Jump to content
सोशल मीडिया / गुरु प्रभावना धर्म प्रभावना कार्यकर्ताओं से विशेष निवेदन ×
नंदीश्वर भक्ति प्रश्नोत्तरी प्रतियोगिता ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • ज्ञान का सागर : क्रमांक - 14

       (0 reviews)

    एक सप्ताह ही बीता होगा कि धर्मचन्द की माताजी को मन में लगा कि उसकी लगन तो क्रमशः तीव्र हो रही है, उधर गुरुवर का वात्सल्यभाव भी बढ़ता ही जा रहा है, कहीं अध्ययन के चक्कर में धर्मचंद घर-द्वार न छोड़ बैठे। सो दूसरे दिन ही वे अकेले ही गुरुवर के समीप पहुँची और विनयपूर्वक कहने लगीं - महाराजजी। धर्मचंद ठीक से पढ़ रहा है ना? अभी पिछले वर्ष ही उसकी शादी की है, घर में बड़ी प्यारी बहू है। बस चातुर्मास के चलते आपका सान्निध्य लाभ मिल जाये इतनी ही मनोकामना है। फिर तो आपके आशीष मात्र से उसका जीवन सुख से चलता रहेगा। गुरुवर ने कभी अपनी माँ के चेहरे पर भी यह डर देखा था, अतः बात समझने में उन्हें देर नहीं लगी। वे धर्म की माँ को संतोष दिलाते हुए बोले - तेरा बच्चा सुख से तेरे घर में रहेगा, जा अपना कार्य कर।

     

    माता निश्चिन्त होकर लौट आयी। धर्मचन्द को वार्ता का कभी पता ही न चल पाया। चातुर्मासकाल अपनी गति से चलता हुआ पूर्णता की ओर था। दीपोत्सव के दीप संदेश दे चुके थे। विस्थापना क्रिया आचार्य शिवसागर जी द्वारा पूर्ण कर ली गई। भक्तगण टोह प्राप्त कर चुके थे कि संघ विहार करने का मन बना चुका है, किन्तु किसी चर्चा में लगातार समय दिया जा रहा है। संघ के सूर्य पूज्य शिवसागरजी और संघ के आकाश पू. ज्ञानसागरजी के मध्य वह चर्चा निरन्तर थी। सन्तों की चर्चा कितनी ही धीमी हो, परदे में हो, पर वह महत्त्व लिये होती है। चर्चा के विषय संक्षिप्त थे, पर दो थे। पूज्य ज्ञानसागरजी का मानना था कि सब्जियों या फलों को अचित्त करने के लिये उन्हें उबालना या उबलते पानी में धोना उचित है। जबकि संघ की कुछ आर्यिकाओं का मानना था कि यदि उबाले न जा सकें तो उन्हें तोड़कर, छिन्न-भिन्न कर, खोल कर देख लिया जावे तो वे अचित्त माने जा सकते हैं, लेकिन ज्ञानसागरजी कहते हैं - प्राचीन ग्रन्थ मूलाचारादि में तो अग्नि संस्कार से ही वनस्पति को अचित्त कहा है।

     

    साधुओं को संघ में चैत्यालय नहीं रखना चाहिये, न ही स्त्री के द्वारा अभिषेक देखकर ही आहार को निकलेंगे - ऐसा नियम होना चाहिये। आचार्य श्री शिवसागरजी इन बातों का बहुत विचार करते थे। वह मानते थे कि ज्ञानसागर जो भी कहेगा आगम के अनुकूल ही कहेगा, लेकिन आर्यिकायें हमेशा ज्ञानसागर से निराधार विवाद करती थीं। इस बात से दुखी होकर आचार्य शिवसागरजी ने विवाद करनेवाली आर्यिकाओं को संघ से निकाल दिया था। एक दिन ज्ञानसागरजी ने देखा कि यहाँ सत्य आगम की बात करने पर विवाद होता है तो गुरु आज्ञा पूर्वक स्वयं ही संघ से पृथक् विहार कर दिया। ज्ञानसागरजी के संघ से निकलने का आ. शिवसागरजी को बहुत दु:ख हुआ। उन्होंने आर्यिकाओं से कहा- आप लोगों ने हमारा एक हाथ काट दिया, अच्छा नहीं किया। हमारे प्रथम शिष्य को अलग कर दिया, शिवसागरजी ने कहा - ज्ञानसागर तो कहीं भी रहकर कल्याण कर लेगा; लेकिन संघ को ऐसा ज्ञानी मुनि नहीं मिलेगा।

     

    संघ से विलग हो पू. ज्ञानसागरजी अपने पूज्य गुरु शिवसागरजी की जय बोलते हुए हर बस्ती के मंचों को गुन्ज्जायमान करते बढ़ रहे थे। उनके प्रवचनों में श्रावकों की भारी भीड़ होने लगी। आश्चर्य तो यह कि जैनों के साथ-साथ, उतनी ही संख्या में ब्राह्मण, ठाकुर, नाई, माली, जाट, कुम्हार, मुसलमान आदि तक उपस्थित होते और जैनधर्म की मान्यताओं को श्रद्धा सहित स्वीकारते। पू. ज्ञानसागरजी भी हर वर्ग के श्रोताओं को अपने समीप तक आने का समय देते, उनसे बातें करते और उनमें प्रभावना का सुन्दर संचार करते। पू. ज्ञानसागरजी की एक प्यारी पंक्ति जो बाद में नारा बन गई, वर्षों से उनके अधरों पर देखी जा रही थी, जो यहाँ बहुत ही जनोपयोगी सिद्ध हुई। वे अपने प्रवचन के दौरान अक्सर जनता को सचेत करते हुए बोलते थे- ‘राम बनो, रावण नहीं।’ इस पंक्ति का उपयोग जैनाजैन समाज पर समान रूप से प्रभाव छोड़ता था। अब जब उनकी सभाओं में अन्यअन्य समाज-समुदाय-वर्ग के लोग प्रवचन सुनने आते और पू. ज्ञानसागरजी उन्हें समझाते हुए सम्बोधित करते कि राम बनो, रावण नहीं' तो सभा के सर्व श्रोतागणों में भारी धर्म प्रभावना होती। लोग आनंदातिरेक से वाह-वाह कर उठते, उनकी आत्मा में खुशी होती कि गुरुवर उनके लिये भी कुछ न कुछ ज्ञान के संदेश अवश्य सुनाते हैं।

     

    मुनिवर ज्ञानसागरजी अपने गुरु की छाप हृदय में सँवारे हुए कई माहों तक विहार करते रहे। किशनगढ़ पहुँचे, कुछ दिन रह कर विहार कर गये। दो चार माह ही बीते होंगे कि किशनगढ़ के समाज को पुन: धर्म की प्यास लग पड़ी। समाज की बैठक हुई, लोगों के मन बने कि पू. ज्ञानसागरजी से पुन: किशनगढ़ आने के लिये प्रार्थना की जावे। श्रावकगण समूहों में मुनिवर के पास जाने लगे। हर माह कोई न कोई समूह बस या रेल से उनकी सेवा में पहुँचता और किशनगढ़ चलने की अनुनय-विनय करता। मुनिवर मुस्कराकर टाल जाते। कहते देखेंगे- समय आने दीजिये। धीरे-धीरे दस माह निकल गये। समाज का धैर्य टूटने लगा। एक दिन सभी प्रभावशाली भक्त एक बड़े समूह के साथ पूज्यश्री के चरणों में पहुँचे और उनसे किशनगढ़ में पुन: वर्षाकाल का समय प्रदान करने का हार्दिक अनुरोध किया। मुनिवर ने भक्तों को समझाया कि वे निर्ग्रन्थ साधु को आश्वासन में बाँधने का प्रयास न करें, जो कुछ होगा, स्वयं होगा। श्रावक समूह लौट आया, पर सभी को अपनी प्रार्थना पर विश्वास था, अत: एक दिन वह क्षण आ गया, जब पूज्यवर किशनगढ़ पधारे पुनः।

     

    पू. ज्ञानसागरजी जंगलों में चलने पर क्या, वहाँ रुकने में भी कभी घबड़ाये नहीं। एक बार विहार के समय चलते-चलते शाम हो गई। बस्ती दूर थी, अत: वहीं एक साफ सुथरी जगह में, वृक्ष के नीचे आत्मसाधक मुनिवर ज्ञानसागरजी सामायिक के लिए बैठ गये। साथ के श्रावक यहाँ-वहाँ दुबक गये, कुछ जन साइकिलों से बस्ती की तरफ चले गये। मुनिवर ने जंगल में ही रात्रि विश्राम किया। सुबह जब श्रावकों की दृष्टि मुनिवर के शरीर पर पड़ी तो चकित रह गये, पूरे शरीर पर बड़े-बड़े चकत्ते हो आये थे। लोगों ने जाँच-पड़ताल शुरू कर दी, तब समझ में आया कि मुनिवर पर रात्रि में दीमक ने हमला बोल दिया था, मगर वे उत्कृष्ट ज्ञान-साधना के महान साधक चुपचाप रहे आये थे। श्रावकों ने सुकोमल सफेद वस्त्र से देह को बुहारा। अपने मुनिवर को उपसर्गों में भी समतापूर्ण और निर्वैर्य पाकर खुश हुए।

     

    इस बार सीकर का हर श्रावक पूज्य ज्ञानसागरजी से ज्ञानामृत प्राप्त करना चाहता था, पर सर्वाधिक ज्ञानलाभ पाने में सफलता मिली युवक धर्मचंद को। वह संस्कृत से बी.ए. करने की तैयारी कर रहे थे। उस वर्ष पूज्यश्री का वर्षायोग सीकर का हो गया सो धर्मचन्द के लिये सोने में सुहागा हो गया। सीकर के समाज को गत वर्ष के सभी दृश्यों की याद थी, अत: किसी ने भी पुरानी चर्चा पर पुनरावृत्ति नहीं की। सभी जन अपने आराध्य की सेवा और भक्ति में रम जाना चाह रहे थे। मुनि ज्ञानसागरजी का चातुर्मास अत्यंत सफलताओं के साथ चलता रहा। सुबह से शाम तक के समय को इस तरह निर्धारित कर दिया गया कि हर वर्ग के श्रावक को पूरा-पूरा धर्मलाभ तो मिले ही और पूज्यवर की आगमोचित क्रियायें भी सधती चली जावें।


    गत वर्ष १९६१ में जो धर्मचंद मुनिवर के समीप आ गये थे, वे बाद में भी पूरे साल उनके समीप बने रहे थे। मुनिवर के पास वे आते जाते रहते थे और अपने अध्ययन की प्रगति से उन्हें अवगत कराते रहते थे। अब जब पूज्यवर उन्हीं के ग्राम में थे तो भला धर्मचंद अधिक समय क्यों न लेते ? उन्होंने चातुर्मास के प्रारंभ में ही पूज्यवर से प्रार्थना कर डाली थी कि संस्कृत से बी.ए. कर रहा हूँ, परन्तु पढ़ाने के लिये घर तो घर, विद्यालय में भी कोई नहीं हैं। अत: आपके सहारे ही कुछ पढ़ पाऊँगा। मुनिवर ने भी उन्हें स्वीकृति दे दी थी, अत: मध्याह्न साढ़े तीन बजे के बाद, नित्य ही कभी एक, कभी दो और कभी तीन घंटे तक का समय धर्मचन्द पा जाते थे उनसे। धर्मचन्द की विद्यालयीन पढ़ाई करते हुए पूज्यवर ने उन्हें ‘सर्वार्थसिद्धि’ ग्रन्थ भी पढ़ाने की कृपा की।


    User Feedback

    Create an account or sign in to leave a review

    You need to be a member in order to leave a review

    Create an account

    Sign up for a new account in our community. It's easy!

    Register a new account

    Sign in

    Already have an account? Sign in here.

    Sign In Now

    There are no reviews to display.


×
×
  • Create New...