पच्चीसवें बड़े हाथी को कुछ अधिक ही सजाया गया था, लोग उसे इंद्र महाराज का ऐरावत कह रहे थे। उस पर युवा सम्राट शोभा बिखेर रहे थे। सम्राट के पीछे-पीछे चल रहे हैं देश के अनेक प्रान्तों से आये श्रावकगण । उन्हीं के मध्य हैं मनीषी साहित्यकार गण। उन सबके पीछे मातायें बहिनें मंगलकलश लिये चल रही थीं। उनकी संख्या भी शतकों में थी। उन सबके पीछे चल रहा था लाखों श्रावकों-बालगोपालों का प्रभावनाकारी जुलूस। बच्चे अपने बड़ों के साथ संगामित्ति कर चल रहे थे, डर था कहीं भीड़ में छूट न जावें। कोई विद्याधर के समीप था शोभायात्रा में, कोई काफी दूर था, पर सत्य यह है कि जो जहाँ था, वह वहीं से विद्याधर के साथ था। महावीरप्रसादजी इस दिन पहली बार समय की सुन्दरता को खुली आँखों से देख सकने में सफल हुए थे। सुबह की वह विन्दोरी काफी दूर-दूर तक घुमायी गई। शोभायात्रा की भव्यता से एक ओर जैन समाज की एकता और धर्म लगन का महान रूप सामने आया, वहीं सम्पूर्ण नगर में धर्मप्रभावना की नूतन आभा प्रदीप्त हो गई। उस दिन का अजमेर एक नया, भव्य और दिव्य नगर बन कर आँखों में समा गया था। करीब साढ़े दस बजे शोभायात्रा पूर्ण हो गई। तब तक लोगों को अमृत वचनों की प्यास हो आई, सो शोभा यात्रा बदल गई धर्मसभा में। फिर श्रावकों की प्रार्थना पर ज्ञानअवतार पू. ज्ञानसागरजी ने अपने अमृत वचनों से सभी को तर कर दिया।
सुबह-सुबह सूर्य की किरणें ऊधमी बच्चों की तरह जबरन भीड़ में घुस कर विद्याधर को बार-बार छू रही थी। बाल अरुण अपने नेत्र खोलता ही जा रहा था, किरणों की आँच से स्पष्ट होता चल रहा था। नगर के मठ, मढ़िया, मंदिर, नसिया, चैत्यालय, गुरुद्वारे, चर्च मस्जिदें मिलकर मुस्करा रहे थे। उनके गर्भ से गूंजती घंटों की आवाजें और भक्तों की स्वर-लहरियाँ एक संदेश बार-बार दोहरा रहे थे - मोह कर्म को नाश, मेट कर सब जग की आशा । निज पद में थिर होय लोक के शीश करो बासा। जैन मंदिरों पर बने श्याम-पटों पर एक सप्ताह पूर्व लगाये गये पत्र-पत्रिकायें समाचार को बार-बार आँखों में ला रहे थे। नगर के समस्त दैनिक अखबार उसी समाचार से अभिमंडित थे। प्रमुख अखबारों ने विद्याधर का सचित्र परिचय प्रकाशित कर अपना दायित्व पूर्ण किया था।
सुबह की विन्दोरी में शामिल होने की होड़ सी लग गई थी। धनिक आ रहे थे, मनीषी आ रहे थे, खास आ रहे थे, आम आ रहे थे, कर्मचारी आ रहे थे, अधिकारी आ रहे थे, जैन आ रहे थे, अजैन आ रहे थे। पृथक्-पृथक् परिवारों के झुण्ड आ रहे थे। कुछ बहुयें अपनी वृद्धा सास का हाथ पकड़े साथ चल रही थीं। कुछ स्वस्थ-मस्त सासे अपनी नई नवेली बहुओं के घूघट खुलवा रही थीं और उस ओर इंगित कर रही थीं - जहाँ युवा सम्राट उपस्थित थे। पहले, एक माह पूर्व श्री ज्ञानसागरजी का आगमन अजमेर में हुआ था, तब उन्होंने एक अन्य श्रावक को क्षुल्लक दीक्षा प्रदान की थी। उस समय भी एक दृश्य बना था शहर में, मगर यह ३० जून का दृश्य तो अद्भुत बन पड़ा था।
मध्याह्न दो बजे तक पुन: भीड़ उमड़ कर बाबाजी की नसिया । के उद्यान में और उसके बाहर चारों तरफ एकत्र हो गई थी। उस जमाने में अजमेर जैसे विशाल शहर में दस हजार की भीड़ इकट्ठा करने में नेताओं को पसीना आ जाता था, पर दीक्षा दिवस के दिन स्व-प्रेरणा से तीस हजार से अधिक जन उद्यान में भर गये थे तो उतने ही उद्यान के बाहर की सड़कों पर, चारों ओर खड़े थे, उतने ही जन समीपी भवनों के छतों, सीढ़ियों, द्वारों पर चढ़ कर देख लेना चाह रहे थे। अजैन श्रद्धालुओं की संख्या भी कम न थी। जय घोषों से आकाश क्षेत्र भरता चला जा रहा था। लोग वृद्ध मुनिवर और युवा ब्रह्मचारी की एक झलक देख लेने को बेचैन थे। वह तपसी जिसके शरीर पर अभी चार धागों का एक नन्हा वस्त्र है, कुछ देर बाद उसे भी उतार फेंकेगा । उसका वह दिगम्बर रूप इतना विशाल हो जावेगा कि संसार का कोई वस्त्र उसके माप का न रह जावेगा।
उसमें वह वैराट्य समाहित हो जावेगा कि तब आकाश को ही वह ओढ़ पायेगा और पृथ्वी हो जावेगी उसका एक मात्र विछावन। उसका वह दिगम्बर रूप इतना प्रसरणीय हो पड़ेगा कि हर दिशा में वह ही वह होगा और हरेक दिशा भी उसी से प्रारंभ होकर उसी के पास पूर्ण हो जावेगी। मंच, पंडाल, मैदान की सीमायें होती हैं। वहाँ नसियाजी के चारों तरफ आदमियों का ताँता लगा है, पर अब कोई पंडाल में नहीं पहुँच पा रहा है, वह धरतीमाता की गोद की तरह भर कर खिल उठा है। नसिया के चारों ओर फैला विशाल भू-क्षेत्र नर-मुण्डों से जैसे पट गया हो। हर गली, छत, देहलान पर आदमी ही आदमी। सब की नजरें पंडाल में निर्मित विशाल मंच पर केन्द्रित हो गई हैं।
श्री भागचंद सोनी माइक पर आते हैं, जनमानस की बुदबुदाहट शान्त हो पड़ती है, वे बोलते हैं- कुछ ही क्षणों के बाद, ज्ञानमूर्ति, चारित्र-चक्रवर्ती, वरिष्ठ मुनि पुंगव पूज्य ज्ञानसागरजी महाराज पधारने वाले हैं, आप लोग शांति बनाये रखें। कुछ ही पल बाद पूज्य श्री पधार गये, समीप ही बैठे विद्याधरजी। वहीं पास में श्री सोनीजी, श्री पं. विद्याकुमारजी आदि जन विराज गये । तब तक जनता पुनः मुनिवर, का जयघोष करने लगी। सोनीजी की नसिया के उस भू-भाग पर जैसे किसी तीर्थंकर का समवशरण उतर आया हो। मंच पर एक ऊँचे आसन पर गुरुवर मुनि ज्ञानसागर जी शोभायमान हैं, उनके साथ क्षुल्लक सन्मतिसागरजी, क्षु. सम्भवसागरजी, क्षु. सुखसागरजी एवं कतिपय ब्रह्मचारीगण । वही हैं। प्राचार्य निहालचंद, श्री मूलचंबंद लोहाड़िया, श्री दीपचंद पाटनी और श्री कजौड़ीमल जैन।
ब्र. विद्याधर के अग्रज सुश्रावक श्री महावीरप्रसाद जैन अष्टगे एवं उनके सम्बंधी श्री बुल्लूजी बदनकाय भी उस महिमावन्त मंच की शोभा में शामिल हैं- विद्या के परिवार की तरफ से। दर्शकों का ध्यान विद्याधर के चेहरे पर है, उनकी दाढ़ी के काले, सघन, चमकीले बाल युवावस्था के गोपन-संकल्पों की कहानी कह रहे थे तो सिर पर शिशुओं की झालर (नूतन बाल) की तरह हवा में लहराते धुंघराले केश जीवन की क्षणभंगुरता का ज्ञापन प्रदान कर रहे थे। समाज के कर्णधारों-श्रीमानों-धीमानों ने प्रेम और वात्सल्य से सने हाथों से उन्हें (विद्याधर को) भूलोक के एक महान चक्रवर्ती सम्राट की तरह सजाया-सँवारा है। देह पर बेशकीमती रेशमी पोशाक। गले में स्वर्ण अलंकार। भुजाओं पर भुजबल प्रदर्शक सोनपट्टी। कलाई पर सोने के ब्रासलेट (पहुँचियाँ) (वर्तमान में चल रहे ब्यूटी पार्लरों की पहुँच से बाहर, उनका चेहरा उत्साही जनों ने ऐसा सजाया था जैसे इंद्रपुरी के ब्यूटी पार्लर से कोई विशेषज्ञ आकर सजा गया हो) शीश पर रत्न जड़ित मुकुट से सूर्य की किरणें अठखेलियाँ कर रही थीं।
सत्य यह भी है कि जो जन्म से ही सर्वांग सुन्दर रहा हो, वह विभिन्न सजावटी पदार्थों से अत्यंत मनोहर क्यों न दीखेगा? संचालनकर्ता के आह्वान पर एक पाँच वर्षीय नन्हें बालक ने माइक पर आकर तोतली किन्तु मीठी आवाज में मंगलपाठ पढ़ा। फिर एक गायन मंडल द्वारा वैराग्य और संसार के वर्णन से गुम्फ्ति मधुर गीत, स-संगीत प्रस्तुत किया गया। गीत पूरा हुआ। ब्र. विद्याधर गुरु के समीप खड़े हो गये मंच पर, फिर हाथ जोड़ कर उनसे प्रार्थना की- “हे सरस्वती सूनु ! मेरी पुकार सुनें। मैं एक नादान युवक, आपके चरणों में रह कर अपना जीवन धन्य करना चाहता हूँ, सो हे गुरुवर! मुझे दिगम्बरी दीक्षा प्रदान करें और इस दास का परम उपकार करें।
विद्याधर की वाणी से नि:सृत एक-एक शब्द को लोग पकड़ पकड़ कर कान से लगा रहे थे और उन्हें हृदय तक ले जाने का प्रयास कर रहे थे। विद्याधर की विनय सुनकर करुणा के सागर गुरुवर ने हाथ उठाकर आशीष दिया, तब विद्याधर आगे बोले- मैं एक सामान्य युवक हूँ। मुझसे अनेक त्रुटियाँ हुई होगीं। मैं समस्त प्राणियों से क्षमा मांगता हूँ, यहाँ उपस्थित परिचितापरिचित लोगों से क्षमा माँगता हूँ, साधु संघ से क्षमा की याचना करता हूँ, परम उपकारी गुरुवर से क्षमा चाहता हूँ। विद्याधर द्वारा किये गये क्षमायाचना के भाव से अनेक श्रावकश्राविकाओं की आँखें भर आईं, अनेक जन रोमांचित हो गये। समग्र समुदाय अपलक नेत्रों से उन्हें और गुरुवर को देख रहा था।
विद्याधर के सारगर्भित एवं सार्वजनिक प्रवचन ज्यों ही पूर्ण हुए, वे धैर्यपूर्वक अपने स्थान पर बैठ गये और गुरुवर से प्राप्त निर्देशानुसार अपने ही हाथों से अपने केशलुञ्च करने लगे। वे अपनी सशक्त मुस्टिका से केशों को उखाड़ कर फेंक रहे थे, श्रावक केशों को हाथों हाथ लेकर गीली कनक पर रखते जा रहे थे। कोई मुस्टिका इतनी कड़ाई से खींचते विद्याधर कि केशों के निकलते ही रक्त बह पड़ता। सिर के बाल, फिर दाढ़ी के बाल, फिर मूछों के बाल। पूरा चेहरा और मुण्डा रक्त रंजित हो गया।