वर्ष १९६८ का चातुर्मास पू. ज्ञानसागरजी के समस्त जीवन के चातुर्मासों से विशेष हो गया था। अक्टूबर माह में ही, वहीं नसियाजी में, बहुचर्चित तत्कालीन एक और अन्य शिष्य लक्ष्मीनारायणजी को गुरुवर ज्ञानसागरजी ने ब्रह्मचारी दीक्षा प्रदान की एवं अपने श्री संघ में स्थान दिया। समय पर ज्ञानसागरजी ने वर्षायोग की विस्थापना कर डाली। चेला तन का मल विसर्जित करे तो गुरु कैसे पीछे रहेंगे, अत: ३ नवम्बर ६८ को पू. ज्ञानसागरजी ने भी अपना केशलुञ्च किया। सहयोग किया श्री विद्यासागर मुनि ने। उस दिन भी विराट समारोह आयोजित किया गया था। उसी दिन पिच्छिका-परिवर्तन समारोह भी आयोजित था। पुन: विद्वानों की वही टीम- श्री भागचंदजी, श्री पं. विद्याकुमारजी, पं. चम्पालालजी, डॉ. निहालचंदजी ने प्रवचन किये। इस बार केशलुञ्चन के साथ-साथ पिच्छिका परिवर्तन पर भी वक्ताओं ने प्रकाश डाला। श्री भागचंद जी ने मुनिवरों को नव पिच्छिका समर्पित की। बाद में उनके अनुरोध पर मुनि द्वय ने कल्याणकारी प्रवचन प्रदान किये।
जो संत जितने अधिक मात्रा में विद्वान होते हैं, वे उतने अधिक मनोविनोद के प्रसंग वार्ता में ले आते हैं। आचार्य ज्ञानसागरजी तो हास्य की फुलझड़ियाँ चाहे जब प्रदान कर देते थे। कोई विद्वान या समाज सेवी या श्रेष्ठ-वर्ग वार्ता करता तो : अवसर स्वयमेव उपस्थित हो जाते थे। एक दिन कतिपय विद्वानगण अपने प्रश्न का उत्तर उनसे जानना चाह रहे थे। पूज्यवर ने एक उदाहरण देकर समाधान प्रस्तुत कर दिया। मगर उपस्थित विद्वान न समझ पाये, अतः उन्होंने विनम्रता से कहागुरुवर थोड़ा और खुलासा कीजिए।
गुरुवर ने पुन: दूसरे प्रकार से बात समझाई और शांत हो गये। मगर विद्वान तब भी तह तक न पहुँच पाये, अत: शर्माते हुए बोलेगुरुवर तनिक फिर स्पष्ट कर दीजिए। उनकी सामयिक हतबुद्धि पर गुरुवर को विनोद करने का मन हो आया। अत: मुस्करा कर कहने लगे- “वह आपको अब केवलज्ञान प्राप्त होने पर ही स्पष्ट हो पायेगा।" वाक्य सुनकर वे विद्वान और उपस्थित अन्य जन एक साथ हँस पड़े। विनोद की तरंग ने धर्म की चर्चा को शीतलता युक्त स्पर्श जो दे दिया था। कतिपय गुणी-श्रावक चाहते रहते कि गुरुवर उनसे देर तक बातें । करें, पर वे वैसा सौभाग्य न प्राप्त कर पाते थे; अत: कभी-कभी गुरुवर को छेड़ देते कि कुछ तो सुनने मिल जावे।
गुरुवर चश्मा लगाकर ही अध्ययन करते थे। एक बार कुछ वरिष्ठ श्रावक नमोऽस्तु के बाद काफी देर तक बैठे रहे, पर गुरुवर ने उनसे बातचीत नहीं की, चश्मा लगाये हुए ग्रन्थ पढ़ने में लीन रहे आये। श्रावकों ने देखा एक घंटा हुआ जा रहा है, मगर गुरुवर वार्ता ही नहीं कर रहे हैं, अत: उनमें से एक ने उन्हें छेड़ते हुए कहा- गुरुवर आप तो चश्मा लगाते हैं, यह परिग्रह है, फिर हम आपको अपरिग्रही कैसे मानें और कैसे नमोऽस्तु करें? व्यंग्य सुनकर गुरुवर ने ग्रन्थ धर दिया, फिर छेड़नेवाले सज्जन से मुखातिब हुए- सेठजी, मान लो आपकी दो अंगुलियाँ कमजोर हों और शेष शरीर ठीक चल रहा हो तो क्या इतने मात्र से समाधि ले लेंगे या धर्म साधना का कोई अन्य तरीका खोजेंगे?
प्रश्न सुनकर सेठजी ने हड़बड़ा कर उत्तर दिया-महाराज, समाधि क्यों लेंगे, अंगुलियों का उपचार कराते हुए धर्मसाधना करेंगे। उत्तर सुनकर गुरुवर मुस्कुराये, फिर बोले- वही तो मैं कर रहा हूँ, चश्मा लगाकर धर्मप्रधान ग्रन्थों का अध्ययन और लेखन करता रहता हूँ। आप लोगों की तरह अपनी काया या अन्य की काया नहीं निहारता, न प्रकृति की छटा देखने लालायित रहता। यह जड़ चश्मा अभी धर्मसाधना में एक हेतु है, अत: यह परिग्रह कैसे हो गया? गुरुवर की वार्ता से सेठजी एवं उनके समीप बैठे अन्य श्रावक गद्गद् हो गये। फिर सेठजी बोले- महाराज, हम लोग घंटा भर से बैठे थे, आप वार्ता ही नहीं कर रहे थे, इसलिए आपको छेड़ बैठे। पर छेड़छेड़ में हमें यह सदुज्ञान भी हो गया कि आप जैसे तपस्वी सन्तों के लिये ‘चश्मा' कभी भी परिग्रह की श्रेणी में नहीं माना जावेगा, वह सही में धर्म-साधना का एक महत्त्वपूर्ण हेतु है।
सोनीजी की नसिया अजमेर के अत्यंत प्रभावनाकारी चातुर्मास के समय, समीपी मुहल्ला केशारगंज के भक्त इतने प्रभावित हुऐ थे पू. ज्ञानसागर जी से कि वर्ष १९६२ के चातुर्मास के लिये उनकी आँखों में सपने सज चुके थे कि गुरुवर केशरगंज की सुधि लेवें । भक्तगण जब भी जाते, श्रीफल चरणों पर चढ़ाकर प्रार्थना करते- केशरगंज को एक चातुर्मास प्रदान कीजिए। गुरुवर मुस्करा कर भक्तों की तरफ देखते फिर कहते- समय आने दीजिए।
भक्तों की भक्ति से गुरुवर का निर्णय एक दिन केशरगंज के मंदिर में साधना करने का हो गया। वहाँ के मंदिर, मंदिर के समीप धर्मशाला, धर्मशाला में त्यागी व्रती जनों को रहने की व्यवस्था- गुरुवर की स्मृति में थी। एक दिसम्बर ६८ को केशरगंज के श्रावकों का भारी समूह नसियाजी के समीप रुका रहा, जब गुरुवर ससंघ निकले तो जुलूस, मनोहर शोभायात्रा में परिणत हो गया। बाजे, शहनाई, बेनर, झंडे, कलश, शोभायात्रा की श्रीशोभा के श्रेष्ठ प्रतीक थे। हर चौरस्ते सजायें गये थे। अनेक महा-द्वार (गेट) बनाये गये थे। केशरगंज के हर श्रावक ने अपने निवास स्थान पर केशरिया झंडा फहराया हुआ था।
श्रावकगण गुरुवर को लेकर चले, तो भक्त नसियाजी के समीपी श्रावक कहाँ रुकनेवाले थे, वे गुरुवर की शोभायात्रा के साथ ससमूह चल पड़े। केशरगंज के लोगों के चेहरे पर भारी उमंग थी कि गुरुवर पधार रहे हैं। नसियाजी के भक्त उदास-उदास थे, गुरुवर जा रहे हैं। केशरगंज के लोग उन्हें धैर्य रखाते- भाईसाब ! क्यों परेशान हो रहे हैं, अभी नसियाजी तक आप आते थे, अब दो कदम अधिक चलना और केशरगंज आ जाना, गुरुवर के दर्शन करने। उनके सम्बोधनों से नसियाक्षेत्र के लोगों को शांति मिलती थी। गुरुवर ससंघ केशरगंज आ गये। वहाँ के श्रावकों में प्रभावना दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ने लगी। लोग बतलाते- गुरुवर आगमन से सोना बरसने लगा है। गुरुवर श्रेय न लेते हुए उन्हें धीरे से उत्तर देते- सोने से क्या होता है, यहाँ तो पहले ही से केशर बरसती रही है। लोग सुनकर गद्गद् हो जाते ।
अभी कुछ ही दिन बीते थे कि समाज के समस्त प्रमुख लोगों ने एक अंतरंग बैठक में निर्णय लिया कि गुरुवर की वय ७७ वर्ष हो चुकी है, इस बीच उनने २२से अधिक ग्रन्थ संस्कृत और हिन्दी में रच डाले हैं, एक बड़े संघ का सुंदर संचालन भी कर रहे हैं। अत: क्यों न उन्हें ‘आचार्य' सम्बोधित किया जावे, उनसे आचार्यपद ग्रहण करने की प्रार्थना की जावे। समाजसेवी एक सूत्र में बँध गये। उन्होंने अपना मन्तव्य संघ के सदस्यों के समक्ष भी रखा, सभी सदस्यों को उनकी बात ठीक लगी। तब संघस्थ साधुओं ने शंका रखी- गुरुवर ऐसे-वैसे तो आचार्यपद नहीं लेंगे, किसी की दीक्षा का अवसर सामने आने दीजिए, उसी अवसर पर आप प्रयास करें तो सफलता पा सकेंगे।
वार्ता हो गई। सब जन शांत रहे आये जैसे कोई विमर्श ही न हुआ हो। समाजसेवी सोच-विचार कर योजना को मूर्त रूप देने की सोच रहे थे कि तब तक गुरुवर ने ससंघ वहाँ से विहार कर दिया। लोग चकित । गुरुवर को नसीराबाद और ब्यावर के मंदिरों के दर्शन करने थे। उनके चरण उसी तरफ थे। केशरगंज का आकुल-व्याकुल समाज संघ के साथ ससमूह चल जा रहा था। मन की बात मन में ही रह गई थी। गुरुवर नसीराबाद पाहुँच गये। उधर नगर-सीमा पर पूरा शहर उतर आया था अपने आराध्य की अगवानी के लिये। गुरुवर जैसे ही पहुँचे, भक्तों ने पाद-प्रक्षाल किया। चरण जल सिर आँखों पर धरा और गुरुवर को शोभायात्रा के साथ नसीराबाद के बड़े मंदिरजी में ले गये।