ज्ञान और तप से नि:सृत वे चरित्र देखने और समझने के प्रतीक बन गये थे। उनके मन में घुल रही शीतलतायें समग्र श्रावकों का मन शीतल कर रहीं थी। चंद्रमा से नि:सृत शीतलता में उतनी शीत नहीं होती जितनी ग्रीष्म के दिवस में उस दिन भगवान चंदाप्रभु के उन भक्तों में परिलक्षित की गई थी। मैंने चंदाप्रभु का नाम इसलिये लिया कि दोनों संघ वहाँ से प्रस्थान कर किशनगढ़ के जिस विख्यात देवालय में पहुँच रहे थे, वह भगवान चंदाप्रभु का मंदिर ही था।
श्रावकों ने मंदिरजी में यथा स्थान सन्तों को बैठने की व्यवस्था बनाई थी। दो गुरुवरों के लिये दो पृथक् आसन रखे गये थे। आसनों को देखते ही वात्सल्य मूर्ति पू. ज्ञानसागरजी ने धर्मसागरजी से अनुरोध किया- “हे आचार्यवर ! परम्परानुसार आप मेरे दीक्षा गुरु के गुरुभाई हैं, अत: मेरा अनुरोध है कि आप उच्चासन ग्रहण कर मुझे उपकृत करें। ज्ञानसागरजी के अनुरोध से पू. धर्मसागरजी का रोम-रोम हर्ष से खिल उठा। वे कुछ सोचने लगे, फिर अगले ही क्षण बोले- हे गुरुवर ज्ञानसागर ! आप सदा ही एक उपाध्याय की तरह मेरे समक्ष रहे हैं, आप मेरे शिक्षा गुरु हैं, अत: मेरी विनय है उच्चासन स्वीकार कर मुझे कृतकृत्य करें।
दोनों संतों की वार्ता का जनमानस पर प्रेरक प्रभाव पड़ा। अंत में भक्तों की प्रार्थना मानते हुए दोनों सन्त समानोच्च आसनों पर विराज गये। जयकारों से आकाश भर गया। ऐसे करुणा और वात्सल्य प्रधान सन्त कभी देखे न थे लोगों ने। दोनों संघ कुछ दिनों तक साथ-साथ किशनगढ़ में रहे। ग्रीष्मावकाश के बाद पू. धर्मसागरजी का संघ अन्य नगर की ओर प्रस्थान कर गया। कुछ ही दिन बीते थे कि पू. ज्ञानसागरजी भी प्रस्थान करने लगे तब समाज के लोगों ने उनके चरण पकड़ लिये और बोले कि हमारे पास कुछ दिन पूर्व तक दो-दो सूर्य थे, अब आप एक साथ दोनों का अभाव न बनायें। एक प्रस्थान कर गये, कम से कम आप यहाँ एक चातुर्मास कर श्रावकों को ज्ञानप्रकाश प्रदान करें।
भक्तों के आगे भगवान को हर युग में हारना पड़ा है, सो यहाँ भी गुरुवर हार गये, भक्त जीत गये। किशनगढ़ का वह चातुर्मास आज भी लोगों को अच्छी तरह याद है कि जिसमें केवल धर्मचर्चा और ज्ञानचर्चा के बीच पूरा चातुर्मास काल व्यतीत हुआ था। लोगों को इतना कुछ सीखने मिला चार माहों में, कि उतना चार वर्ष में भी नहीं सीखा-समझा जा सकता था । पूज्य ज्ञानसागरजी ने अपनी प्रज्ञा, प्रतिभा और पुरुषार्थ की अनोखी छाप तो छोड़ी ही थी, आश्चर्यजनक प्रभावना भी की थी। बड़ी बात यह कि चातुर्मास के प्रारम्भ से लेकर अन्त तक, उन्होंने अपने गुरु/गुरुवर होने का भाव कहीं नहीं आने दिया, कभी नहीं आने दिया। वे नित्य एक लघु साधक के रूप में ही अपना परिचय जाहिर करते थे। बड़प्पन के थोथे प्रदर्शन से दूर, बड़बोलेपन के मानसिक रोग से परे, उनकी भावाभिव्यक्ति में सदा स्वयं की लघुता की ठंडक और संतुष्टि व्याप्त रहती थी जो उनके 'महान' होने की घोषणा करती थी।
पू. ज्ञानसागर के प्रथम मानसपुत्र गृहस्थ शिष्य श्री धर्मचंद गुरुवर का सामीप्य पा वर्ष १९६२ में ही पांडित्य प्राप्त कर चुके थे, परन्तु पैतृक व्यवसाय के कारण उन्हें सीकर छोड़ कर देश के पूर्वीप्रान्त आसाम के नगरों में अपना व्यवसाय समृमृद्ध करने जाना पड़ा। जाने को तो वे १९६२ में ही चले गये थे, पर वर्ष में एक या दो बार सीकर लौटते तो पता लगाकर पू. ज्ञानसागरजी के चरणों में अवश्य ही उपस्थित होते थे, क्रम वर्ष दर वर्ष चालू था। इस वर्षायोग में जब कि पू. ज्ञानसागरजी ससंघ किशनगढ़ रेनवाल में थे, सीकर के वे ज्ञानप्रेमी बंधु धर्मचंद यहाँ भी पहुँच गये। लगभग दस दिनों तक गुरु-चरण-सान्निध्य में रुकने का पावनावसर प्राप्त भी कर सके। उन्होंने यहाँ वह दृश्य भी देखा जो सन् १९६२ में वे अनुभूत चुके थे, वही कि पूज्य ज्ञानसागरजी एक प्रज्ञापुत्र को नित-नित पढ़ाने और बढ़ाने में तल्लीन थे।
वह प्रज्ञापुत्र कोई और नहीं - पूज्य ज्ञानसागरजी के इतिहास प्रसिद्ध मानस पुत्र पू. मुनि विद्यासागरजी थे। वे महाकाव्यों को पढ़ाते हुए पू. विद्यासागर में संस्कृत का भंडार स्थापित कर रहे थे। धर्मचंद ने दस दिन तक उनकी ज्ञानगोष्ठी में सम्मिलित होकर वह लाभ प्राप्त किया, साथ ही गुरुवर के आदेश से दस दिनों तक रात्रिकालीन सभा में शास्त्रवाचन करने का सुन्दर निर्वाह किया। पू. विद्यासागरजी धर्मचंद को देखकर हर वर्ष प्रभावित होते थे और सोचते थे-श्रावक के रूप में इतना ज्ञान अर्जित और वितरित करने वाला यह धर्मचंद कहीं मुनि बन गया होता तो अच्छा होता। माता के मोह और गृहिणी के गृह चक्कर को काटने (नष्ट करने) का ज्ञान प्राप्त क्यों नहीं किया।
उसी वर्ष एक नाम और जुड़ गया संघ में, जब १४ जुलाई १९७० को आचार्य ज्ञानसागरजी ने ब्र. जमनालालजी को क्षुल्लक दीक्षा प्रदान की। नामकरण किया गया क्षुल्लक श्री १०५ सुखसागरजी महाराज। गुरुवर का अध्ययन और अध्यापन का क्रम देखकर लगता ही नहीं था कि वे ७६ वर्ष के वृद्ध हैं। उनका उत्साह तीव्र था। दिनचर्या का एक पल भी नाहक ना जाने देते थे, फलत: शिष्यगण भी उन्हीं का अनुसरण करते रहते और आत्मसाधना में लीन रहते। अध्यापन और अध्ययन की दिन भर की कार्य शैली का चित्रण पूज्य सुधासागरजी महाराज ने मुझे इस तरह बतलाया था। मेरे वर्ष १९९८ (महावीर जयंती के समय) के प्रवास में प्रातः ५.३० से एक घंटा तक अध्यात्मतरंगणी और समयसार-कलश। उनके बाद एक घंटे का समय शौचादि के लिये होता था। पुन: सुबह ७.३० से एक घंटा तक प्रमेयरत्नमाला। फिर दो घंटा -- ८.३० से १०.३० तक समयसार और अष्टसहस्री।
मध्याह्न १ बजे से २ बजे तक कातंत्ररूपमाला व्याकरण। फिर तीन से चार तक पंचास्तिकाय। शाम ४.३० से ५.३० तक पंचतंत्र और जैनेन्द्र व्याकरण। एक तरफ उनके अध्ययन-अध्यापन का क्रम था, दूसरी ओर उनकी प्रवचन शैली थी जो देश के विद्वानों को लगातार प्रभावित कर रही थी। जो विद्वान अपनी पूर्ण विद्वत्ता के साथ उनके सान्निध्य में रहा है, वह भी उनसे कुछ न कुछ ज्ञान वीतराग-विज्ञान प्राप्त कर ही लौटा है। ऐसे विद्वानों में कुछ नाम याद हैं- श्री अभयलाल जैन, श्री हीरालाल शास्त्री, श्री रतनचंद कटारिया, श्री पन्नालाल जैन साहित्याचार्य, श्री छगनलाल पाटनी, श्री स्वरूपचंद कासलीवाल, श्री वटेश्वर दयाल वैद्यराज, प्राचार्य निहालचंद, साहित्य प्रेमी श्री धर्मचंद, श्री महावीर प्रसाद वकील, बाबू देवकुमार जैन, लाला श्रीकृष्णदास आदि।
एक पुराना प्रसंग याद आ गया, जो यहाँ नवीन हो गया था। जब पू. मुनि विजयसागर एक ‘श्रावक मात्र थे। हुआ यह कि सन् । १९६२ में जब विहार के दौरान पू. मुनि ज्ञानसागरजी (उस समय मुनि थे, आचार्य नहीं) ग्राम खाचरियावास पधारे थे, तब उनके ज्ञान और चर्या को देखकर वहाँ के सभी श्रावक बहुत प्रभावित हुए थे, उनमें से एक श्रावकरत्न इतने प्रभावित हुए कि ज्ञानसागर के साथ चलने तैयार हो गये। कहें- सशरीर न जा सके जब, तब उनका मन मुनिवर के साथ चला गया। वही श्रावकरत्न सन् १९६६ में अजमेर गये थे और मुनिवर से ब्रह्मचर्य दीक्षा के व्रत प्राप्त करने में सफल रहे।
सन् १९६९ में अजमेर में मुनिवर पुन: पधारे थे तब वह श्रावकरत्न फिर उनके चरणों में पहुँचा और उनसे स्व-गृहत्याग का संकल्प लिया। श्रावक का आना-जाना और धर्म लाभ लेना निरंतर रहा, फलत: सन् १९७० में जब आचार्य श्री ज्ञानसागरजी रेनवाल में थे, तब उन श्रावक महोदय ने अपनी भक्ति, श्रद्धा और चर्या के बल पर पू. आचार्यश्री से (आषाढ़ शुक्ला दश, संवत २०२७ को) क्षुल्लक दीक्षा प्राप्त कर ली। वही भव्य श्रावक बाद में मुनि विजयसागरजी महाराज बने थे।
रेनवाल का वह भक्ति प्रधान प्रसंग नहीं भुलाया जाता, जब चातुर्मास के बाद पू. ज्ञानसागरजी रेनवाल से प्रस्थान कर रास्ते में कुलिग्राम में ससंघ रुके थे। वहाँ के श्रावक भारी नवधाभक्ति के साथ चौका लगा रहे थे। जिस चौके में ज्ञानसागरजी आहार ले रहे थे, उसमें एक भक्त ने, अनजान में, काफी गर्म दूध मुनिवर की अंजुलि में भर दिया था, दूध इतना गर्म था कि हथेलियाँ और अंगुलियाँ जल गईं। मुनिवर अंतराय मान बैठ गये। लोगों ने समझने में विलम्ब नहीं किया, मुनिवर के हाथ देखे तो अवाक् रह गये, फोले पड़ आये थे। श्रावक भारी शर्मिन्दा हुए, मुनि चरणों पर गिर पड़े, रोये, अपनी भूल स्वीकारी, प्रायश्चित्त धारण किये, दिन भर निराहार रहने का संकल्प ले लिया।