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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • ज्ञान का सागर : क्रमांक - 18

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    अजमेर एक किस्म से सैलानियों के शहरों में से एक है। वहाँ रोज देशी-विदेशी पर्यटक पहुँचते ही रहते थे। उस दिन जब पूज्यश्री का केशलुञ्च चल रहा था तब स्विटजरलेण्ड से आये दो पर्यटक नसियाजी की जगप्रसिद्ध- स्वर्णिम-झाँकी ‘अयोध्या नगरी' को देखने आये। जब उन्होंने मुनिवर को केशलुञ्चन करते हुए देखा तो देखते ही रह गये। उन्हें उस क्रिया पर भारी आश्चर्य हुआ। उन्होंने नसिया में उपस्थित प्रबुद्ध लोगों से जैनधर्म के इस मर्म को समझने का सुंदर प्रयास किया। जब कुछ बातें समझ में आ गई तो सीधे मुनिवर के निकट पहुँचकर उनके चरणों से लग गये। उनका आशीष लिया।

     

    कार्यक्रम समाप्त हुआ, पर विदेशी लोगों में हुई प्रभावना से उपस्थित जनसमूह हर्षित हो गया। जब पू. ज्ञानसागरजी अजमेर थे, तब उनके संघस्थ साधु क्षुल्लक श्री आदिसागरजी, ज्ञानसागरजी के आदेशानुसार शहर रेवाड़ी में चातुर्मास कर रहे थे। वहाँ अगस्त के ही माह में उनके मंगल सान्निध्य में बड़े मंदिर जी में “तीन लोक विधान की पूजा सम्पन्न कराई गई, जिससे धर्म प्रभावना तो हुई ही, पू. ज्ञानसागरजी के शिष्य की सराहना हुई। लोगों ने शिष्य के साथ गुरुवर को भी बार-बार सराहा- यह बतलाने की जरूरत नहीं थी, परन्तु वहाँ के धार्मिक श्रावक लाला गोपीचंदजी सर्राफ, लाला फूलचंद जी भला शान्त कैसे रह सकते थे ? वे तो शिष्य और गुरु के परम भक्त थे।

     

    पूज्य ज्ञानसागरजी धर्म और साहित्य के सागर तो थे ही, उनमें राष्ट्रीय भावना भी कूट-कूट कर भरी थी। फलत: वे राष्ट्रीय सन्त' का सही अर्थों में निर्वाह भी करते चल रहे थे। २ अक्टूबर ६५ का दिवस तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री लालबहादुर शास्त्री के जन्म का मंगल दिवस था। भारतीय शासन द्वारा उसे शांति दिवस' के रूप में मनाये जाने की राष्ट्रव्यापी पहल की गई थी। स्वत: राष्ट्रपति महोदय ने अपने एक वक्तव्य में इस आशय के उद्गार प्रकट भी किये थे। अजमेर में भी शांति-दिवस' मनाया जावे, श्रावकों में चर्चा चल रही थी। बात श्री भागचंद सोनी तक गई। वे पहले से ही इसी विषय पर विचार कर रहे थे। उन्होंने वार्ता के लिये आये श्रावकों को साथ लिया और पू. ज्ञानसागरजी के कक्ष में जा पहुँचे।

     

    उनका प्रस्ताव सुन ज्ञानसागरजी ने उन्हें निराश नहीं किया, बल्कि उनकी बातों को बल देते हुए कार्यक्रम निर्धारित कर दिया। दो एवं तीन अक्टूबर श्री सिद्धकूट चैत्यालय में भारी उत्साह के साथ शांतिदिवस' का आयोजन किया गया। पू. गुरुवर ने वांछित प्रकाश डाला और शास्त्रीजी के जन्मदिन को शांति दिवस के रूप में लेने के मनोदय को, जैनधर्म प्रणीत विचारों से प्रभावित माना। उन्होंने कहा यह सुन्दर विचारों का अहिंसावादी सुफल है।

     

    उनके पश्चात् मास्टर विशेषण से प्रसिद्ध श्री मनोहरलालजी एवं अजमेर नगर के सिटी मजिस्ट्रेट श्री खन्ना साहब ने भी समय सापेक्ष उद्बोधन प्रस्तुत किये। सेठ भागचंद सोनी ने उस दिन ‘शांति दिवस' पर विचार रख कर भारी सराहना अर्जित की। शाम को उनके मार्गदर्शन में मान्य श्री लालबहादुर शास्त्री प्रधान मंत्री, भारत को बधाई संदेश भेजा गया। इतना ही नहीं, दोपहर में भगवान शांतिनाथ की पूजा कर शास्त्रीजी के लिये निर्विघ्न जीवन की कामना की गई।

     

    समय को कोई बाँध नहीं सका, न बाँध सका दिगम्बर मुनिराजों को वर्षायोग का समय धीरे-धीरे पूरा हो गया। अजमेर के हर घर में ज्ञानसागरजी के ज्ञान की चर्चा समा चुकी थी। नियम समय पर गुरुवर ने चातुर्मास की निष्ठापना की और संघ को पुन: नये सिरे से विहार प्रारम्भ कर देने के क्षण उपस्थित कर दिये। सोने की अयोध्या के समय के राम ने विहार कर दिया। स्वर्ण मंडित झाँकी नसिया में चमकती रही और ज्ञानमंडित आत्मा ज्ञानसागर के भीतर। अजमेर चातुर्मास के समय जयपुर के श्रावक मूलचंद बोहरा का सौभाग्य कमल खिल सका था, जब उनकी पुनीत प्रार्थना पर गुरुवर ज्ञानसागरजी ने उन्हें श्रावककोत्तम क्षुल्लक दीक्षा प्रदान की थी। ठीक ऐसा ही शुभावसर फतेहपुर निवासी श्री सुखदेवजी गोधा को, वहाँ अजमेर चातुर्मास में प्राप्त हुआ था, उन्हें भी श्रावकोत्तम क्षुल्लक दीक्षा प्राप्त हो सकी थी।

     

    अजमेर से विहार करने के बाद, गुरुवर के चरण ब्यावर की ओर चलते प्रतीत हो रहे थे। पूज्य ज्ञानसागरजी वर्ष १९६५ में ही ब्यावर समाज और उसके विद्वानों के सम्पर्क में आये। उस समय वहाँ पं. हीरालाल जैन सिद्धान्त शास्त्री, पं. प्रकाशचंद जैन एवं पं. गणेशीलाल रतनलाल कटारिया आदि विद्वज्जन सश्रद्धा मुनि सेवार्थ अग्रिम पंक्ति में थे। श्रावकों ने देखा कि मुनिवर ७० से अधिक वय के धारक हैं। आगम का अगमज्ञान लिये हुए हैं वाणी में । उस समय तक संस्कृत और हिन्दी के मिलाकर चौदह ग्रन्थों का प्रणयन मुनिवर अपने कर्मठ और मनीषाप्रधान करकमलों से कर चुके थे।

     

    ग्रन्थों में धर्म और साहित्य का अपूर्व तालमेल देखकर वहाँ के सुधी श्रावकों ने गुरुवर से ग्रन्थ प्रकाशन की आज्ञा ली। फिर “गुरुवर ज्ञानसागर ग्रन्थमाला प्रकाशन समिति ब्यावर' का गठन किया और प्रथम पुष्प के रूप में ‘दयोदय चम्पू' का प्रकाशन कार्य पूर्ण किया। सादगी किन्तु गरिमा से मंडित सदस्य जनों ने ग्रन्थों को समीक्षार्थ विभिन्न पत्रिकाओं को भेजा। उस समय भी पत्रिकायें और उनके सम्पादक गण व्यावसायिक नहीं होते थे, वे मात्र धर्म और संस्कृति के संरक्षण और सेवा के लिये सम्पादन-प्रकाशन करते थे। लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादकों ने न केवल ‘दयोदय चम्पू' ग्रन्थ की, बल्कि उसके प्रणेता पू. ज्ञानसागरजी मुनि महाराज की मुक्तकण्ड से प्रशंसा की थी।

     

    कई विद्वानों/सम्पादकों ने स्वीकारा था कि मुनिपद पर पहली बार इतना महान लेखक एवं विद्वान व्यक्तित्व देखने में आया है। चूंकि मुनिवर प्रथम बार ब्यावर नगर पधारे थे, अतः सम्पूर्ण समाज में उनकी सेवा के प्रति उत्साह और उपस्थिति के प्रति आदर शुरू से अंत तक रहा। उनका प्रथम ग्रन्थ और उसके बाद कुछ और ग्रन्थ ब्यावर से प्रकाशित हुए थे, तो कतिपय ग्रन्थ किशनगढ़-मदनगंज और रेवाड़ी से भी प्रकाश में आ सके थे। वर्ष १९६५ की सीमावधि समाप्त हो गई थी, सन् १९६६ का सूर्य उदित हो चुका था। एक सूर्य पहले से ही समाज का गौरववर्धन कर रहा था- ज्ञानसागर सुनाम से, दूसरे ने क्षितिज पर आकर जग का अँधियारा दूर किया रोज की तरह।

     

    अजमेर शहर का सुविख्यात वार्ड केशरगंज का जैन मंदिर और वहाँ का दिगम्बर जैन समाज सदा ही मुनियों का सान्निध्य पाने अग्रणी रहा है। वहाँ का जागृत समाज कभी उन्माद में नहीं आया, न कभी एकता से परे हटा। समाज के कर्ता-धर्ता कई माहों से मुनि ज्ञानसागरजी से समय प्रदान करने की प्रार्थना कर रहे थे। चातुर्मास का प्रसंग सामने देख, एक बार पुनः भारी श्रद्धा से श्रावकों ने मुनिवर से विनय की । उनकी श्रद्धा रंग लाई और पूज्य मुनिवर ने समय पर केशरगंज में वर्षायोग की स्थापना कर दी।

     

    उस समय मुनिवर के ग्रन्थों का प्रकाशन कार्य ब्यावर आदि स्थानों के श्रावकों की प्रेरणा से चल ही रहा था, उनका लेखन कार्य भी निरन्तर था। केशरगंज के शांत और सुलझे हुए वातावरण में मुनिवर का लिखने-पढ़ने-संशोधन करने में खूब मन लगा। वर्षायोग की समस्त क्रियाओं का स-प्रभावना पालन व संचालन हुआ। मुनिवर की उपस्थिति से प्राण-प्राण में संतुष्टि की धारा बह रही थी। सन् १९६७ का समयकाल पू. ज्ञानसागरजी के जीवन में ‘महत्त्वपूर्ण' था, किन्तु वह पू. विद्यासागरजी के जीवन का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण वर्ष बन गया था, तब उस समय विद्यासागरजी आचार्य या मुनि नहीं थे, मात्र ब्रह्मचारी थे और नाम था विद्याधर।


    विद्याधर एक २१ वर्षीय युवक जो भारत के दक्षिण से चलकर उत्तर में आया था- गुरु की शरण खोजते हुए । मन में मुनि दीक्षा की भावना साथ लिये। जुलाई का माह था। मुनिवर ज्ञानसागर मदनगंज-किशनगढ़ में विराजे हुए थे। दक्षिण से यात्रा प्रारंभ करनेवाले विद्याधर को इतना भर ज्ञात था कि वे (मुनिवर) अजमेर शहर में हैं या उसके आस-पास होंगे।


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