केशलुञ्चन-क्रिया चल रही थी मंच पर, तब तक गुरुवर पंडितों को प्रवचन के लिये आदेश प्रदान कर देते हैं। पं. विद्याकुमार सेठी, श्री नाथूलाल वकील बूंदी, श्री के. एल. गोधा एवं पं. हेमचंद शास्त्री के वैराग्य वर्धक प्रवचन सम्पन्न हुए। ब्र. विद्याधर के माता-पिता की ओर से सम्मति प्रदान करने एवं गुरुवर का आभार मानने, उनके अग्रज श्री महावीरप्रसाद जैन एक भतीजे सहित पधारे थे। सम्बोधनों के लिये उन्हें भी माइक पर आमंत्रित किया गया, वे आये और अपने संक्षिप्त उद्बोधन से अपना मन्तव्य कह गये। अंत में समाज को श्री भागचंद सोनी का उद्बोधन सुनने मिला। उन्होंने गुरुवर को धन्यवाद प्रदान किया एवं दीक्षा श्रेष्ठता और सामयिकता का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए अजमेर के सौभाग्य की चर्चा की।
केशलुञ्च कार्य पूर्ण होते ही गुरुवर ज्ञानसागर उनके समीप जाकर खड़े होते हैं। पंडितगण थाली में पूजादि योग्य द्रव्य लेकर पास पहुँच जाते हैं। गुरुवर दीक्षा प्रदान कर संस्कारित करते हैं, अपने हाथों से द्रव्य चढ़ाते हैं, अपने अक्षरों से मंत्रों का उच्चारण करते हैं। गुरु का संकेत पाते ही विद्याधर वस्त्र छोड़ देते हैं। गुरुवर उनका नामकरण करते हैं- आज से आप मुनि विद्यासागर हो गये। धूप की तपन भूल कर लोग नव-मुनि के दर्शन में लीन थे। सभी दौड़कर उनके चरण स्पर्श कर नमोऽस्तु कर लेना चाहते थे। तब तक आकाश में उड़ रहे बादलों को लगा कि जब ये नागरिक चरण छूने की बात सोच सकते हैं तो हम तो सीधे उनका चरण प्रक्षाल कर सकते हैं।
आवारा-बादलों को कौन रोक सका है? देखते ही देखते वे ऊधमी बच्चों की तरह नसियान्जी के आकाश क्षेत्र पर दौड़ आये। सूरज के ताप को शिथिल कर लोगों तक शीतल छाया का संदेश भेजा। ताप तप्त लोगों ने राहत की सांस ली और धूप को बादलों के हाथ से हारते हुए देखा। लोग देख ही रहे थे कि तब तक बादल बरसना शुरू। कुछ मिनट तक वह क्रम रहा, फिर बन्द। तब लगा कि हजारों नागरिकों के मध्य बादल आये, अपने गुरुवर और मुनिवर के पैर पखारे और चले गये। पंडितों ने विचार किया कि भक्त रूपी बादलगण प्रकृति के प्रतिनिधि बन कर आये थे और साक्षात् गोमटेश्वरी दिगम्बर मुद्रा का महामस्तकाभिषेक कर चले गये। कवि गण सोच रहे थे- बादल बादल नहीं थे, वे जरूर देव थे, इन्द्र सहित आये थे और प्रथम अभिषेक का लाभ लेकर विलीन हो गये।
कुछ समय पानी रुक गया। बादल विहार कर गये। किरणों का आगमन हुआ। धूप ने फिर झंडा फहराने का प्रयास किया। जनसमूह प्रकृति का पावन परिवर्तन देख रहा था। उन्हें लगा यह सब गुरु और शिष्य के पुण्यों का प्रभाव है। बस ! भीड़ में सयाने थे तो बच्चे भी थे। अपने मनगढन्त विचार गुनने में लगे थे, उन्हें लगा कि ब्र. विद्याधर ने जैसे ही वस्त्र छोड़े, इंद्र का सिंहासन डोल गया, अत: उसने अपनी सम्मति दर्शाने के लिये बादलों का रूप लिया, नाचा, वर्षा की,. अभिषेक का लाभ लिया और चलता बना। पूज्य गुरुवर ने उन्हें स-ममंत्र पिच्छिका और कमंडलु प्रदान किये, आवश्यक निर्देश दिये और फिर दिया कल्याणकारी प्रवचन ।
उनकी आज्ञा से दो शब्ळ्द मुनि विद्यासागर ने भी बोले। समूह गुरु और शिष्य के दर्शनों में लीन था। अपार जनमेदिनी अपने नेत्र धन्य कर रही थी। युवा सम्राट मुनि विद्यासागर बालयति महावीर की तरह प्रतीत हो रहे थे। सब एक टक देख रहे थे। कोई आँखें हटाने तैयार नहीं था। सदलगा की धूल धर्म के सेहरा का फूल बन गई थी, अजमेर जहाँ सेहरा की चर्चा सबसे अधिक की जाती है, उस अजमेर में। विद्यासागर जी के दीक्षा संस्कार में पिता-माता बनने का गौरव, गुरुवर ज्ञानसागर के परमभक्त श्री हुकमचंद लुहाड़िया एवं उनकी धर्मपत्नी श्रीमती जतन कॅवरजी ने प्राप्त किया था। जो यश आज उक्त माता-पिता ने प्राप्त किया था, वह उस कार्यक्रम के २२ वर्ष पूर्व सदलगा में भी एक माता और पिता ने प्रकृति के माध्यम से पा लिया था।
तब पिता थे - श्री मलप्पाजी अष्टगे और माता थी श्रीमती श्रीमतीजी। अजमेर के मंच पर विराजित धर्म पिता-माता (लुहाड़िया दम्पति) ने गुरुवर ज्ञानसागरजी से आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत प्राप्त किया एवं भव सफल बनाने के सु-सूत्र हृदय में सजा लिये। कार्यक्रम पूर्ण हो गया। दूसरे दिन अजमेर की नसिया से आहार के लिये - एक नहीं, दो मुनिराज निकले। आगे गुरुवर ज्ञानसागरजी पीछे मुनिवर विद्यासागरजी। ज्ञानसागर के परम भक्त धर्मवीर भागचंद सोनी को प्रथम दिन प्रथम आहार का सौभाग्य प्राप्त हुआ, पू. मुनि विद्यासागरजी ने उनके चौके में उजास फैला दिया। दिगम्बरी-दीक्षा का आत्मकल्याणकारी महोत्सव हो गया पर , उसकी चर्चा रोज हर घर में चलती थी। वह उत्सव “समाज-कल्याणक' का हेतु भी बना है- जन सामान्य धीरे-धीरे समझ पाया।
ग्रीष्म के गरम दिन विदा ले गये। वर्षा ऋतु प्रारंभ होने को थी। चातुर्मास स्थापना की तिथि लोगों में भय पैदा कर रही थी कि कहीं गुरुवर ज्ञानसागर विहार न कर दें। श्रेष्ठिगण विद्वानों के साथ श्रीफल लेकर चाहे जिस दिन गुरुवर के समक्ष पहुँच जाते और वर्षायोग का समय माँगते रहते । गुरुवर सदा की तरह एक ही जबाब देते समय आने दीजिए, देखेंगे। अजमेर के सौभाग्य से वह समय भी आ गया जब आषाढ़ शुक्ल चौदस को विधि विधान के साथ गुरुवर ने ससंघ चातुर्मास की स्थापना नसियाजी परिसर में सम्पन्न कर दी। लोगों का खटका/संशय समाप्त हो गया। सब प्रसन्न थे- श्री संघ का समय मिलेगा निरंतर |
धीरे-धीरे पर्वराज-पर्युषण आ गये। अब संतों की व्यस्तता और बढ़ गई। पठन-पाठन और स्वाध्याय-प्रतिक्रमण के साथ-साथ प्रतिदिन २ बजे मध्याह्न से ४.३० तक मुनिवरों के प्रवचन होने लगते । पू. ज्ञानसागर की आज्ञा से पह्वले पू. विद्यासागरजी बोलते थे, बाद में गुरुवर । लोग गद्गद होते गुरुभक्त श्री कजोड़ीमलजी लगभग पूरे दिन ही संघ के समीप बने रहते थे, वे आहार एवं जलादि के लिये ही घर पहुँच पाते थे, अन्यथा पूरा दिन श्रीसंघ के पास बिताते । कभी मुनिवर ज्ञानसागरजी से बतियाते रहते तो कभी मुनि विद्यासागरजी से।
नवदीक्षित मुनिराजजी बातें कम, संकोच अधिक करते थे, अत: कजौड़ीमल ही क्या, अनेक श्रावक उनसे वार्ता सुख न पा पाते थे। पर्वराज का महत्त्व द्विगुणित करने के लिये समाज ने ब्यावर से श्री पं. हीरालालजी जैन सिद्धान्त शास्त्री को आमंत्रित कर लिया था, वे वहाँ ऐलक पन्नालाल-सरस्वती भवन के सुविख्यात व्यवस्थापक थे। श्री भागचंद सोनी सरावगी मुहल्ला स्थित मंदिरजी में प्रवचन का लाभ बाँट रहे थे।
संघ किसी भी नगर बस्ती में होता था, पर प्रतिवर्ष पू. ज्ञानसागरजी की प्रेरणा से वहाँ के समाज के सहयोग से चारित्र चक्रवर्ती पू. शांतिसागरजी मुनिराज का स्मृति दिवस अवश्य मनाते थे। वह अजमेर में भी मनाया गया। फिर कुछ समय पूर्व दिवंगत हुए मुनि सुपार्श्वसागरजी की पुण्यतिथि भी मनाई गई। (इन्हीं महाराज के नाम राशि तत्कालीन मुनि सुपार्श्वसागरजी, जो अन्यत्र चातुर्मास कर रहे थे, पृथक् थे ।) उसी वर्ष नागौरी गोठ छोटा-धड़ा के भट्टारक श्री देवेन्द्रकीर्तिजी का स्वर्गवास हो गया था, तब नागौरी गौठ में एक शांतिसभा भी भागचंद सोनी की अध्यक्षता में सम्पन्न की गई। गुरुवर वहाँ तो नहीं गये, पर उनका आशीष छोटा धडा पंचायत के सदस्य प्राप्त कर सके थे।
मुनि विद्यासागरजी के सिर के काले बाल बढ़ कर बतला रहे | थे कि उन्हें दीक्षा लिये तीन माह से अधिक हो गये हैं। मुनिवर ने गुरुवर से केशलुञ्च की आज्ञा ली । मिल गई, पर गुरुवर ने कार्यकर्ताओं को बतला दिया, अत: १८ अक्टूबर ६८ को भारी समारोह के मध्य मुनिजी की दीक्षा के बाद, प्रथमबार, केशलुञ्च हुए। समारोह कुछ अधिक ही खिंच गया; क्योंकि लुन्चन-क्रिया के चलते, वहाँ श्री भागचंद सोनी, पं. चम्पालाल, पं. विद्याकुमार, श्री निहालचंद, श्री अशोककुमार, श्री हेमचंद शास्त्री आदि विद्वज्जनों के सारगर्भित प्रवचन भी हुए। उसके बाद परमपूज्य ज्ञानमूर्ति ज्ञानसागरजी मुनि महाराज और पू. विद्यासागरजी (नये) महाराज के प्रवचनों का पुण्य भी जनता ने बटोरा।