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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • ज्ञान का सागर : क्रमांक - 15

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    धर्मचन्द पढ़ते हुए यह नहीं जान पाये थे कि पूज्य मुनिवर संस्कृत के कितने बड़े ज्ञाता हैं, अत: एक दिन उन्होंने मुनिवर से पूछा कि उनके पाठ्यक्रम में महाकवि कालिदास कृत ग्रन्थ 'अभिज्ञान शाकुन्तलम्' तो है ही, संस्कृत की एक गद्य पुस्तक तथा 'गीता' के कुछ अध्याय भी हैं - क्या पढ़ाने की कृपा करेंगे? पुस्तक और उसके विषयों की जटिलता देखते हुए धर्मचन्द वह एक भारी कार्य मान रहे। थे, अतः शंकित थे कि कहीं मुनिवर मना न कर दें, परन्तु मुनिवर ने तो सहज ही कह दिया - हाँ, देख लेंगे। कल से वे ग्रन्थ साथ लाना।

     

    दूसरा दिन, धर्मचन्द की अनुभूति में सर्वाधिक महत्त्व का दिन बन गया, जब उन्हें पूज्यवर ने एक-एक घंटे का समय देकर, तीन घंटों में तीनों पुस्तकों का शुभारम्भ करा दिया। उनका पढ़ाने का ढंग ऐसा था जैसे वे तीनों पुस्तकें उन्हें रटी हुई हों। सहजता से उनके मर्म का कथनोपकथनों से समझा देने का गुण पूज्यवर में कहाँ से आ गया - धर्मचंद चकित थे। उन्हें नहीं मालूम था कि पूज्यवर तो पहले ही ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ के स्तर पर चार-चार महाकाव्यों का पुनीत लेखन कार्य सम्पन्न कर चुके हैं।

     

    जब धर्मचन्द को मुनिवर के ग्रन्थों की जानकारी मिली तो उन्हें लगा कि वे अब तक एक विराट समुद्र की गोद में खेलते रहे हैं, उन्होंने गोद की सीमा पर ही ध्यान दिया था, समुद्र के ओर-छोर का पता लगाना ही भूल गये थे। धर्मचन्द पूज्यवर के ग्रन्थों और ग्रन्थों में स्थापित हुए उनके ज्ञान के हिमालय को देख कर आँखें फाड़े रह गये। उन्हें इतने महान विद्वान से पढ़ने का सौभाग्य मिला है, सोचकर धन्यधन्य हो रहे थे। परन्तु पू. मुनि ज्ञानसागरजी शिष्य धर्मचन्द की पात्रता से प्रसन्न होते हुए भी, अपने उद्देश्य को पूर्ण नहीं कर पा रहे थे। वे ऐसा शिष्य चाहते थे जिसे अध्ययन के बाद वापिस नहीं होना है। जिसे वे अपना उत्तराधिकारी बना सकें। धन या पीठ या संघ का नहीं, ज्ञान का उत्तराधिकारी।

     

    उनका विचार करना उचित था, क्योंकि वे सत्तर वर्ष के हो चुके थे, काया में शिथिलतायें प्रवेश करने मुँह मार रही थी।सन् १९६२ का वर्षायोग चलता रहा। उनके चरणों को छूने और उनसे दो शब्द बतियाने के लिये लोग उन्हें तकते ही रहते थे, दिनभर में सैकड़ों दर्शनार्थी कृतकृत्य हो चले जाते थे। उनका वात्सल्य और आशीष सभी को मिलता था- क्या धनिक क्या निर्धन, क्या विद्वान क्या सामान्यजन और क्या ब्राह्मण और क्या अहिरवार। वे आगम प्रणीत मूल ग्रन्थों को पारायण करते थे और उसमें भरे ज्ञान का विड़ोलन कर जन-जन को बाँट देना चाहते थे।

     

    वे स्वत: हर ग्रन्थ की तलस्पर्शी टीका प्रस्तुत करते चलते थे। श्रावकों, पंडितों द्वारा लिखित ग्रन्थ या टीकायें कभी उन्हें प्रभावित नहीं कर सके। जो श्रावक उन्हें किसी श्वेत वस्त्रधारी पंडितों द्वारा रचित या प्रवर्तित ग्रन्थ पढ़ने देते थे, वे उन्हें तुरन्त सावधान करते कि प्राचीन आचार्यों द्वारा लिखित ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये, अन्य ग्रन्थों या टीकाओं को पढ़े तो दिग्भ्रमित होने से बचें। हम जीवन भर, निरंतर भी, यदि पढ़े तो भी आचार्य कुन्दकुन्द, आचार्य उमास्वामी, आचार्य पूज्यपाद, आचार्य जिनसेन, आचार्य समन्तभद्र और आचार्य अकलंक स्वामी के ग्रन्थ पूरे-पूरे न पढ़ पायेंगे, फिर आगम के नाम पर प्रकाशित किये जानेवाले आधुनिक अप्रमाणिक ग्रन्थों में समय क्यों नष्ट करें?

     

     

    सीकर के इस चातुर्मास में मुनिवर ने धार्मिक क्रियाकांड विषयक मान्यताओं के अतिवाद को तोड़ने का सुन्दर प्रयास किया। वे तेरहपंथी और बीसपंथी की धारणाओं पर तटस्थ रहते थे। सचित्त और अचित्त पर कोमलता से प्रकाश डालते थे। शासन देवता को नमस्कार करने वालों से कहते थे कि जो अव्रती हैं, वह किसी अन्य अव्रती को नमन करें तो समाज क्या कर सकता है ? अर्थात क्षेत्रपाल पद्मावती आदि असंयमी हैं, अत: आरती, पूजा के योग्य नहीं हैं। वे तो उक्ताशय की चर्चायें अपने कक्ष में आनेवाले श्रावकों द्वारा पूछने पर, कभी-कभार ही करते थे। इसी तरह पन्थवाद पर जब कभी समझाने की स्थिति आती थी तो वे स्पष्ट कह देते थे कि पन्थवाद दिगम्बर जैन रूपी वस्त्र पर निकल आये छिद्रों से अधिक कुछ नहीं है। जितने अधिक छिद्र होते जावेंगे, वस्त्र जर्जर होता जावेगा। एक समय ऐसा भी आ सकता है, जब कि वस्त्र कई हिस्सों में, फट कर, बँट जाये। अत: समझदार श्रावक छिद्र मात्र को सुधारने-सिलने का कार्य नहीं करते, अपितु पूरे वस्त्र को फटने से बचाने का प्रयास करते हैं।

     

    सीकर वर्षायोग में विद्वानों के समक्ष, प्रथम बार, उनके ज्ञान का पारावार देखने में आया था, लोगों ने जाना एवं स्वीकारा कि वे संस्कृत और हिन्दी साहित्य की पद्य और गद्य विद्या में समान अधिकार रखते हैं। यहीं पर उनके द्वारा रचित महाकाव्यों का लाभ भी विद्वानों को मिल सका, जिससे वे सगौरव कह सके कि पूज्य मुनिवर ज्ञानसागरजी महाराज में न्याय, पुराण, चारों अनुयोग, आगम्म-सिद्धान्त, आचार-शास्त्र, अध्यात्म और व्याकरण का प्रमाणित ज्ञान है, उन्हें इन सबका पंडित ही नहीं, महापंडित पुकारा जावे तो भी कम है। सीकर समाज का और भारत देश का सौभाग्य है कि सर्व ज्ञान समम्पन्न महापंडित और महामुनि ज्ञानसागर जी यहाँ की धूल को पावन स्पर्श प्रदान कर रहे हैं।

     

    जब लोगों का ध्यान उनकी आहार चर्या पर गया तो वहाँ भी चकित होने के क्षण आये, समाज को गौरवान्वित होने के क्षण आये। लोग बतलाते हैं कि मुनिवर यथा-उचित उपवास ही करते थे, अधिक उपवासों का कीर्तिमान बनाने की ललक उनमें नहीं थी। आहार सरलता से लेते थे, उनके आहार चलते समय, चौका में उपस्थित लोगों की घबड़ाहट या हड़बड़ी, उनके चेहरे का शान्तभाव देख कर अपने आप ही समाप्त हो जाती थी। वे आज्ञा देकर शूद्रजल त्याग कराने के चक्कर में नहीं पड़ते थे, बल्कि लोगों का मानस कुछ ऐसा प्रभावित कर देते थे कि वे स्वयं ही अनेकानेक छोटे-बड़े त्याग स्वीकारने लग जाते थे। जैसी उनकी विचारधारा सरलता के धरातल पर थी, वैसी ही उनकी दिनचर्या, और बाद में, जीवन-चर्या सारल्य से ओत-प्रोत बनी रही। सन् १९५९ से १९७३ तक उन्हें अनेक बार आहार देने का लाभ लेने वाली एक वृद्धामाता ने बतलाया था कि पू. ज्ञानसागरजी सदा सादाआहार लेते थे। लौकी की सब्जी और बेसन की पकौड़ी के लिये कभी मना नहीं करते थे।

     

    वे महान दूरदर्शी थे। आगम पर जब कोई विद्वान बोलता था तो वे पहले ही समझा देते थे कि जिस कथन से किसी को दु:ख हो, क्षोभ हो, वैसे कथन प्रवचन में न रखे जावें, तो हम अहिंसा के अधिक करीब हो सकेंगे। जिस लेखन से कोई विवाद उठे, वैसा लेखन न किया जावे तो श्रीजी की पूजा जितना लाभ हम प्राप्त कर सकते हैं। मुनि रूप में दीक्षा प्रदान करने का क्रम उन्होंने सीकर से प्रारंभ किया था, जब उन्होंने वहाँ की एक वरिष्ठ श्राविका, श्री धर्मचन्द जैन की माँ को दूसरी प्रतिमा के व्रत प्रदान किये थे। उस धर्मात्मा महिला रत्न का नाम था- श्रीमती देवी जैन।

     

    मुनिवर में एक विशेषता बड़ी रोमाञ्चक थी, जब वे किसी गृहस्थ को, पर्वादि से समय-विशेष के लिये, ब्रह्मचर्य व्रत देते थे तो उन्हें जोड़ी से आने को कहते थे और वे जोड़ी को ही व्रत प्रदान करते थे। ऐसी जोड़ी में प्रथम निमित्त भूत बने थे वहाँ श्री धर्मचन्दजी। उन्होंने पर्वाधि तक के लिये व्रत लिया था। चातुर्मास पूर्ण होने को था, सीकर का धर्मप्रेमी समाज चिन्ता में पड़ गया था- ‘महाराज फिर विहार कर जायेंगे ? यहाँ अमृत की वर्षा कौन करेगा ? हमारे नयन उनके दर्शन कैसे कर पायेंगे ? आदि।' तब तक समाज के प्रबुद्ध जनों ने विचार किया कि उनके चातुर्मास की यादगार स्वरूप एक स्मारिका प्रकाशित करा ली जावे तो महाराज की सभी स्मृतियाँ हमारे पास सुरक्षित रह सकेंगी। प्रस्ताव को अंतिम रूप दिया गया, फिर समाज के सचेतकों ने स्मारिका-सम्पादन का दायित्व श्री धर्मचन्द पर डाल दिया । समाज का आदेश मान कर धर्मचंदजी ने अपने युवकोचित-ज्ञान से एक महत्त्वपूर्ण स्मारिका का सम्पादन किया, जिसके मुखपृष्ठ पर पू. ज्ञानसागर महाराज का चित्र सदा सीकर में उपस्थित रहने का विश्वास दिला रहा था । (किन्तु जब यह कथा लिखी जा रही है, तब वह स्मारिका उपलब्ध नहीं है।)


    चातुर्मास निष्ठापना के बाद एक दिन मुनिवर सीकर से विहार कर गये। सम्पूर्ण सीकर रोता-बिलखता रह गया। सर्वाधिक बड़ा आघात लगा मुनिवर के प्रथम मानस पुत्र धर्मचन्द को, जिन्होंने दो वर्षायोगों में मुनिवर से वह सब कुछ प्राप्त कर लिया था, जिसके बल पर एक व्यक्ति सही श्रावक कहा जाता है। विद्वान कहा जाता है। भक्त कहा जाता है। 


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