजिये, जिससे हम लोगों का अच्छा अध्ययन हो जायेगा। आचार्यश्री की आज्ञा से पं. भूरामलजी संघ को पढ़ाने लगे, आ. वीरसागरजी भी उपस्थित रहते थे। पं. भूरामल शास्त्री से न्याय, संस्कृत एवं सिद्धान्त पढ़ने वाले आ. सुपार्श्वमति, आ. ज्ञानमति, आ. वीरमति, आ. अभयमति, मुनि शिवसागर जो बाद में पण्डितजी के गुरु बने; मुनि धर्म सागर, ब्र. राजमल, आ. अजित सागर आदि साधु इस ज्ञान के सागर से ज्ञानामृत पान करें पाण्डित्य को प्राप्त हुए हैं। कहते हैं उक्त भाग्यशाली भवन में अनेक त्यागी, व्रती, ब्रह्मचारी गण समय-समय पर संस्कृत अध्ययन हेतु आते रहते थे। पू. मुनिवर सन्मतिसागरजी एवं क्षुल्लक विवेकसागरजी ने सालाधिक दाँता में रुककर अध्ययन किया था। अभी तक व्यापारी बनकर जीवन का साफल्य स्थापित करने वाले व्यक्तियों में से वे (श्री भूरामल) एक प्रतियोगी मात्र दिख रहे थे, मगर फिर उन्हें आभास हुआ कि सम्पूर्ण सफलता वनिज-व्यापार में नहीं है, आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाने में नहीं है, भौतिक-सम्बन्धों के निर्वाह में नहीं है, विद्यालयीन-परीक्षाओं में भी नहीं है, वह कहीं और है, उनका प्रशस्त पथ किसी अन्य धरा से होकर जाता है। फलत: धीरे-धीरे उनका वह मन, जो धन-धान्य एवं मान के अर्जन में व्यस्त था, शाश्वत स्वभाव के कार्यों की ओर मुड़ पड़ा और धन-अर्जन में स्व का उपयोग करनेवाला वह महान व्यक्तित्व ध्यान- अर्जन में लग गया। चिन्तन-मनन और लेखन हो गया उन्नका नित्य-कर्म, फलत: वे कभी घर में रहते, कभी मुनिसंघों के साथ चलते रहते और अपने लेखन कार्य में निरन्तरता बनाये रहते। कुछ वर्ष बीत गये, कई ग्रन्थ उनकी लेखनी का पावन स्पर्श पाकर कलेवर धारण कर चुके थे। तैयार पांडुलिपियों को वे साफ, किन्तु मोटे वस्त्र से आवेष्टित कर सम्भाल कर घर में धर लेते थे। वह वर्ष १९३६ का समय था, अब तक वे ४५ बसंतों को सन्त होते सुन चुके थे कि उन्हें फिर एक नूतन समाचार सुनने में आया। “उन्हीं शास्त्रीजी (पं. भूरामल) के प्रान्त राजस्थान में स्थित नगर नागौर में मुनिसंघ पधारा है। मुनि भी कौन? बीसवीं सदी के प्रथम आचार्य पू. शांतिसागरजी मुनि महाराज। उन्होंने अडगाँव (औरंगाबाद) महाराष्ट्र निवासी उत्तम श्रावक दम्पत्ति श्रीमती दगड़ाबाई जैन एवं श्रीमान नेमीचंद रावंका के सुपुत्र श्री हीरालाल जैन जो उस समय तक क्षुल्लक शिवसागर के नाम से जाने जाते थे, को एक विशाल समारोह में मुनि दीक्षा प्रदान की है और उनका नाम १०८ श्री शिवसागरजी मुनि महाराज रखा है।'' शास्त्रीजी को उस रोज फिर लगा कि वे, हाँ उनका आत्मा धीरे-धीरे मुनियों के प्रशस्त-पथ की ओर हो रहा है या मुनित्व ही रास्ता बनाता हुआ उनके देहतत्त्व की ओर क्रमश: बढ़ रहा है। वे जहाँ खड़े थे, वहीं से उन्होंने नागौर की ओर मुख किया और मुनियों का स्मरण करते हुए, उन्हें नमोऽस्तु किया। हृदय से नि:सृत नमन के मद्धिम स्वर वायुमंडल में घुल मिल कर उड़ कर चले गये साधुओं के समीप। पं. भूरामल शास्त्री का समय तीन नगरों को कुछ अधिक ही प्राप्त हो जाता था- राणोली, दाँता और सीकर। तीनों स्थानों पर पढ़ने पढ़ाने का स्थान तो था ही, मन भी बन जाता था। सन् १९३६ का ही एक संस्मरण याद आता है। तत्कालीन दिगम्बर मुनि पूज्य चंद्रसागरजी सीकर में ससंघ विराजे हुए थे। उनकी प्रेरणा से पं. भूरामलजी भी वहाँ पहुँच गये। रात्रि में जन-सामान्य के लिये (मुनि-आज्ञा से) प्रवचन करते और दिन में मुनि संघ के सदस्यों को पढ़ाते। मुनिवर चंद्रसागरजी आहार चर्या के समय चौका में उपस्थित रहनेवाले श्रावक-श्राविकाओं से शूद्रजल का त्याग करने की प्रेरणा देते थे, जिसे लोग उस क्षण तो स्वीकार कर लेते पर बाद में विभिन्न प्रकार की बातें करते रहते। एक दिन वहाँ की मुनि भक्त महिला श्रीमती सोनाबाई छाबड़ा के भाग्य खुले, उनके दरवाजे मुनिवर रुक गये आहारार्थ। सोनाबाई ने सपरिवार मुनि चंद्रसागर को आहार दिये, परन्तु उनकी आज्ञा से उन्हें भी शूद्रजल का त्याग करना पड़ गया। कुछ दिनों बाद मुनिवर सीकर से फतेहपुर प्रस्थान कर गये, साथ में पं. भूरामलजी को भी ले गये। महाराज के चले जाने के बाद सोनाबाई के घर में विवाद हो गया, पारिवारिक जन कह रहे थे तूने शूद्रजल जीवन भर के लिये त्याग दिया, बुढ़ापे में कभी कोई साथ न हुआ तो व्रत कैसे निभेगा ? सोनाबाई परेशान हो गई, उसकी गोद में सन्तान भी नहीं थी। पूर्व में दस सन्तान हुई थीं, पर जीवित एक भी न रह पाई थी। कहें-वह पहले से ही दुखी थी, ऊपर से घरवालों के विवाद ने उसे सीमाधिक तिरोहित कर दिया। पति के आक्रोश को वह सह न सकी, अत : समय पाकर पू. चंद्रसागर के समीप फतेहपुर-शेखावटी जा पहुँची और अपने मन का कष्ट उन्हें कह सुनाया। उसकी बातें सुनकर मुनिवर चुप रह गये, व्रत तोड़ने की आज्ञा नहीं दे सके। वे पं. भूरामल की ओर देखने लगे कि वे विद्वान हैं, कोई रास्ता निकालेंगे। पंडितजी ने तब उस भद्र महिला को समझाया- अयि बहिन ! तू व्रत से क्यों डरती है। वृद्धावस्था कब आयेगी, कब तू पराधीन होगी, कब तेरा व्रत टूटने का भय उपजेगा- इतने विकल्प क्यों करती है? हो सकता है कि तेरा जीवन वृद्धावस्था के पूर्व ही पूरा हो जावे और तुझे चलते-फिरते ही संसार त्यागने का सौभाग्य प्राप्त हो जावे, अत: सन्तान के अभाव और वृद्धावस्था के भय से अभी से व्रत न तोड़,कहीं वृद्धावस्था से पूर्व मरण हुआ तो एक नियम तो तेरे साथ जावेगा। बहिन तू अभी वृद्ध नहीं हुई, पति के साथ धर्म साधना से जीवन चला रही है। हो सकता है कि भविष्य में तेरे घर ऐसी संतान का जन्म' हो जो वृद्धावस्था में तेरे नियम की रक्षा कर सके। भूरामलजी के उद्बोधन से सोनाबाई का हृदय शांत हो गया। फिर दुखी होकर बोली- पंडितजी, संतान तो जीवित ही नहीं रह पाती। धर्म सिंचित भावों में बल होता है, तूने नियम ले लिया है, अतः हो सकता है कि तेरी आगामी संतान जीवित रहे और धर्मवान भी हो। ठीक है पंडितजी। मैं नियम पर दृढ़ रहूँगी। कहते हैं कि कालान्तर में सोनाबाई की कोख में नव-प्राण का आगमन हो गया। सोनाबाई भारी प्रसन्न, परन्तु भय यह कि कहीं यह सन्तान भी जीवित न रही तो ?
  23. पढ़ाई का समय और लेखन का समय मिला कर इतना अधिक समय हो जाया करता था कि भोजन बनाने में कष्ट प्रतीत होने लगा, तब पं. भूरामलजी स्वार्जित राशि विद्यालय के भोजनालय में देकर, अन्य जैनछात्रों के साथ-साथ वहाँ का भोजन लेने लगे थे। लगभग दस वर्ष काशी में रहने के बाद नित नव साहित्य के प्रसून उनकी जीवनबेल में खिलने लगे। साहित्य-सर्जना में ऐसा मन लगा कि यौवन-काल की चरम अवधि उसी पर होमित करते रहे। घरपरिवार बनाने का भाव ही मन में न आ पाया। धर्म पर वे और साहित्य पर उनकी कलम अग्रसर रहे आये, फलतः उन्होंने बाल ब्रह्मचारी रहने का महान संकल्प धारण कर लिया - आत्मा के समक्ष, आत्मकक्ष में। लेखनकला प्राप्त कर लेने के बाद भी वे वहीं बनारस में बना रहना चाहते थे, परन्तु अग्रज और अनुजों के पत्र व्यवहार ने उनके कदम हिला दिये, ममता की पुकार ने उन्हें पुन: राणोली खींच लिया। राणोली में पैतृक मकान के अतिरिक्त कुछ न था जायदाद के नाम पर, किन्तु कुछ रिश्ते जायदाद से भी बड़े होते रहे हैं इस देश में खेत, मकान, ढोर-डाँगर में वह आकर्षण नहीं था कि वे कर्मयोगी बन गये श्री भूरामल को बुला सकते। यदि वहाँ, उस समयकाल में कुछ था तो एक विधवा माता की पुकार और भाइयों का वात्सल्य। शास्त्री श्री भूरामलजी राणोली पहुँच गये। माता वय प्रहार से, उस क्षण तक प्रौढ़ा (किंचित् वृद्धा) हो चुकी थीं, पर समय की मार और पति वियोग ने उन्हें पूर्ण वृद्धावस्था का रूप दे डाला था। छगनलाल जी उस समय तक सपरिवार बिहार प्रान्त में ही टिके थे। अत: माता जी के समीप श्री गंगाप्रसाद, श्री गौरीलाल और श्री देवीदत्त ही थे, जो उम्र और अनुभव में उस समय कम ही आँके जा रहे थे। कुछ ही माह बीते थे कि अग्रज श्री छगनजी राणोली लौट आये। स्वनिवास आकर वे वही पुरानी दुकान, जिसका कार्य कुछ दिनों से भूरामलजी ने सम्भाल लिया था, देखने लगे। एक से दो हो जाने से दोनों भाइयों को व्यापार और घर-परिवार के लिये वांछित समय मिलने लगा। शेष भाई कृषि कार्य देखते थे। भूरामल की यौवन सम्पन्न उम्र देखकर रिश्तेदार उनके विवाह सम्बन्ध की कानाफूसी उनकी माता से करते रहते। रोज-रोज की बातें माता की प्रेरणा में संचारशक्ति भरने में सफल हो गईं, अत: एक दिन उन्होंने पुत्र भूरामल से कह ही दिया -“बेटे, तेरी उमर अब विवाह की है, सभी रिश्तेदार मुझसे कहते रहते हैं, अतः आज मैं तुझसे कह रही हूँ कि तेरा विवाह कर डालूं।” माता की सहज वार्ता पर विद्वान पुत्र को हँसी आ गई। उनके मोतियों की तरह चमकदार दाँत ओठों से झाँक गये। फिर बोले - माँ ! मैंने तो काशी में ही जीवन पर्यन्त के लिये ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया था, अब भला तू ही बतला, कोई श्रावक व्रत धारण कर उसे कभी तोड़ता है ? बेटे के ज्ञानपूर्ण एक ही प्रश्न ने न केवल माता का, बल्कि सम्पूर्ण रिश्तेदारों का मुँह सिल दिया। सभी जन, मन की बात मन में ही रख चुप रह गये। उनके गृहस्थ जीवन का परिचय यदि उनके द्वारा लिखित श्लोक (जयोदय, दूसरे सर्ग का बारहवाँ श्लोक) से ही दिया जावे तो वह ऐसा माना जावेगा - सन्ति गेहुसि च सज्जनता अहा, भोगसंसृति शरीर नि:स्पृहाः। तत्त्व वतर्मनि रता यत: सुचित, प्रस्तरेष मणयो अपि हि क्वचित्॥ गृहस्थों के मध्य भी कई सज्जन (श्रावक) हैं; जो संसार, शरीर और भोग से निस्पृहता रखते हैं। जिस तरह किसी-किसी पाषाण में मूल्यवान रत्न मिल जाया करते हैं। हम कह सकते हैं कि पं. भूरामलजी की, जीवन जीने की शैली, इन पंक्तियों से भिन्न नहीं थी, वे एक बड़े पाषाण (बड़े परिवार) में उस रत्न की तरह प्रदीप्त थे जिसमें दर्शन, ज्ञान, चारित्र की आभायें जगरमगर करती रहती थीं। जो शरीर, संसार और भोगों से उदासीन था। गाँव में जैन पाठशाला के बच्चों को जैनधर्म पढ़ाने का चाव पण्डित भूरामल के पैरों को रोक न सका, वे एक दिन पाठशाला जा पहुँचे। अब ग्राम में उनका समय तीन धाराओं में विभक्त हो गया। प्रथम धारा थी लेखन कार्य। द्वितीय धारा थी दुकान और तृतीय धारा थी धार्मिक ग्रन्थ पठन-पाठन और शिक्षण। क्या अमीर, क्या गरीब, गाँव के हर व्यक्ति के मुंह पर एक ही चर्चा थी- चतुर्भुज भैया के बेटा भूरामल बड़े ज्ञानवान हो गये हैं। हर घड़ी अपने आप को अच्छे कार्यों में व्यस्त रखते हैं। उनके आने से ग्राम के बालकों का भविष्य सम्भल रहा है। जागरुक कार्यकर्ताओं ने पं. भूरामलल शास्त्री की रुचि देखते हुए ग्राम में जैन पाठशालाओं की स्थापना की और पं. भूरामलजी से शिक्षक का पद सम्भालने का अनुरोध किया। ज्ञानरंजन पंडितजी ने स्वीकृति प्रदान कर दी, फलतः ज्ञान गंगा का प्रवाह बच्चों को स्पर्श करने लगा नित-नित। अब उनकी चर्या कुछ इस तरह हो गई - सुबह-सुबह देव दर्शन, प्रक्षाल और शास्त्र सभा। दिन में दुकान और लेखन। शाम को पाठशाला में छात्रों को शिक्षण। रात्रि में पुन: लेखन। कुछ ही वर्षों में शाला की उपयोगिता का उद्देश्य समाज के समक्ष आ गया, अत: राणोली की तरह ही ग्राम रहवासा (रैवासा) के जैनों के मन में प्रेरणा उठी कि उनके ग्राम में भी विद्यालय का स्वतंत्र भवन हो, भूरामलजी जैसे शिक्षक हों और उन्हीं की तरह आदर्श छात्र हों। वे पंडितजी से मिलने लगे। धीरे-धीरे पंडितजी की सत्प्रेरणा से उस ग्राम में दिगम्बर जैन छाबड़ा संस्कृत महाविद्यालय की कल्याणकारी स्थापना की गई। जिसके माध्यम से अनेक छात्र महान विद्वान बन सके। (सौभाग्य से सन् १९९७ में बिहार करते हुए मुनिरत्न श्री सुधासागर जी महाराज राणोली से रैवासा पहुँचे, तब उन्होंने उक्त महाविद्यालय एवं मंदिर का अवलोकन किया। चूंकि पू. सुधासागरजी को वास्तु शास्त्र का अच्छा अध्ययन है, अत: उन्होंने उसका लाभ मंदिर को दिया, फलतः उनके निर्देश से निर्माण की त्रुटियों व अन्य दोषों को हटाया गया एवं जीर्णोद्धार के माध्यम से परिवर्धित संरचना वास्तुशास्त्र के अनुकूल की गई। अब यह पहले से अधिक भव्य हो गया है। मुनिवर के आशीष से वहाँ के समाज ने मंदिरजी के आधार पर, उस क्षेत्र का नाम “श्री दिगम्बर जैन भव्योदय अतिशय क्षेत्र” रखा है।) वहाँ के लोगों ने बतलाया कि महाविद्यालय पं. भूरामल के मार्गदर्शन से कुछ वर्ष अच्छा चला था, बाद में संचालन समिति के सामने विभिन्न सामाजिक परिस्थितियाँ आ जाने से विद्यालय बन्द हो गया था। पं. भूरामल राणोल्ली में रह कर ही उसके संचालन सूत्र प्रदान करते थे, पर मुख्य कष्ट वित्तीय था, अतः भूरामलजी चुप रह गये। अचानक एक दिन ‘दाँता’ से एक श्रावकजी राणोली आये और पं. भूरामल से विनयपूर्वक मिले। बोले- मैं दाँता (रामगढ़) से आया हूँ, आपकी विद्वत्ता की महक हमारे नगर तक जा पहुँची है, मद्धाता ग्राम आपका ननिहाल भी है। अतः हमारे सकल दिगम्बर जैन-समाज ने एक मत होकर आपसे अनुरोध किया है कि आप दाँता आ जावें और वहाँ के संस्कृत विद्यालय को आशीष प्रदान करें। आपके उपकार से छात्रगण आगे पढ़ सकेंगे, आगे बढ़ सकेंगे; अत: यह प्रार्थना स्वीकार कीजिए। ज्ञान की ज्योति जलाने में पं. भूरामल कभी पीछे नहीं रहे, उन्होंने पूज्य मातेश्वरी घृतवरीजी से, फिर अग्रज छगनलालजी से और अनुजों से समुचित विचार विमर्श किया और आगन्तुक श्रावक को स्वीकृति प्रदान कर दी। पं. भूरामल के द्वारा समय प्रदान करने से दाँता के विद्यालय की पढ़ाई में चार चाँद लग गये। छात्रों को उनके द्वारा पढ़ाया जाना बहुत अच्छा लगता था। एक वर्ष से अधिक का समय भूरामलजी ने देकर विद्यालय को प्रकाश से भर दिया। पर वे और अधिक समय विद्यालय को न दे सके, क्योंकि ग्रन्थों का मौलिक-लेखन पहले से अधिक समय की माँग कर रहा था। फिर भी उन्होंने रहवासा के विद्यालय को दाँता रामगढ़ के विद्यालय में समाहित करा दिया और दाँता में एक विशाल भवन के निर्माण सूत्र प्रदान कर दिये। समय पर विद्यालय-भवन बन भी गया, जो आज भी पं. भूरामल के ज्ञान की कहानी सुना रहा है।
  24. श्री भूरामलजी इन वर्षों में संस्कृत साहित्य और जैन दर्शन की उच्चतम शिक्षा प्राप्त कर चुके थे, फलतः उन्हें “पंडित” भूरामल कहने का मन बन जाता था सहपाठियों को। उनके द्वारा जब स्याद्वाद महाविद्यालय की सीमा-रेखा पार कर दी गई, तब वे क्वीन्स कॉलेज-काशी के छात्र बने और वहाँ से शास्त्री परीक्षा उत्तीर्ण करने का गौरव अर्जित किया। यों लोग यह भी कहते हैं। कि परीक्षा उत्तीर्ण करने से अधिक महत्त्व उन्होंने विभिन्न ग्रन्थों के तलस्पर्शी अध्ययन को दिया था, जो बाद में उनके लिये ज्ञान का नव विहान प्रदान करने का कारण भी बने। अध्ययन के बाद पं. भूरामलजी ने सबसे प्रथम भेट अपने ही विद्यालय को प्रदान की थी जो ऐतिहासिक बन गई थी। उन्होंने पढ़ते समय जिस कमी को अनुभूत किया था, पठनोपरान्त उसे पूर्ण किया। जान गये थे कि जैन वाङ्गमय अपने आप में पूर्ण है, किन्तु उसमें पृथक् तौर पर संस्कृत, काव्यशास्त्र, जैन-व्याकरण, जैन-न्याय आदि के ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है, फलत: महाविद्यालय में जैन-ग्रन्थों से कुछ नहीं पढ़ाया जाता, न ही कोई जैन ग्रन्थ पाठ्यक्रम में शामिल हैं। तब तक कुछ जैन-ग्रन्थ कतिपय विद्वानों एवं संस्थाओं द्वारा प्रकाशित कराये गये, जिनमें जैन-न्याय और व्याकरण को समाहित किया गया था। पं. भूरामल ने अपने उद्देश्य को सफल बनाने के लिए तत्कालीन प्रभावशाली लोगों और विद्वानों से सम्पर्क किया तथा जैनग्रंथों को काशी विश्वविद्यालय के और कलकत्ता से सम्पन्न होनेवाली परीक्षाओं के पाठ्यक्रम में शामिल कराया। ग्रन्थों का अभाव समाप्त करने के लिये उन्होंने सरस्वती का आह्वान किया और अपनी लेखनी से महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ रच डालने का बीड़ा उठाया। उनकी लेखनी से बाद में अनेक ग्रन्थ सामने आये भी। यही है वह ऐतिहासिक भेट। पं. भूरामलजी जब तक क्षुल्लक नहीं हो गये, तब तक वे अपने ग्रन्थों में पं. उमरावसिंहजी, जो बाद में दीक्षा लेकर ब्र. ज्ञानानन्द कहलाने लगे थे, को ही अपना गुरु लिखते रहे और उनकी स्तुति में ही नमन निवेदित करते रहे। जयोदय महाकाव्य में उन्होंने अपने पू. गुरु ब्र. ज्ञानानन्द के लिये लिखा है- मिनमामि तु सन्मति कम कामं, छामित कैर्महितं जगति तमाम् ।। गुणिनं ज्ञानानन्दमुदासं, रूचां सुचारूं पूर्तिकरम कौ॥ (भावार्थ -- जो समीचीन मति - सम्मति सहित हैं, काम और अकाम से रहित हैं, देवों जैसे गुणीजनों से जगत में अत्यंत पूजित हैं, गुणवान हैं, उदास/संसार से विरक्त हैं, मनोहर हैं, पृथ्वी पर जिज्ञासुओं की इच्छाओं की पूर्ति करनेवाले हैं, उन ज्ञानानन्द नाम से सुशोभित विद्यागुरु को मैं नमस्कार करता हूँ।) बनारस के स्याद्वाद महाविद्यालय के मेधावी छात्र और होनहार महाकवि अभी काशी में थे, शायद वह वर्ष १९१९ का समय था कि उन्हें समाचार मिला कि बीसवीं सदी में प्रथम बार देश में दिगम्बरीमुनि-दीक्षा सम्पन्न हुई है। उन्हें जैन-व्यापारियों से ज्ञात हुआ कि भारत के दक्षिण भाग के कर्नाटक प्रान्त में, जिला बेलगाँव के अंतर्गत यरनाल उपनगर में श्री भीमगौड़ा पाटिल के सुपुत्र श्री सातगौड़ा पाटिल ने अंतः प्रेरणा से पंचकल्याणक के मध्य शक संवा १८४० फाल्गुन शुक्ला १३ को जिनप्रतिमा की साक्षीपूर्वक मुनिदीक्षा ले ली है। स्वेच्छया दिगम्बरत्व धारण करनेवाले उस सन्त का नामकरण “१०८ श्री शांतिसागर मुनि महाराज” किया है। पं. भूरामल इस समाचार से प्रसन्न तो हुए ही, उन्हें विश्वास हुआ पहली बार, कि जब जीवन में साधुत्व का आगमन होता है तो इस तरह भी हो सकता है। दीक्षा के लिये सर्वश्रेष्ठ गुरुवर तीर्थंकर भगवान की प्रतिमा के साम्मुख्य से बढ़ कर क्या कुछ और भी कहा जा सकता है। उन्होंने वहीं बनारस के एक मंदिर से यरनाल के मंदिर को और मंदिर में हुए मुनि को हाथ जोड़ कर नमन किया मन ही मन। महाराज नमोऽस्तु। हे प्रथम मुनि शांतिसागरजी महाराज ! नमोऽस्तु। पण्डितजी के भीतर वैराग्य का प्रकाश फैलने लगा उसी वर्ष से। उसी वर्ष उन्होंने जीवन की दिशा का सुनिर्धारण किया मनगत। तभी मन में भाव हो आया - काश ! वे दिगम्बर प्रभु शांतिसागरजी कहीं एक बार दिख जाते चर्म-चक्षुओं को। कुछ दिन बाद तत्कालीन मुनि पूज्य नेमीसागर महाराज का ससंघ आगमन हुआ, वे महाविद्यालय के समीप ही दिगम्बर जैन मंदिर में ठहरे। भूरामलजी को ज्ञात हुआ तो एक मित्र को साथ लेकर दर्शनार्थ गये। “नमोऽस्तु” की अमर रश्म के बाद भूरामल समीप ही बैठ गये। मुनिवर से वार्ता की। बातों-बातों में ही पूछ बैठे - छात्रगण मिल कर चौका लगायें तो क्या मुनिराज चौके को उपकृत करेंगे? उनके प्रश्न को सुनकर ज्ञानवान मुनिवर ने उन्हीं से एक प्रश्न पूछ लिया - क्या छात्र श्रावक नहीं होते? मुनिवर का प्रश्न भूरामल के लिये उत्तरं बन गया। वे मुस्करा पड़े। पुनः उनके श्रीचरणों में नमन किया और वापिस आ गये। रात में ही मित्रों के साथ बैठ कर चौका लगाने की योजना बनाई। दूसरे दिन वांछित सामग्री लाई गई और तीसरे दिन से चौका शुरू कर दिया गया। विधि पूर्वक शोध की रसोई और नवधा भक्ति के साथ आहारों का दिया जाना वे जानते थे, अत: उन्हें घबड़ाहट नहीं हुई। चार छात्रों ने मिल कर मुनिवर को पङ्गाहा, विधि मिल गई। मुनिवर ने चौका में पदार्पण किया। छात्रों ने भारी उत्साह और श्रद्धा से आहार दिये। नगर के सैकड़ों श्रावकों ने जब छात्रों की श्रद्धा और चर्या का अवलोकन किया तो वे धन्यवाद कहने से न चूके। श्रावकों को विश्वास हो गया कि महाविद्यालय के छात्रगण केवल ग्रन्थों तक सीमित नहीं हैं, वे चर्या-क्षेत्र में भी कुशल हैं। उसी दिन भूरामल ने निर्विघ्न-आहार-क्रिया सम्पन्न हो जाने के उपलक्ष्य में आजीवन ब्रह्मचर्य से रहने का मन बना लिया था मन ही मन। उन्होंने बाल्यकाल से ही कभी रात्रि भोजन नहीं किया था, अत: काशी में जब कभी कोई छात्र मजबूरी में रात्रि भोजन लेता था, तब भी भूरामल अपने संकल्प पर अडिग रहते थे, रात्रि भोजन नहीं ही लेते थे। सहपाठीगण उनके पीछे पड़ जाते - ले ले भाई, आज भर ले ले, नहीं तो भूखा रह जावेगा। लिखना-पढ़ना भी तो है, भूखा रहेगा तो ताकत कहाँ से पायेगा ? तब भूरामल उनका मन रखने के लिये मूंगफली खा कर, पानी पी लेते थे। आलू, प्याज, लहसुन (जमीकन्दादि) का सेवन उन्होंने कभी नहीं किया, न किसी को प्रेरणा दी। हाथों से भरा गया जल पहले कुएँ पर छानते, बिलछानी डालते, बाद में अपने कक्ष में लाकर पुन: छानते थे और पीते थे। प्रात: चार बजे उठकर पढ़ते थे, ७ बजे तक नहा-धोकर मंदिर जी चले जाते थे। दर्शन, पूजा, प्रक्षाल का क्रम नित्य रखते थे। रात्रि सोने से पूर्व जाप और सुबह जागते ही जाप का क्रम बनाये थे। स्वाध्याय तो अधिक से अधिक समय करते थे। युवावस्था जिसे कच्ची उम्र कहते हैं, में भी माता आदि से दूर रहते हुए भी कभी उन्होंने बीड़ी, सिगरेट, पान-तम्बाखू का उपयोग नहीं किया। जो छात्र कभी करते तो उन्हें छोड़ने की प्ररेणा देते थे। यदि छात्र नहीं छोड़ता था तो उस छात्र का साथ छोड़ देने की धमकी दे डालते थे, मगर सहपाठी को व्यसनमुक्त करके ही चैन लेते थे। अन्य छ: व्यसनों की बातें तो सपने तक में न लाते थे। विद्यालय में जैन सिद्धान्तों पर कभी वाद-विवाद प्रतियोगिता या भाषण प्रतियोगिता रखी जाती, तब भूरामल अवश्य उसमें भाग लेते थे और जीतते थे। विद्यालय में उनका यशाच्छादन होता रहता था। शास्त्री पाठ्यक्रम पढ़ते हुए रुचिकर शास्त्रों का काव्यान्तर करने में समय देते रहते थे, मगर भावान्तर और मतान्तर न होने देते थे। चौबीस घंटों में से अधिक से अधिक समय पढ़ने-लिखने में लगा देते थे, कभी समय मिलता तो सहपाठियों के साथ शाम को घूमना-टहलना भी कर लेते थे।
  25. विद्यालय में निर्धन, किन्तु प्रतिभावान छात्रों को प्रतिवर्ष धर्मज्ञ श्रेष्ठियों द्वारा छात्रवृत्ति दिये जाने का प्रावधान था। भूरामल ने प्रथम वर्ष के परीक्षाफल के बाद ही विद्यालय में अपनी प्रतिभा की छाप छोड़ दी थी, परन्तु उनके स्वावलम्बी बनने के विचारों ने उन्हें छात्रवृत्ति स्वीकार करने का मन नहीं होने दिया। कतिपय लोगों के साथ-साथ, दो एक सहपाठियों ने भी उनसे कहा कि छात्रवृत्ति का आवेदन पत्र (फार्म) भर दो, मिल जायेगी; परन्तु वे मौन ही रहे। यह प्रसंग उनके छात्रावस्था के प्रथम वर्ष, मानें सन् १९०८ में उपस्थित हुआ था। बड़े भाई साहब माँ को सूचना देते रहते थे। माँ के साथ रह रहे बच्चों में गंगाबकस इस लायक हो गये थे कि वे दो-चार माह में एक पत्र अपने भाइयों को लिख देते थे। ममता और वात्सल्य ठंडे नहीं हो पाते थे। ममता का क्रम निरंतर बना रहा, वह कागज के छोड़ा (पत्रों) पर बैठ कर एक भाई से दूसरे भाई के अनुभव में, आँखों में आती रहती थी। क्या भाई, क्या माता, सभी दूर-दूर थे, अत: उनकी भावनाएँ ही मिलती जुलती रहती थीं, वे कम ही मिल पाते थे। लिखने-पढ़ने में दक्ष भूरामल पर उनके गुरुओं का वात्सल्य बढ़ता जा रहा था। एक दिन विद्यालय के धर्मशास्त्र के अध्यापक पं. उमरावसिंह ने उनसे एकान्त में कहा - भूरामल, आप गमछे बेचना बंद कर दें तो भी आपका कार्य चल सकता है, व्यवस्था समिति आपको विद्यालय के छात्रावास में रखने को तैयार है। वहाँ वस्त्र और भोजन समिति की ओर से दिये जाने की व्यवस्था है। मान्य पंडितजी के सहयोगात्मक शब्द सुनकर भूरामल को लगा कि प्रकृति माँ आज उनके भेष में वात्सल्य से मेरा अभिषेक कर रही है। उन्होंने पंडितजी महोदय को धन्यवाद दिया, उनका आभार ज्ञापित किया और बोले- मान्यवर, गमछे बेचने के पार्श्व में केवल मेरा अपना जीवनयापन नहीं है, मुझे लगता है कि कभी अधिक गमछे बिकने लगे, तब कुछ अतिरिक्त पैसे मिल सकेंगे, जिन्हें में अपनी माँ के पास भेजकर कृतकृत्य हो सकूँगा। भूरामल की बातों से पंडितजी के रोम खड़े हो गये, उन्हें लगा कि माँ जिनवाणी का सेवक यह भूरामल अपनी जन्मदायिनी माता के ऋणों को चुकाने के सद् प्रयास में रहता है। अत: उसे उसके हाल पर रखने में ही उसे आत्मसुख होगा। वे भूरामल के कंधे को प्रेमातिरेक से थपथपा कर चले गये। भूरामल अपनी कक्षा की ओर मुड़ गये। रात्रि के नीरव में पंडितजी अपने कक्ष में फैले बिस्तर पर लेटे थे। उन्हें नींद नहीं आ रही थी। वे निर्धन छात्र भूरामल के स्वाभिमान की ऊचाइयाँ नापने में खोये हुए थे। उन्होंने ऐसा छात्र पहले कभी नहीं देखा था जिसका कद अधिक ऊँचा नहीं था, परन्तु व्यक्तित्व आकाश को स्पर्श कर रहा था। जो स्वाभिमान की रक्षार्थ अपनी पूज्य माता की आड़ लेकर उत्तर देते समय विनयशीलता न छोड़ सका था। स्वाभिमान की रक्षा हेतु कृतसंकल्प छात्र भूरामल - पंडितजी के मानस में गहराई तक उतर गया था। उन्हें भूरामल पर नाज हो आया। ‘भूरा’ जिसे अपना स्वाभिमान प्रिय है, अपनी माँ का स्मरण प्रिय है और अपनी मातृभूमि का गौरव प्रिय है। पंडितजी की नजरों में विद्यालय के वे उद्दण्ड छात्र भी उस समय उतर आये जो भोजन के समय सहपाठियों को बुद्दधू बनाते थे और अपना स्वार्थ साधते थे। स्वार्थी छात्र पकड़े भी जाते थे, तब उनका अपना गौरव मरता-किलपता दीखता था। पंडितजी - बुदबुदाये ‘जिस को न निज गौरव तथा न निज देश का अभिमान है। वह नर नहीं, नर-पशु निरा और मृतक के समान है।' पंडितजी सामान्य आदमी नहीं थे, वे ज्ञान और मानवीय आचरण की प्रतिमूर्ति थे। भूरामलजी की वार्ता उनके समूचे अंतरप्रदेश को आन्दोलित कर गई थी। उन्हें भूरामल की बातों में संस्कृत का स्थापित आचार्य दीखने लगा। उन्हें याद आया मैंने ही तो उसे सिखलाया था ‘सुखार्थी चेत् कुतो विद्या, विद्यार्थी चेत् कुतो सुखम् (सुख की इच्छा रखने वाले को विद्या की प्राप्ति कैसे हो सकती है और विद्यार्थी के लिये सुख कैसे प्राप्त हो सकता है।) पहले के गुरु अपने शिष्य के अंतरंग और बहिरंग को पढ़ कर उनका व्यक्तित्व निर्माण करने में सहायक होते थे। पंडितजी ने उस दिन भूरामल का हृदय पूरा-पूरा बाँच लिया था। उन्हें विश्वास हो गया कि संकटों में रहकर पढ़ने वाले इस युवक को शाश्वत ज्ञान की परिलब्धि हो सकेगी। उन्हें अपने ही वे शब्द, जो छात्रों के समक्ष उन्होंने कहे थे, स्मरण हो आये- “सुखेन यत् प्राप्यते ज्ञानम्, दु:खे सति विलीयते । (सुविधाओं में रहकर जो ज्ञानार्जन किया जाता है, वह तनिक से संकट आ जाने पर विलीन हो जाता है, किन्तु जो ज्ञान कष्ट सह कर प्राप्त किया जाता है, वह संकटों में समाधान के प्रशस्त पथ प्रदान करने में सहायक होता है।) ‘स्वाभिमान पर आँच न आने पाये और न ही अध्ययन में विराम लग पाये' - यह था भूरामल का सु-संकल्प। यही कारण है कि दु:खों में रहकर प्राप्त की गयी विद्या अन्त समय तक उनके पास रही, जिससे भूरामल नाम का लघु बिन्दु ज्ञानसागर सा वैराट्य प्राप्त कर सका। भूरामल की ज्ञानपिपासा प्रबल थी। वे ज्ञान के साक्षात्कार के लिये दिन-दिन भूख साध कर रह लेते थे। अनुपलब्ध ग्रन्थ जब कभी किसी के सहयोग से कुछ समय के लिये उन्हें मिल जाते तो वे उसका अध्ययन तो करते ही, रातों-रात श्रम कर ग्रन्थ का हार्द कापियों पर उतार डालते थे। अनेक ग्रंथों को उनने अपनी सुविधा के लिये, अपनी लिपि में उतारा था और समय पर संदर्भ ग्रन्थ की तरह उसका उपयोग करते थे। पढ़ कर महान तो सभी बनते हैं, पर भूरामलजी तो पढ़ते समय ही महानताओं की छाप छोड़ रहे थे। यह जान लेना उचित होगा कि स्याद्वाद महाविद्यालय के वे, धर्मशास्त्र के पंडित श्री उमरावसिंह बाद में अपने त्याग और व्रतों के आधार पर ब्रह्मचर्य दीक्षा लेने में सफल हुए थे। जब उन्होंने ब्रह्मचर्य व्रत प्रतिमा अंगीकार कर ही ली तो सन्त-समाज ने उनका नामकरण किया - ब्र. श्री ज्ञानानंद वर्णी। यह बात सहज ही समझ में नहीं आ रही थी, किन्तु जब पं. भूरामलजी द्वारा प्रणीत ग्रन्थ पढ़ने का अवसर विद्वानों को मिला, तब जान सके थे कि पं. भूरामल ने अपने ग्रन्थों के प्रारंभ में गुरुवंदना लिखते हुए जिस नाम की चर्चा की है, वे यही ब्र. ज्ञानानन्द महाराज हैं, उनके छात्र जीवन के गुरु। संस्कृत महाविद्यालय के छात्र बनने का सच्चा मान रखा - भूरामल ने। वे बनारस में करीब १० वर्ष रहे और पढ़े। पढ़ते हुए अनेक विद्वानों के सम्पर्क में आये। बाद की उच्च कक्षाओं के विषय पढ़ाने के लिये विद्यालय में जैन-विद्वानों के साथ-साथ अजैन विद्वानों की सेवाओं का लाभ भी उन्हें मिला था। संस्कृत के जैन ग्रन्थ पढ़ा दिये जाने के बाद, वहाँ संस्कृत के वे ग्रन्थ भी पढ़ाये जाते थे जिनके लेखक जैन-आचार्य नहीं होते थे। उन्हें कालीदास, माघ, हर्ष आदि महान विद्वानों द्वारा लिखित ग्रन्थराजों का अध्ययन कराया गया। जैन और अजैन विद्वानों के सम्पर्क में कुछ वर्ष लगातार रहने से उन्हें ऐसी बातों की जानकारी भी हो सकी जो केवल कानों से कानों तक चलती थी, पर विशद रूप से नहीं आ पाती थी चर्चा में। उन्हें आभास हुआ कि कतिपय अजैन विद्वानों का मत है कि जैन साहित्य में संस्कृत के ग्रन्थों की संख्या सीमित है। जो ग्रन्थ प्रचलन में हैं वे न्याय, धर्म और दर्शन की दृष्टि से तो श्रेष्ठ हैं, पर उन ग्रन्थों का अभाव है - जिनमें रस, अलंकार, छंद और व्याकरण के स्तम्भों पर उच्च साहित्य का नद बहता हो, साहित्य का निनाद हो। भूरामलजी को अपने समाज के हित में यह अभाव खटकने लगा। उन्होंने विचार किया कि अध्ययन पूर्ण करने के बाद, माता जिनवाणी की कृपा से यह कमी मैं दूर करने का प्रयास करूंगा। मैं ऐसे ग्रन्थों की सर्जना करूंगा जो महामान्य कवि भारवी, माघ, बाण एवं कालीदास के ग्रन्थों के साथ रखे जा सकें। संकल्प महान था, पर लगन भी उनकी महान थी। भूरामलजी के तेवर बदल गये। वे पढ़ाई और अध्ययन के समय विद्वान शिक्षकों से वार्ता करने में अधिक रुचि लेते। विद्वानों की मनुहारें करते और चर्चा ही चर्चा में उनके भीतर की मनीषा अपनी मन:मन्जूषा में समा-समा लेने का श्रमपूर्ण बौद्धिक प्रयास करते। उन्हें सभी जैनाजैन क्लिष्ट ग्रन्थ प्रिय लगने लगे। वे अपने कमरे में कोई न कोई ग्रन्थ पढ़ते ही रहते। एक का पारायण पूर्ण होता तो उसे पुस्तकालय को लौटा देते और दूसरा ले आते। जैन शिक्षकों से जैन वाङ्गमय पढ़ते, फिर अजैन विद्वानों से उस पर चर्चा कर अपने ज्ञान की अनेकान्तमयी सीमायें बढ़ाते जाते। उनका अध्ययन इतना प्रगाढ़ हो गया कि कुछ वर्ष पूर्व जो अजैन विद्वान उन्हें विरोधी प्रतीत हुए थे, वे भी उन्हें प्रिय और हितैषी लगने लगे। उन्हें उन पर खुशी हुई कि न वे कुरेदते, न मेरी पाठकीय दृष्टि बलवती होती। पं. बंशीधरजी जैन, पं. गोविन्दरामजी जैन एवं पं. तुलसीदासजी जैन जैसे मूर्धन्य विद्धान उस समय श्री भूरामल के वरिष्ठ सहपाठी थे।
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