१५ जनवरी को संघ ने विहार करने का मनोदय स्पष्ट कर दिया। श्रावकगण सन्तों को जानते थे, उनके विहार और उनके पड़ाव उनके ही सोच-विचार से होते थे, उक्त दो क्रियाओं के लिये किसी की बात नहीं मानी जाती थी। विहार के समय एक सभा का आयोजन किया गया पण्डित विद्याकुमार सेठी एवं विद्वान श्रावक श्री मूलचंद लुहाड़िया ने अपने उद्बोधनों में चातुर्मास से समाज को हुए लाभ का वर्णन किया और गुरुवर का आभार ज्ञापित किया। संघ दादिया नगर की ओर विहार कर गया, तब श्रावकशिरोमणि भागचंदजी और श्री माणिकचंद सोगानी अजमेर ने खुलासा किया कि वे जब हम लोगों की ही विनय सुनकर नहीं रुके तो अन्य की विनय पर कैसे विचार करते ? उनके समक्ष तो सभी जन बराबर हैं।
संघ ने लगभग एक माह तक कड़कड़ाती ठंड में प्रकृति से स्पर्धा की और प्राकृतिक उपसर्गों पर विजय पाते हुए, १२ फरवरी ६८ को दादिया की भूमि पर चरण धर दिये। समाज के धर्मप्रेमी नागरिक संघ की अगवानी करने नगर की सीमा पर पहले से बाजे-गाजे के साथ उपस्थित थे। सभी ने मुनिवर का पाद प्रक्षाल किया फिर स-समूह शोभायात्रा के रूप में संघ सहित ग्राम में प्रवेश किया। उस समय संघ में पू. क्षुल्लक श्री सन्मतिसागरजी, पू. सु. श्री सिद्धसागरजी एवं पू. क्षु. श्री शंभूसागरजी सहित कतिपय अन्य त्यागी भी थे जिनमें से एक थेश्री विद्याधरजी।
दादिया पहुँचने के पूर्व, जब श्रीसंघ रास्ते ही में था, तब एक हृदयविदारक समाचार सुनने मिला। परमपूज्य मुनिवर ज्ञानसागरजी अपने बाँके ब्रह्मचारी श्री विद्याधर को प्राकृत का एक ग्रन्थ पढ़ा कर उठ ही रहे थे कि समाज सेवा और गुरुभक्ति से जुड़े स्थानीय एक सज्जन ने उनके समीप आकर मन्द स्वर में कान में कहा- “१९ जनवरी को पार्वमती माताजी की समाधि हो गई है।'' पू. ज्ञानसागरजी आर्यिका पार्श्वमतीजी को काफी नजदीक से जानते थे, वे गुरुवर पू. आचार्यश्री वीरसागरजी द्वारा दीक्षित थीं। समाधि के समय वे ससंघ आँगला उपनगर में थीं। आर्यिकाश्री को पू. ज्ञानसागरजी काफी समय तक पढ़ाते रहे थे- अन्य-अन्य साधु-सन्तों के साथ।
मुनिवर ने वहीं शांतिसभा में आर्यिकाश्री को अपनी व संघ की श्रद्धांजलि अर्पित की। श्रावकों के अनुरोध पर आर्यिकाश्री के जीवन पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने बतलाया कि माताजी का पूर्व नाम गेंदाबाई जैन था, उनका जन्म स्थान जयपुर है, संयोग से ससुराल भी जयपुर ही बना। एक वर्ष जयपुर में आचार्य शिरोमणि, चारित्र चक्रवर्ती श्री १०८ शांतिसागरजी मुनि महाराज का चातुर्मास हुआ था, तब उनसे प्रभावित होकर गेंदाबाई ने सातवीं प्रतिमा के व्रत धारण किये थे।
कुछ वर्ष बाद जब आचार्य वीरसागरजी का ससंघ चातुर्मास कचनेर में चल रहा था, तब गेंदाबाई वहाँ पहुँचीं और उनसे प्रार्थना कर क्षुल्लिका की दीक्षा प्राप्त की। झालरापाटन के चातुर्मास के समय उक्त आचार्य भगवन्त श्री वीरसागरजी से ही उन्होंने आर्यिका दीक्षा प्राप्त की थी और उन्हीं के संघ में रह कर धर्मसाधना करती रहीं। माताजी गम्भीर से गाम्भीर रुग्णावस्था में भी घबड़ाती नहीं थीं, न किसी श्राविका या ब्रह्मचारी से अपनी वैयावृत्ति कराती थीं। वृद्ध माताजी काफी समय से उनके संघ में धर्म प्रभावना करती चल रही थीं, इस बीच उन्हें श्वास रोग का कष्ट भी हो गया, पर उन्होंने चर्या और व्रतादि में शिथिलता नहीं आने दी। आहार के समय आयुर्वेदिक औषधि गुरु-आज्ञा से स्वीकार कर लेती थीं। वे अपने परिणामों को सहज तथा मन को निर्मल रखने का सच्चा प्रयास करती थीं।
आचार्य वीरसागरजी की समाधि के बाद जीर्ण अवस्था देख कर उन्होंने कई बार पू. शिवसागरजी के समक्ष समाधि मरण का प्रस्ताव रखा, पर उन्होंने आज्ञा नहीं दी, समाधि दीक्षा टलती रही। पू. मुनिवर ने माताजी विषयक अनेक बातें बतलाकर अपना प्रवचन समाप्त किया और माताजी को श्रद्धांजलि प्रदान की। श्रद्धांजलि सभा के बाद वह व्यक्ति जो समाचार लेकर मुनिवर के कानों तक पहुँचा था, मुनिवर को करुणा पूर्वक बतलाने लगा-- | महाराजजी ! माताजी की ज्योति तो १९ जनवरी को बुझी है, पर उन्होंने काँपते हुए एक दिन पूर्व ही, १८ जनवरी को आचार्य शिवसागर से समाधिमरण दीक्षा प्रदान करने की प्रार्थना की थी, पर आचार्य श्री ने टाल दिया था, बोले थे- अभी तुम्हारा समय दूर है, परन्तु दूसरे दिन ही वह समय पास आ गया। वे चली गयीं।
श्रावक से चर्चा के बाद गुरुवर ज्ञानसागर के चेहरे पर करुणा के भाव देखने मिले थे। जनवरी माह में पू. ज्ञानसागरजी के गुरुवर पू. शिवसागर महाराज राजस्थान के ऐतिहासिक शहर उदयपुर से ८० किलोमीटर दूरस्थ ग्राम गंगला में ससंघ विराजित थे, जबकि ब्र. विद्याधर के प्रथम दीक्षा गुरु | पू. आचार्य देशभूषण महाराज कर्नाटक प्रान्त के सुप्रसिद्ध शहर बेलगाँव के ग्राम कोथली-कुप्पनवाड़ी में, जो कोल्हापुर से ५६ कि.मी. पर है, विराजमान थे संघ सहित ।
इसी माह पू. ज्ञानसागरजी द्वारा रचित एक और महान ग्रन्थ ‘वीरोदय' प्रकाश में आया । जैन समाज के प्रख्यात विद्वान एवं अन्यान्य ग्रन्थों के सम्पादक पं. हीरालाल जैन सिद्धान्त शास्त्री ने इसका सम्पादन अत्यन्त सूझबूझ से किया था। ग्रन्थ की प्रस्तावना १६८ पृष्ठों में लिखी गई थी जबकि पूरा ग्रन्थ ६५० पृष्ठों में सजिल्द तैयार किया गया था। मुनि श्री ज्ञानसागर ग्रन्थ-माला ब्यावर'' का यह तृतीय पुष्प माना गया। उसके पूर्व दो महान ग्रन्थ ‘दयोदय एवं सुदर्शनोदय' समिति पहले ही प्रकाशित कर चुकी थी। उक्त ग्रन्थों से जहाँ मुनिवर के ज्ञान और साहित्य को लोग जान सके, वहीं सम्पादक और समिति के कार्य भारी सराहना अर्जित कर सके।
आश्चर्य इस बात का सभी जन करेंगे कि ६५० पृष्ठों के सजिल्द ग्रन्थ ‘वीरोदय' का मूल्य मात्र छ: रुपये रखा गया था। तभी पं. गणेशीलाल रतनलाल कटारिया ने अनेक जैन-पत्र पत्रिकाओं में वक्तव्य नि:सृत किया कि पू. ज्ञानसागरजी के प्रकाशित उक्त तीन ग्रन्थों का संग्रह हर जैन मंदिर और जैन पुस्तकालय में अवश्य होना चाहिए। इसी क्रम में पं. कैलाशचंद जैन ने एक वक्तव्य जैन अखबारों में दिया कि वे अजमेर के समीप किशनगढ़ पहुँचे थे, वहाँ उन्होंने पू. ज्ञानसागरजी मुनि के पहली बार दर्शन किये हैं। मुनिवर का शास्त्रज्ञान उच्चकोटि का है।
पंडितजी ने अपने वक्तव्य में स्पष्ट किया था कि मुनिभक्त वर्ग और पं. कानजी के वर्ग के श्रावकों में मैत्री एवं सद्भावना की तीव्र इच्छा है। इस बीच पू. ज्ञानसागरजी के ग्रन्थों के साथ एक मनोरंजक घटना हो गई। ग्रन्थमाला-समिति ब्यावर ने अखबारों में सूचना दी थी कि मुनिवर की पुस्तकों का सेट १० (दस) रुपये में भेजा जा रहा है, जिसका धन-आदेश (मनीऑर्डर) पहले आयेगा, वह पहले पा सकेगा। समिति के लोग अचानक चक्कर में पड़ गये कि लोगों के मनीआर्डर दस रुपये के स्थान पर मात्र एक-एक रुपये के आ रहे हैं। सैकड़ों मनीआर्डर पहुँच चुके थे। कई ने यह भी लिखा था कि अमुक अखबार में आपकी सूचना पढ़ी थी ।
समिति के विद्वान कार्यकर्ताओं ने उस अखबार की सूचना पढ़नी चाही, उसमें भूलवश १० की जगह १ रुपया प्रकाशित हुआ था। एक के बाजू का शून्य कहीं शून्य में विलीन हो गया था। त्रुटि समझते देर न लगी, पुन: उसी अखबार के द्वारा सूचना जारी की गई कि दस के स्थान पर एक छप जाने से भ्रम उत्पन्न हुआ है, अत: जिसने एक रुपया मनीआर्डर से भेजा है, वे शेष नौ रुपये भी भेजें ताकि ग्रन्थ उनकी ओर पोस्ट किये जा सकें। धीरे-धीरे बात सम्भल गई। मुनिसंघ दादिया से विहार कर पुन: धर्म यात्रा पर चल पड़ा। अजमेर निवासी बन्धु पिछले चार माह से अनुरोध कर रहे थे। संयोग की बात कि १० जून ६८ को अजमेर स्थित नसियाजी की तरफ संघ पहुँच ही रहा था कि श्री भागचंदजी समूह सहित उसके स्वागतार्थ खड़े मिले । मुनिवर की पूजादि के बाद गाजे-बाजे के साथ संघ को केशरगंजपुलिस केन्द्र के पास से सम्पूर्ण नगर में शोभायात्रा के साथ घुमाते हुए सोनीजी की नसिया में ले जाया गया।