विद्यालय में निर्धन, किन्तु प्रतिभावान छात्रों को प्रतिवर्ष धर्मज्ञ श्रेष्ठियों द्वारा छात्रवृत्ति दिये जाने का प्रावधान था। भूरामल ने प्रथम वर्ष के परीक्षाफल के बाद ही विद्यालय में अपनी प्रतिभा की छाप छोड़ दी थी, परन्तु उनके स्वावलम्बी बनने के विचारों ने उन्हें छात्रवृत्ति स्वीकार करने का मन नहीं होने दिया। कतिपय लोगों के साथ-साथ, दो एक सहपाठियों ने भी उनसे कहा कि छात्रवृत्ति का आवेदन पत्र (फार्म) भर दो, मिल जायेगी; परन्तु वे मौन ही रहे। यह प्रसंग उनके छात्रावस्था के प्रथम वर्ष, मानें सन् १९०८ में उपस्थित हुआ था।
बड़े भाई साहब माँ को सूचना देते रहते थे। माँ के साथ रह रहे बच्चों में गंगाबकस इस लायक हो गये थे कि वे दो-चार माह में एक पत्र अपने भाइयों को लिख देते थे। ममता और वात्सल्य ठंडे नहीं हो पाते थे। ममता का क्रम निरंतर बना रहा, वह कागज के छोड़ा (पत्रों) पर बैठ कर एक भाई से दूसरे भाई के अनुभव में, आँखों में आती रहती थी। क्या भाई, क्या माता, सभी दूर-दूर थे, अत: उनकी भावनाएँ ही मिलती जुलती रहती थीं, वे कम ही मिल पाते थे।
लिखने-पढ़ने में दक्ष भूरामल पर उनके गुरुओं का वात्सल्य बढ़ता जा रहा था। एक दिन विद्यालय के धर्मशास्त्र के अध्यापक पं. उमरावसिंह ने उनसे एकान्त में कहा - भूरामल, आप गमछे बेचना बंद कर दें तो भी आपका कार्य चल सकता है, व्यवस्था समिति आपको विद्यालय के छात्रावास में रखने को तैयार है। वहाँ वस्त्र और भोजन समिति की ओर से दिये जाने की व्यवस्था है। मान्य पंडितजी के सहयोगात्मक शब्द सुनकर भूरामल को लगा कि प्रकृति माँ आज उनके भेष में वात्सल्य से मेरा अभिषेक कर रही है। उन्होंने पंडितजी महोदय को धन्यवाद दिया, उनका आभार ज्ञापित किया और बोले- मान्यवर, गमछे बेचने के पार्श्व में केवल मेरा अपना जीवनयापन नहीं है, मुझे लगता है कि कभी अधिक गमछे बिकने लगे, तब कुछ अतिरिक्त पैसे मिल सकेंगे, जिन्हें में अपनी माँ के पास भेजकर कृतकृत्य हो सकूँगा। भूरामल की बातों से पंडितजी के रोम खड़े हो गये, उन्हें लगा कि माँ जिनवाणी का सेवक यह भूरामल अपनी जन्मदायिनी माता के ऋणों को चुकाने के सद् प्रयास में रहता है। अत: उसे उसके हाल पर रखने में ही उसे आत्मसुख होगा। वे भूरामल के कंधे को प्रेमातिरेक से थपथपा कर चले गये। भूरामल अपनी कक्षा की ओर मुड़ गये।
रात्रि के नीरव में पंडितजी अपने कक्ष में फैले बिस्तर पर लेटे थे। उन्हें नींद नहीं आ रही थी। वे निर्धन छात्र भूरामल के स्वाभिमान की ऊचाइयाँ नापने में खोये हुए थे। उन्होंने ऐसा छात्र पहले कभी नहीं देखा था जिसका कद अधिक ऊँचा नहीं था, परन्तु व्यक्तित्व आकाश को स्पर्श कर रहा था। जो स्वाभिमान की रक्षार्थ अपनी पूज्य माता की आड़ लेकर उत्तर देते समय विनयशीलता न छोड़ सका था। स्वाभिमान की रक्षा हेतु कृतसंकल्प छात्र भूरामल - पंडितजी के मानस में गहराई तक उतर गया था। उन्हें भूरामल पर नाज हो आया। ‘भूरा’ जिसे अपना स्वाभिमान प्रिय है, अपनी माँ का स्मरण प्रिय है और अपनी मातृभूमि का गौरव प्रिय है।
पंडितजी की नजरों में विद्यालय के वे उद्दण्ड छात्र भी उस समय उतर आये जो भोजन के समय सहपाठियों को बुद्दधू बनाते थे और अपना स्वार्थ साधते थे। स्वार्थी छात्र पकड़े भी जाते थे, तब उनका अपना गौरव मरता-किलपता दीखता था। पंडितजी - बुदबुदाये ‘जिस को न निज गौरव तथा न निज देश का अभिमान है। वह नर नहीं, नर-पशु निरा और मृतक के समान है।' पंडितजी सामान्य आदमी नहीं थे, वे ज्ञान और मानवीय आचरण की प्रतिमूर्ति थे। भूरामलजी की वार्ता उनके समूचे अंतरप्रदेश को आन्दोलित कर गई थी। उन्हें भूरामल की बातों में संस्कृत का स्थापित आचार्य दीखने लगा। उन्हें याद आया मैंने ही तो उसे सिखलाया था
‘सुखार्थी चेत् कुतो विद्या, विद्यार्थी चेत् कुतो सुखम् (सुख की इच्छा रखने वाले को विद्या की प्राप्ति कैसे हो सकती है और विद्यार्थी के लिये सुख कैसे प्राप्त हो सकता है।) पहले के गुरु अपने शिष्य के अंतरंग और बहिरंग को पढ़ कर उनका व्यक्तित्व निर्माण करने में सहायक होते थे। पंडितजी ने उस दिन भूरामल का हृदय पूरा-पूरा बाँच लिया था। उन्हें विश्वास हो गया कि संकटों में रहकर पढ़ने वाले इस युवक को शाश्वत ज्ञान की परिलब्धि हो सकेगी। उन्हें अपने ही वे शब्द, जो छात्रों के समक्ष उन्होंने कहे थे, स्मरण हो आये- “सुखेन यत् प्राप्यते ज्ञानम्, दु:खे सति विलीयते । (सुविधाओं में रहकर जो ज्ञानार्जन किया जाता है, वह तनिक से संकट आ जाने पर विलीन हो जाता है, किन्तु जो ज्ञान कष्ट सह कर प्राप्त किया जाता है, वह संकटों में समाधान के प्रशस्त पथ प्रदान करने में सहायक होता है।)
‘स्वाभिमान पर आँच न आने पाये और न ही अध्ययन में विराम लग पाये' - यह था भूरामल का सु-संकल्प। यही कारण है कि दु:खों में रहकर प्राप्त की गयी विद्या अन्त समय तक उनके पास रही, जिससे भूरामल नाम का लघु बिन्दु ज्ञानसागर सा वैराट्य प्राप्त कर सका। भूरामल की ज्ञानपिपासा प्रबल थी। वे ज्ञान के साक्षात्कार के लिये दिन-दिन भूख साध कर रह लेते थे। अनुपलब्ध ग्रन्थ जब कभी किसी के सहयोग से कुछ समय के लिये उन्हें मिल जाते तो वे उसका अध्ययन तो करते ही, रातों-रात श्रम कर ग्रन्थ का हार्द कापियों पर उतार डालते थे। अनेक ग्रंथों को उनने अपनी सुविधा के लिये, अपनी लिपि में उतारा था और समय पर संदर्भ ग्रन्थ की तरह उसका उपयोग करते थे। पढ़ कर महान तो सभी बनते हैं, पर भूरामलजी तो पढ़ते समय ही महानताओं की छाप छोड़ रहे थे।
यह जान लेना उचित होगा कि स्याद्वाद महाविद्यालय के वे, धर्मशास्त्र के पंडित श्री उमरावसिंह बाद में अपने त्याग और व्रतों के आधार पर ब्रह्मचर्य दीक्षा लेने में सफल हुए थे। जब उन्होंने ब्रह्मचर्य व्रत प्रतिमा अंगीकार कर ही ली तो सन्त-समाज ने उनका नामकरण किया - ब्र. श्री ज्ञानानंद वर्णी। यह बात सहज ही समझ में नहीं आ रही थी, किन्तु जब पं. भूरामलजी द्वारा प्रणीत ग्रन्थ पढ़ने का अवसर विद्वानों को मिला, तब जान सके थे कि पं. भूरामल ने अपने ग्रन्थों के प्रारंभ में गुरुवंदना लिखते हुए जिस नाम की चर्चा की है, वे यही ब्र. ज्ञानानन्द महाराज हैं, उनके छात्र जीवन के गुरु।
संस्कृत महाविद्यालय के छात्र बनने का सच्चा मान रखा - भूरामल ने। वे बनारस में करीब १० वर्ष रहे और पढ़े। पढ़ते हुए अनेक विद्वानों के सम्पर्क में आये। बाद की उच्च कक्षाओं के विषय पढ़ाने के लिये विद्यालय में जैन-विद्वानों के साथ-साथ अजैन विद्वानों की सेवाओं का लाभ भी उन्हें मिला था। संस्कृत के जैन ग्रन्थ पढ़ा दिये जाने के बाद, वहाँ संस्कृत के वे ग्रन्थ भी पढ़ाये जाते थे जिनके लेखक जैन-आचार्य नहीं होते थे। उन्हें कालीदास, माघ, हर्ष आदि महान विद्वानों द्वारा लिखित ग्रन्थराजों का अध्ययन कराया गया।
जैन और अजैन विद्वानों के सम्पर्क में कुछ वर्ष लगातार रहने से उन्हें ऐसी बातों की जानकारी भी हो सकी जो केवल कानों से कानों तक चलती थी, पर विशद रूप से नहीं आ पाती थी चर्चा में। उन्हें आभास हुआ कि कतिपय अजैन विद्वानों का मत है कि जैन साहित्य में संस्कृत के ग्रन्थों की संख्या सीमित है। जो ग्रन्थ प्रचलन में हैं वे न्याय, धर्म और दर्शन की दृष्टि से तो श्रेष्ठ हैं, पर उन ग्रन्थों का अभाव है - जिनमें रस, अलंकार, छंद और व्याकरण के स्तम्भों पर उच्च साहित्य का नद बहता हो, साहित्य का निनाद हो। भूरामलजी को अपने समाज के हित में यह अभाव खटकने लगा। उन्होंने विचार किया कि अध्ययन पूर्ण करने के बाद, माता जिनवाणी की कृपा से यह कमी मैं दूर करने का प्रयास करूंगा। मैं ऐसे ग्रन्थों की सर्जना करूंगा जो महामान्य कवि भारवी, माघ, बाण एवं कालीदास के ग्रन्थों के साथ रखे जा सकें।
संकल्प महान था, पर लगन भी उनकी महान थी। भूरामलजी के तेवर बदल गये। वे पढ़ाई और अध्ययन के समय विद्वान शिक्षकों से वार्ता करने में अधिक रुचि लेते। विद्वानों की मनुहारें करते और चर्चा ही चर्चा में उनके भीतर की मनीषा अपनी मन:मन्जूषा में समा-समा लेने का श्रमपूर्ण बौद्धिक प्रयास करते। उन्हें सभी जैनाजैन क्लिष्ट ग्रन्थ प्रिय लगने लगे। वे अपने कमरे में कोई न कोई ग्रन्थ पढ़ते ही रहते। एक का पारायण पूर्ण होता तो उसे पुस्तकालय को लौटा देते और दूसरा ले आते। जैन शिक्षकों से जैन वाङ्गमय पढ़ते, फिर अजैन विद्वानों से उस पर चर्चा कर अपने ज्ञान की अनेकान्तमयी सीमायें बढ़ाते जाते।
उनका अध्ययन इतना प्रगाढ़ हो गया कि कुछ वर्ष पूर्व जो अजैन विद्वान उन्हें विरोधी प्रतीत हुए थे, वे भी उन्हें प्रिय और हितैषी लगने लगे। उन्हें उन पर खुशी हुई कि न वे कुरेदते, न मेरी पाठकीय दृष्टि बलवती होती। पं. बंशीधरजी जैन, पं. गोविन्दरामजी जैन एवं पं. तुलसीदासजी जैन जैसे मूर्धन्य विद्धान उस समय श्री भूरामल के वरिष्ठ सहपाठी थे।