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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • २५. बारह तपों में निमग्न

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    आचार्य श्री ज्ञानसागरजी गुरुदेव से कहते थे, नौ तपा से बारह तप बड़े हैं। गुरु के वचनों का परिपालन करते हुए गुरुदेव की समाधि के बाद भी अनशन तप को स्थान देते रहे, ४८ घंटे श्मशान घाट में ध्यान में निमग्न रहे। भूख से कम भोजन नित्य आहारचर्या में आ गया। विशेष विधि से आहार को ग्रहण करना, नहीं मिलने पर बिना संक्लेश के अलाभ धारण कर प्रसन्न वदन बने रहना। रसपरित्याग तो ब्रह्मचारी बनते ही प्रारम्भ हो गया। भोजन में रसों का राजा नमक है। और भजनों में भजन का राजा सामायिक समता ध्यान है। इसे ही आत्म भजन कहते हैं। मीठा नहीं, सब्जी नहीं, फल नहीं, ड्रायफूट नहीं, नीरस में रस का आनन्द लेने वाले, गरुदेव आत्मानंद में नजर आते हैं। एकांतवास तो विद्याधर की अवस्था से प्रिय है। एक बार ब्रह्मचारी अवस्था में एकांत में बैठकर सूत्रजी का पाठ कर रहे थे। महिलाओं का आना प्रारम्भ हो गया। दूसरे दिन से स्थान बदल दिया, वैसा ही ठीक आज तक चल रहा है। कायक्लेश के बारे में क्या कहना, कभी काया की माया में नहीं उलझते। इसलिए श्रावकों को केवल चरणों की ही सेवा मिल पाती है, अन्य प्रकार की वैय्यावृत्ति तो मुनियों को भी दुर्लभ हुआ करती है। स्वयं को दण्ड देने की बात के बारे में क्या कहा जाये, यह दण्ड संहिता उनकी लाजवाब है। जब कोई चौके वाला पड़गाहन के समय भक्ति का अतिरेक कर चौके में ले जाने के लिए खींचातानी करता है तो वे अपने को ही दण्ड देते हैं। एवं अलाभ कर देते हैं। कभी श्रावक पर क्रोध नहीं करते हैं। जब भी बोलते हैं वचन विनय के द्वारा वैय्यावृत्ति रुग्ण साधुओं को अंतराय वालों को अपने से पहले आहार को निकालना स्वाध्याय निष्ठ तो हैं ही इसी प्रकार ५० वर्ष ध्यान, स्वाध्याय में व्यतीत कर शिष्यों को अपने कर्तव्य में व्यस्त रहने का संदेश अपनी चर्या, क्रिया से देते रहते


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