श्री भूरामलजी इन वर्षों में संस्कृत साहित्य और जैन दर्शन की उच्चतम शिक्षा प्राप्त कर चुके थे, फलतः उन्हें “पंडित” भूरामल कहने का मन बन जाता था सहपाठियों को। उनके द्वारा जब स्याद्वाद महाविद्यालय की सीमा-रेखा पार कर दी गई, तब वे क्वीन्स कॉलेज-काशी के छात्र बने और वहाँ से शास्त्री परीक्षा उत्तीर्ण करने का गौरव अर्जित किया। यों लोग यह भी कहते हैं। कि परीक्षा उत्तीर्ण करने से अधिक महत्त्व उन्होंने विभिन्न ग्रन्थों के तलस्पर्शी अध्ययन को दिया था, जो बाद में उनके लिये ज्ञान का नव विहान प्रदान करने का कारण भी बने।
अध्ययन के बाद पं. भूरामलजी ने सबसे प्रथम भेट अपने ही विद्यालय को प्रदान की थी जो ऐतिहासिक बन गई थी। उन्होंने पढ़ते समय जिस कमी को अनुभूत किया था, पठनोपरान्त उसे पूर्ण किया। जान गये थे कि जैन वाङ्गमय अपने आप में पूर्ण है, किन्तु उसमें पृथक् तौर पर संस्कृत, काव्यशास्त्र, जैन-व्याकरण, जैन-न्याय आदि के ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है, फलत: महाविद्यालय में जैन-ग्रन्थों से कुछ नहीं पढ़ाया जाता, न ही कोई जैन ग्रन्थ पाठ्यक्रम में शामिल हैं। तब तक कुछ जैन-ग्रन्थ कतिपय विद्वानों एवं संस्थाओं द्वारा प्रकाशित कराये गये, जिनमें जैन-न्याय और व्याकरण को समाहित किया गया था। पं. भूरामल ने अपने उद्देश्य को सफल बनाने के लिए तत्कालीन प्रभावशाली लोगों और विद्वानों से सम्पर्क किया तथा जैनग्रंथों को काशी विश्वविद्यालय के और कलकत्ता से सम्पन्न होनेवाली परीक्षाओं के पाठ्यक्रम में शामिल कराया।
ग्रन्थों का अभाव समाप्त करने के लिये उन्होंने सरस्वती का आह्वान किया और अपनी लेखनी से महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ रच डालने का बीड़ा उठाया। उनकी लेखनी से बाद में अनेक ग्रन्थ सामने आये भी। यही है वह ऐतिहासिक भेट। पं. भूरामलजी जब तक क्षुल्लक नहीं हो गये, तब तक वे अपने ग्रन्थों में पं. उमरावसिंहजी, जो बाद में दीक्षा लेकर ब्र. ज्ञानानन्द कहलाने लगे थे, को ही अपना गुरु लिखते रहे और उनकी स्तुति में ही नमन निवेदित करते रहे। जयोदय महाकाव्य में उन्होंने अपने पू. गुरु ब्र. ज्ञानानन्द के लिये लिखा है-
मिनमामि तु सन्मति कम कामं, छामित कैर्महितं जगति तमाम् ।।
गुणिनं ज्ञानानन्दमुदासं, रूचां सुचारूं पूर्तिकरम कौ॥
(भावार्थ -- जो समीचीन मति - सम्मति सहित हैं, काम और अकाम से रहित हैं, देवों जैसे गुणीजनों से जगत में अत्यंत पूजित हैं, गुणवान हैं, उदास/संसार से विरक्त हैं, मनोहर हैं, पृथ्वी पर जिज्ञासुओं की इच्छाओं की पूर्ति करनेवाले हैं, उन ज्ञानानन्द नाम से सुशोभित विद्यागुरु को मैं नमस्कार करता हूँ।) बनारस के स्याद्वाद महाविद्यालय के मेधावी छात्र और होनहार महाकवि अभी काशी में थे, शायद वह वर्ष १९१९ का समय था कि उन्हें समाचार मिला कि बीसवीं सदी में प्रथम बार देश में दिगम्बरीमुनि-दीक्षा सम्पन्न हुई है। उन्हें जैन-व्यापारियों से ज्ञात हुआ कि भारत के दक्षिण भाग के कर्नाटक प्रान्त में, जिला बेलगाँव के अंतर्गत यरनाल उपनगर में श्री भीमगौड़ा पाटिल के सुपुत्र श्री सातगौड़ा पाटिल ने अंतः प्रेरणा से पंचकल्याणक के मध्य शक संवा १८४० फाल्गुन शुक्ला १३ को जिनप्रतिमा की साक्षीपूर्वक मुनिदीक्षा ले ली है। स्वेच्छया दिगम्बरत्व धारण करनेवाले उस सन्त का नामकरण “१०८ श्री शांतिसागर मुनि महाराज” किया है।
पं. भूरामल इस समाचार से प्रसन्न तो हुए ही, उन्हें विश्वास हुआ पहली बार, कि जब जीवन में साधुत्व का आगमन होता है तो इस तरह भी हो सकता है। दीक्षा के लिये सर्वश्रेष्ठ गुरुवर तीर्थंकर भगवान की प्रतिमा के साम्मुख्य से बढ़ कर क्या कुछ और भी कहा जा सकता है। उन्होंने वहीं बनारस के एक मंदिर से यरनाल के मंदिर को और मंदिर में हुए मुनि को हाथ जोड़ कर नमन किया मन ही मन। महाराज नमोऽस्तु। हे प्रथम मुनि शांतिसागरजी महाराज ! नमोऽस्तु। पण्डितजी के भीतर वैराग्य का प्रकाश फैलने लगा उसी वर्ष से। उसी वर्ष उन्होंने जीवन की दिशा का सुनिर्धारण किया मनगत। तभी मन में भाव हो आया - काश ! वे दिगम्बर प्रभु शांतिसागरजी कहीं एक बार दिख जाते चर्म-चक्षुओं को। कुछ दिन बाद तत्कालीन मुनि पूज्य नेमीसागर महाराज का ससंघ आगमन हुआ, वे महाविद्यालय के समीप ही दिगम्बर जैन मंदिर में ठहरे।
भूरामलजी को ज्ञात हुआ तो एक मित्र को साथ लेकर दर्शनार्थ गये। “नमोऽस्तु” की अमर रश्म के बाद भूरामल समीप ही बैठ गये। मुनिवर से वार्ता की। बातों-बातों में ही पूछ बैठे - छात्रगण मिल कर चौका लगायें तो क्या मुनिराज चौके को उपकृत करेंगे? उनके प्रश्न को सुनकर ज्ञानवान मुनिवर ने उन्हीं से एक प्रश्न पूछ लिया - क्या छात्र श्रावक नहीं होते? मुनिवर का प्रश्न भूरामल के लिये उत्तरं बन गया। वे मुस्करा पड़े। पुनः उनके श्रीचरणों में नमन किया और वापिस आ गये। रात में ही मित्रों के साथ बैठ कर चौका लगाने की योजना बनाई। दूसरे दिन वांछित सामग्री लाई गई और तीसरे दिन से चौका शुरू कर दिया गया।
विधि पूर्वक शोध की रसोई और नवधा भक्ति के साथ आहारों का दिया जाना वे जानते थे, अत: उन्हें घबड़ाहट नहीं हुई। चार छात्रों ने मिल कर मुनिवर को पङ्गाहा, विधि मिल गई। मुनिवर ने चौका में पदार्पण किया। छात्रों ने भारी उत्साह और श्रद्धा से आहार दिये। नगर के सैकड़ों श्रावकों ने जब छात्रों की श्रद्धा और चर्या का अवलोकन किया तो वे धन्यवाद कहने से न चूके। श्रावकों को विश्वास हो गया कि महाविद्यालय के छात्रगण केवल ग्रन्थों तक सीमित नहीं हैं, वे चर्या-क्षेत्र में भी कुशल हैं। उसी दिन भूरामल ने निर्विघ्न-आहार-क्रिया सम्पन्न हो जाने के उपलक्ष्य में आजीवन ब्रह्मचर्य से रहने का मन बना लिया था मन ही मन।
उन्होंने बाल्यकाल से ही कभी रात्रि भोजन नहीं किया था, अत: काशी में जब कभी कोई छात्र मजबूरी में रात्रि भोजन लेता था, तब भी भूरामल अपने संकल्प पर अडिग रहते थे, रात्रि भोजन नहीं ही लेते थे। सहपाठीगण उनके पीछे पड़ जाते - ले ले भाई, आज भर ले ले, नहीं तो भूखा रह जावेगा। लिखना-पढ़ना भी तो है, भूखा रहेगा तो ताकत कहाँ से पायेगा ? तब भूरामल उनका मन रखने के लिये मूंगफली खा कर, पानी पी लेते थे। आलू, प्याज, लहसुन (जमीकन्दादि) का सेवन उन्होंने कभी नहीं किया, न किसी को प्रेरणा दी। हाथों से भरा गया जल पहले कुएँ पर छानते, बिलछानी डालते, बाद में अपने कक्ष में लाकर पुन: छानते थे और पीते थे।
प्रात: चार बजे उठकर पढ़ते थे, ७ बजे तक नहा-धोकर मंदिर जी चले जाते थे। दर्शन, पूजा, प्रक्षाल का क्रम नित्य रखते थे। रात्रि सोने से पूर्व जाप और सुबह जागते ही जाप का क्रम बनाये थे। स्वाध्याय तो अधिक से अधिक समय करते थे। युवावस्था जिसे कच्ची उम्र कहते हैं, में भी माता आदि से दूर रहते हुए भी कभी उन्होंने बीड़ी, सिगरेट, पान-तम्बाखू का उपयोग नहीं किया। जो छात्र कभी करते तो उन्हें छोड़ने की प्ररेणा देते थे। यदि छात्र नहीं छोड़ता था तो उस छात्र का साथ छोड़ देने की धमकी दे डालते थे, मगर सहपाठी को व्यसनमुक्त करके ही चैन लेते थे। अन्य छ: व्यसनों की बातें तो सपने तक में न लाते थे।
विद्यालय में जैन सिद्धान्तों पर कभी वाद-विवाद प्रतियोगिता या भाषण प्रतियोगिता रखी जाती, तब भूरामल अवश्य उसमें भाग लेते थे और जीतते थे। विद्यालय में उनका यशाच्छादन होता रहता था। शास्त्री पाठ्यक्रम पढ़ते हुए रुचिकर शास्त्रों का काव्यान्तर करने में समय देते रहते थे, मगर भावान्तर और मतान्तर न होने देते थे। चौबीस घंटों में से अधिक से अधिक समय पढ़ने-लिखने में लगा देते थे, कभी समय मिलता तो सहपाठियों के साथ शाम को घूमना-टहलना भी कर लेते थे।