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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • ज्ञान का सागर : क्रमांक - 17

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    नसियाजी पहुँच कर जुलूस ने सभा का स्वरूप ले लिया। सोनीजी ने स्वागत भाषण किया, तत्पश्चात उन्होंने प्रवचन हेतु मुनिवर से प्रार्थना की। मुनिवर ने समूह को आशीष दिया और अपने मंगलोबोधन से जन-जन के मन को शीतलता प्रदान की। अजमेर में ज्ञानसागरजी के कारण मेला-सा लगा था, उधर लगभग उन्हीं दिनांकों में मध्य प्रदेश के सुप्रसिद्ध तीर्थस्थल सोनागिरिजी का मेला चल रहा था। वहाँ पूज्य आचार्य शांतिसागर जी (तत्कालीन) एवं मुनि क्षीरसागरजी विराजमान थे।

     

     श्रावकों की प्रार्थनाओं पर ध्यान देते हुए मुनिवर ज्ञानसागर जी ने ग्रीष्मकालीन अवकाश अजमेर में ही पूर्ण किया, जिससे सामाजिक एकता और आडम्बरों के बहिष्कार के सूत्र पुनः पुष्ट हो सके। धीरे-धीरे ग्रीष्मकाल विदा ले गया, वर्षाकाल के आगमन की सूचनायें मिलने लगी। मुनिवर के चरण कहीं विहार के लिये उठे उसके पूर्व ही समाज के श्रीमानों धीमानों ने उनके श्रीचरणों में श्रीफल भेंट करते हुए अजमेर में ही चातुर्मास स्थापना करने की प्रार्थना कर डाली। ७४ वर्षीय ज्ञानसागर जी अपनी धुन के पक्के थे, वे करते वही थे, जो उनकी और आगम की दृष्टि में अनुकूल हो । चूँकि वे अजमेर वासियों को अधिक समय पहले ही प्रदान कर चुके थे, पर पन्थों के विवादों को शान्त रखने के लिये उन्हें लगा कि अजमेर को चातुर्मास का समय देना उपयुक्त है, अत: उन्होंने श्रीफल चढ़ा रहे श्रावकों को आशीष प्रदान कर दिया। भारी जयघोषों के माध्यम से श्रावकों ने अपने मन की संतुष्टि को ज्ञापित किया।

     

    समय आने पर मुनिवर ने एक सादे समारोह में वर्षायोग की स्थापना अजमेर स्थित नसियाजी में की। उनके संघ में उस समय आर्यिका अनन्तमतीजी, आर्यिका पार्श्वमतीजी एवं क्षुल्लक सन्मतिसागर जी, क्षुल्लिका सुव्रतमतीजी एवं चार ब्रह्मचारी भाई उनकी आज्ञा से अवस्थित थे। सोनीजी की नसिया में पौषध पथ के पथिक मुनिपुंगव पू. ज्ञानसागरजी को विराजे हुए एक दो सप्ताह हो चुके थे। नसिया क्षेत्र में भारी चहल-पहल रहती थी। भिन्न-भिन्न प्रकार के लोग, विभिन्न धर्मों के लोग और भिन्न स्वभावों के लोग आते-जाते रहते थे। उन्हीं के साथ भक्तगणों का भी दर्शनार्थ आवागमन लगा रहता था।

     

    एक दिन सौम्यसाधना के साधक श्रावक श्री भागचंद सोनी कुछ परेशान हो गये। हुआ यह कि रोज वे श्रीजी का पूजन-प्रक्षाल कर, मुनिवर को खोजकर उनके समक्ष जाते थे और द्रव्य संजोकर, मुनिवर की पूजा पढ़ते हुए अर्थ्य चढ़ाते थे, नमन/नमस्कार करते थे और बाद में अवसर पाकर उनसे बतियाते रहते थे। परन्तु उस दिन कुछ विचित्र सा हो गया। मुनिवर अपने काष्ठासन पर किसी ग्रंथ के लेखन में तल्लीन थे, कब सोनीजी वहाँ पहुँचे, उन्होंने कब अर्घ्य चढ़ाया, वे कुछ ध्यान ही न दे पाये, लेखन में मग्न रहे आये। सोनीजी कुछ समय तक रुके रहे, पर ज्ञानोपासक मुनिवर का ध्यान न टूटा। वे लौट पड़ने की सोच ही रहे थे कि देखते हैं कि एक विदेशी पर्यटक उनके (सोनीजी के) पीछे खड़ा है, मुनिवर को ध्यान से देख रहा है और हाथ जोड़े हुए है।

     

    सोनीजी अपने स्थान पर तब जहाँ के तहाँ मूर्तिवत् बैठे रहे, नहीं उठे। पर्यटक सोनीजी को देख चुका था कि उन्होंने मुनिवर के समक्ष कुछ चढ़ाया है या रखा है। (सोनीजी ने पुञ्ज जो चढ़ायी थी।) पर्यटक शायद निर्णय नहीं ले पा रहा था कि वह क्या चढ़ाये, क्या रखे, क्या भेट दे? अचानक वह विदेशी आगे बढ़ा, मुनिवर के समक्ष रखी हुई बाजोट पर, कोट के जेब से एक चपटी-सी शीशी (बाटेल) निकाली और मुनिवर के समक्ष पूर्ण श्रद्धा से रख दी। फिर हाथ जोड़े, कुछ देर रुका और कुछ सोचता-विचारता-सा वापिस होने लगा। तब तक मुनिवर को आभास हो गया, उन्होंने नजर भर कर विदेशी को देखा और आशीषार्थ अपना हाथ उठा दिया । विदेशी खुश होकर लौट गया।

     

    अब बारी थी सोनीजी की। वे एक निर्दोष बालक की तरह मुनिवर से पूछने लगे। गुरुवर ! मैंने अर्घ्य पढ़ा, अर्थ्य चढ़ाया तब तो आपने हाथ हिलाया तक नहीं, और उस विदेशी द्वारा बाटेल चढ़ाने पर आशीष दे दिया? क्या पूजा की द्रव्य मुझे भी बदलनी होगी? कल से अक्षत की जगह बाटेल...........। तब सयाने मुनिवर ने, बारे सोनीजी को समझाया- सोनीजी, वह विदेशी है, नहीं जानता कि क्या चढ़ाना है और क्या नहीं, न पूजा जानता, बस श्रद्धा के आधार पर यहाँ तक पहुँच गया। धर्मविमुख ऐसे लोगों को मुनियों का आशीष समय पर मिलता रहे तो अपनी श्रद्धा के बल, वे एक दिन धर्मपरायण बन सकते हैं, धर्मात्मा हो सकते हैं। अतः ऐसे लोगों के लिये करुणाभाव और वात्सल्यभाव मुनिगण छुपा कर नहीं रख सकते, वे तो स्नान करा देंगे वात्सल्य रस से।

     

    विदेशी की क्रिया पर अनेकान्त दृष्टि से विचार करें तो ऐसा लगेगा कि शायद वह मद्य-पीना छोड़ना चाहता था, इसलिए मद्य से भरा कीमती पात्र ही छोड़ गया किसी अदृश्य प्रेरणा से।  हो सकता है कि द्रव्य के रूप में वह अपनी सर्वाधिक प्रिय वस्तु चढ़ाना चाहता हो मुनिवर को। सोनीजी को मुनिवर की समझाइश अच्छी लगी, अत: हाथ जोड़कर बोले महाराज ! समझ गया। मगर मुनिवर का मन न माना तो आगे बोले- जो जैन हैं, सही श्रावक हैं, वे शुद्ध द्रव्य के अतिरिक्त अन्य वस्तु क्यों चढ़ायेंगे, क्या उन्हें पाप बन्ध नहीं बँधेगा? | सोनीजी नतमस्तक हो गये, चरण पकड़ कर बोले - गुरुवर आप सही कह रहे हैं। बस ऐसा ही कुछ वृत्तान्त आपसे रोज सुनना चाहता हूँ, इसलिए पूजा के बाद आपके पास बैठ जाता हूँ।

     

    मुनिवर विनोद करते हुए बोले- अच्छी बात है, आपको रोज कुछ सुनाऊँगा। ये मोटे-मोटे ग्रन्थ देखे हैं? उन्हें सुनाना शुरू कर दूंगा तो जीवन भर सुनते रहोगे। सोनीजी ने पुन: उनके चरण पकड़े और मुखरित हुए - हे महाराज ! ऐसा सुयोग मुझे मिल जाये तो धन्य हो जाऊँ? मुनिवर हँस पड़े। उस दिन सोनीजी को आत्म-विश्वास हुआ कि सारा देश उन्हें रायबहादुर/केप्टिन/दानवीर आदि विशेषण लिखता और बोलता है, सब मिथ्या है, क्षणिक हैं। सही विशेषण एक ही है, वह जो मुनिवर ने कहा है- “सही श्रावक'। वे मन में संकल्प लेते हैं- मैं ‘सही श्रावक बना रहूँगा उनके आशीष से।

     

    सोनीजी नहीं जानते थे कि उनकी सच्ची मुनिभक्ति, धर्मपरायणता और वत्सलभावना के कारण भविष्य में देश का समाज उन्हें ‘श्रावक शिरोमणि' का खिताब नवाजेगा। रायबहादुर या कैप्टिन या सरसेठ से सम्बोधन पाने वाले सोनीजी जीवन में कभी उतने प्रसन्न नहीं हुए, जितना कालान्तर में ‘श्रावक रत्न' सुनकर हुऐ थे। वर्ष १९६५ में जब पू. ज्ञानसागरजी का अजमेर में वर्षायोग चल रहा था, तब पू. विद्यानंदजी मुनि महाराज फिरोजाबाद में सम्पन्न कर रहे थे तो पूज्य मुनि धर्मसागरजी झालरापाटन में और पूज्य मुनि महावीरकीर्ति जी माँगी-तुंगी में। ८ अगस्त ६५ को सुबह-सुबह अजमेर भर के श्रावक सिमट कर नसियाजी में एकत्र हो रहे थे, पूछा गया उनसे तो जवाब मिला, आज पू. ज्ञानसागरजी कैशलुञ्च करेंगे, अत: दर्शनार्थ एकत्रित हुए।

     

    - क्या कोई प्रचार किया गया था?

    - नहीं, श्रावकों की चर्चा चल रही थी।

    - यही कि कल महाराजजी केशलुञ्च करेंगे।

    - क्या उन्होंने खुद बतलाया था ?

    नहीं, उनके संघस्थ ब्रह्मचारीजी शुद्ध राख को कपड़े से छानकर | लाने का निर्देश एक श्रावक को दे रहे थे। दूसरे ने सुन लिया। इस तरह

    दो श्रावकों ने अपने परिवार में बतलाया, उनके पारिवारिक सदस्यों ने अन्य परिवारों को सूचना दी। बस ! हमें ज्ञात हो गया, सो हम आ गये।

    कहने का मन्तव्य यह कि केशलुञ्च जैसी महत्त्वपूर्ण क्रियायें भी पू. ज्ञानसागरजी के समक्ष महत्त्व नहीं रखती थीं, वे प्रचार या चर्चा को तनिक भी महत्त्व नहीं देते थे। गुरुवर के ना चाहते हुए भी, केशलुञ्च कार्यक्रम समारोह पूर्वक किया गया। अवसर का महत्त्व प्रतिपादित किया पं. हेमचंद शास्त्री एवं श्री मनोहरलालजी ने, बाद में सिटी मजिस्ट्रेट श्री खन्ना ने भी अपना उद्बोधन दिया था ।


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