वरिष्ठ श्रावक गुरुवर के उत्तर से धन्य-धन्य हो गये, फिर सब ने अपने गुरु को धन्य मानते हुए चर्चा समाप्त की। बाद के दिनों में वहाँ आचार्यश्री ने संघ को पढ़ाने और आत्मानुशासन में प्रवीण होने में ही अधिक समय दिया। १७ फरवरी ६९ को सुबह-सुबह आचार्यश्री को समाचार मिला कि उनके परम धन्य वीतरागी गुरु पू. आचार्य शिवसागरजी महाराज का समाधिपवूक मरण हो गया है। वे उस समय श्रीमहावीरजी में थे। समाचार से गुरुवर ज्ञानसागर स्तब्ध से रह गये, जैसे “इष्ट वियोग अनिष्ट योग में, सहनशीलता दिखलावें सोच रहे हों। समाज के लोग आये। विचार-विमर्श हुआ। मध्याह्न ही शोक सभा आयोजित की गई और श्री माणिकचंदजी एडवोकेट की अध्यक्षता में उपस्थित श्रावकों और संतों ने श्रद्धांजलि प्रदान की।
गुरुवर ने अपने समाधिस्थ गुरुवर पर महत्त्वपूर्ण विचार रखे। उन्होंने स्पष्ट किया कि गुरुवर श्रीमहावीरजी (चाँदनपुर) में थे, उन्होंने फाल्गुन कृष्ण अमावस्या, सं. २०२५, तदनुसार १६ फरवरी १९६९ दिन रविवार को नश्वर शरीर का त्याग कर दिया है। कुछ दिन और रुके गुरुवर वहाँ, फिर ७ मार्च ६९ को नसीराबाद से विहार कर दिया। स-संघ ब्यावर जा विराजे । ब्यावर नगर मुस्कुरा रहा था, नसीराबाद उदास था। ब्यावर पहुँचने के बाद, गुरुवर के कानों में केशरगंज के भक्तों की पुकार अनुगुंजित हो रही थी, कुछ दिनों का समय यहाँ देकर उनके चरण केशरगंज की ओर बढ़ गये। १९६९ के चातुर्मास का लाभ केशरगंज (अजमेर) को मिला।
ग्रीष्म की तेज धूप राजस्थान की धरती पर कुछ अधिक ही ताप लेकर आ रही थी, मई का माह जो चल रहा था। आचार्य ज्ञानसागर के तप के समक्ष धूप का ताप कोई अर्थ नहीं रखता था। एक कारण और था- पृथ्वी को तप्त करनेवाला सूरज, वहाँ, नगर के आकाश में, एक ही था। मगर नगर की गोद में एक नहीं दो सूर्य विराजमान थे। पहले ज्ञानसागर, दूजे विद्यासागर । अब आप ही विचार करें कि दो-दो तपस्वियों के उद्दीप्त तप के समक्ष बेचारे एक सूरज का ताप क्या प्रभाव छोड़ सकता था ? सो सूरज अपने कार्य में जितना मग्न (प्रसन्न) था, तप:कर्ता सन्त अपने तप में उतने ही मग्न (लीन) थे। किसी को किसी से कोई शिकायत नहीं थी।
तभी समाचार मिला पू. ज्ञानसागरजी को कि उनके एक प्रिय भक्त लाला श्री बनवारीलालजी नहीं रहे। श्री बनवारीलालजी कुछ वर्षों से पू. ज्ञानसागरजी से जुड़ गये थे। हिसार के रहनेवाले थे। वे वही आदर्श गृहस्थ थे जिन्होंने “घर में सन्नयास' साकार किया था। श्री लाला चड़तीमल के सुपुत्र, किन्तु उन्हें गोद ले लिया था- लाला सोहनलालजी ने। बनवारीलालजी सही अहिंसावादी और सदाचारी थे, उन्होंने जीवन में कभी चमड़े की वस्तुओं और रेशमी वस्त्रों का उपयोग नहीं किया था।
धर्म पर समर्पित, धुन के पक्के थे। एक बार पुराने ग्रन्थ और पत्रिकायें देख रहे थे, उन्हें सन् १९०९ के गजटीयर में पढ़ने मिला कि जहाजपुल-कोठी की साथवाली मस्जिद, पूर्व में एक जैन मंदिर के रूप में थी, जो समय के शासकों द्वारा मस्जिद में परिवर्तित कर दी गई थी। बस उस ऐतिहासिक लेख के आधार पर उन्होंने अथक परिश्रम किया। एडवोकेट श्री महावीर प्रसाद जैन की सेवायें ली गई । बनवारी लालजी ने संकल्प कर लिया कि जब तक मंदिर प्राप्त नहीं हो जावेगा, वे एक वक्त ही भोजन लेंगे और एक समय ही जल ग्रहण करेंगे।
घोषणा यह भी की कि मंदिर मिल जाने के बाद उसका नवीनीकरण करायेंगे और प्रतिष्ठोपरान्त गृह त्याग कर मुनिसंघ में चले जायेंगे। उनके आत्मविश्वास और मानसिक तथा दैहिक श्रम के फलस्वरूप कुछ ही वर्षों में वह स्थल समाज को मिल गया। समय पर उसका नवीनीकरण कराया गया और फिर प्रतिष्ठा महोत्सव। उसके बाद संकल्पानुसार श्री बनवारीलालजी पू. मुनि ज्ञानसागरजी की शरण में चले गये, उनसे संघ प्रवेश की प्रार्थना की। मुनिवर ने उन्हें ब्रह्मचर्य व्रत प्रदान कर संघ में रहने की अनुमति दे दी।
गुरुवर की कृपा से सन् १९६३ का चातुर्मास संघ में रहते हुए, उन्होंने फुलेरा में सम्पन्न किया था। संघ की क्रियाओं के अनुकूल जीवन ढाल दिया था। वे संघ में स्वस्थ रहकर धर्मसाधना करते रहे। धीरे-धीरे काया में भारी शिथिलता आ गई, सो बीमार रहने लगे। वह कोई वर्ष १९७० की बात है। पू. ज्ञानसागरजी और पू. विद्यासागरजी उन पर लगातार ध्यान दे रहे थे। बाद मैं अधिक कमजोर देखते हुए साधु द्वय ने हिसार से उनके पारिवारिकजनों को बुलवाया, उन्हें हिदायत दी कि ब्र. बनवारी लालजी को वापिस ले जावें, उनकी सेवा करें, धर्मसाधना में सहायता करें एवं पंडित मरण का सुयोग प्राप्त करायें।
ब्र. जी फुलेरा जंक्शन स्से हिसार चले गये। वहाँ सारा नगर उनके दर्शनार्थ उमड़ पड़ा था। हिसार में भी उनका जीवन धर्ममय बना रहा, बाद में २३ मई १९७० को प्रात: ६ बजे सामायिक करते हुए उन्होंने नश्वर संसार का त्यागर कर दिया था। वे उस समय ८२ वर्ष के थे। महान धर्मात्मा थे, अत: उनकी चर्चा साधुओं के साथ, साधुओं के ग्रन्थ में स्थान पा सकी और धर्म की शोभा बढ़ाने का कारण बनी। आचार्य ज्ञानसागरजी अपने साधु जीवन में श्रावकों से अधिक व्रतियों-सन्तों के मध्य चर्चित रहे। दस में से चार श्रावक उनकी चर्चा करते थे, तो दस में से आठ मुनि उनकी चर्चा से आनन्द पाते थे। तब लगा कि वे अपना प्रचार या धर्म का प्रचार शब्दों के माध्यम से नहीं करना-कराना चाहते थे, वह तो उनके हाथों से सर्जित कृतियों से आपों-आप होगा।
कुछ कृतियाँ कागज पर थीं और कुछ व्रत धारण कर लेनेवाले शिष्यों में कहें वे एक ऐसे शिल्पकार बन गये थे कि उनसे अधिक चर्चा उनकी कृतियों की होने लगी थी। एक तरफ उनके २४ से अधिक ग्रन्थ थे जो संस्कृत और हिन्दी के धरातल पर जगमग थे तो दूसरी तरफ उनके शिष्य थे जो आत्मानुशासन से भरे हुए, दर्शन, ज्ञान और चारित्र के धरातल पर अग जग को जगमग कर देने योग्य तपस्या और ज्ञानाभ्यास कर रहे थे। पू. विद्यासागर ऐसी कृतियों में प्रथम कृति' का रूप पाकर धर्मक्षेत्र में आ चुके थे, उनके बाद अन्य अन्य शिष्य सामने आते गये, जिनमें पू. मुनि श्री विवेकसागरजी, ऐलक सन्मतिसागरजी, क्षु. विजयसागरजी, क्षु. सम्भवसागरजी, ब्र. स्वरूपानन्दजी एवं ब्र. लक्ष्मीनारायण के नाम तत्कालीन जनमानस के अक्षरों पर चढ़े रहते थे।
आचार्य ज्ञानसागरजी द्वारा लिखित ग्रन्थों को देखकर श्रावकगण उन्हें सरस्वती का अवतार कहते थे तो उनके तपरत ज्ञानवान शिष्यों को देख आचार्यश्री को तपस्याओं का पुञ्ज कहते थे। वर्ष १९७० तक उनका शरीर अत्यन्त कृश और तेजहीन हो चुका था, किन्तु ज्ञान अंगार की तरह प्रखर था, आत्मा पल-पल ध्यान में लीन रहती थी। उनके शरीर और व्यक्तित्व को देख कर कोई विद्वान उनके ज्ञान का आभास नहीं कर पाता था, किन्तु उनकी दो प्रकार की कृतियों (ग्रन्थों और निग्रंथों) को देख लेने के बाद उन्हें साक्षात् ज्ञान का सागर कह कर गद्गद् होता था। सन् १९७० की ही बात है, तब गुरुवर किशनगढ़ रेनवाल के आस-पास ही ससंघ चल रहे थे। उन्हें पता चला कि पूज्य आचार्य धर्मसागरजी महाराज ससंघ किशनगढ़ रेनवाल पहुँचनेवाले हैं। वहाँ के उत्तम श्रावक श्री दीपचंद जैन, श्री मूलचंद लुहाड़िया ज्ञानसागरजी के उतने ही करीब थे, जितने अजमेर के कजोड़ीमलजी जैन । इन्हीं श्रावकों से सही समाचार प्राप्त होते रहते थे। ज्ञानसागरजी भी किशनगढ़ रेनवाल पहुँचनेवाले थे।
ज्ञानसागरजी का संघ पहले रेनवाल पहुँच गया । धर्मसागरजी से दोनों गुरु-शिष्य मिलने-बतियाने उतावले हो पड़े, उस दिन ज्ञान के सागर में वात्सल्य की लहरें उठ पड़ी थीं। चार दिन बाद पू. धर्मसागरजी का संघ आया, ज्ञान और वात्सल्य की जीवंत मूर्ति पू. ज्ञानसागरजी श्रावकों के जुलूस के साथ ससंघ चल पड़े उनकी अगवानी करने। वह ग्रीष्म का समय था। मील भर ही चल पाये होंगे कि पू. धर्मसागरजी १ का संघ अन्य श्रावकों के साथ आता हुआ दीखा। दोनों संघ, दोनों गुरु, दोनों श्रावक-समूह आपस में मिले, एक दूसरे को आत्मीय सम्बोधनों से मंडित किया और दो जुलूस मिलकर एक हो गये। दोनों गुरुवरों के नमोऽस्तु का दृश्य कभी नहीं भुलाया जा | सकता। वे दोनों महान आचार्य अपने सम्बोधनों से एक दूजे को बड़ा, वरिष्ठ, ज्ञानवृद्ध ज्ञापित कर रहे थे। पर बड़ा बनने कोई तैयार नहीं था।