पंडितजी ने दाँता और राणोली के मध्य रहते हुए साहित्य लेखन में समर्पित कर दिया अपने ‘स्व' को। एक दिन किसी कार्य से सीकर गये तो वहाँ एक व्यापारी बंधु से ज्ञात हुआ कि दक्षिण में मुनि शांतिसागरजी को आचार्य पद दिया गया है। समाचार से पंडितजी को भारी हर्ष हुआ। बात की तह तक जाने के लिये वे अन्यान्य व्यापारियों और बुद्धिजीवियों से मिले। सबने जितना सुना था, उतना बतला दिया। उनकी वार्ता से पंडितजी को, जो विवरण उपलब्ध हुआ, वह यह था - परमपूज्य मुनि शांतिसागरजी ने आश्विन शुक्ल एकादशी, वि.सं.१९८१ (सन् १९२४) को महाराष्ट्र प्रान्त के सांगली जिले में अवस्थित, नगर समडोली के समाज के अनुरोध पर विधि विधान पूर्वक आचार्य पद स्वीकार कर लिया है। आचार्य बनते ही उन्होंने संघस्थ क्षुल्लक श्री वीरसागरजी को सविधि मुनि दीक्षा प्रदान की है और उनका नाम “१०८ श्री वीरसागर मुनि महाराज” रखा है। वीरसागरजी इरगाँव (औरंगाबाद) महाराष्ट्र निवासी श्रावक श्री रामसुखजी जैन गंगवाल के सुपुत्र हैं, उनका पूर्व नाम श्री हीरालाल जैन गंगवाल है। सौभाग्यवती माता का नाम श्रीमति भाग्यवती बाई (भागू बाई) है।
पंडितजी, जिन्हें श्रावकगण आदर से शास्त्रीजी कहते थे, समाचार की पूर्णता से प्रसन्न हो गये। इस बार उन्होंने दो सन्तों को मौन नमन निवेदित किया- आचार्य शांतिसागरजी को और मुनिवर वीरसागरजी को। और अधरों में बुदबुदाये - हे सन्त द्वय ! नमोऽस्तु। मुझे आपका पथ मिले, मुझे आपके दर्शन मिलें, यही होगा मेरा सौभाग्य। पं. भूरामल के द्वारा की जानेवाली पढ़ाई की चर्चा और विद्यालय की ख्याति अनेक नगरों तक पहुँची थी -कि सन् १९३४ में मुनिदीक्षा लेने के कुछ वर्ष बाद एक बार पू. मुनि (तब वे आचार्य नहीं थे) वीर सागर भी ससंघ दाँता पधारे थे और वहाँ रुककर संघस्थ साधुओं को पं. भूरामलजी से संस्कृत एवं न्याय का अध्ययन कराया था।
पं. भूरामल के पाण्डित्य को देखकर संघ के साधु आचार्यश्री से बोले- आप पं. भूरामल को साथ में रख लीजिये, जिससे हम लोगों का अच्छा अध्ययन हो जायेगा। आचार्यश्री की आज्ञा से पं. भूरामलजी संघ को पढ़ाने लगे, आ. वीरसागरजी भी उपस्थित रहते थे। पं. भूरामल शास्त्री से न्याय, संस्कृत एवं सिद्धान्त पढ़ने वाले आ. सुपार्श्वमति, आ. ज्ञानमति, आ. वीरमति, आ. अभयमति, मुनि शिवसागर जो बाद में पण्डितजी के गुरु बने; मुनि धर्म सागर, ब्र. राजमल, आ. अजित सागर आदि साधु इस ज्ञान के सागर से ज्ञानामृत पान करें पाण्डित्य को प्राप्त हुए हैं। कहते हैं उक्त भाग्यशाली भवन में अनेक त्यागी, व्रती, ब्रह्मचारी गण समय-समय पर संस्कृत अध्ययन हेतु आते रहते थे। पू. मुनिवर सन्मतिसागरजी एवं क्षुल्लक विवेकसागरजी ने सालाधिक दाँता में रुककर अध्ययन किया था।
अभी तक व्यापारी बनकर जीवन का साफल्य स्थापित करने वाले व्यक्तियों में से वे (श्री भूरामल) एक प्रतियोगी मात्र दिख रहे थे, मगर फिर उन्हें आभास हुआ कि सम्पूर्ण सफलता वनिज-व्यापार में नहीं है, आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाने में नहीं है, भौतिक-सम्बन्धों के निर्वाह में नहीं है, विद्यालयीन-परीक्षाओं में भी नहीं है, वह कहीं और है, उनका प्रशस्त पथ किसी अन्य धरा से होकर जाता है। फलत: धीरे-धीरे उनका वह मन, जो धन-धान्य एवं मान के अर्जन में व्यस्त था, शाश्वत स्वभाव के कार्यों की ओर मुड़ पड़ा और धन-अर्जन में स्व का उपयोग करनेवाला वह महान व्यक्तित्व ध्यान- अर्जन में लग गया। चिन्तन-मनन और लेखन हो गया उन्नका नित्य-कर्म, फलत: वे कभी घर में रहते, कभी मुनिसंघों के साथ चलते रहते और अपने लेखन कार्य में निरन्तरता बनाये रहते।
कुछ वर्ष बीत गये, कई ग्रन्थ उनकी लेखनी का पावन स्पर्श पाकर कलेवर धारण कर चुके थे। तैयार पांडुलिपियों को वे साफ, किन्तु मोटे वस्त्र से आवेष्टित कर सम्भाल कर घर में धर लेते थे। वह वर्ष १९३६ का समय था, अब तक वे ४५ बसंतों को सन्त होते सुन चुके थे कि उन्हें फिर एक नूतन समाचार सुनने में आया। “उन्हीं शास्त्रीजी (पं. भूरामल) के प्रान्त राजस्थान में स्थित नगर नागौर में मुनिसंघ पधारा है। मुनि भी कौन? बीसवीं सदी के प्रथम आचार्य पू. शांतिसागरजी मुनि महाराज। उन्होंने अडगाँव (औरंगाबाद) महाराष्ट्र निवासी उत्तम श्रावक दम्पत्ति श्रीमती दगड़ाबाई जैन एवं श्रीमान नेमीचंद रावंका के सुपुत्र श्री हीरालाल जैन जो उस समय तक क्षुल्लक शिवसागर के नाम से जाने जाते थे, को एक विशाल समारोह में मुनि दीक्षा प्रदान की है और उनका नाम १०८ श्री शिवसागरजी मुनि महाराज रखा है।''
शास्त्रीजी को उस रोज फिर लगा कि वे, हाँ उनका आत्मा धीरे-धीरे मुनियों के प्रशस्त-पथ की ओर हो रहा है या मुनित्व ही रास्ता बनाता हुआ उनके देहतत्त्व की ओर क्रमश: बढ़ रहा है। वे जहाँ खड़े थे, वहीं से उन्होंने नागौर की ओर मुख किया और मुनियों का स्मरण करते हुए, उन्हें नमोऽस्तु किया। हृदय से नि:सृत नमन के मद्धिम स्वर वायुमंडल में घुल मिल कर उड़ कर चले गये साधुओं के समीप। पं. भूरामल शास्त्री का समय तीन नगरों को कुछ अधिक ही प्राप्त हो जाता था- राणोली, दाँता और सीकर। तीनों स्थानों पर पढ़ने पढ़ाने का स्थान तो था ही, मन भी बन जाता था।
सन् १९३६ का ही एक संस्मरण याद आता है। तत्कालीन दिगम्बर मुनि पूज्य चंद्रसागरजी सीकर में ससंघ विराजे हुए थे। उनकी प्रेरणा से पं. भूरामलजी भी वहाँ पहुँच गये। रात्रि में जन-सामान्य के लिये (मुनि-आज्ञा से) प्रवचन करते और दिन में मुनि संघ के सदस्यों को पढ़ाते। मुनिवर चंद्रसागरजी आहार चर्या के समय चौका में उपस्थित रहनेवाले श्रावक-श्राविकाओं से शूद्रजल का त्याग करने की प्रेरणा देते थे, जिसे लोग उस क्षण तो स्वीकार कर लेते पर बाद में विभिन्न प्रकार की बातें करते रहते। एक दिन वहाँ की मुनि भक्त महिला श्रीमती सोनाबाई छाबड़ा के भाग्य खुले, उनके दरवाजे मुनिवर रुक गये आहारार्थ। सोनाबाई ने सपरिवार मुनि चंद्रसागर को आहार दिये, परन्तु उनकी आज्ञा से उन्हें भी शूद्रजल का त्याग करना पड़ गया।
कुछ दिनों बाद मुनिवर सीकर से फतेहपुर प्रस्थान कर गये, साथ में पं. भूरामलजी को भी ले गये। महाराज के चले जाने के बाद सोनाबाई के घर में विवाद हो गया, पारिवारिक जन कह रहे थे तूने शूद्रजल जीवन भर के लिये त्याग दिया, बुढ़ापे में कभी कोई साथ न हुआ तो व्रत कैसे निभेगा ? सोनाबाई परेशान हो गई, उसकी गोद में सन्तान भी नहीं थी। पूर्व में दस सन्तान हुई थीं, पर जीवित एक भी न रह पाई थी। कहें-वह पहले से ही दुखी थी, ऊपर से घरवालों के विवाद ने उसे सीमाधिक तिरोहित कर दिया। पति के आक्रोश को वह सह न सकी, अत : समय पाकर पू. चंद्रसागर के समीप फतेहपुर-शेखावटी जा पहुँची और अपने मन का कष्ट उन्हें कह सुनाया।
उसकी बातें सुनकर मुनिवर चुप रह गये, व्रत तोड़ने की आज्ञा नहीं दे सके। वे पं. भूरामल की ओर देखने लगे कि वे विद्वान हैं, कोई रास्ता निकालेंगे। पंडितजी ने तब उस भद्र महिला को समझाया- अयि बहिन ! तू व्रत से क्यों डरती है। वृद्धावस्था कब आयेगी, कब तू पराधीन होगी, कब तेरा व्रत टूटने का भय उपजेगा- इतने विकल्प क्यों करती है? हो सकता है कि तेरा जीवन वृद्धावस्था के पूर्व ही पूरा हो जावे और तुझे चलते-फिरते ही संसार त्यागने का सौभाग्य प्राप्त हो जावे, अत: सन्तान के अभाव और वृद्धावस्था के भय से अभी से व्रत न तोड़,कहीं वृद्धावस्था से पूर्व मरण हुआ तो एक नियम तो तेरे साथ जावेगा।
बहिन तू अभी वृद्ध नहीं हुई, पति के साथ धर्म साधना से जीवन चला रही है। हो सकता है कि भविष्य में तेरे घर ऐसी संतान का जन्म' हो जो वृद्धावस्था में तेरे नियम की रक्षा कर सके। भूरामलजी के उद्बोधन से सोनाबाई का हृदय शांत हो गया। फिर दुखी होकर बोली- पंडितजी, संतान तो जीवित ही नहीं रह पाती। धर्म सिंचित भावों में बल होता है, तूने नियम ले लिया है, अतः हो सकता है कि तेरी आगामी संतान जीवित रहे और धर्मवान भी हो। ठीक है पंडितजी। मैं नियम पर दृढ़ रहूँगी। कहते हैं कि कालान्तर में सोनाबाई की कोख में नव-प्राण का आगमन हो गया। सोनाबाई भारी प्रसन्न, परन्तु भय यह कि कहीं यह सन्तान भी जीवित न रही तो ?