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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • ज्ञान का सागर : क्रमांक - 12

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    ऐलक ज्ञानभूषणजी सरल भाषा में बतलाने का सुंदर प्रयास कर रहे थे, उन्होंने दीक्षा विधि पर भी समुचित प्रकाश डाला और उसके बाद दीक्षा-फल का खुलासा जन-मानस के समक्ष किया। ऐलक ज्ञानभूषणजी का प्रवचन लोगों को बहुत अच्छा लगा। उनके परिष्कृत ज्ञान का श्रोताओं को ही नहीं, आचार्य शिवसागर को भी गौरव हो आया। सभी ने धन्यता जाहिर की। निश्चित तिथि आषाढ़ कृष्ण द्वितीया, सं. २०१६ (२२ जून १९५९) सोमवार के दिन एक सादे समारोह में आचार्य श्री शिवसागर जी ने श्रावकों और विद्वानों की उपस्थिति में पू. ऐलक ज्ञानभूषण महाराज को स-विधि दिगम्बरी दीक्षा प्रदान की। नामकरण किया - मुनि ज्ञानसागर। वह समय काल धन्य हो गया। हो गये धन्य वहाँ उपस्थित दस हजार श्रावक आचार्य श्री शिवसागरजी ने आचार्य बनने के बाद प्रथम शिष्य के रूप में मुनि ज्ञानसागर को स्वीकार किया।

     

    अर्थात् प्रथम मुनिदीक्षा ज्ञानसागरजी को ही दी थी। कार्यक्रम इतना ही नहीं था, उसी दिन, उसी समय, उसी स्थल | पर अन्य दीक्षायें भी हुई जब पू. आचार्य शिवसागरजी मुनि महाराज ने क्षु. स्वरूपसागरजी, ब्र. लादूलालजी वैद नैनवाँवाले एवं ब्र. भंवरबाई जी विलाला को ऐलक, क्षुल्लिका दीक्षायें प्रदान कर नव परिवेश प्रदान किया, वे उस दिन से हो गये पू. ऐलक आनंदसागरजी, पू. ऐ. भव्यसागर जी एवं पू. क्षुल्लिकाजी। विद्वानों ने विचार किया कि अभी दो वर्ष पूर्व जिस पावन धरती पर भारत माँ का एक दिगाम्बर सपूत (आचार्य वीर सागर) सोया था, उसी धरती पर आज एक सपूत जागा है।

     

    आचार्य शिवसागर ने उन्हें मुनि क्या बनाया, उसी समारोह में उन्होंने घोषणा कर दी कि मुनिवर श्री ज्ञानसागरजी को इस संघ का उपाध्याय भी बनाया जाता है, वे श्रीसंघ को पढ़ाने व शिक्षा प्रदान करने का दायित्व भी सम्भालेंगे। उन्होंने उचित विधि-विधान के साथ उपाध्याय पद की भी दीक्षा प्रदान की और मुनि ज्ञानसागर हो गए -“परमपूज्य उपाध्याय १०८ श्री ज्ञानसागरजी महाराज। यहाँ एक संयोग फिर बना है। अजमेर से करीब ५०० कि. मी. दूर मध्यप्रदेश के ग्राम ईशुरवारा में, २१ अगस्त ५८ को पू. माता शान्ता देवी जैन की कुक्षि से शिशु जयकुमार (मुनि सुधासागरजी) ने जन्म लिया था, उस घटना के एक साल बाद, सन् ५९ में पं. भूरामल (ऐ.ज्ञानभूषणजी) ने गुरुवर शिवसागर से दिगम्बरी दीक्षा प्राप्त की और देश के समक्ष मुनि श्रेष्ठ ज्ञानसागर का परिचय आया - प्रकृति ने १९५८ एवं १९५९ को इस संयोग को भावी संयोग का संकेत दिया था। यह जयकुमार आपकी परम्पराओं में दीक्षित होकर मुनि सुधासागर बनकर आपको दादा गुरु के रूप में स्वीकार कर आपके मेधावी प्रशिष्य बनेंगे तथा अपने दादा गुरु की जन्म एवं धर्म साधक स्थली राजस्थान में विहार कर दादा गुरु ज्ञानसागर की साहित्य साधना का शंखनाद कर साहित्य जगत के मनीषियों को जागरूक कर आ. ज्ञानसागर की कृतियों को साहित्य जगत के सार्वोच्य आसन पर विराजमान करेंगे।

     

    उनके बाल्यकाल से अब तक के आये पड़ावों पर दृष्टि डालें तो याद आयेगा कि एक मायने में सन् १९०२ से ही भूरामल का पल-पल कठिन सूत्रों से बीत रहा था, वही वह समय था जब १० वर्षीय भूरामल को पितृ-वियोग सहना पड़ा था। क्या दिन, क्या रात, उनके सामने परेशानियों के पहाड़ के अतिरिक्त कुछ न था। बनारस से पढ़कर आ गये, घर में जम गये, कुंवारे रहने की घोषणा में सफलता पा गये, उसके बाद भी दुर्दिनों ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। मगर वे निर्धनता से तनिक भी भय नहीं खाते थे, क्योंकि उन्होंने प्रारम्भ से ही परिग्रह का बोझ धारण नहीं किया था, वे तो सदा उत्तम आकिञ्चन्य की मर्यादाओं में जीने की कला पा चुके थे। संसार से कुछ न लेने का भाव, मगर अपने समीप का सब कुछ वितरित कर देने का मन वे जीवन भर बनाये रहे। श्रावकों तो श्रावकों की, वे दिगम्बरों तक की झोलियों में अपने ज्ञानकण भरते चल रहे थे।

     

    शास्त्री आचार्य की विद्यालयीन योग्यता प्राप्त पं. भूरामलजी शास्त्री वय के चालीस-पैंतालीस वर्ष भी पूरे नहीं कर पाये थे कि उनके ज्ञान और अभ्यास की ख्याति देश में स्थित/उपस्थित श्रावकों और विद्वानों तक जा पहुंची थी। फलत: समाज में अध्यापन का कार्य करने वाले निस्पृह पंडित भूरामलजी को मुनिसंघों के सदस्यों को पढ़ाने के लिये भी आदर सहित आमंत्रित किया जाने लगा था। रस, अलंकार, छंदों से सम्पन्न उनके व्याकरण साध्य काव्यलेखन ने तीव्रगति धारण कर ही ली थी, तो अध्यापन कार्य ने प्रभावशीलता धारण कर ली थी। उनका संस्कृत साहित्य का लेखन भी प्रगति कर गया कि जो, संस्कृत लेखन का कार्य, देश में चौदहवीं शताब्दी से रुका सा पड़ा था, विद्वानों के मध्य, वह, उनकी लेखनी से नव-विहान पा गया था।

     

    जैनधर्म, जैन साहित्य के साथ-साथ भारतीय संस्कृति को प्रदीप्त रखने का श्रमपूर्ण संघर्ष पं. भूरामल ने ही किया, जो बाद में देश के लिये उदाहरण बन गया। एक या दो नहीं, चार महाकाव्यों की रचना अकिञ्चन भाव के सौदागर श्री भूरामलजी ने ही पूर्ण की थी। कुल २८ ग्रन्थ रचे थे। सन् १९५३ तक तो वे अपने परिवार में आते-जाते रहे, कभी माता की सुध ली, कभी भाइयों की, मगर जब पूज्य माँ घृतवरीजी का निधन हो गया तो वे घर में अधिक समय तक न बँधे रह सके और कुछ ही समय के बाद सन् १९५५ में वे मुनिसंघ में शामिल हो गये। पूज्य आचार्य वीरसागरजी महाराज ने उन्हें क्षुल्लक दीक्षा प्रदान कर उनके मन से भव-भय का क्रम समाप्त कर दिया।

     

    यों जब वे ५६ वर्ष के थे, तब वर्ष १९४७ में पू. आचार्य वीर सागरजी एवं पूज्य क्षुल्लक शिवसागरजी के प्रभाव में कुछ अधिक ही आ गये थे, परिणाम यह हुआ कि स्वेच्छा से, स-विधि, उन्होंने १९४७ में ब्रह्मचर्य-प्रतिमा धारण कर, वात्सल्य और समर्पण से चारित्र पथ पर चलने का उद्देश्य प्रकट कर दिया था। मगर बाद में क्षुल्लक दीक्षा धारण कर उन्होंने यह भी सिद्ध कर दिया था कि जीवन की अवधि का तीन चौथाई से अधिक भाग एक जैन पंडित/शास्त्री/विद्वान के रूप में व्यतीत करने के बाद भी वे एक दिगम्बर-सन्त बनने का अत्यन्त उत्तम लक्ष्य मन में रखते हैं। पंडितगण जो मरते -मरते तक दिगम्बरत्व धारण करने से बचते रहे हैं, वे पं. भूरामल मरण के पूर्व एक महान संत का भी सफल जीवन जी सके। पंडित, जो मात्र पढ़ने-पढ़ाने, बोलने बुलवाने और लिखने तक अपनी चर्या प्रसारित कर पाते हैं, वे पंडित जी दर्शन, ज्ञान और चारित्र की चुनौती स्वीकार कर एक दिन दिगम्बर साधु के महान स्वोपकारी एवं परोपकारी पद तक पहुँच सके। वे धन्य हैं।

     

    सन् १९५५ से १९७३ तक कुल १८ वर्ष ही साधु जीवन जी| सके थे, शेष अवधि शिशु, किशोर, छात्र और पंडित के रूप में निकाल दी थी। परमपूज्य आचार्य १०८ श्री विद्यासागरजी महाराज जब दीक्षार्थ उनके पास पहुंचे थे तब वर्ष १९६७ का समय चल रहा था, अत: कहा जा सकता है कि पू. विद्यासागर महाराज को अपने पूज्य गुरु ज्ञानसागर जी के पास मात्र छ: वर्ष ही रहने/रुकने मिला था। अनोखे थे वे छ: वर्ष। (चलें मूल कथा की ओर) मुनि दीक्षा के कई वर्ष बाद प्रबुद्धजनों के मन में एक विचार स्पष्ट हुआ कि पू. आचार्य शिवसागरजी महाराज ने अपने जीवन में अनेक व्रतियों को मुनि दीक्षा प्रदान की है। उनके सर्व प्रथम शिष्य पू. ज्ञानसागरजी थे, फिर पू. ऋषभसागरजी महाराज, पू. भव्यसागरजी महाराज, पू. अजितसागरजी महाराज, पू. सुपार्श्वसागरजी महाराज, पू. श्रेयांससागरजी महाराज और पू. सुबुद्धिसागरजी का क्रम बना, पर जो प्रभावना पू.ज्ञानसागरजी ने स्थापित की थी, वह अन्य व्रती नहीं कर पाये। यों सब एक ही डाल के पुष्प हैं, पर पुष्पा/सुगन्ध जुदा-जुदा रही। पू. शिवसागरजी के संघ में मनीषी और तपस्वी मुनियों की तरह अनेक विदुषी-आर्यिका-मातायें एवं ऐलक की क्षुल्लकगण भी उपस्थित थे। उनका विशाल संघ देश में धर्म के पथ पर चारित्र की कंदीलें सजाता चल रहा था।


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