दुनियाँ के मार्ग में सुख सुविधाओं की सम्पन्नता सहज ही देखने में आ जाती है। लेकिन जैनदर्शन में सुख सुविधा का परित्याग कर साधना करने का संदेश वीर प्रभु के द्वारा प्राप्त है। इसे असिधारा व्रत कहते हैं। यह तलवार की धार पर चलने जैसा कार्य है। शीतकाल हो या ग्रीष्मकाल हो स्थिति भोजन की शर्त है अर्थात् एक जगह खड़े होकर एक ही बार में भोजन व पानी ग्रहण करना वो भी ३२ अन्तराय, ४६ दोषों को टालकर। आचार्य कहते हैं अब नानी तो याद नहीं आ रही है। एक दिन का नहीं यह सारी जिन्दगी भर का व्रत है। इसे ही यावज्जीवन कहते हैं। व्रत यमरूप होता है, नियमरूप नहीं। नियम समय की मर्यादा को लेकर चलता है। यम जब तक घट में श्वास है, तब तक के लिए। चाहे मच्छर हो, मक्खियाँ हों, चींटी हों, शरीर का स्पर्श होने पर पिच्छिका से परिहार तो कर सकते हैं, जो नहीं करते हैं वो इस परीषह को सहन करने वाले होते हैं। नग्नता के मन में लज्जा का भाव नहीं आता है। विषयों में प्रत्येक क्षण अनासक्त भाव बना रहता है। स्त्रियों के हाव-भाव से प्रयोजन रहित विकथाओं से दूरी ही इनका धर्म है। चर्या की कठोरता में कोई समझौता नहीं और सिंहवृत्ति से पालन करना, इसे वीर चर्या संज्ञा प्रदान है। आसन की निश्चलता एक जगह बैठने पर प्रतिमायोग स्थिति कायम हो जाती है। शय्या अर्थात् बैठने, उठने का स्थान इसमें कोई चयन नहीं, जब भी लेटेंगे तो एक पार्श्व से दण्डवत् शयन करना। कटु वचन में समता, मारो काटो फिर भी आत्मा का कुछ नहीं बिगड़ता है, इस भाव में जीना समयसार का भाव है। याचना-माँगने करने की तो बात ही नहीं है। रोग के दिनों में समतारस का पान करना। मार्ग में चलते समय कोई चुभन हो जाये तो चेहरे पर मुस्कान बनी रहती है।मल परीषह, सत्कार, पुरस्कार, ज्ञान-अज्ञान, अदर्शन आदि में ५० वर्षों में साम्य भाव, अहंकार रहितता का दर्शन हुआ है।