शेखावाटी - अंचल की बात है। मुनिवर विहार कर रहे थे, जंगल में थे, दाँता और फुलेरा के आस-पास। रात्रि बढ़ने लगी थी, बढ़ रहा था वह वैजन्य। मुनिवर साफ जगह में सामायिक कर रहे थे। साथ के श्रावक जल पीने के लिये शाम को ही बस्ती की ओर चले गये थे, लौटने वाले थे। अंधेरी रात थी, दस बजे थे, परन्तु वियावान में ऐसा लग रहा था जैसे रात के दो बज गये हों। अजीब किस्म के सुनसान में विभिन्न प्रकार की धीमी आवाजें मनों में डर भर रहीं थीं। तब तक एक चीता अपने चारों पैरों को दबा-दबा कर धरता हुआ मुनिवर के समीप आया और बैठ गया, जैसे कोई प्रहरी आ गया हो चौकसी के लिये।
मुनिवर ध्यान में मग्न, हिंसक पशु उनके सामीप्य में मग्न। तभी श्रावकगण बस्ती से लौटे। उन्होंने मुनिवर के समीप हिंसक पशु को शान्त बैठा देखा। पहले तो भयभीत हो गये, फिर पशु के आनन्द का अर्थ समझे। थोड़ी देर में पशु वहाँ से उठा और अपने गन्तव्य की ओर चला गया। श्रावकगण दौड़ कर मुनिवर के पास पहुँचे और वैयावृत्ति के लिये हाथ बढ़ा दिये। मुनिवर समझ ही न पाये थे कि वे पहले हिंसक पशु के संरक्षण में थे कुछ देर तक। उन्होंने जब नेत्र खोले तो अहिंसा प्रेमी श्रावक उनकी सेवा में उपस्थित थे।
हिंगोनिया (फुलेरा) में पू. मुनि ज्ञानसागरजी जब चातुर्मास काल पूर्ण कर चुके तो समाज के अनुरोध पर श्री सिद्धचक्र मंडल विधान और रथयात्रा महोत्सव का उत्साहवर्धक आयोजन किया, पूरे समय तक पं. रमेशचंद शास्त्री (सांभर) उपस्थित रहे एवं विधि पूर्वक विधान सम्पन्न कराने में सहयोगी बने। अंतिम दिन मगसिर कृष्णा ३, वि. सं. २०२०, दिन शनिवार (सन् १९६३) को प्रातः बेला में मुनिवर ने विधानों और रथों की शोभा यात्रा के गुण-दोष पर प्रभावनाकारी प्रवचन दिये और लोगों को विश्वास दिलाया कि ऐसे आयोजन धर्म एवं सामाजिक एकता के साधन बनाये जावें, किन्तु उनके कारण अनावश्यक क्रियाकांड और आडम्बर से बचा जावे। मुनिवर के प्रवचनों से लोगों में रथों के प्रति जो शौक/प्रदर्शन का भाव उपजा था, शान्त हो गया; केवल धर्मसाधना की बात मन में जीवित रह गई।
मध्याह्न पुन: पहले पूज्यवर के प्रभावी प्रवचन सम्पन्न हुए, फिर रजत मंडित रथ पर श्री १००८ देवाधिदेव को विराजमान कर भारी जनसमूह के साथ शोभायात्रा निकाली गई। उस जमाने में फुलेरा छोटासा कस्बा था, पर पाँच हजार से अधिक श्रावक समारोह में शामिल हुए, जिससे स्थानीय समाज को मुनिवर की प्रभावना पर भारी हर्ष हुआ। कार्यक्रम निर्विघ्न सम्पन्न हो गया। कृपा पू. ज्ञानसागरजी मुनि महाराज की। वर्ष १९६४ भी, वर्ष ६३ की तरह साहित्य लिखते हुए धर्मयात्रा पर चल रहा था। उस समय वे ग्राम मेढ़ा में अपनी साधना कर रहे थे। तभी दिल्ली के सुप्रसिद्ध धर्मप्रेमी श्रावक श्री फिरोजीलालजी उनके दर्शनार्थ मेढ़ा पहुँचे। कुछ ही दिनों में वह अनुभवी श्रावक पू. उपाध्याय ज्ञानसागरजी मुनि से इतने प्रभावित हुए कि वे उनसे प्रार्थना कर बैठे अपने साथ रख लेने के लिये, संघ में स्थान देने के लिये।
ज्ञानसागरजी ने श्री फिरोजीलाल्न की पात्रता निर्दोष पाई थी, अत: उन्हें स्वीकृति देने में हिचकिचाहटा नहीं लगी। दो एक दिन बाद ही समारोह पूर्वक उन्हें क्षुल्लक दीक्षा प्रदान की। जानकारों द्वारा बतलाया जाता है कि श्री फिरोजीलाल संघ में अधिक समय तक न चल सके, अपनी होनी के अनुसार वे असार संसार को छोड़ गये। पू. ज्ञानसागरजी अपने सुनिश्चित कार्यक्रमों को करते हुए धर्मसाधना और साहित्य लेखन में लीन रहे। कभी बस्ती, कभी जंगल पार किये, पर अपना लेखन क्रम निरंतर बनाये रखने में सफल रहे। लोग बतलाते हैं कि उनकी हस्तलिपि बहुत सुंदर थी। कागज पर लिखे गये शब्द मोतियों की कतार की तरह शोभा बिखेरते थे। हर अक्षर, शब्द, वाक्य पूर्ण रूप से स्पष्ट पठनीय होता था। कुछ भी इरछा-तिरछा नहीं। स्वस्थ लिपि, समृद्ध लिपि। उनकी लिपि का एक नमूना पाठकों के अवलोनार्थ यहाँ दिया जा रहा है।
विक्रम संवत २०२२ (सन् १९६५) चल रहा था। श्रीमान् कजौड़ीमलजी भागचंदजी अजमेरा तथा श्रावकश्रेष्ठ श्री भागचंदजी सोनी सहित अनेक श्रावकों की प्रार्थना स्वीकार कर पूज्य ज्ञानसागरजी महाराज चैत्र कृष्ण पंचमी को अजमेर स्थित सोनीजी की नसिया में पधारे। पूर्व मंत्रणानुसार फाल्गुन की अष्टाह्निका में श्री सिद्धचक्र, नन्दीश्वरदीप, ढाई द्वीप मंडल पूजन विधान का आयोजन पूज्यवर के सान्निध्य में निर्विघ्न पूरा हुआ। २८ फरवरी १९६५ को वृहत् रथयात्रा महोत्सव का भव्य आयोजन किया गया। विधि-विधान के कार्य पं. विद्याकुमार सेठी द्वारा सम्पन्न किये गये। विशाल अश्वरथ में श्री १००८ भगवान चंद्रप्रभजी की रजत प्रतिमा शोभा बिखेर रही थी। सारथी के स्थान पर श्री सोनीजी एवं श्री अजमेराजी विराजमान दीख रहे थे, रथयात्रा का दृश्य अनुपम था। शोभायात्रा नसियाजी से चौपड़ तक गई, पू. ज्ञानसागर भगवान चंद्रप्रभ जी शोभायात्रा में चरण-चरण चल वहाँ तक गये। समाज की प्रार्थना पर पूज्यवर के प्रवचन हुए। वहाँ पहुँचे हुए कतिपय विदेशी यात्री (फॉरिन टूरिस्ट) कार्यक्रम को देखकर अपनी भारी दिलचस्पी बतला रहे थे। आँखों को जो भव्य-दिव्य लग रहा था, उन्हें अपने कैमरों में बन्द करते जा रहे थे।
अजमेर के श्री जैनवीर-दल एवं जैसवाल मंडल का प्रबंध देखने और समझने की वस्तु बन गया था। बाहर से पधारे सहस्राधिक श्रावकों के लिये सविनय भोजन की व्यवस्था की गई थी। श्री दि. जैन विद्यालय के छात्रों द्वारा दिये गये संगीत के कार्यक्रम की मुनिवर द्वारा सराहना की गई। एक दिन पूर्व, २७ फरवरी १९६५ को डॉ. सौभाग्यमल दोसी द्वारा लिखित अभिनय “अहिंसा व्रत का प्रभाव भी युवकों द्वारा अभिनीत किया गया था, जिसकी सभी ने सराहना की थी। पूज्य ज्ञानसागरजी के सान्निध्य का नित-नित जनता ने लाभ लिया था। उनकी ‘चरण-वंदना’ प्रसन्नता का स्रोत बनी हुई थी। अजमेर के लोगों का मन संतुष्ट ही न हो पाया कि मुनिवर वहाँ से गगवाना को विहार कर गये।
गगवाना कहने को अजमेर से १२-१३ किलोमीटर है, पर यह तभी से वहाँ के एक मुहल्ले से अधिक प्रिय है। वहाँ राजकीय उच्चतर माध्यमिक शाला के विशाल प्रांगण में २१ मार्च ६५, रविवार को एक सार्वजनिक सभा का आयोजन किया गया, जिसमें वयोवृद्ध मुनिवर का सामाजिक एकता पर प्रेरक प्रवचन हुआ। आयोजकों ने उसी मंच पर आचार्य तुलसी की प्रमुख शिष्या साध्वी केसरजी को भी आमंत्रित किया था। विदुषी साध्वी ने अपने प्रवचन में पूज्य मुनिवर के सूत्रों को फलदायक बतलाते हुए उन पर अमल करने की बात कही।
श्रावक बतलाते हैं कि जैन ‘एकता’ की दिशा में वह एक महती सभा थी, जिसने सभी वर्ग के जैनों में मैत्री का संदेश पहुँचाया था। आयोजन के प्रारंभ में ही पं. विद्याकुमार सेठी ने विषय पर प्रकाश डाल दिया था। अणुव्रत समिति के उपाध्याय श्री गुलाबचंद महनोत ने, न केवल साध्वी केसरजी बल्कि मुनिवर ज्ञानसागरजी का परिचय भी अपने मुखारविन्द से दिया, जिसे सुन दिगम्बर जैन समाज के श्रोताओं को भारी हर्ष हुआ और वह परिचय एकता की भावना का आधार बन गया।
समिति के मंत्रीजी ने आभार ज्ञापित करते समय मुनिवर ज्ञानसागरजी एवं साध्वीजी को स्मरण दिलाया कि छह वर्ष पूर्व ऐसा संयोग गगवाना के नागरिकों को मिला था, फिर वह आज मिला, अब यह हर वर्ष मिले- हमें संतों का ऐसा आशीष चाहिए। उनके वक्तव्य से तालियाँ गड़गड़ा गईं। शाम होने के पूर्व सभा समाप्त हो गई। मुनिवर समय अधिक न दे सके और वे मीरशाहली जा पहुँचे। वहाँ भी सीमित समय तक ही रुके और पुनः २२ मार्च १९६५ को अजमेर जा पहुँचे। एक मायने में मुनिवर बहते जल की तरह अपनी यात्रा पर रहते थे, कहीं लगातार टिका रहना साधुचर्या के अनुकूल नहीं मानते थे।
अजमेर नगर की सीमा पर श्री भागचंद सोनी ससमूह मुनिवर की अगवानी के लिये पहले से ही उपस्थित थे। सोनीजी ने मुनि-चरण वंदना की, फिर नसियाजी में विराजने की प्रार्थना की। एक भारी जुलूस मुनिवर के साथ-साथ चलता रहा।