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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • ज्ञान का सागर : क्रमांक - 10

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    निष्पृह पंडितजी चुपचाप मंच पर विराजे रहे। ब्यावर की वह यात्रा धर्म पथ पर बढ़ रहे पंडितजी को प्रेरक तो सिद्ध हुई थी, पंडितजी का आगमन दोनों आचार्यों को विश्वास करा गया कि देश में अभी महान पंडितों की परम्परा अक्षुण्ण है। वह दिल्ली का प्रसंग है जहाँ, ब्रह्मचारी पं. भूरामलजी आचार्य सूर्यसागरजी के पास थे। पहाड़ी वार्ड में स्थित जैन धर्मशाला में साक्षात् दो ज्ञान-दिवाकर उतर आये हों जैसे। पंडितजी वहाँ गये थे पढ़ने, किन्तु आचार्य सूर्यसागर के आदेश के कारण उनका अधिक समय मुनिसंघ को पढ़ाने में निकल जाता था।

     

    प्रज्ञा के धनी उस महान पंडित को यहीं पहली बार पं. हीरालाल शास्त्री ब्यावर ने देखा था और प्रभावित हुए थे। दोनों का आत्मीय परिचय हुआ। हीरालालजी को उनके प्रति प्रथम श्रद्धा यहीं उत्पन्न हो गई थी। दोनों विद्वान मिलते-जुलते रहे कुछ दिनों तक, फिर अपनेअपने गंतव्य को प्रस्थान कर गये। दिल्ली ही में प्रथम परिचय हुआ था डॉ. सौभाग्यमल दोशी अजमेर वालों का। वे एक खास कविता सुनाने में, उस समय, साधु संघों में चर्चित थे। कविता थी “जीते लकड़ी, मरते लकड़ी, अजब तमाशा लकड़ी का।” जब दोशीजी पं. भूरामल से मिले तो उन्होंने उन्हें भी एक दिन वह गीत गा कर सुनाया। उसमें एक पंक्ति आती थी- “परम दिगम्बर संतों के भी हाथ कमंडलु लकड़ी का।” सरल स्वभावी पंडितजी दोशीजी की उस कविता से बहुत प्रभावित हुए और उनकी प्रशंसा कई बार प्रवचनों तक में की।

     

    पं. भूरामलजी की उम्र के अधिकांश वर्ष साहित्य लेखन में समा चुके थे। इस बीच वे मुनिसंघों को भी पढ़ाने का शुभ कार्य कर चुके थे। खासतौर से मुनि वीरसागरजी और बाद में शिवसागरजी के संघ में वे कठिन भूमिका का निर्वाह कर चुके थे। पू. वीरसागरजी का वात्सल्यामृत मिला जब उन्हें, तो उन्हीं के संकेत को शिरोधार्य करते हुए, वे श्रमण पथ पर चलने को तैयार हो गये। यद्यपि वे बालब्रह्मचारी थे, किन्तु उन्होंने आचार्यश्री से सविधि ब्रह्मचर्य प्रतिमा के व्रत एवं दीक्षा प्रदान करने की प्रार्थना की। पू. वीरसागरजी को ऐसा ज्ञानी शिष्य कहाँ से मिलता, अत: वे तुरन्त तैयार हो गये और उसी वर्ष सन् १९४९ में अजमेर नगर में ब्रह्मचर्य दीक्षा प्रदान कर दी।

     

    दीक्षा के उपरान्त आचार्य वीरसागरजी ने अपने प्रवचन में कहा सभी संतों को कच्ची माटी के घड़े की तरह शिष्य मिलते हैं, जिन्हें भारी श्रम से पढ़ाना पड़ता है, साधु चर्या सिखलानी पड़ती है, किन्तु हमारे संघ को यह सन्त स्वभावी पंडितजी ऐसी अवस्था में प्राप्त हुए हैं। कि वे अपने मन और तन से स्वयमेव ही एक ज्ञानी सन्त के रूप में पहिचान लिये गये थे, वे कल भी ब्रह्मचारी थे, आज भी हैं, फर्क इतना है कि वे अब हमारे संघ के हो गये हैं। उनके आगमन से उन्हें धर्मलाभ होगा ही, ऐसा मेरा प्रयास रहेगा, किन्तु इस संघ के सदस्यों को भी उनसे ज्ञानलाभ होता रहेगा। वे आगम के गम्भीर अध्येता तो हैं ही, बहुत बड़े रचनाकार हैं। उनकी संस्कृति की रचनाओं से सजे हुए विशाल ग्रन्थों की अनेक पांडुलिपियाँ मैंने देखी हैं, जिसके आधार पर मैं कह सकता हूँ  कि वे वर्तमान में संस्कृत के सबसे बड़े' विद्वान एवं रचनाधर्मी हैं। उनके उज्ज्वल भविष्य की कामना करता हूँ।

     

    ज्ञान का सागर गुरुवर के प्रवचन सुनकर ब्र. भूरामलजी के रोम-रोम संकोच में पड़ गये, उन्होंने तुरन्त णमोकारमंत्र की जाप दी और मन में संकल्प धारण किया कि गुरुवर के वचनों के अनुरूप अपना कार्यक्षेत्र एवं जीवन बनाऊँगा। दूसरे दिन गुरु आज्ञा हुई कि पं. भूरामल प्रवचन देंगे। नियत समय पर उन्होंने धीमी आवाज में संक्षिप्त प्रवचन प्रदान किये, कहा – मैं कुछ नहीं जानता, अल्पज्ञ हूँ, काशी में पढ़ कर साधारण आदमी ही बना रहा, सच्चा पथ तो अब मिला है जिस पर चलकर आदमी पहले साधु बनता है और बाद में उससे भी बड़ा व्यक्तित्व, किन्तु इस कलयुग में वह सम्भव नहीं है; अत: मैं एक सच्चा, निस्पृह साधु ही बन जाऊँ तो पू. आचार्यश्री का जीवन भर ऋणी रहूंगा।

     

    सभा समाप्ति पर श्रावकों में उनके प्रवचन की भारी प्रशंसा हुई। लोगों को पहली बार ज्ञात हो सका कि साधु यदि विद्वान भी हो तो ‘प्रवचन शैली' की ऊँचाई इस तरह प्रेरक, नवीन और बोधगम्य हो जाती है। ब्र. पं. भूरामल सन् १९५२ की सीमा में पहुँचते-पहुँचते श्रावकों और मुनियों के मध्य एक प्रमाणित विद्वान की सात्त्विक ख्याति प्राप्त कर चुके थे, तभी तो पहले कुछ वर्षों तक पू. आचार्य वीरसागरजी अपने संघस्थ साधुओं को पढ़ाने के लिये उन्हें बुलवा लिया करते थे, बाद में जब पू. शिवसागरजी आचार्य बने थे तब वे भी पंडितजी के ज्ञान का लाभ उठा लेते और संध्यस्थ सदस्यों को भी दिलाते थे।

     

    सन् १९५२ से वे संतों के पंडित मान लिये गये थे। आर्यिका ज्ञानमति एवं सुपार्श्वमत्तिजी ने पंडित भूरामल से काफी समय तक विद्याध्ययन लाभ प्राप्त किया था। उन्हें शिक्षा गुरु मानती थीं। आचार्य ज्ञानसागरजी दाँता नगर से जितना पंडित अवस्था में जुड़े रहे, उतना ही ध्यान उन्होंने मुनि हो जाने के बाद भी दिया था। सन् १९६२ में जब वे मुनि थे, दाँता के समाज के निवेदन पर वहाँ उनके सान्निध्य में एक विशाल पंच-कल्याणक महोत्सव सम्पन्न कराया गया था। प्रतिष्ठाचार्य थे उसी क्षेत्र के विद्वान पं. श्री पन्नालाल जी। महावीर स्वामी की प्रतिष्ठापन्न प्रतिभा में सूरि-मंत्र पू. मुनि ज्ञानसागरजी ने ही प्रदान कर समारोह पूर्ण किया था। यह उस समय की बात है जब मुनिवर वीरसागरजी ससंघ मनसुरपुर (मन्सूरपुर) में थे। यह उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जनपद में है। वैशाख माह चल रहा था।

     

    मुनिवर ने ब्र. पं. भूरामलजी को आज्ञा दी- आपको अक्षय तृतीया के पावन दिवस पर क्षुल्लक दीक्षा दूंगा। तैयार करिये अपने आपको। पंडितजी ने गुरुवर के पैर पकड़ लिये, आभार ज्ञापित करते हुए उत्तर दिया - जैसी आपकी आज्ञा महाराजजी। एक सादे समारोह में वैशाख शुक्ल तृतीया संवत् २०१२ (२५ अप्रैल १९५५) को मुनिवर वीरसागरजी ने पं. भूरामल शास्त्री को विधिविधानपूर्वक क्षुल्लक दीक्षा प्रदान की। नामकरण किया- १०५ क्षुल्लक श्री ज्ञानभूषणजी महाराज। मनसुरपुर की धरती पर वह सादा समारोह एक नूतन इतिहास लिखने में सफल हुआ। श्रावकगण धन्य-धन्य थे। परमपूज्य मुनिवर वीरसागरजी का खानियाँजी (जयपुर) में चातुर्मास चल रहा था। वे ससंघ वहाँ विराजमान थे। तभी गुरु के आदेश तथा समाज और संघ के अनुरोध पर उन्होंने विधि-विधान पूर्वक, भाद्रपद कृष्ण सप्तमी, वि. सं. २०१२ (सन् १९२५) को आचार्य पद ग्रहण कर लिया। समाज ने जयघोष किया। बोलिये परमपूज्य आचार्य वीरसागरजी मुनि महाराज की......जय। नगर उत्साह से भर उठा था। अन्यान्य शहरों, मंदिरों, तीर्थक्षेत्रों, गुरुजनों तक आदरपूर्वक समाचार भेजे गये समाज के द्वारा।

     

    वह भादों का माह, पूरा-पूरा बीत ही न पाया था कि संघ को समाचार मिला कि परमपूज्य आचार्य शांतिसागरजी महाराज का कुन्थलगिरि में समाधिमरण हो गया है। सारा देश शोकमग्न है। संघस्थ सदस्य तड़प उठे। मनों ने क्रंदन किया- कहाँ है वह कुन्थलगिरि ? हम अभी वहाँ जाना चाहते हैं। विवेक ने समझाया सैकड़ों मील दूर महाराष्ट्र के उस्मानाबाद जनपद में, मगर अभी तो वर्षायोग चल रहा है- तुम्हारा। मनों की चंचलता समाप्त हो गई; पर क्रंदन चलता रहा। सभी सन्त सामायिक हेतु बैठ गये। (समाधिमरण का दिवस- भाद्रपद शुक्ल द्वितीया, रविवार, वि.सं. २०१२ (१८ दिसम्बर १९५५) क्षुल्लक अवस्था में रह कर क्षु. ज्ञानभूषणजी अनेक तीर्थों और नगरों में गये । इसी काल में उनका एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ “सम्यक्त्व सार शतक प्रकाशित होकरम जैन समाज के समक्ष आया था पहली बार।

     

    वर्ष १९५७ में उन्होंने पू. आचार्य देशभूषण महाराज से ऐलक दीक्षा प्राप्त की और आज्ञप्ता लेकर देशाटन पर पुन: निकल गये। अब नाम था - ऐ. ज्ञानभूषणजी महाराज (ऐसा उल्लेख भी मिलता है, देखें भूमिका)


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