केशरगंज के प्रबुद्ध जन जब लौटने लगे। तो अपने मन की बात वहाँ के प्रबुद्ध जनों से कह आये । सो वहाँ के लोगों में भी पहले दिन से संकल्प बन गया कि गुरुवर को आचार्यपद दिये जाने का क्षण नसीराबाद को ही प्राप्त हो । वे टोह में रहने लगे कि जब भी कोई त्यागी यहाँ दीक्षित किया जावेगा तभी आचार्यपद की योजना भी पूरी कर ली जावेगी । नसीराबाद में शिष्यों को पढ़ाने का कार्य गुरुवर ने तेज कर दिया। वहाँ ठंड अधिक पड़ रही थी, जनवरी का माह था। तभी वहाँ बासिम (महाराष्ट्र) निवासी मुनिभक्त श्री लक्ष्मीनारायणजी जैन ने गुरुवर से प्रार्थना कि उन्हें श्रमण पथ की दीक्षा प्रदान कर भवभय से बचा लें। लक्ष्मीनारायणजी पूर्व से ही संघ में थे और ब्रह्मचारी दीक्षा प्राप्त कर चुके थे।
गुरुवर को उनकी पात्रता पूर्व से ही प्रभावित कर रही थी, अत: उन्होंने विषय पर विचार करना उचित ही समझा। एक दिन उन्होंने समाज-प्रधान से कहा कि ब्र. लक्ष्मी को मुनिदीक्षा देने का समय आ गया है, सुविधा हो तो ७ फरवरी (६८) को दीक्षा समारोह कर लिया जावे। संकल्प पूर्ति का क्षण दे सकता है, अत: उन्होंने गुरुवर के चरण पकड़ते हुए स्वीकृति में अपना शीष चरणों पर धर दिया और बोले विचार उत्तम है। हम शीघ्र व्यवस्था करेंगे। मंदिरजी से लौटकर प्रधानजी ने गुरुवर के आदेश से सभी को अवगत कराया। दूसरे दिन ही पंचायत की बैठक हुई और उचित कार्यकर्ताओं को कार्य-विभाजन कर दिया गया।
पत्रिकायें प्रकाशित कराई गई। सम्पूर्ण नगर में फिर केशरगंज मंदिर और सोनीजी की नसिया में पत्रिकायें सूचना पटल पर लगाई गई। बाहर के शहरों को भी यथासमय भेज दी गईं। पंडितों और विद्वानों के परामर्श से आठ दिवसीय समारोह की रूपरेखा बना ली गई, फिर आचार्यश्री के समक्ष प्रस्तुत कर, आज्ञा प्राप्त करली गई। धूमधाम और उत्साह के साथ गुरुवर के सान्निध्य में कार्यक्रम प्रारंभ करने के क्षण आ गये । सबसे पहले श्री कजोड़ीमलजी अजमेर द्वारा छोल भरी गई, वह ३१ जनवरी ६९ का समय था। दूसरे दिन अधिक संख्या और अधिक उत्साह ने स्थान पाया जब श्री रिखबचंद पहाड़िया पीसागन द्वारा आचार्य निमंत्रण किया गया। पं. चम्पालालजी द्वारा चारित्र शुद्धि विधान सम्पन्न कराया गया। उसी दिन सांध्य बेला में श्री पाथूलालजी प्रेमचंद बड़जात्या द्वारा शोभायात्रा सम्पन्न कराई गई। ब्र. लक्ष्मीनारायण साक्षात् राजकुमार दीख रहे थे, तब १-२ फरवरी को मध्याह्न, मण्डल विधान तो रात्रि में चौकड़ीमुहल्ला नसीराबाद के श्रावकों द्वारा पुनः शोभायात्रा।
३ फरवरी को पुनः दिन में मंडल विधान और रात्रि में श्री जतनलाल जी टीकमचंदजी गदिया द्वारा शोभायात्रा । ४ फरवरी को पुन: मंडल विधान पूजन और रात्रि में श्री कनकमलजी मोतीलालजी सेठी द्वारा शोभायात्रा प्रभावना का क्रम जारी रहा, फलत: ५ फरवरी को दिन में विधान और रात्रि में छप्यावालों की ओर से शोभायात्रा । ६ फरवरी को विधान, मंडल पूजन, शांति, विसर्जन, शांतिधारा और रात्रि में दिगम्बर जैन पंचायत नसीराबाद के संयोजन में विशाल शोभायात्रा। अति भव्य विन्दोरी। फिर आया ७ फरवरी ६९ का शुभ-प्रभात । प्रात: विशाल रथयात्रा निकाली गई। मध्याह्न एक बजे से दीक्षा कार्यक्रम । विशाल पंडाल में बीस हजार से अधिक नर-नारियाँ समा गये थे, लोग खिचे चले आ रहे थे, पंडाल में जगह न रह गई थी।
पहले जैन पाठशाला के छात्रों द्वारा सामूहिक मंगलाचरण प्रस्तुत किया गया, फिर अजमेर के श्री प्रभुदयाल जैन एडवोकेट द्वारा मंगलगान का पाठ किया गया। श्री मनोहरलाल जैन प्रधानाचार्य, (अभिनव प्रशिक्षण केन्द्र चिड़ावा) के मुख्य भाषण के बाद दीक्षा विधि प्रारंभ करने पूज्य आचार्य श्री ज्ञानसागरजी उठे और उन्होंने विधि-विधान पूर्वक ब्र. लक्ष्मीनारायण को दिगम्बरी मुनिदीक्षा तथा क्षु. सन्मतिसागरजी को ऐलक दीक्षा प्रदान कर दी। ब्र. लक्ष्मीनारायण का नामकरण किया गया- मुनि विवेकसागरजी और क्षुल्लकजी का ऐलक सन्मतिसागरजी। जैसा माहौल साल भर पहले, पू. विद्यासागरजी की दीक्षा के समय अजमेर में बना था, लगभग वैसा ही समदर्शी गुरुवर ज्ञानसागर के सान्निध्य से, नसीराबाद में बन गया था।
पू. विवेकसागरजी के उद्बोधन हुए। समय विशेष पर उनके पिता श्री सुगमचंदजी जैन एवं भ्राता श्री सुखदेवजी भी उपस्थित थे। परिवार की ओर से भरे गले से उनके पिताजी ने ‘दो शब्द' कहे थे दीक्षा के पूर्व । अन्य श्रावकों में श्री उम्मेदमलजी, श्री कजोड़ीमलजी, ब्र. प्यारेलालजी बड़जात्या, पं. विद्याकुमारजी सेठी अजमेर, पं. चम्पालालजी नसीराबाद आदि अपनी निरन्तर उपस्थिति बनाये रहे। सम्पूर्ण वातावदन आचार्यश्री और नवदीक्षित साधुओं के जयघोष से गूंज गया।
गुरुवर समझे कार्यक्रम पूर्ण हो गया। वे चुपचाप अपने आसन पर बैठे थे कि तब तक माइक से दीक्षा समारोह के अध्यक्ष सेवाभावी नागरिक एवं मुनि भक्त श्रावक श्री सुमेरचंद जैन की विनय युक्त आवाज आने लगी, श्रोताओं के कान उस तरफ हो गये, सभी जन शांति से सुनने लगे। सुमेरचंदजी के स्वर में नसीराबाद, ब्यावर, केशरगंज अजमेर और जयपुर आदि से पधारे श्रावकों के स्वर भी समाहित थे। स्वर थे- परमपूज्य आचार्यश्री हम सभी भक्तों और संघस्थ सन्तों की प्रार्थना पर ध्यान दें एवं आज की एक पावन बेला में संघ का आचार्यपद ग्रहण कर हम सबको उपकृत करें। श्री माणिकचन्द श्री वकील साहब ने समर्थन करते हुए समाज द्वारा प्रस्तावित प्रस्ताव पद को सुनाया। सेठ भागचन्द सोनीजी ने जैन समाज की ओर से समर्थन ज्ञापित किया।
माइक से निकलती आवाज ने सभी के कानों को धन्य कर दिया । हजारों श्रावकों का वह समूह एक सुर से पुकार उठा - “आचार्य पद'' उचित है। गुरुवर स्वीकार करें। देखते हुए भी, गुरुवर ने विनय पूर्वक मना कर दिया। किन्तु कोई उनकी बात मानने तैयार न हुआ, सभी जन प्रार्थनायें दोहराने लगे। गुरुवर जन्मजात विद्वान थे। वे जान रहे थे कि यह आचार्यपद उनके मुनिपद पर एक भार है, एक परिग्रह है, पर संघ का सविधि संचालन करने के लिये वह उचित भी है। वे मौन होकर अपने स्थान पर बैठ गये। पंडितों ने आचार्यपद क्रिया विधि-विधान सहित प्रारंभ कर दी। कुछ ही समय में कार्य पूर्ण हो गया। प्रधानजी ने माइक पर जोर से पुकारा बोलिये “आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज की जय।
सम्पूर्ण उपस्थित लोगों ने भारी हर्ष के साथ जयघोष किया। फिर अनेक जयघोषों से आकाशक्षेत्र भर दिया। प्रधानजी ने आभार प्रकट किया और गुरुवर से : उच्चासन पर पधारने की प्रार्थना की। गुरुवर उच्चासन पर आसीन हो गये। पुन: काफी समय तक जयघोष होता रहा। नसीराबाद धन्य हो गया। धन्य हो गये वे नेत्र जो वहाँ उपस्थित थे। गुरुवर के जीवनकाल में नसीराबाद के प्रसंग ऐसे जुड़े हैं कि बगैर उनकी चर्चा के पू. ज्ञानसागर के जीवन वृत्त को कहा ही नहीं जा सकता। वही नसीराबाद पू. विवेकसागरजी के नाम से भी जुड़ गया, जब उन्हें यहाँ मुनि दीक्षा मिली।
दूसरे दिन शाम को कतिपय वरिष्ठ श्रावकगण गुरुवर के पास बैठे धर्म-चर्चा कर रहे थे, तब एक सज्जन ने विनयपूर्वक पूछा- गुरुवर, आपने जब पू. विद्यासागरजी एवं पू. विवेकसागरजी का दीक्षा कार्यक्रम रखा था,तब उनके लिये भव्य विन्दोरी निकाले जाने के पावन संकेत प्रदान कर दिये थे, किन्तु जब सन् ५९ में पू. शिवसागरजी खानिया में आपको मुनि दीक्षा दे रहे थे, तब आपने विन्दोरी नहीं निकाली जाने दी थी, ऐसा क्यों? पू. ज्ञानसागर वरिष्ठ श्रावक के प्रश्न से सोच में पड़ गये, फिर अतीत और वर्तमान पर ध्यान देते हुए बोले- जब मुझे दीक्षा दी जा रही थी, उस वक्त मेरी उम्र ६५ से ऊपर हो पड़ी थी। क्या हाथी पर ६८ वर्ष के सजे धजे वृद्ध को ‘राजकुमार' मानने में जनमन का मानस स्वीकारोक्ति सहजता से दे पाता? राजकुमार की तरह काले घूघराले केशों का सत्य कहाँ से लाता? श्रेष्ठिजी, उम्र और समय देख कर निर्णय लेने पड़ते हैं। विद्यासागरजी और विवेकसागरजी गजराज पर, बैठने के पूर्व ही साक्षात् राजकुमार दिख रहे थे, अतः उनके लिये विन्दोरी का निकाला जाना उचित था, वयसंगत उपक्रम था।