श्रेष्ठिगण अपने तर्क रख रखकर थक गये। पगड़ी के नीचे से विद्वत्ता पसीने की तरह बह कर चेहरे पर आ गई, पर दीक्षा कार्य को स्पष्ट सम्मति न दे सके, वे समय के हस्ताक्षर कहे जानेवाले समाजसेवी। अधखिले चेहरे बनाये हुए हट गये गुरुवर के समीप से। लस्त-पस्त। खिन्न-भिन्न ।बिफरे-बिफरे। अशान्त । लौट आये निज गृहों को, निवासों कोठियों-महलों को, जहाँ सुख था, स्वर्ण था, सुखाद्य था, सुनाद्य था, संगीत का, सुगीत था, सुविधा थी, सुमुखि थी। थे नहीं तो तप, त्याग, संयम । न था आकिञ्चन्य का सु-भाव । न था तपस्वी-स्वभाव।
गुरुवर के शब्द समाज में नव-प्रेरणा का संचार कर सके, फलत: दूसरे दिन से बालाबाल नर-नारियों में भारी उत्साह जाग गया, यह जान कर कि विद्याधर को मुनिदीक्षा दी जावेगी ! जो श्रेष्ठजन थक कर लौटे थे, दूसरे ही दिन उनके विवेक ने प्रभाव दिखाया और निर्मल मन से गुरुवर के समीप आ गये-व्यवस्थाओं के लिये मार्गदर्शन प्राप्त करने। एक भव्य आत्मा के पुण्योदय से समूचे नगर में पुण्य संचार हो पड़ा था। हर आत्मा में आनंद और उत्साह था। हर व्यक्ति धर्म कार्य के लिये समर्पित। गुरुवर की आज्ञा से एक दिन का उत्सव सात दिनी महोत्सव बन गया। सो २५ जून ६८ को सेठ मिश्रीलाल मीठालालजी की ओर से पहली बिन्दोरी निकाली गई। शाम के समय युवक विद्याधर को राजकुमारों की तरह सजाया गया।
कीमती वस्त्र । स्वर्ण अलंकार / मुकुट । गाजे-बाजे,रथ, बघ्घी, विद्युत सज्जा। जैसे राजा के बेटे को दूल्हा बनाकर निकाला गया हो बारात के साथ। उसके पूर्व २२ जून से २४ जून तक बाल आश्रम दिल्ली के कलाकारों के कार्यक्रम सम्पन्न कराये जा चुके थे। समाज के आग्रह पर तब तक उदयपुर से पं. बाबूलाल जामदार और आगरा से सुयोग्य श्रावक सेठ सुनहरीलाल भी पहुँच चुके थे। सात दिवसीय कार्यक्रमों के अंतर्गत उनके प्रवचनों ने अजमेर नगर में भारी धर्म प्रभावना की। प्रभावना ऐसी थी कि नसियाजी का वह कार्यक्रम समूचे अजमेर नगर का कार्यक्रम बन गया था। हर मुहल्ले, कालोनी के श्रावक भारी संख्या में रोज उपस्थित हो रहे थे। हर क्षेत्र के प्रमुख जन एकता से कार्य कर रहे थे, मिल कर परस्पर । कुछ नाम सदा उल्लेखनीय रहेंगे - सर्वश्री धर्मवीर सेठ, भागचंद, छगनलाल पाटनी, कजोड़ीमल, श्री स्वरूपचंद कासलीवाल, श्री प्राचार्य निहालचन्द बड़जात्या, पदमकुमार जैन (फोटोवाले), पदमकुमार जैन एडवोकेट, किशनलाल जैन, मिलापचंद पाटनी, ताराचन्द पाटनी, कैलाशचन्द पाटनी, श्रीपंत जैन, माधोलाल गदिया, कमल बड़जात्या, विद्याकुमार सेठी, महेन्द्र बोहरा, हुकमचन्द लुहाड़िया आदि के नाम कभी नहीं भुलाये जा सकते।
कार्यक्रम की शोभा बढ़ाने में स्थानीय संगीत मंडल, जैन वीर दल, जैसवाल जैन स्वयं सेवक दल, अग्रणी रहे। श्रेष्ठगण विन्दोरी निकालने का प्रस्ताव लेकर पू. ज्ञानसागरजी को घेरे हुए थे, ज्ञानसागरजी भी चाहते थे कि उनके प्रज्ञावान शिष्य ब्र. विद्याधर की दीक्षा का कार्यक्रम अद्भुत बन पड़े। अत: उन्होंने श्रेष्ठियों को शेष दिनों के लिये विन्दोरी के निर्देश दे दिये। फलत: २६ जून को पुनः शाम ७ बजे से सेठ राजमल मानकचंद चाँदीवाला के संयोजन में भव्य विन्दोरी निकाली गई। अजमेर की हर नई दिशा में, मार्ग में विन्दोरियाँ जा रही थी, २७ जून को सेठ पूसालाल गदिया को संयोजन का पुण्य मिला, वे विन्दोरी को घुमाते हुए अपने निवास की ओर से ले गये थे। प्रतिदिन विन्दोरी की शोभा बढ़ाने का प्रयास किया जाता था श्रावकों द्वारा। २८ जून को सेठ माँगीलाल रिखबदास (फर्म नेमीचंद शांतीलाल बड़जात्या) के भाग्य जागे, उस दिन का संयोजन पू. ज्ञानसागरजी के निर्देश से उन्हें मिला था। उन्होंने भी शोभा में बढ़त लाने के लिये मित्रों से चर्चा की, चर्चा पू. ज्ञानसागर तक पहुँच गई, तब मुनिवर ने मुस्कराकर बतलायाराजकुमार तो हाथी पर चलते थे, तुम्हारे राजकुमार किस साधन पर चल रहे हैं ?
लोगों को संकेत समझते देर न लगी, वे बेचारे तो विद्याधर के ‘सवारी-त्यागी' के कारण अभी तक हाथी नहीं लाये थे, जब मुनिवर से संकेत मिल गया तो उस शाम विन्दोरी के समय राजकुमार विद्याधर को सजाने के बाद सुसज्जित हाथी पर बैठाया गया। पगड़ी बाँधे हुए ब्रह्मचारीजी उस दिन और अधिक खिल रहे थे। सड़कों पर तोरण द्वार उनका स्पर्श पाकर धन्य होते तो घरों के द्वारों-दरवाजों पर श्रावकों द्वारा समायोजित आरतियों से श्रावकों के मन और मकान धन्य हो रहे थे। जुलूस लाखनखेड़ी की और बढ़ता चला जा रहा था। प्रभावना इतनी बढ़ी कि श्वेताम्बर भी ब्रह्मचारीजी के स्वागत और आरती कर उपकृत हुए थे।
२९ जून को समस्त दिगम्बर जैन जैसवाल पंचायत केशरगंज के संयोजन में विद्याधर की विन्दोरी भव्यता से निकली। हजारों व्यक्तियों के मध्य वह असरदार युवक समाज का सरदार बन कर जब हाथी पर बैठा तो लोगों के मन नाच उठे। लगा हर डगर पर पुण्य के मयूर नर्तन कर रहे हैं। उस दिन विद्याधर के तन पर वस्त्राभूषण और मुकुट नहीं थे, वे मात्र धोती दुपट्टे में ही भव्य दिख रहे थे। वे वीतरागी मुद्रा के समीप थे। अभी तक की सभी विन्दोरियाँ शाम को आयोजित की जाती रहीं, परन्तु ३० जून ६८ की ऐतिहासिक विान्दोरी प्रात: साढ़े सात बजे निकाली गई थी। उस तिथि में विद्याधर को दीक्षा मिलनेवाली थी, उस दिन संयोजन का सौभाग्य मिला था - सेठ हुकमचंद नेमीचंद दोषी को। सारा अजमेर उमड़कर इकट्ठा हो गया था, लाख से अधिक बालाबाल नर-नारी पूज्य ज्ञानसागरजी और उनके शिष्य के दर्शन करने पहुँचे थे। नगर के साथ-साथ अन्य नगरों प्रान्तों से पहुँचे हुए भक्तों की संख्या भी बहुत अधिक हो गई थी। शोभायात्रा निकली। लाखों नेत्रों में समा गई । विद्याधर हाथी पर बैठे मुस्करा रहे थे। दाढ़ी और मूछ के बीच उनकी दन्तावलि की शुभ्रता मुनियों के मन का परिचय दे रही थीधवल निर्मल श्वेत ।
विद्वज्जन जानते थे कि युवा सम्राट क्यों मुस्करा रहे हैं ? वे नादान नहीं हैं कि हाथी पर बैठने के उपलक्ष्य में मुस्करायें। वे बच्चे नहीं हैं कि राजसी पोशाक के कारण मुस्करायें। वे अलंकारों के कारण भी नहीं मुस्करा रहे थे। वे उस दिन सबसे न्यारे-प्यारे दीख रहे थे, इसलिये भी नहीं। वे आत्मा से उपजे सत्य के दर्शन कर मुस्करा रहे थे, वे जानते थे कि यह रूप, शृंगार, पोशाक, अलंकार, मुकुट, मुद्रिकायें सब क्षणिक हैं। जब ये सब इस शरीर से विलग हो जायेंगे, तब मिलेगा सच्चा रूप। वे उस सच्चे रूप, दिगम्बर रूप के क्षण प्राप्त करने की प्रतीक्षा पूरी होते देख मुस्करा रहे थे। उन्हें ज्ञात था कि एक भव में भगवान महावीर ने भी अपना स्वयं का राजपाट छोड़कर शांतिघाट की ओर चरण दिये थे। विद्या का वह राजपाट-शोभा शृगार तो उठाया हुआ था, अत: उन्हें इसके त्याग देने में अधिक खुशी होना स्वाभाविक ही था। वे संसार द्वारा थोपे गये परिग्रह पर हँस रहे थे, परिग्रह के त्याग और अपरिग्रह की कामना पर खुश थे। वे संसार को छोड़कर ‘सार गह लेने के क्षण हेतु मुस्कुरा रहे थे।
श्रावक उन्हें साक्षात् राजकुमार वर्धमान निरूपित कर रहे थे, किन्तु उनकी आँखों में परिव्राजक महावीर का सौम्य मुखमण्डल आकार ले रहा था। दिगम्बर महावीर का देहोजाला उन्हें दीख रहा था, देहाभा दीख रही थी। अग्रज महावीर को अपना प्यारा भाई देवोपम दीख रहा था। वे जुलूस में शामिल होकर, जुलूस का ओर-छोर देख रहे थे। एक विशाल शोभायात्रा अजमेर के राजपथ पर फैली हुई है। अजमेर का हर चौराहा सजाया गया है। हर गली के प्रारम्भ में ही तोरण द्वार बने हैं। हर भवन पर केशरिया झंडा लहरा रहा है। एक मकान से वंदनवार चल कर दूसरे को बाँध रहा था, जैसे समाज की एकता का यथार्थ समझा रहा हो। झंडे और झंडियाँ तो गिने ही नहीं जा सकते थे। पूरा नगर पू. ज्ञानसागरजी के वाक्यों से लिखित कपड़ा-पट्टियों (बेनरों) से दमक रहा था। सबसे आगे बेण्डबाजों का दल, फिर शहनाई वादकों का दल उनके पीछे २४ सजे हुए गजराज झूमते हुए चल रहे थे। हर हाथी पर मुकुट बाँधे हुए श्रावक धर्मध्वजा फहराने का आनंद ले रहे थे।