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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. 02/05/2018 *संयम कीर्ति स्तंभ का शिलान्यास हुआ* गोटेगाँव जिला नरसिंहपुर( मध्य प्रदेश) आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महाराज के 50 वे मुनि दीक्षा दिवस *''संयम स्वर्ण महोत्सव'*' पर श्री देव पार्श्वनाथ दिगंबर जैन मंदिर शास्त्री वार्ड गोटेगांव में मुनि श्री 108विमल सागर जी महाराज मुनि श्री 108 अनंत सागर जी महाराज मुनि श्री 108 धर्म सागर जी महाराज मुनि श्री 108अचल सागर जी महाराज मुनि श्री 108अतुल सागर जी महाराज मुनि श्री 108भाव सागर जी महाराज ससंघ के सानिध्य में मार्बल का लगभग 27 फीट का संयम कीर्ति स्तंभ बनेगा । ऐसे पूरे देश में लगभग 1100 बन रहे हैं । 2 मई 2018 दिन बुधवार को प्रातः काल शिलान्यास हुआ। इस कार्यक्रम में निर्देशन ब्रह्मचारी मनोज भैया जबलपुर का रहा, यह पूरे भारत का अनोखा कीर्ति स्तंभ होगा इस में स्वर्ण अक्षरों में एवं रत्नों से कारीगरी होगी। इस कीर्ति स्तंभ के पुण्यार्जक सिंघई अनिल कुमारअनुपम साड़ी केंद्र सिंघई पंकज कुमार अनुपम मॉल वाले हैं। ज्ञात हो कि मुनि संघ के सानिध्य में प्रेरणा एवं मार्गदर्शन में विभिन्न जगह संयम कीर्ति स्तंभ बन रहे है। *मूकमाटी रचियता आचार्य श्री १०८ विद्यासागर जी महाराज* के आज्ञानुवर्ती शिष्य *मुनि श्री विमल सागर जी* *मुनि श्री अनंत सागर जी* *मुनि श्री धर्म सागर जी* *मुनि श्रीअचल सागर जी* *मुनि श्री अतुल सागर जी* *मुनि श्री भाव सागर जी* महाराज के सानिध्य, प्रेरणा एवं मार्गदर्शन में निर्मित हुए कीर्ति स्तम्भ *कम्पलीट*:- पिंडरई,लखनादौन,केवलारीराजनांदगांव ,जगदलपुर, सिवनी,चौरई, छिंदवाड़ा मंडला और घंसौर। *इन्कम्प्लीट*:- नागपुर सिलवानी,गौरझामर, बिलहरा,(मार्बल आ चुका) *प्रस्तावित*:- गोटेगाँव, नरसिंहपुर ,तेंदूखेड़ा (पाटन) तारादेही,बरेली(बाड़ी), पनागर। *योजना*:- खितौला,रहली,झलोन, शहपुरा(भिटौनी) आप भी इन नगरों की तरह अपने नगर में संयम कीर्ति स्तंभ अवश्य बनवाएं। इस अवसर पर ब्रमचारी मनोज भैया जी जबलपुर ने कहा कि सहारनपुर में श्रावकों को ने कहा कि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज सहारनपुर नहीं आ रहे हैं लेकिन संयम कीर्ति स्तंभ रहेगा तो हम मानेंगे कि आचार्य श्री ही विराजमान हैं। सहारनपुर में तीन कीर्ति स्तंभ बन रहे हैं इस अवसर पर मुनि श्री विमल सागर जी ने कहा कि जिसका पुण्य रहता है उसके पास धन रहता है आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने स्वयं संयम धारण किया और जीवो को संयम के मार्ग पर लगाया गुरुदेव ने 50 वर्ष संयम में निकाले हैं यह 50 हजार वर्ष हो गए है । गोटेगांव की कीर्ति भी पूरी दुनिया में संयम कीर्ति स्तंभ के माध्यम से फैल जाए ।आचार्य श्री ने कहा था कि बुंदेलखंड के लोग भले ही धन का दान कम करें लेकिन चेतन रत्नों का दान करते रहते हैं जो मुनि आर्यिका एलक क्षुल्लक ब्रह्मचारी ब्रह्मचारिणी व्रती बन जाते हैं । आचार्य श्री के निमित्त से अनेक लोगों की परेशानियां दूर हो गई। *प्रेषक*:- इंजीअभिषेक जैन गोटेगाँव 9993609541
  2. जब भूरा १० वर्ष के हो गये तो वे सीकर शहर जाने के लिये उतावले रहते। कभी भाई के साथ, कभी पिता के साथ जाने का अवसर निकल ही आता था। भूरामलजी, जो बाद में आचार्य ज्ञानसागर के नाम से जगविख्यात हुए, बचपन में मात्र ८ वर्ष तक ही पिता का प्यार पा सके थे। कहें कि वे दस वर्ष के ही हो पाये थे कि क्रूर नियति ने बालक से उसकी सर्वाधिक प्रिय वस्तु-पिता को छीन लिया। वियोग का असर भूरामल पर ही नहीं, पाँचों भाइयों पर पड़ा। सर्वाधिक बड़ा आघात लगा धर्मपत्नी घृतवरी देवी को, जिनके सामने १२ वर्ष की उम्र से लेकर दो वर्ष की उम्र तक के चार बच्चे पहले ही से थे और पाँचवा पुत्र जिसका नाम बाद में देवीदत्त पड़ा, जो गर्भ में था। घर-गृहस्थी का भार था ही और था वियोग का दारुण दु:ख। समाज तो समाज, सारे गाँव में करुणा का सागर उमड़ पड़ा था। कि चतुर्भुजजी के निधन से राणोली का एक हँसता-खेलता परिवार टूट गया वह सन् १९०२ की घटना है। वि. सं. १९५९ की। खेत प्यासे रहने लगे। खलियान भूखे। घृतवरीजी ने पाँचों पुत्रों के लालन-पालन में कोई कसर नहीं की, वे अपने शरीर को, खेतों-कुओं के मध्य दोड़-दौड़ कर, कमजोर करती रहीं। पति वियोग का आघात, ऊपर से बच्चों की परवरिश के लिए जी-तोड़ श्रम, नतीजा वे बीमार रहने लगीं। लौकिक शिक्षा पाते हुए बचपन में ही, धर्मानुरागी परिवार के बालकों को एक लाभ और मिला, वहाँ निवास कर रहे पण्डित जिनेश्वरदासजी का संयोग। वे मूलरूप से कुचामन के रहनेवाले थे, पर प्रकृति ने बच्चों को ज्ञान देने, जैसे उन्हें वहाँ, राणोली में ही रोक रखा हो। वे रह रहे थे चैन से, सपरिवार। सुबह-शाम बालकों को जैनधर्म की पोथियाँ पढ़ाते और उनमें धर्म के प्रति नित नव झुकाव पैदा करते। इस महासंयोग का सर्वाधिक लाभ उठाया बालक भूरामल ने। वे पण्डितजी की कृपा से बाल्यकाल से ही जैनधर्म में प्रवीण हो गये थे, अपनी ही वय के छात्रों के मध्य। पिता का निधन हुए धीरे-धीरे कुछ वर्ष बीत गये, तब तक १३ वर्ष का छगन अब १६ वर्ष का युवक हो गया था। उसके कंधे गृहस्थी का भार उठाने को बेताब थे। माता से चर्चा की तो माता कुछ बतला न सकी। तब छगनलाल ने ही अपने वंशजों को बिहार प्रान्त में जमता हुआ देख-विचार रखा कि वह भी बिहार प्रान्त जाकर कोई धन्धा करेगा। गृहस्थी का बढ़ा हुआ भार पुत्र को तिरोहित कर रहा था। उसकी तैयारी देख १३ वर्षीय भूरामल भी उसके साथ जाने की जिद करने लगे। अंत में निर्णय भूरामल के पक्ष में गया। वे बड़े भाई श्री छगनलाल के साथ बिहार प्रान्त के नगर गया को प्रस्थान कर गये, वह सन् १९०४ की घटना है। गया शहर में एक श्रावक के यहाँ, दोनों भाई नौकरी करने लगे। माह भर में दोनों को जो पैसा मिलता, उसमें से कुछ अपने ऊपर व्यय करते और शेष घर पहुँचाने के लिये जमा करते जाते। करीब तीन माह बाद उन्होंने अपनी प्रथम कमाई का नन्हा अंश पूज्य माताजी के लिए मनीआर्डर से भेजा। कुछ और माह बीते। भूरामल को नौकरी करते हुए जीवन निकाल देना उचित नहीं लगा, अत: उनने एक दिन अपने बड़े भाई से अनुरोध किया कि मेरी नौकरी से कुछ खास लाभ तो होता नहीं, अत: आप आज्ञा दें तो आगे पढ़े और कुछ अन्य धन्धा भी करूं। सौभाग्य से एक दिन दोनों भाइयों को एक “छात्र-दल” को देखने का अवसर मिला, वे छात्र स्याद्वाद महाविद्यालय बनारस से आये थे, गया नगर में आयोजित किये जा रहे किसी बौद्धिक एवं धार्मिक कार्यक्रम में भाग लेने। उनकी सादा किन्तु गरिमापूर्ण रहन-सहन देख कर दोनों भाइयों के मन में गहराई तक शिक्षा के महत्त्व का प्रभाव स्पर्श कर गया। भूरामल उन छात्रों के सुन्दर भविष्य की चर्चा करने लगे ,अपने अग्रजवर से। किशोर अनुज से अनुभव सिद्ध बातें सुन कर छगनलाल आश्चर्य में पड़ गये। वे जान गये कि समय की मार ने भूरामल को अनुभवों की राशि प्रदान कर दी है। न्यून धन-राशि वाले भ्राताओं के पास अनुभव की मोटी राशियाँ संग्रहित हो रही थीं, जो उनका मार्गदर्शन करती थीं। बड़े भाई का झुकाव देखते हुए, एक दिन गया के मददगार श्रावक ने एक पत्र बनारस के श्रावक के लिये लिख दिया। भूरामल उस पत्र को लेकर बनारस चल दिये। बड़े भाई ने छोटे को विदा दी। चंद नि:श्वासें। छोटे ने आँसुओं के दो मोती भाई के चरणों पर चढ़ाये और उनके आशीष का सम्बल लेकर प्रस्थान कर गये। बिछुड़ों को मिलाने में भारतीय रेलों का इतिहास भरा पड़ा है, पर साथ रह रहे आत्मीयों पर वियोग का दर्द भी वे देती रही हैं। गया स्टेशन पर एक ट्रेन रेल पर रेंगती सी आई और एक भाई को अपने मन में बिठाल कर ले गई। रेल चलती रही। नन्हा भूरा स्टेशनों की तरह दुनिया को पीछे छूटता, देखता रहा। उसे लगा- बारी-बारी सब कुछ छूट जाना है। कोई मुसाफिर बुदबुदाया - बनारस आ गया। भूरा ने सुनकर नजर प्लेटफार्म पर दौड़ाई - अनेक खम्मों पर टॅगी पट्टियों पर वे पढ़ते रहे- वाराणसी।बनारस/वाराणसी/काशी/तीनों नामों से परिचित थे भूरा। अत: सहजता से अपना सामान लेकर उतर गये ट्रेन से। वे अपने सामान के आप मालिक थे, आप कुली थे। एक गठरी कंधे पर और एक थैला था हाथ में, इतना ही परिग्रह था भूरा के पास। (जो जन काशी गये हैं, वे जानते हैं कि काशी में भी दो काशी हैं। एक है शिवकाशी और दूसरी है। विष्णुकाशी। पंचगंगा से राजघाट तक विष्णुकाशी फैली है। तो मुक्ति धाम कहाने वाले मणिकर्णिका से लेकर अस्सीपुरा तक शिवकाशी है। मूलरूप से ये घाट श्मशान घाट ही माने जाते हैं सो काशी कहलाने लगी घाटों की नगरी। यहीं है एक घाट भदैनी-घाट, जिस पर रोज मेला-सा भरता है।) एक कुएँ पर गये, बर्तन पर छन्ना लपेटा और पानी पिया। फिर श्रावक का पत्र निकाला जेब से, पता पढ़ा और चल दिये उसे ढूंढने। कई घंटों तक चलते रहे, पर पते पर न पहुँच सके, तब उनने कागज पर लिखे पता को धता बता कर, सीधे, संस्कृत विद्यालय की रास्ता पकड़ी और पूछते-पूछते पहुँच गये गन्तव्य पर। ठगों का शहर बनारस सिर्फ ठगों का नहीं था, वहाँ विद्वान जन भी स-स्वाभिमान बसा करते थे। भूरामल ने विद्वानों का स्थान खोज लिया था। विद्यालय के अधीक्षक से वार्ता की। अधीक्षक भी सत्पुरुष था, उसने भूरामल के व्यक्तित्व पर लिखित निर्धनता की कहानी चुपचाप पढ़ ली थी, फिर भी किसी रईस के बेटे को स्थान देने के बहाने, गरीब के बेटे को भटकाया नहीं। वहाँ अमीरी और गरीबी का लेबल (छाप) नहीं देखा जाता था, वहाँ देखी जाती थी पात्रता। सत् पात्र होना। भूरामल पढ़ने लगे स्याद्वाद महाविद्यालय में। इसकी स्थापना सुप्रसिद्ध जैन संत पू. क्षु. गणेशप्रसाद वर्णीजी ने की थी। शिक्षकों-गुरुओं और सहपाठियों के सहयोग से एक छोटा-सा कमरा, जिसे हम कुठलिया कहते हैं, किराये पर ले लिया। रहने लगे भूरा। पढ़ने लगे भूरा। गया में छगनलाल नौकरी कर्म में जमते गये। कुछ वर्षों तक नौकरी की। फिर अपना छोटा-सा निजी धंधा प्रारम्भ कर दिया। राणोली में माता घृतवरी अपने शेष तीन पुत्रों के साथ खेती-पानी का कार्य करती हुई जीवन-यापन करती रहीं। बीच-बीच में छगन के द्वारा भेजे जानेवाले रुपये-पैसे उन्हें मिलते रहते थे। राशि लघु ही होती थी, फिर भी किंचित् सहारा देती ही थी। बनारस में स्याद्वाद-महाविद्यालय की गोद में भूरामल शिक्षा प्राप्त करते रहे। वे छात्र थे, उनके पास कोई संचित धनराशि भी नहीं थी, अतः कुछ ही दिनों में उनके सिर पर आर्थिक संकट मँडराने लगा। स्वाभिमान की रक्षा करने में निपुण भूरामल श्रम करने से कभी नहीं डरते थे। आर्थिक संकट का समाधान उन्होंने खोज लिया, वे एक कपड़ा व्यापारी के यहाँ से रोज कुछ गमछे उठा लाते, उन्हें कंधे पर टाँग कर बनारस की सड़कों पर और गंगा के घाटों पर जाकर बेचते। भदैनी-घाट उनका मुख्य व्यापार स्थल बन गया था। रोज कुछ न कुछ गमछे बिकते थे। उनसे जो आय होती उससे अपना कार्य चलाते थे। उनकी लगन और मेहनत देख कर व्यापारी बंधु उन पर प्रसन्न रहने लगे, फलत: प्रारंभ में जहाँ सीमित संख्या में गमछे उन्हें दिये गये थे, अब उनके मनमाफिक दिये जाने लगे। गमछों के धन्धे में किसी व्यापारी का उधार नहीं रखा । पैसे तुरन्त के तुरन्त चुका देते। अर्जित लाभ से उन्हें दो समय का भोजन मिल जाता था। वर्ष में कुछ कपड़े। पहिनने के कपड़े, ओढ़ने-बिछाने के कपड़े।
  3. गुप्त वार्ता, गुप्त न रह सकी, वह शीघ्र ही सारे राज्य में कानों-कान फैल गई। समाचार जब परमपूज्य आचार्य पुंगव १०८ श्री जिनसेन स्वामी तक पहुँचा तो वे करुणा से भर उठे। उन्होंने तुरन्त विहार किया और खण्डेला जा पहुँचे। भरे दरबार में राजा को जाकर पुकारा - “हे राजन्! अनाचार के पाप से बच, हमारी बात पर ध्यान दे।” आचार्यश्री की आवाज सुनकर राजा अपने स्थान पर खड़ा हो गया, हाथ जोड़कर नमस्कार किया, फिर निर्दोष बनता हुआ बोला - ‘आचार्यश्री ! दरबार में आने का कष्ट क्यों उठाया?' आचार्यश्री ने घटना का खुलासा करते हुए राजा से स्पष्ट शब्दों में पूछा – मुनियों का होम देने के बाद भी महामारी नहीं गयी, तो फिर आप क्या करेंगे? मिथ्यावादियों और ईष्र्यालु लोगों की बात में आकर आप भारी भूल कर रहे हैं, इसे सुधार कर, अपना और अपने धर्म का गौरव बढ़ायें। - वह कैसे ? आप जनता को स्वच्छ पानी के स्रोतों की स्थाई व्यवस्था करायें। उबाल कर ठंडा किया गया छना पानी पीने की परम्परा बनायें। लोगों में शुद्ध खान-पान और निर्मल-ध्यान का रुझान बढ़ायें। राजा आचार्यश्री की वार्ता से प्रभावित हो गया। वह बोला-ठीक है, सब कर दूंगा, मगर निर्मल-ध्यान का रुझान कैसे बनेगा ? आप कल से ही पंचपरमेष्ठी-विधान का आयोजन प्रारम्भ करें। - जो आज्ञा आचार्यवर। राजा ने विधान का आयोजन कराया। लोगों को एकत्र कर उनमें शुद्ध खान-पान की प्रेरणा जगाई, फलत: उनके चित्त में घुसे विकारों के स्थान पर निर्मल-भावों ने स्थान ग्रहण कर लिया। धीरे-धीरे महामारी विदा ले गई। खण्डेला का वह अजैन राजा, आचार्य जिनसेन से इतना प्रभावित हो गया कि बाद में उसने अपने अधीन प्रजा सहित जैनधर्म अंगीकार कर लिया। आचार्यश्री ससंघ कुछ दिवस खण्डेला में ही रुके और राजा के अनुरोध पर उन्हें और प्रजा को जैनधर्म में दीक्षित किया। कालान्तर में खण्डेला का वह दीक्षा महोत्सव इतिहास का उजला पन्ना बन गया। जब आचार्य श्री ने समस्त दीक्षित-जनों को सम्बोधित करते हुए कहा कि खण्डेला की पावन धरती पर प्राप्त नव संस्कार के अनुसार आप सब, अब “खण्डेलवाल” उपजाति से जाने जावेंगे। इस तरह खण्डेला-राज्य उस काल से खण्डेलवाल समाज के उद्गम का हेतु बना। उसी समय से वह “जैन राज्य” कहा जाने लगा, अनेक वर्षों तक वहाँ खण्डेलवाल जैनों को राज्य रहा। एक उक्ति है, “सब दिन रहत न एक समाना”। यह खण्डेला राज्य के साथ भी घटित हुई। जैनों का उत्कर्ष देखनेवाला वह राज्य धीरे-धीरे पुन: सत्ता-लोलुप सम्प्रदायों के हाथ चला गया फलत: जैन, जैनत्व और जैनधर्म का अपकर्ष शुरू हो गया। विभिन्न स्वभाव और विभिन्न जातियों के राजा वहाँ के सिंहासन पर आरूढ़-अवरूढ़ होते रहे, फलत: १७ वीं शताब्दी के अंत तक नगर खण्डेला में मात्र सात सौ घर के जैन बचे थे, धीरे-धीरे वे भी देश के विभिन्न प्रान्तों-नगरों को चले गये। पं. भूरामलजी शास्त्री इसी खण्डेलवाल समाज से थे। उनके खण्डेलवाल वंश का परिचय ग्यारहवीं शताब्दी तक उपलब्ध भी है, जिस पर सविस्तार चर्चा यहाँ उचित मानी जावेगी। वंशावली श्री प्रयागदासजी खण्डेलवाल से प्रारंभ होती है, जो उस काल में खण्डेला राज्य के दीवान पद पर प्रतिष्ठित थे। उनका गोत्र छाबड़ा था। दीवानजी की उदारता और सच्चाई से राजा की दुर्नीतियाँ मेल नहीं खा रही थीं, अत: शान्ति और न्याय पसन्द श्री प्रयागदासजी वह सेवाकार्य छोड़ कर, खण्डेला से सीकर चले गये। वे धीरे-धीरे वृद्ध हो गये, किन्तु पुत्र पृथ्वीदास युवा एवं लगनशील था, अत: उसकी योग्यताओं पर ध्यान देते हुए वहाँ सीकर-राज्य के राजा ने उन्हें प्रमुख दण्डाधिकारी/ दण्डनायक नियुक्त कर दिया। इस वंश की न्यायप्रियता से न केवल राजघराना, बल्कि समग्र जनता के विचारवादी लोग भी प्रसन्न थे। अतः श्री प्रयागदास और श्री पृथ्वीराज के निधन के बाद उनकी तीसरी पीढ़ी के वंशज श्री चैनोराम जब राणोली में जाकर बसे तो वे भी वहाँ के दण्डाधिकारी बना दिये गये। तब तक वहाँ का राजा भी बदल चुका था। राणोली के राजमहल के समीप ही १६ कक्ष की त्रि-खण्डीय हवेली के निर्माण के बाद श्री चैनोराम को सपरिवार उसमें निवास करने के अधिकार प्रदान किये गये - राजा के द्वारा। श्री चैनोराम के सात पुत्र-पुत्रियाँ हुए थे, जिनमें श्री सालिगराम बड़े थे, अत्यन्त योग्य भी थे। फिर सालिगरामजी की संतान में श्री रूड़मल जी ज्येष्ठ हुए। रूड़मलजी के पुत्रों में श्री सुखदेव बड़े पुत्र थे। सुखदेवजी के तीन पुत्र हुए, उनमें श्री चतुर्भुजजी ज्येष्ठ और कर्मठ थे, वह छाबड़ा गोत्रीय खण्डेलवाल वंश की सातवीं पीढ़ी के नायक सिद्ध हुए थे। श्री चतुर्भुजजी के भवन में पाँच पुष्प खिले थे, जिनमें से द्वितीय क्रम पर पण्डित भूरामलजी आठवीं पीढ़ी के प्रतिनिधि बने और उन्होंने अपने कार्यों एवं जीवन शैली से सम्पूर्ण खण्डेलवाल समाज का गौरव बढ़ाया था। श्री भूरामलजी के अन्य भाइयों में से तीन तो राणोली में ही रहे, बड़े श्री छगन बिहार प्रान्त स्थित नगर देवधर में जाकर बस गये थे। कहते हैं कि श्री भूरामलजी का जब जन्म हुआ था, तब उनके पिता श्री चतुर्भुजजी सपरिवार राणोली की उक्त १६ कक्षवाली हवेली में ही निवास करते थे। भूरामलजी का जन्म हवेली के दक्षिण-पश्चिम कोने में निर्मित कक्ष में हुआ था। जिन्होंने भूरामल का बाल्यकाल देखा है, वे अपनी सन्तानों से उनकी चर्चा करते रहे हैं और उनकी सन्तान अपनी सन्तान से। कहें, एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक उनकी चर्चा प्रकाश में लायी जाती रही है। भूरा तीन वर्ष की उम्र से मंदिर जाने का क्रम समझने लग गये थे। सुबह माता के साथ तो शाम को पिता के साथ मंदिर जाते थे। कभी-कभी सुबह की बेला में देर से नहा पाते तो बड़े भाई छगन के साथ जाते, परन्तु जाते अवश्य। मंदिर जाकर जितनी देर मूर्तियों के दर्शन करते, उतनी ही देर दीवाल पर लगे हुए चित्रों को देखते रहते। वे अन्य बच्चों की तरह चंचल नहीं थे, शान्त स्वभावी थे। बस्ते में किताब और स्लेट के अतिरिक्त कुछ नहीं रहता था। उनकी किताब कभी गंदी नहीं होती थी, वे उसे तरज्जुत से रखते, निकालते, उठाते और पढ़ते थे। वर्ष पूरा हो जाता, परन्तु उनकी किताब नयी ही बनी रहती थी। भूरामल की माताजी साफ-सफाई पसंद नारीरत्न थीं। छगन या भूरा जब भी खेलकर लौटते थे, वे दोनों के कपड़े उतरवा कर एक पृथक् कमरे में टॅगवा देती थीं, फिर घर के कपड़े पहनकर ही बच्चे घर की वस्तुएँ छुपाते थे। माँ का मानना था कि बाहर सभी प्रकार के बच्चे रहते हैं, कोई नहाकर आता है, कोई नहीं। कोई पन्हैयों (जूतों) में गन्दगी लगाये है तो कोई गन्दगी कुचर के आया है, अत: बच्चों के खेल के कपड़े पृथक् ही रहना चाहिए, ताकि घर की शुद्धि अखंडित रहे। बचपन से ही भूरामल में स्पर्धा का भाव नहीं था। वे यह नहीं देखते थे कि कौन बालक क्या पहनकर आया है, उसने सस्ता पहिना है। या महँगा। वे अपने तन को ढाँकने के उद्देश्य से कपड़े पहनते थे। गाँव में एक विशाल जैन मंदिर था। उनका मकान इसी मंदिर के पास था। मंदिर की दीवालों पर लिखे धार्मिक विचार वे रोज पढ़ते थे। मुख्य द्वार के ऊपर बने बड़े-बड़े साँथिये (स्वस्तिक) की तरफ वे काफी देर तक देखते रहते थे, जैसे उन्हें भी बाँच रहे हों। कभी-कभी मुख्य द्वार पर निर्मित अर्द्धचन्द्राकार गुलाइयों को देखते रहते। मंदिर में बने कमानियागेट (सिंह द्वार) मंदिर की शिल्प की आभा बढ़ाते लगते थे। भूरा जब भी इन दरवाजों में से होकर निकलते थे, उनकी बनावट पर नजर गड़ा देते थे। उन्हें मंदिर का वह स्वरूप बहुत अच्छा लगता था। घर के कार्य बच्चों पर न डाले जावें, ऐसा चलन ग्रामों में न था। बच्चे खेत-खलियान से लेकर दुकान-व्यापार में तक बड़ों का साथ देते थे और पढ़ने का समय भी निकाल लेते थे। इतना ही नहीं, घर के कार्यों के बीच उनके मंदिरजी जाने का क्रम भी निरन्तर बना रहता था। दोस्तों से मिलना-जुलना, उनके साथ खेलना-कूदना और कभी मेला बाजार भी जाना होता रहता था। मगर घर के बड़ों की आज्ञा अवश्य लेते थे कहीं जाने के पहले।
  4. राणोली के खेतों में चतुर्भुजजी का पुरुषार्थ धूप की तरह फैला रहता था। वे अपने कृषि कार्य में व्यस्त रहते थे। “खेती आप सेती” का सूत्र बचपन से ही सुना-गुना था। अत: न्यौछावर करते रहते थे अपने श्रमबिन्दु सीकर के खेतों खलिहानों पर। बालक अभी डेढ़ साल का भी न हो पाया था कि एक दिन भारी अचम्भा उपस्थित हो गया, भूरा हवेली के बड़े कक्ष में बाजू के बने कमरे में बैठा-बैठा खेल रहा था, माँ वहीं पानी से भरे हुए बर्तन तरतीब से जमा रही थी। दोनों अपने-अपने कार्यों में लीन थे, तभी एक काला साँप वहाँ से निकला, भूरा उसकी चमक और हलचल देख कर उसकी तरफ चल पड़े, उसकी पूंछ पकड़ी और खींच लिया अपनी तरफ। माँ की दृष्टि पड़ी तो जोर से चीखी - “बेटे छोड़ उसे, वह काटता है।” बेटा तो यह जानता ही नहीं था कि काटना क्या कहलाता है, छोड़ना क्या होता है। वह हँसता रहा, उसके मुंह से खेल-खेल में निकलने वाली आवाजें होती रहीं। तब तक सर्प बालक से लिपट गया। माँ डरती थी, अत: जोर-जोर से चिल्लाने लगी- कोई बचाओ मेरे भूरा को। तुरन्त किसी को समीप ने देख, पुनः भूरा से बोली - छोड़ दे बेटे, छोड़ उसे। माँ देखती है कि भूरा ने हाथ ढीला कर दिया, साँप हाथ से मुक्त हो चुका है, जो भूरा से लिपट गया था, वह उससे दूर हो गया है और घर से बाहर की ओर सरक गया है। माँ अवाक् देखती रही। सर्पराज बाहर चले गये। भूरा हँसते हुए खड़े हैं, उनकी केश-राशि उड़ रही है, चंदनी वदन चमक रहा है। जैसे कुछ हुआ ही न हो। माँ ने धन्यवाद दिया मन ही मन नागराज को। फिर दौड़ कर भूरा को गोद में उठा लिया। उसके सुर्ख कपोलों की गोलाई को चूम लिया। जैसे मन में कह रही हो - आज तुम बच गये बेटे, वरना न जाने क्या हो सकता था ? भूरा तीन वर्ष के थे। छगन भैया छ: के तब तक घर में एक शिशु और आ गया माँ घृतवरी की कोख से, उसका नाम रखा गया - गंगा। जिन कक्षों में, जिन देहरियों पर, जिस झूले पर पहले छगन खेले, उन्हीं पर बाद में भूरा खेले और उन्हीं पर गंगा। भूरा को दर्पण देखने का भारी शौक था। कहीं से खेलकर लौटते तो दर्पण उठाकर देखने लगते, जैसे अपने आपको पहिचानने का सद् प्रयास कर रहे हों। काफी देर तक दर्पण लिये रहते तब माँ दर्पण छुड़ाकर नियत स्थान पर धर देती और भूरा से पूछती - क्या निहारता रहता है ? दर्पण में चार वर्ष का भूरा कुछ जवाब न दे पाता, सो यहाँ-वहाँ भाग जाता। बालक घर के हर सदस्यों से तो बोलता बतियाता ही था, बाहर से आनेवाले आगन्तुकों के पीछे पड़ जाता था। किसी से पूछता - तुम्हारा नाम क्या है ? आगन्तुक हँस कर अपना नाम बतलाते तब तक भूराजी दूसरा प्रश्न जड़ देते - आप कहाँ रहते हैं ? उत्तर मिलता तो फिर कोई प्रश्न - आप यहाँ क्यों आये हैं ? प्रश्नों से विद्वान आगन्तुक परेशान हो जाते। अत: कह पड़ते -“ये तो सिपाही की तरह पूछता है। क्या इरादे हैं भैया तेरे ?” घर तो घर, बाहर के लोग भी नहीं समझ पाते थे कि प्रश्न करने वाला वह बालक भविष्य में अनेक विकट प्रश्नों का समाधानकर्ता सिद्ध होगा। बालक का मन गिल्ली-डंडा खेलने में भी खूब लगता था। हवेली के पास तो पास, दूसरे मुहल्ले में भी यदि बच्चे खेल रहे होते तो भूरा वहाँ चले जाते और घंटे दो घंटे गिल्ली-डंडा में लीन रहते। उस काल में शाला नहीं थी नगर में। छगन एक ब्राह्मण शिक्षक के घर पढ़ने जाते तो भूरा उसे देखते रहते, और जब कभी, किसी दिन उनका बस्ता मिल जाता तो वे उसे उठा कर पढ़ने हेतु जाने का अभिनय करते। फिर लौटने का लौटकर सबक करने का अभिनय भी पूरा-पूरा करते, बस्ते से किताब निकालते, हाथ में लेकर खोलते, फिर उसकी तरफ ऐसी नजर गड़ाते, जैसे पढ़ने में तल्लीन हों। कभी स्लेट-पट्टी निकालकर खड़िया-बत्ती (चाक पेन्सिल) से उस पर आड़ी-टेड़ी रेखाएं खींचते और लिखने का अभिनय करते। घर के जिस किसी सदस्य की नजर उस पर पड़ती तो फौरन बस्ता छुड़ा कर हिफाजत तरज्जुत से धरते और भूरा को भाषण सुनाते - बड़ा पढ़ने वाला बना है, कभी पुस्तक फाड़ी तो बहुत पिटेगा। लोग नहीं जानते थे कि भूरा का जन्म पुस्तक फाड़ने के लिये नहीं, पुस्तकों की रचना करने के लिये हुआ है। माता अवश्य कभी-कभी विचार करती कि यह तो ऐसी लगन दर्शाता है, जैसे आगे चलकर बहुत बड़ा स्वाध्यायी बनेगा, जबकि यहाँ पाठशाला तक नहीं है। अब यदि आचार्य ज्ञानसागरजी की नहीं, पं. भूरामलजी शास्त्री की वंशबेल के इतिहास को परिज्ञान चाहिये हो तो हमें बारीकी से ध्यान देना होगा, तब उनकी वंश परम्परा, ऐतिहासिकता और भौगोलिकता को समझ सकेंगे। परम पूज्य मुनिपुंगव १०८ श्री सुधासागरजी महाराज ने एक बार विशद-वर्णन किया था इस विषय का, उन्होंने कहा था कि उक्त तथ्य जानने के लिये सीकर और खण्डेला की ओर दृष्टि पहले देनी होगी। सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक नगर खण्डेला प्रारंभ से ही लघु-उद्योग का क्षेत्र रहा है, अब वह तीव्रता से बढ़ रहा है। यह नगर सीकर के समीप अवस्थित है। पूर्व में सीकर भी जिला या जनपद नहीं, एक पृथक् राज्य था। सीकर राजाओं के राज्य-क्षेत्र का मुख्य नगर रहा है। यहाँ पर मौजूद राजमहल आज भी इसकी गवाही दे रहे हैं। सीकर राज्य की सीमा से लगा तब द्वितीय क्षेत्र था खण्डेला राज्य जनधारणा है कि दशवीं शताब्दी में खण्डेला-क्षेत्र कई वर्षों तक जैन राज्य के रूप में ही जाना जाता रहा है। वहाँ दशवीं शताब्दी में जैन खण्डेलवाल राजा राज्य करते थे। वह खण्डेलवाल-जाति का उद्गम स्थल निरूपित किया गया है। मगर दशवीं शताब्दी के पूर्व-खण्डेला राज्य में अन्य मतावलम्बी राजा राज्य करते थे। कोई वैष्णव हुआ, कोई आर्य, कोई अवैष्णव और कोई अनार्य। एक मायने में सबसे पृथक् धर्म और पृथक् झंडे थे। विभिन्न मत-मतान्तरोंवाले जनसमूह में, तब भी वहाँ जैन खण्डेलवाल-जाति का अस्तित्व था। खण्डेलवाल-जैन दिगम्बर जैनधर्म और जैन शासन के ध्वज के लिये तो प्रसिद्ध थे ही, वे दिगम्बर मुनियों के लिये भी भारी प्रसिद्धि प्राप्त कर चुके थे। हजारों की संख्या में मुनि-त्यागी-व्रती धर्म की प्रभावना करते थे। फलत: जनता और राजा जैन-खण्डेलवालों का बहुमान करते थे। एक बार खण्डेला राज्य में भयानक महामारी फैली। रोज कहीं न कहीं, नागरिक पीड़ित होकर प्राण त्याग रहे थे। वैद्यों-हकीमों के नुस्खे झूठे सिद्ध हो रहे थे। “मरता क्या न करता की स्थिति अनेक परिवारों के समक्ष आ चुकी थी, अतः कतिपय पीड़ित-जन वैद्यों का चक्कर छोड़कर, जैन-मुनियों की शरण में पहुँचने लगे और महामारी से बचा लेने की प्रार्थना करने लगे। ज्ञानवान मुनि महामारी का कारण समझ चुके थे, अत: उन्होंने पीड़ित-जनों को परामर्श दिया कि हमारे पास कोई जादू या तंत्र-मंत्र नहीं हैं, न ही मंत्रों-तंत्रों की दृष्टि से हमारे पास आना। तुम्हारे रोग की दशा पर वैद्यगण ही सही विचार कर सकते हैं। हम लोग तो यही कह सकते हैं कि आप सब जन छना पानी पीने की आदत बनाइये, पानी में गंदगी शीघ्र नहीं दिखाई देती, अत: पानी उबाल कर लें, या फासू (किंचित् गर्म) कर लें तो संकट समाप्त हो सकता है। विभिन्न जातियों के अनेक लोगों ने मुनिगणों की बात मानते हुए जल-छान कर लेने का क्रम बनाया तो उनके रोगियों को आराम मिलने लगा। जिन्हें आराम मिला, उन परिवारों के लोगों ने मुनिवरों की जयजय कार की। इस घटना से एक समूह में ईष्र्या जाग उठी। समूह विशेष के लोगों को आभास हुआ कि हमारे वैद्यों की साख तो गई ही, मुनियों का गुणगान अधिक होने लग गया है। अत: उन्होंने जैनों और मुनियों का दमन करने की योजना बनाई। वे तत्कालीन राजा के पास गये, और उन्हें विश्वास में लेकर उनके कान भरे। राजा उनके बहकावे में आ गया, फलत: विरोधियों की इच्छानुसार राजा ने प्रशासन तंत्र के प्रमुख अधिकारियों को गुप्त - आदेश दिया कि महामारी समाप्त करने के लिये योग्य पुरोहितों के माध्यम से एक “महामारी यज्ञ किया जा रहा है, जिसमें ग्यारह दिन में १००८ मुनियों का होम करना है, अत: तत्काल व्यवस्था बनायें कि प्रतिदिन कुछ न कुछ मुनि समिधा की अग्नि में झोंके जाते रहें।
  5. आत्मानुभूति विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार https://vidyasagar.guru/quotes/parmarth-deshna/aatmanubhuti/
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