सन् ६८ भी सन् ६७ की तरह रहा पू. ज्ञानसागरजी के संघ में । एक मायने में जुलाई ६७ से १० जून ६८ तक मुनि ज्ञानसागर हर पल एक ज्ञानरथ अपने मानस से चलाते जो अगले ही पल ब्र. विद्याधर के मानस में उतर जाता। समय के वे ग्यारह-बारह माह गम्भीर अध्यापन और अध्ययन के रहे गुरु-शिष्य के मध्य । ज्ञानसागरजी विद्याधर को कई-कई घंटे पढ़ाते थे और विद्याधर जितने घंटे पढ़ते थे, उतने ही घंटे एकान्त में बैठकर उसका चिन्तन-मनन करते, पाठ्यक्रम को हृदयंगम करते, पढ़े हुए पाठों-सर्गों को घोकते, याद करते । प्रतिदिन ८-१० घंटे का क्रम रहता था, परन्तु बीच-बीच में वह समय १५-१६ घंटे तक भी रहा है। गुरु ने दिन भर में यदि दो बैठकों में कुल ८ घंटे पढ़ाया है तो शिष्य ने उसने बाद आठ घंटे अपनी ओर से और दिये उस पढ़े हुए अंश को हृदय के शिलालेख पर उत्कीर्ण कर देने के लिये।
श्रावक कहते हैं - न कोई सन्त इतना अधिक और इतना ललित पढ़ा सकता है तथा न कोई शिष्य इतने अधिक घंटों तक रोज अध्ययन कर सकता है। विद्या धर दिन में ही नहीं, रात में भी तीन बजे तक पढ़ते रहते थे। कजौड़ीमलजी ने जब कभी रुक कर ध्यान दिया है। तो उन्हें तो यही लगता था कि यह ब्रह्मचारीजी तो सारे दिन पढ़ते हैं। और सारी रात याद करते हैं। निद्रा/सोने का कार्य कब करते हैं, समझ में ही नहीं आता। कौन जानता था कि जो विद्याधर सोने तक के लिये समय नहीं देते, वे चुपचाप अपना सम्पूर्ण भविष्य ‘सोने' का बना रहे हैं। सोने का भविष्य माने भावही जीवन को स्वर्ण मंडित कर रहे हैं, गुरु ज्ञानसागर के ज्ञान रूपी सोने से।
ज्ञानसागरजी को विद्या के साथ-साथ उनकी दैनिक चर्या भी प्रभावित करने लगी थी। कठिन तपस्या, स्व कर से स्व केश कुंचन, मुनियों जैसे व्रत-उपवास की स्वीकृति और निर्विघ्न । एक चटाई पर रात निकालने का संकल्प, उदासीन भाव, गुरुसेवा की ललक पिच्छिका बनाने की कला, श्रावकों से अत्यंत सीमित वार्तालाप अनेक महत्त्वपूर्ण और साधुत्वोचित लक्षण देख कर उन्हें लगा कि शिष्य को वस्त्र भार से मुक्त कर शिव-पथ पर आरूढ़ कर देना चाहिए। उसी माह में ही, पू. ज्ञानसागरजी के अनेक भक्तों ने पूछागुरुवर । अब ब्र. जी को दीक्षा कब दे रहे हैं। गुरुवर ऐसे प्रश्नों के उत्तर न देते थे, मौन रखते थे, पर उस दिशा में सोचना द्विगुणित कर देते थे। धीरे-धीरे एक दो पंडितों और एक दो श्रेष्ठियों तक चर्चा गई, फिर पंडितों और श्रेष्ठियों ने गुरुवर से चर्चा की।
चर्चाओं का क्रम इतना बढ़ गया कि कुछ जन कहते कि दीक्षा देने में क्या आपत्ति ? चाहे जब दे सकते हैं तो कुछ जन बोले - अभी ब्र. जी युवक हैं, पहले क्षुल्लक दीक्षा उपयुक्त रहेगी, फिर बाद में अन्य पदों की दीक्षायें। सबकी बातें सुनने के बाद, गुरुवर ज्ञानसागरजी ने समाज को अपना निर्णय सुना दिया- ३० जून ६८ को विद्याधर को मुनि दीक्षा प्रदान की जावेगी, तदनुसार व्यवस्थायें बनायी जावें। श्री भागचंद सोनी, समाज प्रमुख, ने सीधी मुनि दीक्षा की बात सुनी तो गुरुवर को समझाने का सविनय प्रयास करने लगे। समय की खोज में थे कि कब बात करें उनसे। विद्याधर को दीक्षा आदि का संकल्प-विकल्प मन में नहीं था, वे अध्ययन के बाद गुरु सेवा में लग जाते थे। गुरुवर को गठियावात का कष्ट था, विद्या उनके जोड़ों को सहलाते रहते, कभी हाथ की कोहनियों पर हल्का मर्दन करते तो कभी पैरों के घुटनों पर। कभी कमर दबाते रहते तो कभी तलवों को। श्रद्धा से सनी हुई हथेलियों का स्पर्श चुपचाप ही गुरु ज्ञानसागर से वह वार्ता कर लेता जो विद्या के अधर न कर पाते।
कई बार ज्ञानसागरजी को लगता कि विद्या के स्पर्श में जादू है, जहाँ हाथ धर देता है, वहाँ का दर्द चला जाता है। सत्य तो यह है कि वे प्रिय शिष्य के सेवा भाव से चकित हो पड़े थे, कहते- तू वैद्य बनकर आया है मेरी देख-रेख के लिए? कैसे सीखा तूने वैयावृत्ति का यह वेदना-निग्रह-गुण। वे महान ज्ञानी मुनि रोज-रोज विद्या के स्पर्श में सेवा, आदर, श्रम, कर्मठता, विनम्रता, लगन, निष्ठा और निष्कपटता के मंगलभावों की पड़ताल करते चल रहे थे। भागचंदजी एक जागृत श्रावक थे। चिंतन के धनी। समाज सेवा में अग्रणी। मुनि सेवा में समर्पित । समय पाकर एक दिन गुरुवर के कक्ष में मित्रों सहित जा पहुँचे, नमोऽस्तु के बाद निवेदन किया- गुरुवर आप प्रकांड विद्वान हैं, महातपस्वी हैं, निर्विकार निर्ग्रन्थ हैं, मात्र २२ वर्ष की उम्र के युवक को मुनि पद की कठिन डगर पर क्यों डाल रहे हैं? पहले क्षुल्लक बनाइये, चर्या देखिये, फिर आगे के लिये सोचिये।
गुरुवर अपनी गुरु गम्भीर वाणी में बोले- मैंने उस युवक को परख लिया है, वे मुनिचर्या में सफल भर न होंगे, बल्कि मुनिपद की गौरव-गरिमा भी बढ़ायेंगे। भागचंदजी हाथ जोड़कर कहने लगे- अभी कुछ वर्ष मुनिदीक्षा न दीजिए।
- क्यों ? पूछ बैठे गुरुवर।
- उम्र और अनुभव कम है।
- मुनिपद के लिये क्या उम्र होना चाहिये, क्या अनुभव होना चाहिये ? कहीं कोई अर्हतायें लिखीं हो तो बतलाइये ?
- जी यह तो नहीं मालूम, पर हमारा मन कहता है कि ....
- मन के कहने पर चल रहे हैं आप ? जो देख रहे हैं, जो जीवन का यथार्थ है, उसके कहने पर कब ध्यान देंगे ?
- बस दो-चार वर्ष के लिये ही रोक रहा हूँ।
- क्यों ?
- अभी उम्र कच्ची है।
- कच्ची और पक्की उम्र वर्ष या फल-छिन से नहीं बनती, वह आत्मतैयारी से बनती है। भीतर की परिपक्वता से।
- गुरुवर, हम दो चार लोग नहीं, सारा समाज कह रहा है कि उम्र अभी कच्ची है।
- हम त्यागीजन, समाज को नहीं, आगम को कसौटी मानते हैं।
- तो भी महाराज, पहले उन्हें साल दो साल के लिये क्षुल्लक या वर्षी जी के पद पर रखिये।
श्रेष्ठियों की वार्ता से क्षोभ हो आया गुरुवर को। पर वे महान ज्ञानी संत उसे मन ही मन दबा गये, फिर वात्सल्य गंगा उलीचते हुए बोले सम्मुख बैठे प्रमुखों से - कोई मुमुक्षु कोई जिज्ञासु, कोई श्रावक मेरी या आपकी इच्छा से वर्णी/क्षुल्लक ऐलक/मुनि बने- यह सम्भव नहीं है, शुभ नहीं है, प्राकृतिक नहीं है। कोई व्यक्ति मुनि ‘बनता' नहीं, ‘हो जाता है। मैं उसे ‘बना नहीं रहा, वह हो रहा है। मुन्यवस्था धारण कर रहा है। मैं तो निमित्त मात्र हूँ। आपकी बातें “मैं नहीं मान सकता, मैं मान भी जाऊँ तो उसे आपका कहना मानने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता । तपसी गण तप का भाव अपनी क्रियायें देख कर ही बनाते हैं, वे बाह्यतत्त्व पर सोचने या रुकने को विवश नहीं हैं। यदि उनके भीतर मुनि-अवस्था धारण करने का दृढ़ संकल्प है तो मैं या आप क्या, पूरा देश उन्हें नहीं रोक सकता। वह अपनी साधना के बल पर देश के किसी भी मंदिर में मुनि-अवस्था धारण करने स्वतंत्र हे। फिर मैं या आप बाधा क्यों बने?
- ठीक है, महाराज ! जैसा आप उचित समझें, किन्तु पात्र की दृढ़ता ?
- देख ली मैंने। तपस्वी के संकल्पों की तरह दृढ़ है वह और उसकी पात्रता।
- आपके पास आये, उन्हें मात्र ग्यारह माह हुए हैं, सो ताड़ना, प्रताड़ना, परीक्षण, अवलोकन भी तो आवश्यक है ?
ज्ञानसागरजी मुस्कराये, फिर बोले- वह सब कर चुका हूँ। पुष्प-सा कोमल दीखनेवाला वह युवक भीतर से कड़ा और स्वावलम्बी है, निजाश्रित है। उसे सुकोमल ही न मानते रहिये, वह कंटक की तरह कड़ा भी है- धर्म, चारित्र और तप के कठिन आवरण में भिद सकता हैं। आँधी आने पर फूल-साा झर तो सकता है, पर उसे देख डर नहीं सकता।