एक दिन साहस कर सोनाबाई अपने पति के साथ पुन: संघ के दर्शनार्थ गई, वहाँ श्री भूरामलजी के समक्ष अपने भय का वर्णन किया। सोनाबाई की आँखें भर आई। उसकी वेदना पं. भूरामलजी समझ रहे थे, अत: कुछ मार्गदर्शन देने का मन बनाया। विचार करते रहे काफी देर तक, फिर बोले- प्रसव के समय कार्य करनेवाली दाई के विषय में कुछ बतला।
- क्या ? - यही कि वह शाकाहारी है या.....?
- जी वह तो मांसाहारी है।
- तो उसे जीव-दया की दिशा में प्रेरित कर, उससे अहिंसा धर्म पालन करने को कह। उसके द्वारा मांसाहार का त्याग कर देने से, उसके हाथ की कला गरिमामयी हो उठेगी, उसकी भावनायें सकल जीव जन्तु और मानवता के प्रति कुछ अधिक मैत्रीपूर्ण और अहिंसक हो जायेंगी। फिर शायद उसके हाथ से किये जानेवाले प्रसव-कार्य सफल होने लगेंगे। उसके आशीष फलदायी होने लगेंगे।
- जी पंडितजी, घर जाकर प्रयास करूंगी।
- बहिन एक बात और बतला, तेरा पति नित्य देवदर्शन करने मंदिर जाता है ?
- जी, जाता ही रहता है।
- मतलब कभी जाता है, कभी नहीं।
- जी।
- तो उसे बोल वह नित्य दर्शन का नियम ले और प्रतिदिन पूजन अभिषेक करे। न कर पाये तो भक्ति भाव से देखे।
- जी पण्डितजी ! कह दूँगी। पर क्या इसे धर्म का भय नहीं माना जायेगा ?
- भय नहीं बहिन ! आत्मशुद्धि और विचार शुद्धि की दिशा में धर्मपूर्ण अभ्यास माना जावेगा। जब आदमी निर्मल-भाव से जीवन जीता है तो उसके अनेक अटके हुए कार्य प्राकृतिक रूप से सुलटने लग जाते हैं। मंदिर, भगवान, पूजा, प्रक्षाल मन को केन्द्रित बनाने और विकारों को वर्जित करने के हेतु हैं। मेरे कथन में धार्मिक-पाखण्ड या धर्मभय को स्थान नहीं है। सात्त्विक दिनचर्या के लिये प्रेरणा है।
सोनाबाई पंडितजी की ज्ञानपूर्ण बातों से हृदय की गहराई तक प्रभावित हुई। स्व-निवास को लौट कर अपने जीवन में रम गई। प्रसव का क्षण आया। सोनाबाई की सहायता के लिये दाई को बुलाने का अवसर ही न आ पाया। पारिवारिक जनों के सहयोग से ही वह निर्विघ्न सम्पन्न हो गया। शिशु स्वस्थ और सुंदर था। सोर / सूतक आदि का समय निकल जाने के बाद, शिशु के पिता ने एक शुभ कार्य स्व-प्रेरणा से प्रारंभ कर दिया, वे प्रतिदिन मंदिर से गंधोदक अवश्य लाते और शिशु के माथे पर लगाते।
जब वह डेढ़ माह का ही था, तब उसकी दीर्घ वय की कामना के साथ सोनाबाई उसे एवं पति को लेकर पंडितजी से मिली थी। पंडित जी ने एक नजर उस शिशु को देखा भी था। सोनाबाई के अनुरोध पर पंडित जी ने शिशु का नाम परमानन्द रख दिया था। सन् १९३३ में जन्मा वह बच्चा निरोग रहा, लम्बी उम्र पा सका और दैनिक जीवन में भारी विकास कर योग्य श्रावक बना। परमानन्द छाबड़ा। यों परमानन्द को पितृवियोग आठ वर्ष की उम्र में ही सहना पड़ा, किन्तु प्राप्त संस्कारों के आधार पर उनका आत्मविकास नहीं रुका, वे आज भी पूजा-पाठ के नियम में अग्रणी हैं, समाज में प्रतिष्ठित हैं। सोनाजी वृद्धा हो गई हैं, बेटे के साथ संतुष्ट हैं। नियम का पालन सुख से हो रहा है। पंडित भूरामल के अनेक संस्मरण दाँता, राणोली और सीकर की धरती पर लोगों के अधारों पर खेलते रहते हैं।
सन् १९३७ के आस-पास पंडितजी ने मुनि संघ के कारण एक चातुर्मास दाँता में पूरा किया था। दयोदय-चम्पू लेखन का कार्य वहीं प्रारम्भ किया गया था। २५ वर्ष का शास्त्री-युवक लेखनी चलाते-चलाते एक प्रज्ञावानप्रौढ़ हो गया। इस बीच उन्होंने अनेक महान ग्रन्थों की सर्जना कर डाली। परम पूज्य मुनि श्रेष्ठ सुधासागरजी ने अपने लेखों में स्पष्ट किया है -“ब्रह्मचारी अवस्था में पं. भूरामलजी' ने जयोदय महाकाव्य, वीरोदय महाकाव्य, सुदर्शनोदय-महाकाव्य, भद्रोदय महाकाव्य, दयोदय चम्पू, सम्यक्त्वसार शतकम्, मुनि मनोरंजनाशीति, हित सम्पादकम् आदि ग्रन्थ संस्कृत में लिख डाले थे, तो भाग्य परीक्षा, ऋषभ-चरित, गुण-सुन्दर-वृत्तान्त, सचित्त-विचार, स्वामी-कुन्दकुन्द और सनातन जैन धर्म, सरल जैन-विवाह-विधि, इतिहास के पन्ने, ऋषि कैसा होता है, नियम-सार-अनुवाद, अष्टपाहुड़ अनुवाद, शांतिनाथ पूजन विधान (सम्पादन) आदि का लेखन कार्य राष्ट्रभाषा हिन्दी में सम्पन्न किया था।
वे क्षुल्लक अवस्था में भी लेखानी की सेवायें लेते रहे, फलतः क्षुल्लक श्री ज्ञानभूषणजी के रूप में उन्होंने हिन्दी में “पवित्र मानव जीवन' नामक काव्य ग्रन्थ एवं “सचिल्त विवेचन' नामक (गद्य) ग्रन्थ लिखे थे। इसी अवस्था में उन्होंने तत्त्वार्थ-सूत्र की टीका और समयसार की गाथाओं पर पद्यात्मक व्याख्या ‘‘‘विवेकोदय' लिख कर अपने श्रेष्ठ एवं प्रमाणित ज्ञान की छाप समाज पर छोड़ी। क्षुल्लक अवस्था के बाद ऐलक अवस्था में उन्होंने विभिन्न मुनि संघों के तत्कालीन मुनियों को पढ़ा कर उपाध्याय पद की महानताओं को आपोआप स्पर्श कर लिया था। उनके द्वारा पढ़ाये गये मुनिगण कुछ ही समय में महान ग्रन्थों का अवगाहन करने की पात्रता और क्षमता प्राप्त कर सके थे।
चूंकि उनके लेखन और पठन-पाठन की चर्चा है यह, अत: यहाँ यह बतलाते हुए प्रसन्नता होती है कि मुनि अवस्था में भी उनकी लेखनी ने विराम नहीं लिया, बल्कि वह अनेक गरिमाओं से मंडित होकर चलती रही, सो समाज को महान ग्रन्थ भक्ति संग्रह, कर्तव्य पथ-प्रदर्शन, समयसार-टीका आदि की पावन भेट प्राप्त हो सकी। उनके २४ ग्रन्थों के विषय में एक सम्यक् जानकारी लिख देने का पावन कार्य मुनिवर सुधासागरजी ने किया है, जो इसी ग्रन्थ में संगृहीत है। (हम पुन: कथा की मूल धारा में चलें) उधर दक्षिण में राणोली से करीब १६०० कि.मी. दूर सदलगा नगर में पूज्य माता श्रीमती श्रीमंतीजी के पावन गर्भ में शिशु विद्याधर स्थान पा चुके थे।
१० अक्टूबर १९४६ को विद्याधर का जन्म हुआ दक्षिण भारत में, इधर उत्तर भारत में एक साल के भीतर पं. भूरामलजी को नया जन्म मिला, वे श्रावक-पथ से साधु-पथ के ‘शिशु’ बने। स्वेच्छा से ब्रह्मचर्य व्रत की प्रतिमा धारण की थी। क्या सम्बन्ध था विद्याधर के जन्म और पं. भूरामल के साधु पथ धारण के मध्य, कोई ज्योतिर्विद ही बतला सकता है। धर्म की निष्कम्प ज्योति जलाये रखने में राजस्थान के धर्मनगर ‘ब्यावर’ का योगदान अत्यन्त श्रेष्ठ है। यही वह नगर है जहाँ सन् १९४७ के आस-पास देश के प्रथम आचार्य, परमपूज्य शांतिसागरजी मुनि महाराज और द्वितीय आचार्य, परम पूज्य शांतिसागरजी महाराज (छाणी) एक समय में, एक नसिया में, पधार चुके हैं। सेठजी की नसिया में दोनों सन्त ससंघ ठहर कर चारित्र की नव धारायें श्रावकों के समक्ष उपस्थित कर रहे थे, तभी उनके दर्शनार्थ पं. भूरामलजी शास्त्री पहुँचे। चारित्र के दरबार में ज्ञान ने नमोऽस्तु किया।
आचार्यगण पंडितजी की प्रतिभा के विषय में पूर्व से ही जानते थे। काशी के पंडित और बाद में दाँता के पंडित के रूप में उनका परिचय, उनसे पूर्व ही, आचार्यों के समक्ष आ चुका था। आचार्यों के दर्शन और सान्निध्य से पंडितजी जितने अधिक प्रसन्न थे, पंडितजी के आगमन से आचार्यगण भी हर्षित थे। था सब कुछ मनोगत। पंडितजी शांतिसागरों के सान्निध्य में आठ दिन रहे। उनके आदेश से पंडितजी ने समाज को अपने प्रवचनों का लाभ भी दिया। आचार्यगण दिन में तीन बार पंडितजी से आगमों पर वार्ता करते थे, हर बार उन्हें लगता था कि आगम की कुञ्जी ही उन्हें मिल गई है। दोनों आचार्य पंडितजी के गम्भीर ज्ञान से मारी प्रभावित हुए।
एक दिन आचार्यों के सान्निध्य में वहाँ के धर्म और ज्ञान प्रेमी समाज ने, विशाल मंच पर पंडितजी का सत्कार किया। विद्वज्जनों ने बहुमान दिया। आचार्यों ने पंडितजी वेफ पांडित्य और काव्यकला की भर-भर मुँह प्रशंसा की और आशीर्वाद दिया।
Edited by संयम स्वर्ण महोत्सव